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सोमवार, 27 जनवरी 2025

252. चम्पारण सत्याग्रह-7

राष्ट्रीय आन्दोलन

252. चम्पारण सत्याग्रह-7


बरहरवा लखनसेन गांव में देश का पहला बुनियादी स्कूल

बिहार में अज्ञानता, अशिक्षा, पिछड़ापन और दरिद्रता

गांधीजी के प्रयासों से चंपारण के लोगों को अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति मिली। लेकिन चंपारण में उनका काम अभी भी अधूरा था। गांधीजी कभी भी बड़े राजनीतिक या आर्थिक समाधानों से संतुष्ट नहीं हुए। चंपारण के किसानों की दुर्दशा का मुख्य और तात्कालिक कारण शोषण की व्यवस्था को समाप्त करना ही जिले में गांधीजी की गतिविधियों का दायरा समाप्त नहीं करता। उन्होंने चंपारण के गांवों में सांस्कृतिक और सामाजिक पिछड़ेपन को देखा और वह तुरंत इसके बारे में कुछ करना चाहते थे। चंपारण में कदम रखते ही गांधीजी ने देखा कि निलहे गोरों के अत्याचार से भी ज़्यादा दुखदायी स्थिति तो बिहार में अज्ञानता, अशिक्षा, पिछड़ापन और दरिद्रता के रूप में थी। अगर किसानों की स्थिति में सुधार करना है तो गांव के स्तर पर बहुत काम करने की जरूरत है। गांवों में मामूली शिक्षण व्यवस्था भी नहीं थी। इन लोगों की स्थायी सहायता करने के उद्देश्य से उन्होंने अखबारों में सेवा भावी शिक्षकों के लिए आम अपील छपवाई। इसका परिणाम यह हुआ कि बेलगाम से दादा गंगाधरराव देशपांडे ने तुरंत बाबा साहब सोमण और पुंडलीक को और मुंबई से अवंतिकाबाई गोखले को चंपारण भेजा। तमिलनाडु से आनंदीबाई वैशंपायन आईं। इन्हीं दिनों गांधीजी का परिचय महादेव देसाई और नरहरि पारिख से हुआ। ये दोनों अपनी-अपनी पत्नी दुर्गाबहन देसाई और मणिबहन पारिख के साथ चंपारण पहुंच गए। गांधीजी ने काम में मदद के लिए आश्रम से छोटेलाल, सुरेन्द्रनाथ, कस्तूरबा और देवदास को बुला लिया।

8 नवंबर को गांधीजी अपने स्वयंसेवकों के साथ बंबई से चंपारण पहुंचे। एक तरफ तो तिनकठिया पद्धति के खिलाफ किसानों का काम चला ही था, लेकिन इससे उनका काम सम्पूर्ण नहीं होता था। गांधीजी को तो सारी जनता के अंदर चेतना जगानी थी। उन्होंने लिखा: "जैसे-जैसे मुझे बिहार का अनुभव होता गया, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि उचित ग्रामीण शिक्षा के बिना स्थायी प्रकृति का काम असंभव है। किसानों की अज्ञानता दयनीय स्थिति थी।"

11 नवम्बर को मुजफ्फरपुर में बोलते हुए गांधीजी ने कहाः चम्पारण के लोगों ने एक प्रकार से स्थानीय स्वशासन प्राप्त कर लिया है। अब समस्या यह है कि इसका उपयोग कैसे किया जाए। बाबू ब्रजकिशोर तथा अन्य लोगों ने मिलकर यह निर्णय लिया है कि सभी स्थानों पर विद्यालय खोले जाएं तथा लोगों को सामान्य ज्ञान, विशेषकर स्वच्छता के नियमों की शिक्षा दी जाए। इसका उद्देश्य है कि लड़के-लड़कियों को अक्षरशः शिक्षा दी जाए तथा उन्हें स्वयं को स्वच्छ और साफ-सुथरा रखने के लिए आवश्यक स्वच्छता के बारे में बताया जाए, तथा वयस्कों को सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा सड़कें, अप्रयुक्त (और प्रयुक्त) कुएं, शौचालय आदि साफ रखना सिखाया जाए। इस उद्देश्य से चाका नामक स्थान पर मंगलवार के शुभ दिन एक विद्यालय खोला जाना है। इस कार्य के लिए स्वयंसेवकों की अत्यन्त आवश्यकता है। जो भी शिक्षित मित्र इच्छुक हों, वे आगे आएं। जो आगे आएंगे, उनकी जांच की जाएगी तथा उनमें से जो योग्य पाए जाएंगे, उन्हें काम पर रखा जाएगा।

सभी साथी स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा, आप लोग देहातों में जाएं और किसानों के बच्चों के लिए स्कूल चलाएं। इन स्वयंसेवकों ने छह गांव चुने। प्रत्येक गांव में एक पुरुष और एक महिला रहने लगे। गांव के चौपाल में इन्हें रहने के लिए एक कमरा दे दिया गया। गांधीजी ने 13 नवंबर, 1 9 17 को पूर्वी चंपारण के ढाका में जिला मुख्यालय से पूर्व में 30 किलोमीटर पूर्व बरहरवा लखनसेन गांव में पहली बार बुनियादी विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय का प्रभार बबन गोखले और उनकी पत्नी अवंतिकाबाई को सौंपा गया। यहाँ के किसान बक्षी शिव गुलाम लाल ने 4.5 एकड़ ज़मीन दान में दी थी।


भितिहरवा गाँव में फूस की झोपड़ी में खोला गया बुनियादी स्कूल

एक साधु ने स्कूल के लिए एक मंदिर की लगान-मुक्त जमीन देने की पेशकश की। इस तरह दूसरा विद्यालय 20 नवंबर को संत राउत की मदद से भितिहरवा में फूस की झोपड़ी में खोला गया, जो हिमालय की तलहटी में बेतिया के उत्तर में लगभग 40 मील की दूरी पर स्थित है। बेलगाम के एक सार्वजनिक कार्यकर्ता और बी.ए., एल.एल.बी. श्री सोमन को इसका प्रभार सौंपा गया और गुजरात के एक युवा श्री बालकृष्ण उनकी सहायता करने के नियुक्त किए गए। कस्तूरबा गांधी 24 नवंबर को उनके साथ शामिल हुईं।

तीसरा विद्यालय 17 जनवरी 1918 को मधुबनी में जी.डी. बिड़ला के घर में खोला गया। विद्यालय में नरहरी पारीख और उनकी पत्नी मणिबहन पारीख, महादेव देसाई और उनकी पत्नी दुर्गा देसाई तथा महिला विश्वविद्यालय, पूना की आनंदीबाई रहती थीं। विष्णु सीताराम रणदिवे और जे.बी. कृपलानी ने भी कुछ समय तक इस विद्यालय में काम किया। धरणीधर प्रसाद अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मधुबनी में रहकर विद्यालय के लिए काम करते रहे। मधुबनी स्कूल ने भी सराहनीय काम किया। इसमें लगभग 100 लड़के और 40 लड़कियाँ थीं। लड़कियों की देखभाल आनंदीबाई करती थीं। जब स्वयंसेवकों के मूल समूह को छोड़ना पड़ा, तो श्यामदेव नारायण और क्षीर ने उनकी जगह ले ली। स्कूल का खर्च पूरी तरह से जी.डी. बिड़ला ने उठाया।

इन विद्यालयों की स्थापना के पीछे उद्देश्य निरक्षरता से लड़ना और ग्रामीण लोगों के बीच जागरूकता पैदा करना था। स्वयंसेवकों ने इन विद्यालयों के माध्यम से सराहनीय कार्य किया। बबन गोखले और उनकी पत्नी द्वारा संचालित बरहरवा विद्यालय में 140 बच्चों और 40 महिलाओं और लड़कियों को न केवल साहित्यिक शिक्षा दी गई, बल्कि स्वच्छता और आरोग्य का भी प्रशिक्षण दिया गया। हिंदी और उर्दू में लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया। लोगों को कुंओं और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया। गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया। माता-पिता को अपने बच्चों को साफ-सुथरा रखने की शिक्षा दी जाती थी।

ये गांव के स्कूल बहुत किफ़ायती ढंग से चलाए जाते थे। एक शर्त यह थी कि गांव के लोग शिक्षकों को रहने-खाने की व्यवस्था करें। गांव के लोग स्वेच्छा से अनाज और दूसरी कच्ची उपज देते थे। स्वच्छता एक कठिन काम था। लोग खुद कुछ करने के लिए तैयार नहीं थे। यहां तक ​​कि खेत में काम करने वाले मजदूर भी खुद सफाई करने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन गांधीजी के लोग हिम्मत हारने वाले नहीं थे। उन्होंने सड़कें साफ कीं, कुंओं की सफाई की, तालाबों को भरा और गांव वालों को अपने बीच से स्वयंसेवक जुटाने के लिए राजी किया।

इन गाँवों के स्कूलों के बारे में गांधीजी ने लिखा था: "मैं जो स्कूल खोल रहा हूँ, उनमें बारह वर्ष से कम आयु के बच्चों को ही प्रवेश दिया जाता है। मेरा उद्देश्य है कि अधिक से अधिक बच्चों को शामिल किया जाए और उन्हें सर्वांगीण शिक्षा दी जाए, हिंदी या उर्दू का अच्छा ज्ञान दिया जाए और इस माध्यम से अंकगणित और इतिहास और भूगोल की बुनियादी बातों का ज्ञान दिया जाए, सरल वैज्ञानिक सिद्धांतों का ज्ञान दिया जाए और कुछ औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाए। अभी तक कोई निश्चित पाठ्यक्रम तैयार नहीं किया गया है, क्योंकि मैं एक नए रास्ते पर चल रहा हूँ। मैं हमारी वर्तमान व्यवस्था को भय और अविश्वास की दृष्टि से देखता हूँ। छोटे बच्चों की नैतिक और मानसिक क्षमताओं को विकसित करने के बजाय यह उन्हें बौना बना देती है। अपने प्रयोग में, जबकि मैं इसमें जो अच्छा है, उसका लाभ उठाऊँगा, मैं वर्तमान व्यवस्था के दोषों से बचने का प्रयास करूँगा। मुख्य उद्देश्य बच्चों का संस्कृति और अडिग नैतिक चरित्र वाले पुरुषों और महिलाओं से संपर्क कराना है। मेरे लिए यही शिक्षा है। साहित्यिक प्रशिक्षण का उपयोग केवल उस लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में किया जाना चाहिए। औद्योगिक प्रशिक्षण उन लड़कों और लड़कियों के लिए बनाया जाना चाहिए जो हमारे पास आजीविका के अतिरिक्त साधन के लिए आ सकते हैं। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे अपना वंशानुगत व्यवसाय छोड़ दें, बल्कि विद्यालय में प्राप्त ज्ञान का उपयोग कृषि और कृषि जीवन को परिष्कृत करने के लिए करें। हमारे शिक्षक वयस्कों के जीवन को भी प्रभावित करेंगे और यदि संभव हो तो पर्दा प्रथा को भी समाप्त करेंगे। वयस्कों को स्वच्छता और सामुदायिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त कार्रवाई के लाभों के बारे में शिक्षा दी जाएगी, जैसे कि गाँव की सड़कों को ठीक करना, कुएँ खोदना आदि। और चूंकि कोई भी विद्यालय ऐसे शिक्षकों द्वारा संचालित नहीं होगा जो अच्छे प्रशिक्षण वाले पुरुष या महिला न हों, इसलिए हम जहाँ तक संभव हो सके मुफ्त चिकित्सा सहायता देने का प्रस्ताव करते हैं।

गांधीजी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए। गांधीजी ने कस्तूरबाई से पूछा कि वे पूछें कि गांव की महिलाएं अपने कपड़े क्यों नहीं धोतीं। कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, "बा, आप मेरे घर की हालत देखिए आपको कोई सूटकेस या अलमारी दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं" उन दिनों एक पुरुष मजदूर की मजदूरी दस पैसे से अधिक नहीं होती थी, एक महिला की मजदूरी छह पैसे से अधिक नहीं होती थी और एक बच्चे की मजदूरी तीन पैसे से अधिक नहीं होती थी।

यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया था सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली 1918 में जब वो अहमदाबाद में कारखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते है, उसमें 'कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है' उन्होंने उस वक्त पगड़ी पहनना छोड़ दिया था 31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधीजी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली ताकि किसानों को कपास की खेती के लिए मजबूर ना किया जा सके मैनचेस्टर के मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,"आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा"

सफ़ाई ज्ञान का प्रारंभ

बिहार में जितनी अशिक्षा को दूर करने की आवश्यकता थी, उससे कहीं ज़्यादा लोगों को स्वच्छता और स्वास्थ्य के नियमों को समझने की ज़रूरत थी।  गोखलेजी के मित्र डॉ. देव छह महीने तक चंपारण के गांवों में रहे और लोगों की सेवा करते रहे। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के डॉ. एच.एस. देव मुख्य रूप से चिकित्सा शाखा की देखरेख कर रहे थे। भितिहरवा और आसपास के गांवों में लगभग 50 प्रतिशत आबादी बुखार से पीड़ित थी जो अक्सर जानलेवा साबित होता था। गांधीजी के कार्यकर्ता हर संभव सहायता कर रहे थे।

गरीब ग्रामीणों को ज्ञान देने में गांधीजी को बागान मालिकों का सहयोग चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने बाधाएं भी डालीं और स्कूलों को कारखानों से दूर खोलना पड़ा। बागान मालिकों ने गांधीजी की गतिविधियों पर नाराजगी जताई। भितरवा स्कूल को इसके उद्घाटन के तुरंत बाद, एक रात स्कूल में बनी फूस की झोपड़ियों में आग लग गई, या जैसा कि आम तौर पर माना जाता है, बागान मालिकों के आदमियों ने आग लगा दी। डॉ. देव, सोमन और अप्पाजी ने उस जगह पर एक पक्की इमारत खड़ी करने का फैसला किया। दिन-रात काम करते हुए, ईंट-गारा ढोते हुए, वे ऐसा करने में सफल रहे। गांधीजी बारी-बारी से स्कूलों का दौरा करते और उनमें सुधार के सुझाव देते। छह महीने के काम के बाद स्वयंसेवकों के पहले बैच की जगह एक नया बैच आ गया। चंपारण में, जहां पुराने समय में महान ऋषि तपस्या करते थे, गांधीजी ने अपने जीवन के मिशन को महसूस किया और एक ऐसा हथियार बनाया "जिससे भारत को स्वतंत्र बनाया जा सके"।

जब स्वयंसेवकों का पहला जत्था चला गया, तो उनकी जगह नारायण ताम्बाजी कटगोड़े, जिन्हें पुंडलिक के नाम से जाना जाता है, और एकनाथ वासुदेव क्षीरे ने ले ली। पुंडलिक को तुरंत बाद बिहार सरकार ने बाहर का आदेश दिया और शंकरराव देव ने उनकी जगह ले ली। वे कई महीनों तक भितिहरवा स्कूल में रहे।

कस्तूरबा भी चंपारण गयी थीं। एक दिन गांधीजी ने उनसे कहा, तुम क्यों कोई स्कूल नहीं शुरू करती? किसानों के बच्चों के पास जाओ, उन्हें पढ़ाओ।

कस्तूरबा बोलीं, मैं क्या सिखाऊं? उन्हें क्या मैं गुजराती सिखाऊं? अभी मुझे बिहार की हिन्दी आती भी तो नहीं।

गांधीजी बोले, बात यह नहीं है। बच्चों का प्राथमिक शिक्षण तो सफ़ाई का है। किसानों के बच्चे को इकट्ठा करो। उनके दांत देखो। आंखें देखो। उन्हें नहलाओ। इस तरह उन्हें सफ़ाई का पहला पाठ तो सिखा सकोगी। मां के लिए यह सब करना कठिन थोड़े ही है। यह सब करते-करते उनके साथ बातचीत करोगी, तो वे भी तुमसे बोलेंगे। उनकी भाषा तुम्हारी समझ में आने लगेगी और आगे जाकर तुम उन्हें ज्ञान भी दे सकोगी। लेकिन सफ़ाई का पाठ तो कल से ही उन्हें देना शुरू करो।

कस्तूरबा अगले दिन से वही करने लगीं, बालगोपालों की सेवा का असीम आनन्द लूटने लगीं। वह बच्चों को एकत्रित कर उनकी साफ-सफाई करतीं और उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखतीं। कस्तूरबा और देवदास चंपारण के अत्यंत पिछड़े और ग़रीब इलाके में काम किया।

गांधी जी सफाई को ज्ञान का प्रारंभ मानते थे।

यद्यपि गांवों में साक्षरता, स्वच्छता और सफाई को बढ़ावा देना विशुद्ध सेवा का कार्य था, किसी भी प्रकार के राजनीतिक आंदोलन से संबंधित नहीं था, और यद्यपि गांधीजी ने अपने द्वारा उठाए गए प्रत्येक कदम और अपने द्वारा स्थापित प्रत्येक विद्यालय के बारे में अधिकारियों को पूरी जानकारी दी और इस कार्य में अधिकारियों से सहयोग और सहायता भी मांगी, फिर भी प्रशासन उनके इरादों के प्रति सशंकित रहा।

यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने कस्तूरबा, मणिबेन पारीख और दुर्गाबेन देसाई जैसी अर्ध-शिक्षित महिलाओं का उपयोग चंपारण में स्कूल और औषधालय चलाने के लिए किया। उन्होंने अपने स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया और उन्हें तैनात किया। बीमारियाँ मुख्य रूप से मलेरिया के कारण बुखार, जठरांत्र संबंधी गड़बड़ी और दर्द और पीड़ा थीं। इसलिए उन्होंने अपने स्वयंसेवकों को स्वास्थ्य और स्वच्छता, आहार विज्ञान और बीमार होने पर उपवास या भोजन के सेवन को सीमित करने के महत्व के साथ-साथ भरपूर पानी पीने के महत्व के सरल नियम सिखाए। उन्होंने उन्हें केवल तीन दवाएँ दीं, कुनैन, अरंडी का तेल और सल्फर मरहम और उन्हें बताया कि उन्हें कब इस्तेमाल करना है और एक वयस्क और एक बच्चे को कितनी मात्रा में देना है। जिस किसी की जीभ पर लेप लगा होता था, उसे अरंडी के तेल की एक खुराक दी जाती थी - मलेरिया बुखार वाले किसी भी व्यक्ति को कुनैन और अरंडी का तेल दिया जाता था - त्वचा पर दाने वाले किसी भी व्यक्ति को मरहम और अरंडी का तेल दिया जाता था। इसके साथ ही स्वयंसेवकों, विशेष रूप से महिलाओं ने सावधानीपूर्वक देखभाल, परिवार और रोगी की शिक्षा को भी जोड़ा। यह उन सीधे-सादे ग्रामीणों के लिए वरदान था, जो चुपचाप पीड़ित होने और बिना इलाज के मरने के आदी थे।

चंपारण की घटना गांधीजी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। उन्होंने बताया, "मैंने जो किया, वह एक बहुत ही सामान्य बात थी। मैंने घोषणा की कि अंग्रेज मेरे अपने देश में मुझे आदेश नहीं दे सकते।" लेकिन चंपारण की शुरुआत विद्रोह के रूप में नहीं हुई थी। यह बड़ी संख्या में गरीब किसानों की परेशानी को कम करने के प्रयास से विकसित हुआ था। यह गांधीजी का विशिष्ट पैटर्न था: उनकी राजनीति लाखों लोगों की व्यावहारिक, दिन-प्रतिदिन की समस्याओं से जुड़ी हुई थी। उनकी निष्ठा अमूर्त चीजों के प्रति नहीं थी; यह जीवित मनुष्यों के प्रति निष्ठा थी। इसके अलावा, गांधीजी ने जो कुछ भी किया, उसमें उन्होंने एक नए स्वतंत्र भारतीय को गढ़ने का प्रयास किया, जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके और इस प्रकार भारत को स्वतंत्र बना सके। राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, 'उन्होंने हमारे मन की बात सही ढंग से पढ़ ली थी, इस तरह गांधीजी ने हमें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया।' आत्मनिर्भरता, भारतीय स्वतंत्रता और बटाईदारों की मदद, ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

रविवार, 26 जनवरी 2025

251. चम्पारण सत्याग्रह-6

 

राष्ट्रीय आन्दोलन

251. चम्पारण सत्याग्रह-6



1917

17 जून, 1917 को बेतिया से गांधीजी राष्ट्रीय विद्यालय के कार्यों और अन्य मामलों को देखने के लिए अहमदाबाद चले गए। 28 जून, 1917 को अहमदाबाद से डॉ. देवा, सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के सचिव के साथ मोतिहारी वापस आ गए। बयानों की रिकॉर्डिंग बंद होने के बाद, गांधीजी की स्वयंसेवकों की टीम अब एकत्रित किए गए विशाल डेटा के अध्ययन और विश्लेषण पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकती थी। अब तक उनके पास 850 गांवों के 8,000 से अधिक रैयतों के बयान थे। ये बयान 60 से अधिक कारखानों से संबंधित थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में आधिकारिक दस्तावेज और अदालतों के फैसले भी थे। इन सभी की जांच की जानी थी और जांच समिति के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले दस्तावेजों का चयन किया जाना था।

गर्मियों और शरद ऋतु के दौरान आयोग ने बेतिया, मोतिहारी और अन्य स्थानों पर बैठकें कीं, गवाहों से जिरह की, बयान दर्ज किए और नील की खेती करने वाले किसानों पर लगाए गए असंख्य करों और जबरन वसूली पर विस्तार से चर्चा की। 11 जुलाई को रांची में प्रारंभिक बैठक के बाद समिति ने 17 जुलाई से बेतिया और मोतिहारी में सार्वजनिक बैठकें शुरू कीं।

समिति में गांधीजी के शामिल होने से किसानों के मन में बड़ी उम्मीदें जगी थीं और बेतिया में बड़ी भीड़ उमड़ पड़ी थी। 16 जुलाई तक कम से कम दस हजार किसान इकट्ठे हो गए थे। सभी सदस्य समिति के काम में व्यस्त थे, लेकिन गांधीजी ने दोपहर में बाहर आकर उत्सुक ग्रामीणों से मिलना सुनिश्चित किया। एक संक्षिप्त भाषण में उन्होंने उन्हें समझाया कि समिति उनकी शिकायतों के निवारण के लिए बनाई गई है, उन्हें समिति की बैठक में बड़ी संख्या में नहीं जाना चाहिए और अगर उन्हें कोई शिकायत करनी है तो उन्हें उनके सहायकों के सामने ऐसा करना चाहिए।

17 जुलाई को बेतिया में गवाहों की परीक्षा शुरू हुई। मुज़फ़्फ़रपुर के जाने-माने वकील श्री कैनेडी बागान मालिकों की ओर से कार्यवाही देख रहे थे। गांधीजी के सहायकों और काश्तकारों को टिकट पर समिति में शामिल किया गया। बंदोबस्त अधिकारी श्री स्वीनी पहले गवाह थे और उनकी परीक्षा में पूरा दिन लग गया। 18 जुलाई को बेतिया राज के प्रबंधक और एक अधिकारी से पूछताछ की गई। अगले दिन राजकुमार शुक्ला ने काश्तकारों का पक्ष रखा। बेतिया में कुल पाँच बैठकें हुईं।

समिति के पास पहले से ही बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन, 25 रैयतों, बेतिया एस्टेट के प्रबंधक, बंदोबस्त अधिकारी, एस.डी.एम. बेतिया, आयुक्त, तिरहुत प्रमंडल और बिहार लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन के बयान और ज्ञापन थे। 17 से 30 जुलाई के बीच बेतिया और मोतिहारी में आयोजित आठ सार्वजनिक बैठकों में समिति ने 19 गवाहों से पूछताछ की। समिति के सदस्यों ने अनेक कारखानों और उनके अधीन गांवों का दौरा किया, कारखानों के अभिलेखों और खातों की जांच की तथा समिति से मिलने के लिए बड़ी संख्या में एकत्रित रैयतों से पूछताछ की। सरकार ने समिति को चंपारण जिले के इतिहास, आर्थिक स्थिति और पूर्व कृषि विवादों से संबंधित आधिकारिक अभिलेख भी उपलब्ध कराए थे। बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन के प्रतिनिधि जे.वी. जेम्सन से दो बार पूछताछ की गई - 26 जुलाई और 24 अगस्त को।

14 अगस्त तक बेतिया में अंतिम साक्ष्य दर्ज कर लिए गए थे। गांधी ने समिति के समक्ष कई किरायेदारों के बयान और अदालतों के कई फैसले पेश किए। समिति का काम फिलहाल खत्म हो गया और अगली बैठक सितंबर के आखिर में तय की गई। गांधीजी 16 अगस्त को अहमदाबाद के लिए रवाना हुए और राजेंद्र प्रसाद को चंपारण में काम का जिम्मा सौंप दिया। 22 सितंबर को गांधीजी रांची लौट आए।

23 सितम्बर रांची में लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर से बातचीत में चम्पारण में सरबेशी और स्वयंसेवकों के क्रियाकलापों की चर्चा की गई। सरबेशी में शामिल दो अन्य चिंताओं, अर्थात् जल्लाहा और सिरनी के मामले में, समिति ने सिफारिश की कि राशि 25 प्रतिशत कम होनी चाहिए।

3 अक्तूबर समिती के अन्य सदस्य के साथ रिपोर्ट साइन किया गया। 4 अक्तूबर समिति के रिपोर्ट को स्थानीय भाषा में छपाई हो इस विषय पर लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर को पत्र लिखा। समिति ने 4 अक्टूबर को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति ने पाया कि तिनकठिया प्रणाली अलोकप्रिय और लाभहीन थी और सिफारिश की कि चंपारण में नील उगाने की प्रणाली को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

समिति ने आगे सिफारिश की कि नील की खेती खुश्की प्रणाली के तहत की जानी चाहिए, जिसमें निम्नलिखित शर्तों का पालन किया जाना चाहिए: (1) काश्तकार को समझौते में प्रवेश करने या न करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए; (2) चयनित भूखंड पूरी तरह से रैयत की पसंद पर होना चाहिए; (3) कीमत समझौते द्वारा और पूरी तरह से वाणिज्यिक आधार पर तय की जानी चाहिए; (4) कीमत फसल के वजन के आधार पर निर्धारित की जानी चाहिए; और (5) कोई भी अनुबंध छोटी अवधि के लिए होना चाहिए, किसी भी मामले में तीन साल से अधिक नहीं।

नील की खेती करने के दायित्व के बदले लगाए जाने वाले सरबेशी पर समिति ने गांधीजी द्वारा तुरकौलिया, मोतिहारी और पीपरा के साथ किए गए समझौते का स्वागत किया।

कारखानों द्वारा रैयतों से लिए जाने वाले तवान या एकमुश्त भुगतान के बारे में समिति ने पाया कि अस्थायी रूप से पट्टे पर दिए गए गांवों में यह पूरी तरह अनुचित है और सिफारिश की कि ऐसे मामलों में बेतिया एस्टेट को पट्टे को नवीनीकृत करने से इनकार कर देना चाहिए। मोकरारी गांवों में, जहां इसे लिया गया था, समिति ने 10 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक की वापसी की सिफारिश की।

अबवाब के संबंध में, समिति ने बताया कि ये अवैध थे, लेकिन यह भी ध्यान दिया कि रामनगर एस्टेट में इन्हें व्यवस्थित रूप से लगाया जाता था, खासकर यूरोपीय ठेकेदारों द्वारा, जिन्होंने कभी नील की खेती नहीं की। इसके अलावा, जमींदारों के नौकर दस्तूरी नामक भुगतान पर कमीशन लगाते थे, जो समान रूप से अवैध था।

सरकार ने 6 अक्टूबर को जारी एक आदेश-परिषद द्वारा समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। 20 नवंबर 1917 को कार्यकारी परिषद के सदस्य डब्ल्यू. मौड ने विधान परिषद में चंपारण कृषि विधेयक, 1917 पेश किया। इस विधेयक में चंपारण कृषि जांच समिति की सिफारिशें शामिल थीं, जिसका विधान परिषद में बागान मालिकों के प्रतिनिधियों ने कड़ा विरोध किया। 29 नवंबर को श्री मौड द्वारा प्रस्तुत चंपारण कृषि विधेयक पारित हुआ और कुछ ही महीनों में कानून बन गया। जांच समिति की रिपोर्ट 4 मार्च 1918 को परिषद के विचारार्थ प्रस्तुत की गई। इसके तुरंत बाद विधेयक कानून बन गया।

चंपारण कृषि अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं: 1. तिनकठिया का उन्मूलन; 2. तुरकौलिया में सरबेशी में 20 प्रतिशत और अन्य कारखानों में 26 प्रतिशत की कमी; 3. काश्तकारों को नील उगाने के दायित्व से मुक्ति और स्वैच्छिक आधार पर नील उगाने की स्वतंत्रता; 4. अधिनियम द्वारा कवर किए गए मामलों के संबंध में मुकदमेबाजी को रोकने की व्यवस्था।

आधिकारिक जांच ने बड़े बागान मालिकों के खिलाफ सबूतों का एक बड़ा ढेर इकट्ठा किया और जब उन्होंने यह देखा तो वे सैद्धांतिक रूप से किसानों को पैसे लौटाने पर सहमत हो गए। उन्होंने गांधी से पूछा, 'लेकिन हमें कितना भुगतान करना होगा?' बागान मालिकों के प्रतिनिधि ने 25 प्रतिशत की सीमा तक वापसी की पेशकश की, और उनके आश्चर्य से गांधीजी ने उनकी बात मान ली।' जांच समिति की अनुशंसा के अनुसार, जिसे सरकार ने स्वीकार कर लिया, बेतिया एस्टेट में फैक्ट्रियों द्वारा वसूले गए तावान का 25 प्रतिशत हिस्सा किरायेदारों को वापस कर दिया गया। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने पूरे 100 प्रतिशत की वापसी क्यों नहीं की, तो उन्होंने जवाब दिया कि बागान मालिकों को काश्तकारों से चुराए गए पैसे का एक चौथाई भी वापस करने के लिए मजबूर करके उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया है।

घटनाओं ने गांधीजी की स्थिति को सही साबित कर दिया। कुछ ही वर्षों में ब्रिटिश बागान मालिकों ने अपनी जागीरें छोड़ दीं, जो किसानों के पास वापस आ गईं। नील की बटाईदारी खत्म हो गई। चंपारण में गांधीजी के साथ रहे कृपलानी ने लिखा कि गांधीजी ने अपने सत्याग्रह से जो हासिल किया, वह विभिन्न परिस्थितियों के संयोजन का परिणाम था। ये परिस्थितियाँ आम तौर पर मनुष्य और मनुष्य तथा समूह और समूह के बीच अधिक न्याय के पक्ष में थीं। यह भी सच है कि अगर गांधीजी ने पहला छोटा कदम नहीं उठाया होता, तो अंतिम परिणाम लाने वाली अन्य ताकतें लंबे समय तक निष्क्रिय रह सकती थीं।

चंपारण आंदोलन के परिणाम

जांच समिति की कार्रवाही के दौरान निलहे गोरे, जिनके विरुद्ध जांच समिति गठित की गई थी, गांधीजी के काम करने की शैली से काफ़ी प्रभावित हुए और उनको लगने लगा कि गांधीजी उनके सच्चे हितैषी हैं। समिति के पास ऐसे अनेकों प्रमाण थे, जिसके आधार पर निलहों के विरुद्ध अत्याचार, भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोप सिद्ध होते। यदि जांच समिति इन चीज़ों को अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ करती तो इन आरोपों से निलहों का बचना असंभव ही था। लेकिन चर्चा के आरंभ में ही गांधीजी ने कमेटी के निलहों को यह घोषणा कर  भयमुक्त कर दिया था कि उन्हें भूतकाल से इतना वास्ता नहीं है जितना कि वर्तमान और भविष्य से है। जो शिकायतें दर्ज़ की जा रही हैं उस पर कोई निर्णय कमेटी द्वारा नहीं दिया जाएगा। अगर नील की खेती की अत्याचारी प्रथा उठा ली जाती है और निलहों के जुल्म बन्द हो जाते हैं, तो इतने से ही उन्हें संतोष हो जाएगा।

अपनी जानकारी, दृढ़ता और धीरज से गांधीजी ने जांच-समिति में किसानों के मामले की पैरवी की। समिति ने किसानों की सभी शिकायतों को सही माना। गांधीजी ने समिति में मांग रखी कि भविष्य में किसानों का ऐसा शोषण न हो सके, इसकी गारंटी के तौर पर किसानों से जबरन वसूल की गई रकम की एक-चौथाई भाग रकम वापस कर दी जाए। समिति ने एक राय से निलहों से अनुचित रीति से लिए हुए रुपयों का एक भाग वापस करने और सौ वर्ष पुरानी दमनकारी तिनकठिया प्रथा को रद्द करने की सिफ़ारिश की। हालांकि अपने विपक्षी से आगे बढ़कर मिलने के लिए तैयार रहने वाले गांधीजी निलहों को भी एक छोटी-सी रियायत देने पर तैयार हो गए।

गांधीजी न सिर्फ़ अपना पक्ष विश्वासोत्पादक तरीक़े से रखते थे, बल्कि बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने विरोधी के पक्ष को भी समझने में रुचि रखते थे। उनकी इस दोधारी योग्यता से प्रभावित होकर आयोग का एक सदस्य जार्ज रेनी ने कहा था, श्री गांधी मुझे संत पॉल की याद दिलाते हैं। आम आदमी जैसे दिखने वाले इस राजनेता ने अपने थोड़े दिनों के प्रवास में नील साहबों का आतंक खत्म कर दिया। आम जनता को भय मुक्त कर दिया। एक ऐसा समझौता हुआ जिसमें दोनों पक्ष ख़ुश थे। किसानों को इस बात की ख़ुशी थी कि नील की खेती और उसके साथ जुड़े अत्याचार और उत्पीड़न का अन्त हो जाएगा। निलहों को यह ख़ुशी थी कि वे अत्याचारी और उत्पीड़क के रूप में सारी दुनिया के सामने धिक्कारे नहीं जाएंगे और ग़ैर-क़ानूनी ढंग से जो रुपए उन्होंने बटोरे थे वे सारे उनसे उगलवाए नहीं जाएंगे। विधान-सभा में गोरे निलहों के प्रतिनिधि के समर्थन से क़ानून पास हुआ। किसानों के बच्चों की शिक्षा के लिए जो स्कूल खोले गए थे, उन स्कूलों को निलहों ने आर्थिक मदद दी। चूंकि खेती में अब निलहों को फायदा नहीं हो रहा था, तो उन्होंने आने वाले वर्षों में अपनी ज़मीन कम दाम पर उन्हीं काश्तकारों को बेच दीं जिन्हें वे अरसों से सताते आ रहे थे। किसानों को अपनी ज़मीन वापस मिल गई। निलहों को पंजे से छुटकारा मिला। 

आम आदमी जैसे दिखने वाले गांधीजी ने यह सब किया अहिंसा और सत्य के सहारे। अपनी राजनीति को उन्होंने कसौटी पर कसा। चंपारण आंदोलन ने गांधीजी को भारत की आम जनता में विश्वास जगाया था। रूढ़िवादी परंपरा और आधुनिकता के विरोधाभासों के बीच ज़रूरत है चंपारण आंदोलन के भग्नावशेषों को पुनर्जीवित करने की। गांधीजी ने चंपारण में किसानों की ओर से जो साहसिक काम किया और इन कामों में उन्हें जो सफलता मिली उससे लोगों में उत्साह की एक लहर दौड़ गई। लोगों ने पाया कि वह अपने तरीक़ों का भारत में भी प्रयोग करने को तैयार हैं। लोगों में उनके तरीक़ों में सफलता की आशा दिखाई दी। चंपारण गांधीजी की भारत में पहली पाठशाला थी। यहाँ गांधीजी की पढ़ाई हुई। यहाँ से ही इस देश के लोगों और उनकी सादगी और सरलता की ताकत को उन्होंने पहचाना। आप जीवन में एक ठौर ढ़ूढ़ते हैं, जहाँ पैर टिका कर आगे बढ़ते हैं। चंपारण गांधीजी के राजनीतिक जीवन का एक ठौर था। उन्होंने भारतीय धरती पर अपनी पहली लड़ाई जीत ली थी।

चंपारण किसान आंदोलन देश की आजादी के संघर्ष का मजबूत प्रतीक बन गया था। देश को राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसी महान विभूतियां भी इसी आंदोलन से मिलीं।

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मनोज कुमार

 

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