गुरुवार, 4 सितंबर 2025

335. गांधी-इरविन समझौता-2

 राष्ट्रीय आन्दोलन

335. गांधी-इरविन समझौता-2

1931

 


गांधी इरविन समझौते के बाद

जिन शर्तों पर समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, ने समकालीनों और इतिहासकारों के बीच काफी विवाद और बहस को जन्म दिया है। इस समझौते को विभिन्न रूप से विश्वासघात के रूप में देखा गया है, भारतीय पूंजीपति वर्ग की ढुलमुल प्रकृति और गांधीजी के पूंजीपति वर्ग के दबाव के आगे झुकने के प्रमाण के रूप में। इसे गांधीजी और भारतीय पूंजीपति वर्ग के इस डर के सबूत के रूप में उद्धृत किया गया है कि जन आंदोलन एक क्रांतिकारी मोड़ ले लेगा; किसानों के हितों के साथ विश्वासघात क्योंकि इसने ज़ब्त की गई ज़मीन को तुरंत वापस नहीं किया, जो पहले ही किसी तीसरे पक्ष को बेच दी गई थी, इत्यादि।

सत्याग्रह-विराम के लिए गांधीजी ने पहले जो कम से कम शर्तें निश्चित की थी, ‘गांधी-इरविन समझौते’ में स्पष्टतः उनसे भी बहुत कम को स्वीकार किया गया था। गांधी-इरविन करार से कई लोग प्रसन्न नहीं थे। कांग्रेस की स्वतंत्रता का प्रस्ताव और 26 जनवरी का वायदा, दोनों की समझौते की बातचीत के दौरान उपेक्षा की गई नेहरू और वामपंथी नेता इससे दुखी हुए। गांधीजी के कुछ साथियों की राय थी कि लॉर्ड इरविन ने गांधीजी को वायसराय भवन की भूल-भुलैया में फंसा लिया और समझौते को उन्होंने वायसराय की निरी कपट भरी चाल बताया। कांग्रेस के सदस्यों को लगा कि सरकार ने कुछ नहीं दिया और सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया गया। उन्हें लगा कि गांधीजी सरकार से किसी भी महत्त्वपूर्ण मांग को नहीं मनवा सके। युवा वर्ग और देश के एक विशाल जान समूह का यह कहना था कि वे सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को कारावास में नहीं बदलवा सके23 मार्च को इन तीनों वीरों को जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। देश में इसका तीव्र विरोध हुआ।

देश के सरकारी अधिकारी भी चाहते थे कि समझौता सफल न हो। भारत में अंग्रेज अधिकारियों और इंग्लैंड के टोरी अथवा अनुदार दल के राजनीतिज्ञों को, एक ऐसी पार्टी से समझौते की बात से आघात पहुंचा, जो स्पष्ट घोषणा कर चुकी थी कि उसका उद्देश्य अंग्रेजी राज को समाप्त करना हैसरकारी अधिकारी शासन की ताकत और क़ानून के ज़ोर से लोगों पर जुल्म ढा रहे थे। बहुत से कांग्रेसी नेता, खासकर वे जिनका झुकाव वामपंथ की ओर था, इस समझौते के ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था कि सरकार ने आंदोलनकारियों की कोई प्रमुख मांग नहीं मानी थी। सुभाषचन्द्र बोस ने वियना से एक विज्ञप्ति ज़ारी करके सिविल नाफ़रमानी के स्थगन की भर्त्सना की और इसे गांधीजी के राजनीतिक नेतृत्व तथा तरीक़ों की विफलता बताया।

असहयोग आन्दोलन के क़ैदियों को छोड़ने की बात तो कही गई थी, किंतु इस समझौते में नज़रबंद या सज़ा भुगत रहे बंदियों की रिहाई का कोई उल्लेख नहीं था। उन राजनैतिक बंदियों के क्षमादान का प्रश्न ज़रूर उठाया गया था, जिन्हें अध्यादेशों के अंतर्गत हिंसक कार्रवाइयों के लिए दण्डित किया गया था। वस्तुतः गांधीजी ने उन अध्यादेशों को वापस लेने की पैरवी की थी। लोगों को ऐसा प्रतीत होता था कि सरदार भगतसिंह और उनके सह कैदियों को बचाने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं किए गए। शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड की सज़ा ख़त्म कर देने के मसाले पर इरविन ने गांधीजी के आग्रह को न केवल दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर दिया बल्कि यह भी कहा कि वह उसे स्थगित करने को भी तैयार नहीं है। बंगाल में भी हज़ारों लोग अभी भी जेल में बंद थे। गढ़वाली सैनिकों, जिन्होंने पेशावर में निहत्थे सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था, की रिहाई का भी कोई उल्लेख नहीं था। बंगाल में शिक्षित युवकों का गांधीवादी अहिंसा के प्रति मोहभंग स्पष्ट था। यहां पर क्रांतिकारी घटनाएं व्यापक रूप से हो रही थीं। क्रांतिकारी आंदोलनों में स्त्रियों की भागीदारी एक नया अध्याय था। ये आंदोलन अब शहरों तक ही सीमित  नहीं थे। ब्रिटिश सरकार ने कठोर कदम उठाए और सरकार ने वहां आतंकवाद के नाम पर सख़्त ऑर्डिनेन्स लगा दिया था जिसके कारण नागरिक स्वतंत्रता प्रायः समाप्त ही थी। जेल में क़ैदियों को गोली मार दी गई।

सरहद के पठान भी अहिंसक सत्याग्रही बन चुके थे। ख़ुदाई ख़िदमतगार आंदोलन में तेज़ी से वृद्धि हुई। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के इन निहत्थे पठानों पर गोली चलाई गई। सैन्य शासन लगा दिया गया था। मिलिटरी का अत्याचार उग्र था। इसके विरोध में ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ने गांव-गांव घूमकर अहिंसक सत्याग्रहियों की जमात खड़ी की। इनका कुर्ता लाल रंग का होता था, इसलिए इन्हें ‘लाल कुर्ता दल’ भी कहा जाता था। यह दल ‘ख़ुदाई ख़िदमतगार’ भी कहलाता था। अगस्त में यह दल कांग्रेस में विलीन कर दिया गया। अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान का गांधीजी से इतना लगाव था कि उन्हें सरहदी गांधी भी कहा जाता था।

आंदोलन के सिलसिले में नीलाम की गई ज़मीनों को उनके वास्तविक स्वामियों को लौटाने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। ग्रामीण इलाक़ों में किसानों का असंतोष बढ़ रहा था। क़ीमतों की गिरावट अपने रिकॉर्ड स्तर पर थी। मालगुज़ारी, लगान और ऋणों का बोझ असह्य होने लगा था। कांग्रेस के नाम पर अनेक स्थानीय नेता और आंदोलनकारी उभर आए थे। गांधीजी ने अपना अधिकांश समय ग्रामीण इलाक़ों में ही व्यतीत किया। उत्तर प्रदेश में काश्तकारों की ज़मीन ज़ब्त कर ली गई थी। बेरहमी से बकाया लगान वसूला जाने लगा। गांधीजी ने कृषकों की समस्या के बारे में वायसराय को लिखा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। जो नाममात्र रियायतें दी गई थीं, वह भी तब प्रभावहीन हो गई जब बातचीत के बाद गांधीजी ने पुलिस ज़्यादतियों की जांच कराने और किसी तीसरे को बेच दी गई ज़मीनों की वापसी की मांग वापस ले ली। इसकी बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस को मानना पड़ा कि राष्ट्रीय आंदोलन के भविष्य के लिए कृषि विषयक समस्याओं और संबंधों का बहुत महत्व है।

नौकरी से बर्खास्त किए गए सरकारी कर्मचारियों की पुनः नौकरी पर बहाल करने की बात भी इस समझौते में नहीं थी। समझौते में औपनिवेशिक स्वराज्य का भी कोई आश्वासन नहीं था। कश्मीर जैसे कुछ रजवाड़ों में निरंकुशता विरोधी और सामंतवाद विरोधी आंदोलन उभर रहे थे। कश्मीर में जुलाई 1931  में मुसलमान प्रजा और हिंदू राजघराने के बीच के संघर्ष ने सांप्रदायिक रूप धारण कर लिया था। शेख़ अब्दुल्ला जैसे नेताओं के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने एक सशक्त आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन के आंदोलनकारियों ने श्रीनगर जेल पर हमला बोला गया। महाराज को ब्रिटिश सैन्य सहायता मंगानी पड़ी। कई दंगे भी हुए। शिकायतों की जांच के लिए आयोग बिठाया गया। समझौते में औपनिवेशिक स्वराज्य का भी कोई आश्वासन नहीं था।

प्रतिक्रिया, विश्लेषण

समझौते के प्रकाशन के तुरंत बाद, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने अनंतिम समझौते की शर्तों का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और सभी कांग्रेस समितियों को उनके अनुसार तत्काल कार्रवाई करने का निर्देश दिया: "समिति को उम्मीद है कि देश सहमत शर्तों का पालन करेगा जहाँ तक वे विभिन्न कांग्रेस गतिविधियों से संबंधित हैं और इसकी राय है कि कांग्रेस की ओर से किए गए दायित्वों की सख्ती से पूर्ति पर ही भारत का पूर्ण स्वराज की ओर बढ़ना निर्भर करेगा।"

‘आख़िर तक लड़ाई लड़ने’ का वक्तव्य देने वाले कांग्रेस की इस स्थिति में कितनी विषमता थी! 1930 के अगस्त में सप्रू और जयकर के समझौते के प्रयत्नों के समय कांग्रेस ने जो शर्तें रखी थीं, गांधी-इरविन समझौते में उनसे भी बहुत कम को स्वीकार किया गया था। जवाहरलाल नेहरू को भी अत्यंत निराशा हुई। "इस तरह दुनिया का अंत होता है/धमाके से नहीं, बल्कि फुसफुसाहट से। (एक आत्मकथा, पृष्ठ 259) एक नोट में उन्होंने लिखा: कार्यसमिति और भारत सरकार के बीच हुए अस्थायी समझौते के परिणामस्वरूप, युद्धविराम की अवधि घोषित कर दी गई है। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इस समझौते के अगले ही दिन, मुझे असहमति का एक स्वर छेड़ना पड़ रहा है... सुरक्षा उपायों और आरक्षणों का उल्लेख किया गया है, और हालाँकि इन्हें भारत के हित में बताया गया है, फिर भी इनका अर्थ रक्षा, विदेश मामलों, वित्त और सार्वजनिक ऋण के संबंध में हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के रूप में लगाया जा सकता है, और मुझे डर है कि ऐसा किया जाएगा... मैं सुरक्षा उपायों और आरक्षणों के किसी भी संदर्भ को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ।

इस समझौते को जहां कुछ इतिहासकारों ने उदारवादी नेताओं के दबाव के संदर्भ में व्याख्या की है तो वहीं कुछ विद्वानों ने बंबई के गवर्नर द्वारा वायसराय को दी गई इस रिपोर्ट के आधार पर कि यदि गांधीजी समझदारी का रुख नहीं अपनाते, तो गांधीजी के अनेक अनुयायी व्यापारी  उनसे नाता तोड़ने की बात सोच रहे थे, व्यापारी समूह के दवाब की भूमिका को प्रमुख कारण माना है।

सुमित सरकार के शब्दों में कहें तो, गाँधी-इरविन समझौते को केवल नकारात्मक दृष्टि से देखना भी एक अपेक्षाकृत जटिल वास्तविकता का अतिसरलीकरण होगा। ... इस समझौते से राष्ट्र को होनेवाली उपलब्धि चाहे जितनी भी नगण्य रही हो, वायसराय को इस बात के लिए बाध्य होना पडा कि वह राष्ट्रीय नेता से नम्रता और समानता के एक नितांत नए आधार पर मिले। सरकार ने गांधीजी से समझौता इसलिए किया कि उसे लगता था कि इससे कांग्रेस कमज़ोर होगी। लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा। कांग्रेस की प्रतिष्ठा और बढ़ गई। समझौते ने गांधीजी और कांग्रेस को सरकार के समकक्ष ला दिया। लोगों ने महसूस किया कि भारत की एक और सरकार भी है।

विंस्टन चर्चिल ने खुले आम कहा था कि इस घिनौने और अपमानजनक तमाशे से उन्हें नफरत हो गयी कि कभी जो इंग्लैंड के इनर टेम्पुल का बैरिस्टर था, वही अब राजद्रोही फकीर बन कर सम्राट के प्रतिनिधि से बराबरी की हैसियत से सन्धि-वार्ता करने के लिए वायसराय-भवन की सीढ़ियों पर अर्धनग्न स्थिति में लम्बे कदम भरता हुआ जा रहा थावायसराय के साथ बराबरी में बैठकर एक सन्धि करने के कारण गांधीजी की वरिष्ठता और बढ़ गई थी। उसी वर्ष बाद में लन्दन में उन्हें सम्राट जॉर्ज पंचम के महल बकिंघम पैलेस में आयोजित स्वागत-समारोह में शामिल होने का निमंत्रण मिला।

समझौते की शर्तों के तहत जब कांग्रेसी कार्यकर्ता जेल छूटकर अपने-अपने गाँव या शहर गए तो उनका तेवर विजेताओं वाला था और वे उत्साह से भरे-पूरे थे। कांग्रेस को एक नई ऊर्जा मिल गई थी और लोग पूरे जोश से स्वाधीनता के संघर्ष के लिए तैयार थे। भारत को स्वतन्त्रता भले ही सोलह वर्षों के बाद मिली हो, लेकिन उसकी बुनियाद गांधी-इरविन वार्ताओं में निहित थी, और समझौता उन्हीं वार्ताओं की परिणति था। गांधीजी के आत्मकथा लेखक फिशर ने सही ही कहा है कि ‘इस समझौते की शर्तें इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थीं, जितना कि स्वयं यह समझौता था।’ यह बराबरी का समझौता था। यह स्वतन्त्रता की अनकही स्वीकृति का परवाना था। सुमित सरकार के अनुसार, गांधीजी के रवैये में परिवर्तन की इस ऐतिहासिक पहेली को केवल उदारवादी नेताओं के दबाव के सन्दर्भ में ही नहीं समझा जा सकता। न ही इस तर्क को गंभीरता से लिया जा सकता है कि गांधीजी इरविन के व्यवहार पर मंत्रमुग्ध हो गए थे या यह कि केंद्र में उत्तरदायी सरकार देने का गोलमेज सम्मेलन का अस्पष्ट-सा वादा अचानक उन्हें आकर्षक लगाने लगा था।

प्रेस के साथ एक साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा था, इस तरह के समझौते में किसी एक पक्ष को विजयी मानना संभव नहीं है। अगर इस तरह की कोई विजय हुई है तो दोनों पक्षों की हुई है। वायसराय के साथ समझौता करने में गांधीजी के उद्देश्य को उनकी सत्याग्रह की नीति के माध्यम से ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। सत्याग्रह-आन्दोलन के लिए सामान्यतः ‘संघर्ष’, ‘विद्रोह’ और ‘अहिंसात्मक युद्ध’ आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है, लेकिन इनसे उसकी सही व्याख्या नहीं हो पाती। ये शब्द उस आन्दोलन के नकारात्मक पक्ष-विरोध और संघर्ष को आवश्यकता से अधिक उभार देते हैं। सत्याग्रह-आन्दोलन का ऊदेश्य ‘संघर्ष’, ‘विद्रोह’ और ‘अहिंसात्मक युद्ध’ ही नहीं है सत्याग्रह का उद्देश्य विरोधी का शारीरिक विनाश अथवा नैतिक पतन न होकर, उसके हाथों कष्ट सहन कर उन मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को जन्म देना था, जो दोनों के मन और प्राणों का मिलन संभव कर दें। ऐसी लड़ाई में विरोधी से समझौता करना न तो अधर्म था, न ही अपनों से विश्वासघात। इसके विपरीत, ऐसा करना एक स्वाभाविक और आवश्यक कदम था और अगर बाद में पता चले कि समझौता उपयुक्त समय से पहले करने में गलती हुई और विरोधी पक्ष को अपने किए पर पश्चाताप नहीं है, तो सत्याग्रही के सामने फिर से अहिंसात्मक युद्ध प्रारम्भ करने का मार्ग तो खुला ही है।

गांधीजी इस समझौते को कांग्रेस और सरकार के पारस्परिक संबंधों में एक नए अध्याय का आरंभ मानते थे। उनका कहना था, सत्याग्रह में एक वक़्त आता है जब सत्याग्रही अपने विरोधी से समझौते की चर्चा करने से इंकार नहीं कर सकता। उसका उद्देश्य तो अपने विरोधी को प्रेम से जीतना है। हमारे लिए ऐसा वक्त उस समय आ गया था जब प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद कांग्रेस की कार्य समिति को रिहा कर दिया गया था। वायसराय ने भी हमसे अनुरोध किया था कि हम लड़ाई का रास्ता छोड़कर उन्हें बताएं कि हम क्या चाहते हैं। हमने समझौता इसलिए नहीं किया कि हम कमज़ोर हो गए थे, बल्कि इसलिए किया कि वह ज़रूरी हो गया था। इसलिए ऐसी लड़ाई में विरोधी से समझौता न तो अधर्म है और न ही अपनों से विश्वासघात ही, उलटे वह एक स्वाभाविक और आवश्यक कदम है जिसे उपयुक्त समय पर उठाना होता है।

'इज्जत बचाना' गांधीजी के लिए एक अस्पष्ट अवधारणा थी। वह ऐसे रिश्ते को खत्म करने में विश्वास नहीं करते थे जिसे सुधारा जा सकता हो, और चूंकि उन्हें सुधार में अटूट विश्वास था, इसलिए उन्होंने कभी भी किसी व्यक्तिगत या राजनीतिक रिश्ते को खत्म नहीं करने की कोशिश की। एलन कैंपबेल जान्सन ने लिखा है कि दिल्ली-समझौते ने सिर्फ गांधीजी के आँसू पोंछ दिए और इरविन केवल इतना ही झुके कि समझौता-वार्ता के लिए राज़ी हो गए। लॉर्ड इरविन के बारे में बी. जी हार्नीमेन ने कहा था कि वह कथनी-करनी के अपने अंतर और दोरुखी नीति को सद्भावनाओं के पाखंड एवं ईमानदारी के आडंबर में लपेटे रहनेवाले चुस्त मौकापरस्त थे। इस पर गांधीजी ने कहा था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के भक्त थे, परंतु भारत के शुभचिन्तक भी थे। लॉर्ड इरविन का उद्देश्य सविनय अवज्ञा को समाप्त करना था। गांधीजी का उद्देश्य पूर्ण स्वतंत्रता के उद्देश्य को आगे बढ़ाना था। गांधीजी इस समझौते को कांग्रेस और सरकार के पारस्परिक संबंधों में एक नए अध्याय का आरंभ ही मानते थे। उन्होंने कहा था, मेरी तो परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि समझौते के निमित्त आरंभ होने वाली यह मैत्री चिरस्थाई हो। यह सहमति हुई कि संवैधानिक मामलों पर लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन में चर्चा की जाए, और सविनय अवज्ञा अभियान को वापस ले लिया जाए, सत्याग्रहियों से वसूले गए जुर्माने वापस कर दिए जाएं, और सैनिकों और सरकारी कर्मचारियों में असंतोष फैलाने का कोई और प्रयास न किया जाए। अपने देश के विंस्टन चर्चिल की लाख आलोचनाओं के बावजूद इरविन की सोच अलग थी। उसने 25 साल बाद, जब वह लॉर्ड हेलीफैक्स था, इस घटना को याद करते हुए कहा था, मेरे पास इस अत्यंत उल्लेखनीय छोटे-से आदमी के नाम के प्रति भारी आदर और सम्मान-भाव रखने का पूरा-पूरा कारण था। मूलतः यह समझौता एक युद्धविराम समझौते का रूप ले चुका था जिसमें दोनों पक्षों ने शांति स्थापित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करने का वादा किया था। गांधीजी ने वायसराय से ज़्यादा समर्पण किया, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि उनका समर्पण अंतिम नहीं था और अगर उन्हें ज़रूरी लगे तो वे ब्रिटिश सरकार पर और भी भयानक हमले कर सकते थे। उनके तरीके व्यावहारिक थे। वायसराय ने कहा भी था, "मुझे इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वे फिर से सविनय अवज्ञा शुरू नहीं करेंगे।" गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि जब देश स्वाधीनता के योग्य हो जाएगा, तो कोई भी शक्ति उसे पराधीन नहीं रख सकेगी। उन्होंने एक समझौता किया जो असंतोषजनक था, लेकिन साथ ही मौजूदा परिस्थितियों में सर्वोत्तम संभव समझौते का प्रतिनिधित्व करता था। इसलिए हम कह सकते हैं कि गाँधी-इरविन समझौते को केवल नकारात्मक दृष्टि से देखना भी एक अपेक्षाकृत जटिल वास्तविकता का अतिसरलीकरण होगा। इस समझौते से राष्ट्र को होनेवाली उपलब्धि चाहे जितनी भी नगण्य रही हो, वायसराय को इस बात के लिए बाध्य होना पडा कि वह राष्ट्रीय नेता से नम्रता और समानता के एक नितांत नए आधार पर मिले। महात्मा गांधी के आलोचक सुभाष चंद्र बोस ने, समझौते पर हस्ताक्षर के बाद गांधीजी के साथ एक दौरे के दौरान जनता की प्रतिक्रिया को देखते हुए लिखा, 'मुझे आश्चर्य है कि क्या किसी नेता को कहीं और भी इतनी सहज प्रशंसा मिली होगी।' और बोस ने स्वीकार किया कि इरविन, 'हालांकि कंजर्वेटिव पार्टी के एक प्रमुख सदस्य थे... उन्होंने खुद को भारत का शुभचिंतक साबित किया था।' गांधीजी, जो अक्सर राजनीति में लोगों के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं से निर्देशित होते थे, के लिए यह समझौते पर हस्ताक्षर करने का औचित्य सिद्ध करता था। दिल्ली समझौते के सत्रह साल बाद, भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया था। भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के जीवन में सत्रह साल क्या होते हैं?

***  ***  ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।