राष्ट्रीय आन्दोलन
348. सामाजिक
स्तर पर अस्पृश्यता निवारण का काम
1932
1932 की अंतिम तिमाही में सविनय अवज्ञा आंदोलन धीमी गति से
जारी रहा। गांधीजी अभी भी यरवदा जेल में थे। सरकार के अनुसार गांधीजी को सविनय
अवज्ञा के कारण जेल में रखा गया था, जो
उनका घोषित कार्यक्रम था। गांधीजी का मानना था कि जेल एक कैदी को अद्भुत लाभ
प्रदान करती है। यह उसकी इच्छाशक्ति की परीक्षा लेती है, उसे
पढ़ने और ध्यान करने का अवकाश प्रदान करती है, और
उसे स्वयं के साथ अकेले रहने की स्वतंत्रता प्रदान करती है। यदि वह दीवारों पर
ज़ोर से प्रहार करता, तो वे गिर जातीं। यदि वह ज़ोर से बोलता, तो उसकी बात सुनी जाती, और
यदि वह प्रभावशाली ढंग से लिखता, तो
वह एक ऐसी पुस्तक लिख सकता था जो दुनिया को हिला दे।
ऐसा देखा जाता है कि राजनीतिक जागरण आंदोलन प्रायः गुटवादी
का स्वरूप धारण कर लेते थे। अंग्रेज़ सरकार, जो अब अकेली पड़ती जा रही थी, इस
गुटवादी को भड़काने का प्रयास करती। इससे भारतीय एकता का संकट उत्पन्न होने लगता।
पहले अंग्रेज़ों ने रजवाड़ों का इस हेतु इस्तेमाल किया। केन्द्र में जब उत्तरदायी
सरकार देने की बात उठी, तो केन्द्रीय धारा सभा में रजवाड़ों की एक सशक्त टुकड़ी का
नाम शामिल था। इसी तरह मुसलमानों में हिंदु आधिपत्य का भय उभारने का काम किया गया।
और अब अंग्रेज़ों द्वारा डा. अंबेडकर के आंदोलन के माध्यम से जो अछूतों का क्षोभ
उभर रहा था, उसे राष्ट्रवादियों की स्वाधीनता प्राप्ति के आंदोलन के विरुद्ध
प्रयोग किया गया। ऐसा नहीं था कि राष्ट्रीय आंदोलन के नेता अंग्रेज़ों की इस ‘फूट
डालो और राज करो नीति’ से अनभिज्ञ थे, लेकिन इसे विफल करने के उनके प्रयासों
को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी वे चाहते थे। गांधीजी ने अपनी आत्मा की पीड़ा को कई
बयानों में व्यक्त किया, जिनमें
सवर्ण हिंदुओं से अस्पृश्यता को समाप्त करने का आह्वान किया गया था। "मैंने
यह अपील आपसे की है, जो
मेरी आत्मा की पीड़ा से उपजी है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप उस पीड़ा और शर्म
को मेरे साथ साझा करें और मेरा सहयोग करें।"
अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष लंबे समय से कांग्रेस के
कार्यक्रम का हिस्सा रहा था, लेकिन
एक स्वायत्त और स्थायी अस्पृश्यता-विरोधी आंदोलन की शुरुआत सांप्रदायिक पंचाट के
विरुद्ध गांधीजी के उपवास से हुई। उपवास तोड़ने के बाद अपने बयान में गांधीजी ने ज़ोर देकर
कहा था कि "यज्ञ की अग्नि" एक बार प्रज्वलित हो जाने के बाद, जलती रहनी चाहिए और सवर्ण हिंदुओं को सुधार
कार्य को दोगुनी ऊर्जा के साथ जारी रखना चाहिए ताकि "सामाजिक और धार्मिक अक्षमताओं का पूर्ण उन्मूलन" हो सके, जिनसे अछूत कराह रहे थे। गांधीजी के उपवास ने जनचेतना को जगाया और जनता
का ध्यान सामाजिक सुधारों की ओर आकर्षित किया। नवंबर में कांग्रेस कैदियों की
संख्या 17,000 से घटकर दिसंबर में 14,000 हो जाने की व्याख्या करते हुए, सर सैमुअल होरे ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा, "कई कांग्रेस कार्यकर्ताओं की रुचि श्री गांधी
के अस्पृश्यता विरोधी अभियान की ओर मुड़ गई है।" पूना समझौता (गांधीजी डा. अंबेडकर समझौता)
होने से दलितों के पृथक मतदान की व्यवस्था की अंग्रेजों की कुटिल चाल तो सफल नहीं हो सकी थी
लेकिन इस समझौते के बाद भी गांधीजी के मन में यह तीव्र इच्छा थी कि हमारे समाज में कुछ
जातियों के साथ बेहद क्रूर व्यवहार शीघ्रातिशीघ्र समाप्त होना चाहिये। गांधीजी ने हिन्दू समाज
में जातियों के निचले पायदान पर रखे लोगों के साथ समानता का व्यवहार करने के लिए ही उन्हें हरिजन
नाम दिया था।
हालांकि आंबेडकर के आंदोलन को कांग्रेस में आत्मसात नहीं
किया जा सका, फिर भी गांधीजी अपना अधिकांश समय हरिजनों के बीच कार्य करने में
लगाने लगे। महाराष्ट्र, मैसूर और तमिलनाडु में उन्हें काफी हद तक विभिन्न आंदोलनों
के माध्यम से इसमें सफलता मिली। कल्याणकारी गतिविधियों के माध्यम से आदिवासियों का
समर्थन प्राप्त करने के प्रयास किए गए। ‘वन सत्याग्रह’ तो सविनय अवज्ञा आंदोलन का
एक अभिन्न हिस्सा बन गया।
‘महा-उपवास’ ने गांधीजी को एक
मोटी, ऊँची दीवार को तोड़कर सामाजिक सुधार के विशाल
उपेक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने में सक्षम बनाया। पूना पैक्ट के द्वारा दलित जातियों
के प्रतिनिधित्व की एक प्रकार की चुनाव-योजना के स्थान पर दूसरे प्रकार की
चुनाव-योजना को स्वीकार किया गया था। छुआछूत को दूर करने और दुखी पददलित जातियों को ऊपर उठाने के आंदोलन को अद्भुत गति प्राप्त हुई। इस समस्या के राजनैतिक और संवैधानिक पक्ष से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था इसका सामाजिक और भावनात्मक पक्ष।
दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व की नई चुनाव-योजना तो अगले चार साढ़े चार सालों तक
क्रियान्वित नहीं हो सकी, लेकिन सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता निवारण का काम तुरंत
शुरू हो गया। उपवास ने हिन्दू समाज का 'आत्मिक शुद्धिकरण' कर दिया था। उनके कई मित्र इस बात से नाखुश थे कि उन्होंने
खुद को दलितों और किसानों के कल्याण कार्यों में 'भटकने' दिया। राजनेता चाहते थे कि वे राजनीतिक बनें।
लेकिन गांधीजी के लिए गाँवों के लिए विटामिन ही सर्वोत्तम राजनीति थी और दलितों की
खुशी ही स्वतंत्रता का महामार्ग थी।
30 सितंबर 1932 को मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में बंबई के कावसजी
जहाँगीर हॉल में हिंदुओं की एक विशाल जनसभा हुई। सभा में एक प्रस्ताव पारित कर यह
निर्णय लिया गया कि अस्पृश्यता के विरुद्ध प्रचार करने के लिए एक अखिल भारतीय
अस्पृश्यता विरोधी लीग की स्थापना की जाए, जिसका मुख्यालय दिल्ली में हो और जिसकी शाखाएँ
विभिन्न प्रांतीय केंद्रों में हों। इस उद्देश्य से निम्नलिखित कदम तुरंत उठाए
जाने चाहिए: (क) सभी सार्वजनिक कुएँ, धर्मशालाएँ, सड़कें, स्कूल, श्मशान, श्मशान घाट आदि दलित वर्गों के लिए खुले घोषित किए जाएँ।
(ख) सभी सार्वजनिक मंदिर दलित वर्गों के लिए खोले जाएँ। बैठक में जी.डी. बिड़ला को
अध्यक्ष और अमृतलाल ठक्कर को लीग का महासचिव नियुक्त किया गया और उन्हें लीग को
संगठित करने, लीग के उद्देश्यों की पूर्ति करने और इसके
कार्यों के लिए धन संग्रह की व्यवस्था करने हेतु सभी आवश्यक कदम उठाने के लिए
अधिकृत किया गया। दिसंबर 1932 से लीग का नाम, जिसके
अध्यक्ष जी.डी. बिड़ला थे, बदलकर
सर्वेंट्स ऑफ अनटचेबल्स सोसाइटी या हरिजन सेवक संघ कर दिया गया।
4 नवंबर, 1932 के अपने वक्तव्य में गांधीजी ने कहा था, "ईश्वर के आह्वान पर मैंने उपवास शुरू
किया था, और यदि यह कभी शुरू होगा, तो ईश्वर के आह्वान पर ही इसे फिर से शुरू किया
जाएगा। लेकिन जब यह शुरू किया गया था, तो निस्संदेह यह अस्पृश्यता को जड़ से मिटाने
के लिए था। इसने जो रूप धारण किया, वह मेरा अपना निर्णय नहीं था। कैबिनेट के
निर्णय ने मेरे जीवन के संकट को जन्म दिया, लेकिन मैं जानता था कि ब्रिटिश कैबिनेट के
निर्णय को रद्द करना अंत की शुरुआत मात्र था।" उन्होंने आगे कहा था, "यदि उपवास करना ही पड़ा, तो वह उन लोगों को मजबूर करने के लिए नहीं होगा
जो सुधार के विरोधी हैं, बल्कि इसका उद्देश्य उन लोगों को कार्रवाई के
लिए उकसाना होगा जो मेरे साथी रहे हैं या जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए
प्रतिज्ञाएँ ली हैं। अंतर्मन की आवाज़ सुनकर उपवास पुनः शुरू किया जाएगा, और वह भी केवल तभी जब यरवदा संधि स्पष्ट रूप से
भंग हो जाए, क्योंकि सवर्ण हिंदुओं ने उसकी शर्तों को लागू करने में
आपराधिक लापरवाही बरती है। ऐसी उपेक्षा का अर्थ होगा हिंदू धर्म के साथ
विश्वासघात। मैं इसका जीवित गवाह बने रहना नहीं चाहूँगा।"
गांधीजी ने सुधार करने वालों को आगाह किया: "मैं इस
सुधार को, चाहे वह अपने आप में कितना भी वांछनीय क्यों न
हो, एक अखिल भारतीय सुधार का हिस्सा बनाने की कभी
कल्पना भी नहीं कर सकता, जिसकी
लंबे समय से प्रतीक्षा है। अस्पृश्यता, जिस रूप में हम सभी इसे जानते हैं, हिंदू धर्म के मूल में ही एक नासूर है। भोजन और
विवाह संबंधी प्रतिबंध हिंदू समाज को अवरुद्ध करते हैं। मुझे लगता है कि यह अंतर
मौलिक है।" रूढ़िवादी
हिंदू, जिनके लिए अस्पृश्यता हिंदू धर्म का सार थी, गांधी को एक धर्मत्यागी मानते थे। गांधीजी ने इसका
जवाब दिया था, "मैं स्वयं को एक सनातनवादी होने का दावा करता हूँ। सनातनवादी
की उनकी परिभाषा स्पष्ट रूप से मेरी परिभाषा से भिन्न है। मुझे खुद को हिंदू कहने
में गर्व है, क्योंकि मुझे यह शब्द इतना व्यापक लगता है कि
मैं न केवल सहन कर सकता हूँ, बल्कि
दुनिया भर के पैगम्बरों की शिक्षाओं को आत्मसात भी कर सकता हूँ। मुझे इस
जीवन-ग्रंथ में अस्पृश्यता का कोई आधार नहीं मिलता। इसके विपरीत, यह मुझे यह
विश्वास करने के लिए बाध्य करता है कि सारा जीवन एक है और यह ईश्वर के माध्यम से
है और उसे उसी के पास लौटना है। पूज्य माता द्वारा सिखाए गए सनातन धर्म के अनुसार, जीवन बाहरी कर्मकांडों और अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि परम आंतरिक शुद्धि और स्वयं को, शरीर, आत्मा
और मन को, दिव्य सार में विलीन करने में निहित है। मैं
गीता के इस संदेश को अपने जीवन में समाहित करके लाखों लोगों के पास गया हूँ, और उन्होंने मेरी बात सुनी है, किसी राजनीतिक ज्ञान या वाक्पटुता के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहज रूप से मुझे अपने
में से एक, अपने धर्म से संबंधित व्यक्ति के रूप में
पहचाना है। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मेरा
विश्वास और मजबूत होता गया और मुझे लगा कि सनातन धर्म से संबंधित होने का दावा
करना गलत नहीं हो सकता, और
यदि ईश्वर की इच्छा हुई, तो
वह मुझे अपनी मृत्यु के साथ उस दावे पर मुहर लगाने देंगे।"
पूना समझौता का हवाला देते हुए उन्होंने घोषणा की, “मैं अपने हरिजन मित्रों को (गांधीजी के ही शब्दों
में, “मैं आगे से उन्हें इसी नाम से पुकारना चाहूँगा”) को विश्वास दिलाता हूं कि इसके समुचित
अनुपालन की ज़मानत के रूप में मेरे जीवन को बंधक रख सकते हैं।” गांधीजी अभी जेल में ही थे। उन्होंने अपने
आश्वासन को पूरा करने के व्यावहारिक उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रीत किया। गांधीजी
के एक जीवनी लेखक ने लिखा, “इस प्रकार इतिहास में समाज सुधार के महानतम
अभियानों में से एक का आरंभ एक राजबंदी ने किया।” अधिकारियों ने उन्हें जेल से ही इस काम को
चलाने की सुविधाएं प्रदान कीं। अधिकारियों को आशा थी कि इस प्रकार देश का ध्यान
राजनीतिक आंदोलन से हटकर समाज सुधार में लग जाएगा। कांग्रेसी कार्यकर्ता हरिजन आंदोलन में लग गए। घनश्यामदास बिड़ला के सभापतित्व में हरिजनोद्धार के लिए एक
अखिल भारतीय संगठन ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया गया और ठक्करबापा को उसका मंत्री
बनाया गया। इस संघ का उद्देश्य क़ानून और व्यवहार दोनों में
हिन्दू समाज से अस्पृश्यता का कलंक पूरी तरग से मिटा देना था। ‘हरिजन’ नाम
से एक साप्ताहिक आरंभ किया गया और गांधीजी स्वयं इसके संपादक बने। साबरमती का
आश्रम भी हरिजनों के कल्याण के लिए स्थापित हरिजन सेवक संघ को सौंप दिया गया।
यरवदा जेल में बैठकर, गांधीजी
ने अछूतों के सेवक समाज के माध्यम से अपने अभियान का निर्देशन किया। गांधीजी ने
आंतरिक सुधार के लिए एक व्यावहारिक कार्यक्रम तैयार किया: हरिजनों में स्वच्छता और
आरोग्य को बढ़ावा देना; मैला
ढोने और चमड़ा उतारने के बेहतर तरीके; यदि
मांस नहीं तो सड़ा हुआ मांस और गोमांस का पूरी तरह से त्याग; मादक पेय पदार्थों का त्याग; माता-पिता को अपने बच्चों को दिन के स्कूलों
में भेजने के लिए और स्वयं माता-पिता को रात्रि स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित
करना; आपस में अस्पृश्यता का उन्मूलन।
छुआछूत हिन्दू समाज की इतनी पुरानी बीमारी थी और उसकी जड़ें
इतनी गहरी थीं कि जनता की सदिच्छा चाहे जीतनी ही ईमानदारी भरी हो, मात्र उसके
उद्गार से और जेल में गांधीजी को उपलब्ध सीमित साधनों से उनका उन्मूलन संभव नहीं
था। लेकिन गांधीजी बेचैन थे। दूसरी ओर सरकार उन्हें एक सीमा से अधिक, असीमित सुविधाएं देने ओ तैयार नहीं थी क्योंकि
वे बहरहाल एक कैदी थे और एक मुक्त व्यक्ति की अपेक्षा एक कैदी के रूप में अधिक
दुर्जेय बन सकते थे।
दिसंबर में रत्नागिरी जेल में हुई एक घटना ने लोगों का
ध्यान सामान्य मुद्दे से हटा दिया, जहाँ
एक सवर्ण हिंदू, अप्पासाहेब पटवर्धन ने उपवास करना शुरू कर दिया
क्योंकि उन्हें अपनी इच्छानुसार शौचालय साफ़ करने की अनुमति नहीं थी। गांधीजी ने
सहानुभूति स्वरूप 3 दिसंबर को उपवास शुरू किया, लेकिन
यह एक दिन से ज़्यादा नहीं चला, क्योंकि
भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों से यह जानने का बीड़ा उठाया कि ऐसे मामले में जेल
नियमों में किस हद तक बदलाव किया जा सकता है।
गांधीजी ने हिन्दुओं से अपने मस्तिष्क से ‘अस्पृश्यता को
जड़-मूल समेत उखड फेंकने का आग्रह किया। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता था कि
अस्पृश्यता का यह पुराना रोग चुटकी बजाते ही दूर हो जाएगा। लेकिन कोई भी इससे
इनकार नहीं कर सकता कि इस दिशा में एक प्रयास शुरू हो चुका था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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