राष्ट्रीय आन्दोलन
339. दूसरा गोल मेज सम्मेलन-2
1931
दूसरी गोलमेज-परिषद में गांधीजी भारत के एकमात्र प्रतिनिधि
के रूप में शामिल
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चला। सम्मेलन सेंट जेम्स पैलेस में हो रहा था। इसमें तेईस राजा और ब्रिटिश
भारत के 64 प्रतिनिधि उपस्थित थे। उस
सम्मेलन में गाँधीजी भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस का नेतृत्व
कर रहे थे। हालाकि सरोजिनी नायडू भी इस सम्मेलन में गई थीं, लेकिन वह सरकार
की ओर से भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। अन्य सभी प्रतिनिधि सरकार
द्वारा मनोनीत थे। गोलमेज सम्मेलन में सरकार द्वारा नामित प्रतिनिधि में से कुछ तो बहुत ही योग्य
व्यक्ति थे, लेकिन अधिकांश, राजघराने, ज़मींदार, पदवीधारी कुलीन
वर्ग, सांप्रदायिक समूहों के नेता, व्यापारी और करोड़पति शामिल थे। ये प्रतिनिधि आपस में बँटे हुए थे और उन्होंने
कोई सुसंगत कार्यक्रम या एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का कोई प्रयास नहीं किया। कुछ तो हां-में-हां मिलाने
वाले प्रतिनिधियों के जमघट भर थे। निहित स्वार्थ वाले ऐसे जमघटों को इसलिए रखा गया
था कि जब ज़रूरत हो तो इन्हें राजनीतिक शतरंज में मुहरों की तरह इस्तेमाल किया जा
सके। इन्हें तो बस नौकरियों और काउंसिल में स्थान भर मिले जाए तो ये अंग्रेज़ों की
जी-हुज़ूरी में कुछ भी कर सकते थे। इनमें से प्रत्येक समूह ने अपने लिए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की। ऐसे लोगों के चयन के पीछे
अंग्रेज़ों का तर्क था कि कांग्रेस हिन्दुस्तान के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं
करती। दूसरे शब्दों में, विधान सभाओं में कुछ सीटें भारत में रहने वाले अंग्रेजों, ज़मींदारों, मुसलमानों आदि के लिए आरक्षित होंगी, और अंग्रेज केवल भारत के अंग्रेजों के वोटों से चुने जाएंगे, जो किसी और को वोट नहीं दे सकते, ज़मींदार ज़मींदारों द्वारा चुने जाएंगे, मुसलमान केवल मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दे सकते हैं, इत्यादि। भारत में हर विभाजनकारी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया गया। इस तरह ब्रिटिश सरकार अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई कि वह
सम्मेलन का ध्यान मूल प्रश्नों से हटा दे और उसे अप्रधान विषयों, विशेष कर
साम्प्रदायिक समस्या, में उलझा दे। गांधीजी
सम्मेलन
के सत्रों के बीच का समय चरखा कातते या लोगों से मिलते हुए नाइट्सब्रिज हाउस में
बिताया करते थे।
जी. डी. बिड़ला एक प्रतिष्ठित करोड़पति थे और गांधीजी के कभी-कभार समर्थकों
में से एक थे। सम्मेलन के दूसरे दिन, जब वे गांधीजी के साथ सेंट जेम्स पैलेस जा रहे थे, तो उन्हें लगा कि यह बिल्कुल संभव है कि गांधीजी ने अपना
भाषण तैयार करने की जहमत नहीं उठाई हो। पिछला दिन सोमवार था, उनका मौन व्रत का दिन, और इसलिए उन्होंने मेज पर कुछ नोट्स बाँटकर ही संतोष कर लिया था। "मुझे
लगता है," जी. डी. बिड़ला ने कहा, "आपने सोच लिया होगा
कि आप क्या कहना चाहते हैं।" "मैं बिल्कुल खाली हूँ," गांधीजी ने जवाब दिया। "लेकिन शायद ईश्वर मुझे
सही समय पर अपने विचारों को इकट्ठा करने में मदद करेंगे। आखिरकार, हमें साधारण लोगों की तरह बात करनी है। मुझे ज़्यादा बुद्धिमान दिखने की
कोई इच्छा नहीं है। एक साधारण ग्रामीण की तरह, मुझे बस इतना
ही कहना है: 'हमें आज़ादी चाहिए।'" जी. डी. बिड़ला परेशान थे। उनके लिए यह अकल्पनीय था कि एक व्यक्ति गोलमेज
सम्मेलन में बिना तैयारी के आए, और अपनी याददाश्त ताज़ा करने
के लिए एक भी नोट न लेकर आए। उन्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं थी। गांधीजी ने
वाक्पटुता से बात की, तुरंत आज़ादी की माँग की, और निष्कर्षतः सभी भारतीय नेताओं पर टालमटोल करने का आरोप लगाया। ब्रिटिश
सरकार किसी न किसी कारण से आश्वस्त थी कि गांधीजी केवल अपने और कांग्रेस के लिए
बोल रहे थे; अगर कोई मतदान हो सकता, तो
उन्हें मतदान से वंचित कर दिया जाता।
सत्र जल्द ही अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर गतिरोध में फंस गया, पृथक निर्वाचिका की मांग अब न केवल मुसलमानों द्वारा, बल्कि दलित जातियों,
भारतीय ईसाइयों,
एंग्लो-इंडियन और यूरोपीय लोगों द्वारा भी की जा रही थी, और ये सभी समूह 13 नवंबर को संयुक्त कार्रवाई के लिए एक 'अल्पसंख्यक' समझौते में एकजुट हुए।
15 सितंबर को सुबह 11 बजे गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में पहली बार कांग्रेस का
पक्ष रखा था। वे पहले वक्ता थे और पैंतालीस मिनट तक धीमी आवाज़ में बैठे-बैठे
बोलते रहे। भाषण तैयार नहीं था,
लेकिन बीच-बीच में वे अपने नोट्स का हवाला देते रहे। उन्होंने शुरू में ही कहा
कि वे पूरी तरह से सहयोग की भावना से लंदन आए हैं और सहमति के बिंदु खोजने के लिए
पूरी कोशिश करेंगे। लेकिन वे जानते थे कि सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के
बीच बुनियादी मतभेद थे,
और शायद अन्य प्रतिनिधियों और उनके बीच भी महत्वपूर्ण मतभेद थे। अंत में उन्होंने
कहा: "मैं ब्रिटिश द्वीपों के तटों से इस विश्वास के साथ जाना चाहूँगा कि
ग्रेट ब्रिटेन और भारत के बीच एक सम्मानजनक और समान साझेदारी होनी चाहिए। मैं आपके
बीच जितने दिन रहूँगा,
यही मेरी हार्दिक प्रार्थना होगी कि यह परिणति प्राप्त
हो।"
सम्मेलन में गाँधीजी ने अपनी मांगे
रखते हुए कहा कि केंद्र और
प्रान्तों में तुरंत और पूर्ण रूप से एक उत्तरदायी सरकार स्थापित की जानी चाहिए, केवल
कांग्रेस ही राजनीतिक भारत का प्रतिनिधित्व करती है, अस्पृश्य
भी हिन्दू हैं अतः उन्हें “अल्पसंख्यक” नहीं माना जाना चाहिए और मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक
निर्वाचन या विशेष सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया जाना चाहिए। गाँधी जी का कहना था कि सल्तनत को समझना चाहिए
कि आज़ाद और अंसारी जैसे मुसलमानों की भागीदारी वाली कांग्रेस एक हिन्दू संगठन नहीं, देश के पन्द्रह करोड़ ग़रीबों की
एक मात्र भारतीय संगठन कांग्रेस है। कांग्रेस पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व
करती है। ऐसी संस्था (कांग्रेस) ने स्वराज का हुक्म देकर मुझे अपना अधिवक्ता बनाकर
यहां भेजा है।
गांधीजी के इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती
दी। जिन्ना ने कहा कि ऐसा नहीं है, मुस्लिम लीग
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। दरअसल दूसरे गोलमेज सम्मेलन
के कुछ पहले जिन्ना भारत आया था। यहाँ उसने कांग्रेस के मुसलमान नेताओं को मुस्लिम
मोर्चे में लेने के लिए राज़ी करने की कोशिश की थी। उसने अपने 14 सूत्री मांगों पर
जोर दिया था। उसने यह भी कहा था कि निजी तौर पर वह साझा निर्वाचन क्षेत्र के पक्ष
में है। उसने चेतावनी देते हुए कहा था, “अगर ब्रिटिश सरकार हिन्दुओं
को उनकी इच्छा के अनुसार संविधान दे दिया तो स्वाभाविक रूप से मुसलमान इस संविधान
को तोड़ने, ख़त्म करने के लिए सब कुछ करेंगे।”
राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके
नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है।
तीसरी चुनौती वकील और विचारक बी.आर. आम्बेडकर
की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधीजी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का
प्रतिनिधित्व नहीं करते। अल्पसंख्यकों के मुद्दे को लेकर अधिवेशन में गतिरोध
उत्पन्न हो गया। अलग निर्वाचक मंडलों की मांग अब न केवल मुसलमान, बल्कि दलित
जातियां, भारतीय ईसाई, एग्लो-इंडियन और यूरोपियन भी करने लगे थे।
13 नवंबर को ये सब समूह संयुक्त
कार्रवाई के लिए ‘अल्पसंख्यक समझौते’ के रूप में एकजुट हो गए थे। अंग्रेज़
इस गतिरोध को हवा दे रहे थे। उनकी इस मिली-जुली चाल के विरुद्ध गांधीजी ने कड़ा
संघर्ष किया। वे सारी संवैधानिक प्रगति को सांप्रदायिक समस्या के समाधान पर आधारित
करना चाहते थे। गांधीजी ने कहा, “सबसे पहले स्वराज मिलना चाहिए। आज़ादी की गरमी,
सांप्रदायिक अलगाव रूपी बर्फ के टापुओं को गला देगी।” घुमा-फिराकर सारी बहस सांप्रदायिक सवाल पर के केन्द्रित कर दी जाती थी। गांधीजी
सरकार की इस चाल को तुरंत समझ गए। उन्होंने असंदिग्ध भाषा में यह कहते हुए स्थिति
को बिलकुल साफ कर दिया कि विभिन्न जातियों को अपने सारे ज़ोर के साथ अपनी-अपनी माँग
पर (सांप्रदायिक प्रश्न पर) ज़ोर देने के लिए उत्साहित किया गया है और एक तरह से यह
शर्त लगा दी गई है कि संवैधानिक प्रगति से पहले सांप्रदायिक समस्या हल हो ही जानी चाहिए।
उन्होंने पूछा कि “क्या प्रतिनिधियों को अपने घरों से छः हज़ार मील केवल सांप्रदायिक प्रश्न को हल करने के ही लिए
बुलाया गया है? हमें लंदन
इसलिए बुलाया गया है कि भारत की सर्वत्रता का सच्चा और सम्मानजनक ढाँचा तैयार कर
सकें। लेकिन यहाँ तो समस्या को बिलकुल उलटे रूप में पेश किया जा रहा है। रोटी कितनी
बडी है, यह बताए बिना ही उसके टुकडे करने को हमें कहा जा रहा
है। जो हमें मिलने वाला है वह साफ-साफ बता दीजिए तो उसी के आधार पर मैं परिषद के
प्रतिनिधियों की एक राय बनाने की कोशिश करूँगा। कम-से-कम मैं उन्हें यह तो कह सकूंगा
कि आप एक कीमती चीज़ के टुकडे-टुकडे किए दे रहे हैं।”
सम्मेलन ने एक अल्पसंख्यक समिति का गठन किया जिसमें इंग्लैंड से छह
अंग्रेज, तेरह मुस्लिम, दस हिंदू, दो अछूत, दो लेबर, दो सिख, एक पारसी, दो भारतीय ईसाई, एक एंग्लो-इंडियन (ब्रिटिश
पुरुषों और भारतीय महिलाओं के मिश्रित विवाहों के वंशज एंग्लो-इंडियन), भारत में रहने वाले दो अंग्रेज और चार महिलाएं शामिल थीं।
केवल महिलाओं ने ही पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मांग नहीं की। समिति के तेरह
मुसलमानों में से केवल एक राष्ट्रवादी मुसलमान था जो राजनीतिक रूप से भारतीय और
धार्मिक रूप से पैगंबर का अनुयायी था। शेष बारह ने चर्च और राज्य को एक साथ मिला
लिया और अपने धार्मिक समुदाय के राजनीतिक हितों को समग्र रूप से भारत के कल्याण से
ऊपर रखा। गांधीजी ने कहा वह ईश्वर या भारत का विभाजन नहीं करेंगे। उन्होंने
सम्मेलन में कहा कि वे सभी पृथक निर्वाचिकाओं को अस्वीकार करते हैं। उन्होंने
कहा कि स्वतंत्र भारत में,
भारतीय, भारतीयों के लिए भारतीय के रूप में मतदान करेंगे। भारतीय राष्ट्रवाद और बाहरी
लोगों के लिए इसके आकर्षण का गुण यह नहीं था कि यह नई राष्ट्रीय बाधाएँ खड़ी
करेगा—जो पहले से ही बहुत थीं—बल्कि यह था कि यह इंग्लैंड और दुनिया को
साम्राज्यवाद के कुचक्र से मुक्त करेगा और भारत की राजनीति से धर्म को बाहर कर
देगा। इसके बजाय, ब्रिटिश प्रबंधन के तहत
गोलमेज सम्मेलन ने पुराने और नए विभाजनकारी प्रभावों को और तीव्र किया और उन्हें
लागू करने का प्रयास किया। 'फूट डालो और राज करो,
साम्राज्य का नियम है; जितना अधिक शासन को खतरा होता है, उतनी ही अधिक लगन से इसे लागू किया जाता है।' जाति व्यवस्था एक और विभाजनकारी प्रभाव थी जिसने राष्ट्रवाद को कमज़ोर किया। डॉ.
भीमराव राव आंबेडकर,
जो एक वकील थे ने एक अलग निर्वाचक मंडल की माँग की।
5 अक्तूबर को गांधीजी मुसलमानों तथा अन्य
अल्पसंख्यकों की न्यायसंगत शिकायतों को दूर करने के लिए “उन्हें कोरा चेक” देने को तैयार थे, बशर्ते कि स्वतंत्रता की राष्ट्रीय मांग पर वे एक हो जाएं। अधिकांश हिन्दू
प्रतिनिधि सद्भावना के ऐसे प्रदर्शन और उदारता के लिए तैयार न थे। राष्ट्रवादी
मुसलमानों को तो कोई प्रतिनिधित्व मिला ही न था। गांधीजी ने इंग्लैंड और भारत के
बीच सम्मानजनक और बराबर की ऐसी साझेदारी का आग्रह किया जिसका आधार शक्ति न होकर “प्रेम की रेशमी डोरी हो।” लेकिन उन्हें सफलता प्राप्त करने
की कोई संभावना नहीं दिखाई दी। आगा खां ने सम्मेलन में सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी
हितों को ब्रितानी साम्राज्यवाद के संरक्षण में सुरक्षित किए रखने की जिद पकड़ ली।
हिन्दू और सिख सांप्रदायिकतावादी भी साम्राज्यवाद के हाथों की कठपुतली बन गए। फलतः
गांधीजी द्वारा सम्मेलन में एक संगठित मोर्चा प्रस्तुत करने का प्रयत्न असफल हो
गया। संघ के प्रश्न पर भी अब रजवाड़ों का दृष्टिकोण बदल गया था। वे इसके लिए उतने
उत्सुक नहीं थे, क्योंकि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेने के कारण
उन्हें केन्द्र में तत्काल बदलाव का भय नहीं रह गया था। अंग्रेज़ तो केन्द्र में
बदलाव की बात एकदम समाप्त कर देना चाहते थे, लेकिन जिन्ना, सप्रू और अंबेडकर के
विरोध के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। गांधीजी के विरोधियों ने कहा कि पहले सभी
समूहों में समझौता हो जाए, तभी आज़ादी मिलनी चाहिए, वरना स्वराज से अल्पसंख्यकों का दमन होगा। अपनी बेजोड़ ख्याति और प्रभुत्व
के बावजूद गांधीजी इस सम्मेलन में अकेले पड गए थे और उनके दृष्टिकोण के समर्थन की
गुंजाइश ही नहीं थी। बातचीत एक बार फिर से असफल
रही।
सम्मेलन
विफल रहा
1 दिसंबर, 1931 को गोलमेज सम्मेलन के अंतिम पूर्ण अधिवेशन में, अध्यक्ष, जेम्स रैमसे मैकडोनाल्ड, प्रधानमंत्री, 27 अक्टूबर, 1931
के आम चुनावों के बाद से, जो लेबर सरकार के नहीं, बल्कि टोरी सरकार के थे, जिसमें वे और जे. एच. थॉमस थे,
ने गाँधी को हिंदू बताया। 'हिंदू नहीं,'
गांधी ने कहा। अपने ईश्वर के लिए, गांधी एक
हिंदू थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के लिए, और राजनीति में,
वे एक भारतीय थे। लेकिन गोलमेज सम्मेलन
में ऐसे भारतीय बहुत कम थे और भारत में तो और भी कम। यही गोलमेज सम्मेलन का नतीजा
था। यह पूरी तरह से निष्फल रहा। इसने भारत में स्थिति को और बदतर बना दिया।
गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। गांधीजी ने इस घटनाक्रम का पूर्वानुमान लगा लिया था।
लेकिन अन्य तरीकों से गांधीजी की इंग्लैंड यात्रा, और बाद में महाद्वीप के अन्य हिस्सों की यात्रा, एक तरह से पूर्णतः सफल रही। जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों की गर्मजोशी और
उदार प्रतिक्रिया ने सरकारी कारनामों से गांधीजी को हुई पीड़ा की भरपाई कर दी।
उन्होंने भारत के मित्रों की एक बैठक में कहा: कोई भी ईमानदार और सच्चा प्रयास
कभी विफल नहीं हुआ। लेकिन अगर मैं अपने काम के संबंध में इन ठंडी और कष्टदायक
कठिनाइयों का सामना कर रहा हूँ, तो मुझे सम्मेलन और समितियों के बाहर केवल चिरस्थायी आनंद ही मिल रहा है। लोग
सहज रूप से इस बात को समझते प्रतीत होते हैं।
गोलमेज सम्मेलन से कोई हल नहीं निकला। चार्ली एंड्रयूज़ ने इसे "एक
बड़ी विफलता" बताया,
लेकिन ज़्यादातर सफलता गांधीजी की बदौलत मिली थी। गोलमेज सम्मेलन की त्रासदी
यह थी कि बहुत कम चर्चा हो पाई। गाँधीजी एक वकील की तरह बोले, किसी ग्रामीण की तरह नहीं, लेकिन वे चर्चा नहीं कर रहे थे। वे ऐसी बातें कह रहे थे जो कहने की ज़रूरत थी, कानून बना रहे थे, परोक्ष अल्टिमेटम जारी कर रहे थे; और न तो ब्रिटिश सरकार और न ही भारतीय प्रतिनिधि उनकी उपस्थिति में सहज महसूस
कर रहे थे। गाँधीजी ने कहा कि जब उन्होंने प्रतिनिधियों की सूची देखी तो उन्हें
अवास्तविकता का अहसास हुआ। वे किसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे? वे क्या माँग कर रहे थे? सम्मेलन में उठाए गए तकनीकी प्रश्नों पर, उन्होंने उपसमिति की कई बैठकों में अपनी बात रखी। उन्होंने
अप्रत्यक्ष चुनाव, वयस्क मताधिकार, एकल-कक्षीय विधायिका, सीमांत प्रांत के लिए पूर्ण स्वायत्तता की वकालत की, और वे ब्रिटिश सेना को भारत में तब तक रहने देने के लिए
तैयार थे जब तक भारतीय सेना को प्रशिक्षित करना आवश्यक था। उन्होंने कहा, "हमारे पंख काटने के बाद, हमें उड़ने के लिए पंख देना उनका कर्तव्य है।" उन्होंने इस सिद्धांत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि ब्रिटिश वाणिज्यिक
समुदाय के साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे कोई भी भावी भारतीय सरकार भाग्य को बंधक बनाने के लिए बाध्य हो
जाएगी। उन्होंने सेंट जेम्स पैलेस में कुल बारह भाषण दिए, जिनमें से ज़्यादातर बिना नोट्स के। किसी भी तैयारी के अभाव में कोई बड़ी हानि
नहीं हुई; वह बेहतर ढंग से बिना तैयारी के बोलते थे। लंदन में उनका एक ही उद्देश्य था:
भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ना। बस लंदन में मौजूद रहना, सबके लिए उपलब्ध रहना,
लगातार सार्वजनिक रूप से दिखाई देना और अखबारों में तस्वीरें छपवाना, एक तरह की जीत थी। अपनी महज़ उपस्थिति से ही वे लंदनवासियों का ध्यान भारतीय
स्वतंत्रता की ओर मोड़ रहे थे।
गोलमेज परिषद में गांधीजी की कोई बात नहीं सुनी
गई। भाग ले रहे 112 सदस्यों में से कुछ ने ही गांधीजी का पक्ष लिया। गांधीजी की आजादी की मांग का आंबेडकर और आगा
खान आदि ने समर्थन नहीं किया था। उनकी कोई भी दलील वहां काम नहीं आई। गांधीजी को
स्वीकार करना पड़ा, ‘ब्रिटेन की सरकार ने मेरा और कांग्रेस का विरोध करने के लिए
जितने तत्त्व गोलमेज परिषद में इकट्ठा कर दिए गए थे उनकी सही ताकत को आंकने में
मुझसे भूल हुई।’ ब्रिटिश सरकार अपने इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई कि वह
सम्मेलन का ध्यान मूल प्रश्नों से हटा दे और उसे अप्रधान विषयों, विशेष कर साम्प्रदायिक समस्या,
में उलझा दे। ब्रिटिश सरकार ने चतुराई से महाराजाओं, मुसलमानों,
हरिजनों और ऐसी ही अलग-अलग इकाइयों के प्रतिनिधि बुलाकर यह जताया कि कांग्रेस
हिन्दुस्तान के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। अपने-अपने संप्रदायों की
मांगों को लेकर भारतीय प्रतिनिधि सौदेबाज़ियां कर रहे थे। अंग्रेज़ कूटनीतिज्ञ
दुनिया को यह दिखला रहे थे कि भारतीयों में ही एकता नहीं है, तो हम उन्हें
स्वराज्य कैसे दे दें! मुसलमानों को पृथक मताधिकार देने का निश्चय किया गया।
दलितों ने भी पृथक मताधिकार की मांग करनी आरंभ की। इससे सामन्तशाही और विभाजक
शक्तियों को बल मिल रहा था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैक्डोनल्ड ने 1 दिसंबर, 1931 को यह कहकर गोलमेज परिषद को समाप्त कर दिया कि सांप्रदायिक समस्या
के हल के लिए एक समिति नियुक्त की जाएगी, जो भारत जाकर इस प्रश्न का सर्वसम्मत हल
खोज निकालेगी। उसने सुधारों की एक योजना पेश की, जिसमें संघीय केंद्र और स्वायत्तता,
प्रान्तों के लिए सीमित स्वायत्तता तथा वित्त, विदेशी व्यापार और युद्ध एवं सुरक्षा संबंधी मामलों में
अंग्रेजी सरकार और वायसराय का एकाधिकार स्थापित करने की बात की गई थी।
महान गुजराती कवि मेघानी ने एक प्रसिद्ध कविता में आरटीसी के बारे में
राष्ट्रवादी आशंकाओं को अभिव्यक्ति दी। लंदन प्रस्थान की पूर्व संध्या पर गांधीजी
को संबोधित करते हुए, उन्होंने पहली पंक्ति गाई:
'चेल्लो कटोरो जेर्नो आ: पी जयो बापू!' (ज़हर का यह आखिरी प्याला भी, तुम्हें पीना ही होगा, बापू!) गांधीजी
ने स्वयं कहा था: 'जब मैं लंदन की
संभावनाओं के बारे में सोचता हूँ, जब मुझे पता चलता है कि भारत में सब कुछ ठीक नहीं है... मुझे घोर निराशा से
भरने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए... मेरे खाली हाथ लौटने की पूरी संभावना है'। लंदन में ठीक यही हुआ। ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता की
मूल भारतीय माँग को मानने से इनकार कर दिया। गांधीजी दिसंबर 1931 के अंत में बदली
हुई राजनीतिक स्थिति में वापस लौटे।
भारत में उच्च ब्रिटिश अधिकारियों ने दिल्ली समझौते के राजनीतिक प्रभाव से
अपने सबक सीखे थे, जिसने कांग्रेस की
राजनीतिक प्रतिष्ठा और जनता के राजनीतिक मनोबल को ऊँचा उठाया था और ब्रिटिश
प्रतिष्ठा को कमज़ोर और कमज़ोर किया था। वे, और साथ ही नए वायसराय, मानते थे कि सरकार ने
कांग्रेस के साथ बातचीत और युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर करके एक बड़ी गलती की
थी, मानो दो समान शक्तियों के बीच समझौता हो रहा हो। वे अब इसे
पलटने के लिए दृढ़ थे। कोई समझौता नहीं, कोई युद्धविराम नहीं, कोई गांधी-वायसराय
बैठक नहीं, कोई 'दुश्मन के लिए कोई जगह नहीं', ये सब सरकारी नीति के मूलमंत्र बन गए।
प्रभाव
:
ब्रिटेन आर्थिक संकट से गुजर रहा था और वहां की
सरकार भी बदल गई थी। नये मंत्रिमंडल में कंजरवेटिव दल का बहुमत था। इंग्लैंड की
जनता अपनी ही समस्याओं में उलझी थी। उसके लिए अपने आर्थिक संकट का प्रश्न, भारत के लिए संवैधानिक सुधारों से
ज्यादा महत्वपूर्ण और जरूरी था। अतः भारतीय समस्या का महत्व, निश्चित रूप से कम हो गया। ब्रिटिश प्रतिनिधियों का इस बात पर जोर था कि
वित्त के क्षेत्र में आरक्षित शक्तियां वायसराय के पास ही रहे। उस समय भारतीय
वित्त मंत्री के पास 130 करोड़ रु. के राजस्व में से केवल 14 करोड़ रु. का ही नियंत्रण रहता था। व्यापारी प्रतिनिधि भी ज़ोर देकर यह
मांग कर रहे थे कि व्यापार-संबंधी रक्षक उपाय किए जाए जिससे भारत में ब्रिटिश
पूंजी के निवेशक को राष्ट्रवादी सरकारों की ‘भेदभावपूर्ण’ नीतियों से बचाया जा
सके। नये भारत सचिव सर सैम्युअल होर ने गांधीजी से कहा कि “मेरा यह निश्छल विश्वास है कि भारतीय पूर्ण स्वराज्य के अयोग्य हैं।” सैम्युअल होर ने विलिंगड़न को यह सलाह दी, “पहला क़दम तो यही उठाया जाए कि भारतीयों को फिर वापस प्रादेशिक स्वायत्तता की ओर अधिकाधिक ठेला जाए।”
सम्मेलन के शुरू में ही गांधीजी ने स्पष्ट कर
दिया था कि कांग्रेस, पूर्ण
स्वतंत्रता के पक्ष में है। इसीलिए उनको सम्मेलन में किसी समझौते की आशा बिलकुल भी
नहीं थी। उन्होंने अपना अधिकांश समय अंग्रेजों में भारत के प्रति सहानुभूति
उत्पन्न करने के प्रयास में बिताया था। लोगों से मिल-जुल कर वह ब्रिटिश जनता की
नज़रों में भारत के उद्देश्य को उचित और न्याय संगत प्रमाणित करने की ओर अधिक ध्यान
दे रहे थे। गांधीजी के ही शब्दों में, “मैं सम्मेलन का वास्तविक
उद्देश्य पूरा कर रहा हूं, जो है लंदन
के लोगों से मिलना और उन्हें समझाना। मेरा काम सम्मेलन के बाहर है। मेरे लिए यही
असली गोलमेज सम्मेलन है। जो बीज मैं इस समय बो रहा हूं, हो सकता है कि उसके कारण
ब्रिटिश लोगों का रवैया हमारी तरफ़ नरम पड़ जाए।”
लंदन में हुआ दूसरा गोलमेज सम्मेलन किसी नतीजे
पर नहीं पहुँच सका। गाँधीजी को खाली हाथ लौटना पड़ा। गांधीजी के इंग्लैंड जाने से
पहले कांग्रेस और सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, वह वस्तुतः टूट चुका था। इंग्लैंड में चौरासी दिन बिताने के बाद, गांधीजी फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड होते हुए भारत लौट आए। उन्होंने फिर कभी
इंग्लैंड नहीं देखा। इटली में ब्रिंदसी से भारत के लिए पानी के जहाज से रवाना
हुए और 28 दिसम्बर को वे मुम्बई पहुंचे। वह बहुत उत्साहित और आशावान नहीं थे। उनके साथ
छल हुआ था। आज़ाद मैदान में बहुत बड़ी भीड़ उनके स्वागत के लिए इकट्ठी हुई थी।
उन्होंने उदास भाव से कहा, “मैं ख़ाली हाथ लौटा हूं, मगर मैंने अपने देश के सम्मान को ताक पर रख कर कोई
समझौता नहीं किया है।”
उधर लॉर्ड विलिंगड़न और ब्रिटेन की नई सरकार भारत
के स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुचल देने पर आमादा थे। अंग्रेज़ अधिकारी दिल्ली समझौते
के राजनीतिक प्रभाव से सबक सीख चुके थे। इस समझौते ने कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिष्ठा
काफ़ी बढ़ाई थी। जनता का मनोबल बढ़ा था। अंग्रेज़ों की इज्ज़त गिरी थी। अंग्रेज़ अधिकारी
अब यह मानने लगे थे कि कांग्रेस के साथ बातचीत और समझौता करके सरकार ने ग़लती की
है। इस समझौते ने कांग्रेस को सरकार के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था। विलिंगडन ने
‘कोई समझौता नहीं, कोई सुलह नहीं, कोई बातचीत नहीं और दुश्मन के लिए कोई जगह नहीं’
की नीति अपना ली थी। पहले तो विलिंगडन ने दी गई रियायतों को वापस ले लिया।
गांधी-इरविन समझौते को फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। फिर उसने भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस को ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया और उस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए।
26 दिसंबर को गांधीजी का स्वागत
करने जब मुम्बई के लिए जवाहरलाल नेहरू निकले तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में सरकार अहिंसक ख़ुदाई-ख़िदमतगारों और किसानों पर जुल्म
ढा रही थी। ये सरकार के दमनात्मक तरीक़े से लगान वसूली का विरोध कर रहे थे। 24 दिसंबर को इनके नेता ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को गिरफ़्तार कर जेल में डाल
दिया गया। पेशावर ज़िले पर सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था। कानून के बदले अध्यादेश द्वारा शासन चलाया जाने लगा। एक संकटकालीन अध्यादेश
ज़ारी किया गया, जिसके तहत सरकार किसी को भी गिरफ़्तार कर सकती थी और बिना मुकदमा
चलाए उन्हें जेल में रख सकती थी जिन्हें वह विद्रोही समझती थी। इस पर गांधीजी ने
टिप्पणी की, ये सब हमारे ईसाई वायसराय लार्ड विलिंगडन के क्रिसमस उपहार हैं।
अब वर्किंग कमेटी के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं रह गया था कि वह फिर से सविनय अवज्ञा
शुरू करे। 28 दिसंबर को गांधीजी बंबई आए।
अगले ही दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक
हुई। सविनय अवज्ञा आंदोलन को फिर से चलाने का निर्णय लिया गया।
देश भर में बड़े स्तर पर दमन की कार्रवाई चालू
थी। 29 दिसंबर को गांधीजी ने वायसराय
को भेजे गए तार द्वारा अध्यादेशों, गिरफ़्तारियों की भर्त्सना की और उससे मिलने का
समय मांगा, जो नहीं मिला। 31 दिसंबर वायसराय के सचिव ने
उत्तर दिया कि कांग्रेस द्वारा सरकार का विरोध करने के कारण ये अध्यादेश आवश्यक
हैं। होर ने घोषणा की, “इस बार फैसला होकर रहेगा।” गांधीजी ने जब आन्दोलन
करने की चेतावनी दी, तो उन्हें 4 जनवरी, 1932 को गिरफ्तार कर लिया गया।
उपसंहार
:
इस सम्मेलन में विभिन्न समूहों की
भागीदारी के कारण, ब्रिटिश सरकार ने दावा किया कि
कांग्रेस पूरे भारत के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इन समूहों में अधिकांश निहित स्वार्थ वाले लोग थे। कुछ तो
हां-में-हां मिलाने वाले प्रतिनिधियों की भीड़ भर थे। निहित स्वार्थ वाले ऐसे झुण्ड
को इसलिए रखा गया था कि जब ज़रूरत हो तो इन्हें राजनीतिक शतरंज में मुहरों की तरह
इस्तेमाल किया जा सके। इन्हें तो बस किसी सरकारी विभाग में स्थान भर मिले जाए तो
ये अंग्रेज़ों के तलवे चाटने के लिए तैयार थे। कई
प्रतिनिधि समूहों के बीच समझौते की कमी थी, जिसका मतलब था कि सम्मेलन से
भारत के संवैधानिक भविष्य के बारे में कोई ठोस परिणाम नहीं निकलने वाला था। सरकार
ने आजादी की बुनियादी भारतीय मांग को मानने से इनकार कर दिया। दर असल शुरू से ही अंग्रेजों की मंशा ठीक नहीं थी। कई प्रतिनिधि रूढ़िवादी, सरकारी वफादार और
सांप्रदायिक थे, और इन समूहों का उपयोग औपनिवेशिक सरकार
द्वारा गांधीजी के प्रयासों को बेअसर करने के लिए किया गया था। सांप्रदायिक वर्ग गांधीजी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन
लोगों ने साप्रंदायिक प्रश्नों को ही प्राथमिकता दी। गांधीजी के जीवनी लेखक विन्सेंट शीन ने
ठीक ही कहा है, “भारत का भविष्य तय करने वाले एक मंच के रूप में
गोलमेज सम्मेलन की शुरूआत कुछ आशाजनक नहीं थी, क्योंकि इसमें ऐसे तत्त्वों का
समावेश था जो मूलत: फूट डालने वाले थे।” इस सम्मेलन ने भारतीयों में विभाजन की खाई को और
गहरा करके स्थिति को और बिगाड़ दिया। अंग्रेजों का लक्ष्य तो था ही - ‘फूट डालो और
राज करो’!! ब्रितानी सरकार इस नीति के
तहत सांप्रदायिकतावादी हिन्दुओं और मुसलमानों के हाथ मज़बूत करने के लिए कृतसंकल्प
थी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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