राष्ट्रीय आन्दोलन
309. साइमन कमीशन
1928
प्रवेश
1927 के उत्तरार्ध से ही साम्राज्यवाद विरोधी जन-आंदोलन की
गति में उल्लेखनीय वृद्धि होने लगी। ब्रिटिश सरकार ने 8 नवंबर 1927 को एक श्वेत आयोग की घोषणा करके उत्प्रेरक और
एक रैली का आधार प्रदान किया, जिसे यह सिफारिश करनी थी कि क्या भारत आगे
संवैधानिक प्रगति के लिए तैयार है और किस दिशा में। भारत सरकार अधिनियम, 1919 में प्रावधान था कि दस वर्ष बाद (यानी 1929 में) शासन
योजना की प्रगति का अध्ययन करने और नए कदमों का सुझाव देने के लिए एक आयोग नियुक्त
किया जाएगा। 1920 के दशक के द्वितीयार्ध में धीरे-धीरे देश की परिस्थिति में बहुत
कुछ परिवर्तन आ चुका था। धीरे-धीरे देश की मानसिकता में मूलभूत परिवर्तन आ चुका था। लोगों के मन में भय और कुंठा की जगह आक्रामकता और स्वाभिमान
ने जगह ले ली थी। गांधीजी के लेखों-प्रवचनों से जनता में जागृति आ गई थी। विदेशी
वस्त्रों का बहिष्कार और खादी के प्रचार-प्रसार से साम्राज्यवादियों की आमदनी कम
हो चुकी थी। असहयोग आन्दोलन से सरकारी काम-काज ठप्प हो चुका था। लोगों के दिलों से
सरकार का डर दूर हो चुका था। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों ने अपना रंग ज़माना शुरू
कर दिया था। साम्यवादियों के उदय से श्रमिक वर्ग का क्षोभ हड़तालों के रूप में
प्रकट हो रहा था। जगह-जगह किसानों और निम्न जातियों का आन्दोलन अपना व्यापक प्रभाव
दिखा रहा था। चंपारण सत्याग्रह से शुरू हुआ सत्याग्रह आन्दोलन इतना विस्तार पा
चुका था कि ब्रिटिश सरकार के मन में यह दहशत समा गई थी कि कहीं 1857 की तरह का विद्रोह न भड़क जाए। क्रांतिकारी
आन्दोलनकारियों की गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ अधिकारियों के मन में डर समाया रहता
था। अंग्रेज़
अफ़सर अपनी कोठियों में डरे-सहमे रहते थे। दुनिया
में अंग्रेज़ों की इज़्ज़त कम हो रही थी। इन सब से परेशान होकर, ब्रिटेन की
कंजर्वेटिव सरकार ने लेबर पार्टी के हाथों चुनावी हार की संभावना का सामना करते
हुए, नियत समय से दो साल पहले ही, लिबरल पार्टी के स्टेनली बाल्डविन के प्रधानमंत्रित्व काल में, ब्रिटिश
सरकार ने शासन सुधार के नाम पर एक पार्लियामेंटरी समिति ‘इन्डियन स्टेच्युटरी
कमीशन’ का गठन किया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे। इसीलिए इसे साइमन आयोग
(कमीशन) भी कहा जाता है।
साइमन आयोग (कमीशन)
का गठन
8 नवम्बर, 1927 को इस वायसराय
ने एक बयान में वैधानिक आयोग की नियुक्ति की घोषणा भारत में की। इस कमीशन का
उद्देश्य था कि वह भारत में घूमकर स्थिति को समझे और तंत्र में सुधार के उपाय
सुझाए ताकि भारतीयों को राहत दी जा सके। लेकिन यह मात्र दिखावा था। ब्रिटेन की
लिबरल सरकार द्वारा गठित आयोग में अध्यक्ष सहित कुल सात
सदस्य थे। इसमें ब्रिटेन के तीनों प्रमुख राजनीतिक दलों,
कन्ज़र्वेटिव, लिबरल और लेबर के प्रतिनिधि, सर जॉन साइमन,
(लिबरल, अध्यक्ष), क्लेमेंट एटली, (लेबर), वर्नोन हार्टशोर्न, (लेबर), एडवर्ड कैडोगन (कंजर्वेटिव),
जॉर्ज लेन-फॉक्स, (कंजर्वेटिव), हैरी लेवी-लॉसन, प्रथम विस्काउंट और डोनाल्ड हॉवर्ड, तीसरा बैरन, शामिल
किए गए थे। क्लेमेंट एटली आगे चलकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने।
घोषणा में कहा गया था कि आयोग को "ब्रिटिश भारत में
सरकार की प्रणाली की कार्यप्रणाली, शिक्षा के विकास और प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास तथा उससे
संबंधित मामलों की जांच करने का कार्य सौंपा जाएगा, तथा आयोग इस बारे में रिपोर्ट देगा कि क्या और किस सीमा तक
उत्तरदायी सरकार के सिद्धांत को स्थापित करना वांछनीय है, या तत्कालीन विद्यमान उत्तरदायी सरकार के स्तर को विस्तारित, संशोधित या सीमित करना वांछनीय है, जिसमें यह प्रश्न भी शामिल है कि स्थानीय विधानमंडलों के
दूसरे सदनों की स्थापना वांछनीय है या नहीं।" ऐसा कहा गया कि भारतीयों को
इसमें शामिल नहीं किया गया, क्योंकि उनकी कोई भी सलाह उन विचारों का
प्रतिनिधित्व करेगी, जिनके प्रति वे पहले से प्रतिबद्ध थे, उनके निष्कर्ष पूर्व-तर्क की प्रक्रिया से प्रभावित होंगे
और उनका निर्णय "भारत को एक स्वशासित राष्ट्र देखने की इच्छा" से
प्रभावित होगा।
आयोग केवल ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। यह सब उस
समय के भारत मंत्री लॉर्ड बर्किनहैड के दिमाग की उपज थी। ब्रिटेन में राष्ट्रीय
चुनाव आसन्न थे, और बिरकेनहेड को डर था कि उनकी टोरी पार्टी
लेबर से हार सकती है, जैसा कि 1929 में हुआ। हॉउस ऑफ कामंस में उसने
कहा था, “क्या इस पीढी, दो पीढ़ियों या सौ सालों में भी ऐसी संभावना दिखाई पड रही है, कि भारत के लोग सेना, नौसेना तथा प्रशासनिक सेवाओं
का नियंत्रण संभालने की स्थिति में हो जाएंगे और उनका एक गवर्नर जनरल होगा, जो इस देश की किसी भी सत्ता के प्रति नहीं, अपितु
भारतीय सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा?” भारतीयों को अपमानित करने के उद्देश्य से आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य को नहीं लिया गया था। यह
नस्लभेद का एक घिनौना उदाहरण था। बिरकेनहेड के इस ताने, कि भारतीय किसी भी व्यावहारिक राजनीतिक
ढांचे पर सहमत होने में पूरी तरह से असमर्थ हैं, को भारतीयों ने राष्ट्रीय
स्वाभिमान का अपमान समझा। उन्होंने इसका विरोध करने का निश्चय किया। कांग्रेसियों
ने इसे 'श्वेत कमीशन' कहा।
गांधीजी को इरविन से
मिलने का बुलावा
अप्रैल 1926 में लॉर्ड रीडिंग ने पद छोड़ दिया और उनकी जगह
लॉर्ड इरविन ने ले ली, जो भविष्य का विस्काउंट हैलिफ़ैक्स था और एक
बिल्कुल अलग व्यक्तित्व का व्यक्ति था। वे खुद को तानाशाह के बजाय मध्यस्थ मानता था।
1 अप्रैल, 1926 को लॉर्ड इरविन नए वायसराय के रूप में
भारत पहुंचा। लेकिन उन्नीस महीनों तक इरविन ने गांधी को न तो कोई निमंत्रण भेजा और
न ही सबसे प्रभावशाली भारतीय के साथ भारतीय स्थिति पर चर्चा करने की कोई इच्छा
जताई। अक्टूबर, 1927 को पश्चिमी तट पर मैंगलोर में वक्ताओं के
साथ बातचीत करते समय गांधीजी के पास एक संदेश पहुंचा कि वायसराय 5 नवंबर को उनसे
मिलना चाहते हैं। सारा कार्यक्रम रद्द कर महात्मा ने 1250 मील की यात्रा की - दो
दिन की रेल यात्रा - नई दिल्ली पहुँचे। वे दिल्ली पहुंचे। नियत समय पर उन्हें
लॉर्ड इरविन के समक्ष उपस्थित किया गया। वे अकेले नहीं गए। वायसराय ने राष्ट्रीय
विधान सभा के अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल, 1927 के लिए कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष एस. श्रीनिवास
अयंगर और 1928 के लिए कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष डॉ. एम. ए. अंसारी को भी
आमंत्रित किया था। इरविन ने उन्हें यह सूचना दी कि भारत में
वैधानिक सुधार लाने के लिए एक रिपोर्ट तैयार की जा रही है, जिसके लिए एक कमीशन
बनाया गया है, जिसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन होंगे। गांधीजी
ने पूछा, “क्या बस यही काम है?” इरविन ने कहा, “बस यही।” गांधीजी ने जवाब दिया, “यह संदेश तो एक आने के लिफाफे द्वारा भी दे सकते थे।” वायसराय कमीशन के प्रति सबकी सद्भावना प्राप्त करना चाहता था। लेकिन गांधीजी को इस
कमीशन की उपयोगिता में बिल्कुल भी श्रद्धा नहीं थी। साइमन कमीशन के सात सदस्यों
में से एक भी भारतीय को सदस्य नहीं रखा गया था। गांधीजी ने इसे भारतीय नेताओं का अपमान माना और बिना किसी टिप्पणी के वापिस लौट आए। चुपचाप गांधीजी दक्षिण
भारत लौट आए और वहां से खादी के लिए धन इकट्ठा करने के लिए सीलोन चले गए। इरविन को
उम्मीद थी कि भारतीय आयोग के सामने गवाही देंगे और उसे प्रस्ताव प्रस्तुत करेंगे।
साइमन कमीशन का बहिष्कार
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बयालीसवाँ अधिवेशन, जिसमें
गांधीजी ने भाग नहीं लिया था,26 दिसम्बर 1927 को मद्रास में
प्रारम्भ हुआ। डॉ. एम. ए. अंसारी इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। कांग्रेस ने आयोग के बायकॉट
करने का फैसला लिया। अध्यक्ष ने कहा था, “साइमन आयोग की नियुक्ति द्वारा निश्चय ही यह साबित कर दिया
गया है कि लोकप्रिय सरकार की स्थापना में उठाये जाने वाले किसी भी कदम या स्वराज
संबंधी अपनी योग्यता-अयोग्यता की जांच-पड़ताल में हम पक्ष नहीं हो सकते। आयोग में
जानबूझ कर भारतीयों को शामिल न करके उनके आत्मसम्मान को आहत किया गया है।” उनके इस वक्तव्य ने लिबरल फेडरेशन के तेजबहादुर सप्रू जैसे
बहुत से उदारवादियों को आकर्षित किया। हालांकि, दक्षिण में जस्टिस पार्टी ने सरकार का समर्थन किया था, लेकिन जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का एक गुट, हिन्दू-महासभा, कम्युनिस्ट पार्टी, किसान मजदूर पार्टी, फिक्की और अन्य दलों ने भी साइमन
कमीशन के बहिष्कार का निश्चय किया। हालांकि मोहम्मद शफी के नेतृत्व में लाहौर में
लीग के एक अलग अधिवेशन में पृथक निर्वाचन क्षेत्र छोड़ने से इनकार कर दिया गया और
आयोग के साथ सहयोग करने का निर्णय लिया गया। एम. ए. जिन्ना ने तुरंत ही कांग्रेस, लीग, लिबरल फेडरेशन, फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, मिल-ओनर्स एसोसिएशन और हिंदू महासभा जैसे विभिन्न दलों और
समूहों के नेताओं से टेलीग्राफिक के माध्यम से संपर्क किया। सभी साइमन कमीशन की
निंदा करने पर सहमत हुए और एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया। कांग्रेस और हिंदू
महासभा ने अपने-अपने बयान जारी किए। घोषणापत्र में घोषणा की गई कि आयोग से
भारतीयों को बाहर रखना मूल रूप से गलत था, और विधानमंडलों की समितियों को आयोग के समक्ष अपने विचार
प्रस्तुत करने और बाद में संयुक्त संसदीय समिति से परामर्श करने की अनुमति देने के
प्रस्ताव मामले की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त थे। भारत
इस अंतर्निहित धारणा को स्वीकार नहीं कर सकता था कि साक्ष्य एकत्र करने या
सिफारिशें करने में भारतीयों की कोई आधिकारिक आवाज़ नहीं होनी चाहिए।
पूरे भारत में स्वतः ही एक आंदोलन शुरू हो गया कि साइमन
कमीशन को उसके अध्ययन में मदद न की जाए, न ही उसके सामने कोई योजना रखी जाए। भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस ही थी जिसने बहिष्कार को एक लोकप्रिय आंदोलन में बदल दिया। कांग्रेस का विरोध
केवल प्रस्ताव पारित करने तक सीमित नहीं था, जैसा कि गांधीजी ने 12 जनवरी 1928 के यंग इंडिया के अंक में स्पष्ट किया था: 'ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता प्रस्ताव एक उचित उत्तर है।
(साइमन कमीशन की) नियुक्ति के कार्य को उत्तर की आवश्यकता है, भाषणों की नहीं, चाहे वे कितने भी वीरतापूर्ण क्यों न हों, घोषणाओं की नहीं, चाहे वे कितने भी साहसी क्यों न हों, बल्कि इसके अनुरूप कार्रवाई की आवश्यकता है।' जब 1928 का साल शुरू हुआ तो देश में
साइमन कमीशन की नियुक्ति पर रोष तो था ही, लॉर्ड इरविन ने घोषणा कर दी थी कि यदि
कमीशन के काम में भारतीयों की सहायता नहीं मिली, तब भी कमीशन अपना काम चलाता रहेगा
और पार्लियामेंट में रिपोर्ट पेश कर देगा। इस धमकी के बावजूद कोई भी कांग्रेसी
नेता या डेलिगेशन कमीशन से नहीं मिला। जहां-जहां कमीशन गया उसे काले झंडे दिखाए गए
और ‘साइमन गो बैक’ का नारा लगाया गया। 3 फरवरी, 1928
को कमीशन बंबई बंदरगाह पर उतरा। बॉम्बे पहुंचने पर साइमन कमीशन का स्वागत
काले झंडों से किया गया और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाते हुए जुलूस निकाले गए। उसके
विरोध में देशव्यापी हड़ताल आयोजित की गई। दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, मद्रास, लहौर,
लखनऊ, पेशावर और मध्य प्रांत के सभी 14 ज़िलों में हड़ताल पूरी
तरह सफल रही। अपने ढ़ंग की यह पहली हड़ताल थी। बंबई का छात्र समुदाय काला झंडा
लहराते हुए सड़कों पर निकल आया। सारा शहर बंद था। 30 हज़ार
लोगों का शांतिपूर्ण जुलूस सारे शहर में घूमा। के.के. नरीमन ने बंबे यूथ लीग की
विशाल जनसभा की। साइमन के साथ साथ कमीशन के अन्य सदस्यों स्टेनले बाल्डविन,
बरकेनहेड और मैकडोनल्ड के पुतले जलाए गए। आयोग अलग-थलग पड़ गया। मद्रास में भी हड़ताल
के साथ साथ 30 हज़ार लोगों की एक सभा हुई जिसकी अध्यक्षता एस.
सत्यमूर्ति ने की। 19 फरवरी को साइमन के कलकत्ता पहुंचने पर
भारी प्रदर्शन किया गया। 1 मार्च को कलकत्ता के सभी 32 वार्डों में एक साथ ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का अह्वान करने वाली
सभाएं आयोजित की गईं। पुलिस ने सभी शहरों में प्रदर्शनकारियों पर डंडे बरसाए। दिल्ली
में आयोग के स्वागत के लिए कोई भी भारतीय नहीं गया।
लाला लाजपत राय का
निधन
पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों
से निपटने के तरीके पर लोगों में गुस्सा भी था। लाठीचार्ज बहुत ज़्यादा हो रहे थे
और यहाँ तक कि सम्मानित और वरिष्ठ नेताओं को भी नहीं बख्शा जा रहा था। लखनऊ में
जवाहरलाल और गोविंद बल्लभ पंत को पुलिस ने पीटा। लेकिन सबसे बुरी घटना लाहौर में
हुई, जहाँ राष्ट्रीय आन्दोलन के नायक और पंजाब के सबसे सम्मानित
नेता लाला लाजपत राय को सीने पर लाठियाँ लगीं और 17 नवंबर को उनकी मृत्यु हो गई।
यह उनकी मृत्यु थी जिसका बदला भगत सिंह और उनके साथी दिसंबर 1928 में गोरे पुलिस
अधिकारी सॉन्डर्स की हत्या करके लेना चाहते थे।
30 अक्तूबर को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में एक जुलूस लाहौर
में सचिवालय के सामने इस कमीशन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा था। उस पर लाठीचर्ज कर
दिया गया। वृद्ध अवस्था में भी लाला लाजपतराय को बुरी तरह पीटा गया। लालाजी उसके
बाद कभी स्वस्थ नहीं हुए और 17 नवम्बर 1928को उनका
देहावसान हो गया। अपने घायल अवस्था में मृत्यु से पूर्व लाला लाजपत राय ने कहा था
कि “मेरे ऊपर जिस लाठी से प्रहार किए गए हैं, वही लाठी एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के
ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।” लालाजी के देहावसान से सारा देश तिलमिला उठा। महात्मा
गांधी ने भी लाला लाजपत राय की मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए कहा था कि “भारतीय सौर मंडल का एक सितारा डूब गया है। लाला जी की
मृत्यु ने एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है, जिसे भरना अत्यंत कठिन है। वे एक देशभक्त
की तरह मरे हैं और मैं अभी भी नहीं मानता हूँ कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, वे अभी भी जिंदा है।”
28-30 नवंबर को लखनऊ में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस निकला, जिसका नेतृत्व
जवाहरलाल नेहरू ने किया था। जवाहरलाल नेहरू और गोविंदवल्लभ पंत पर लाठीचार्ज हुआ।
किसी तरह वे बच गए। इसके अलावा लखनऊ में खलीकुज्जमा ने भी साइमन कमीशन का विरोध
किया था। ताल्लुकदारों द्वारा कैसरबाग़ में साइमन आयोग के लिए स्वागत समारोह में
ख़लीक़ुज़्ज़मां ने ऐसी पतंगे और गुब्बारे उड़ाए जिन पर ‘साइमन वापस जाओ’ लिखा था। मद्रास
में साइमन कमीशन का विरोध टी प्रकाशम के नेतृत्व में किया गया था। लोनावला और पूना
के बीच एक लंबे रास्ते तक सड़क और रेल-पटरी एक-दूसरे की नज़र में थी। पूना के युवा
एक ट्रक में चढ़ गए और साइमन एंड कंपनी को ले जा रही ट्रेन के साथ-साथ गाड़ी चलाते
रहे और लोनावला से पूना तक पूरे रास्ते उन पर काले झंडे लहराते रहे। सारे देश में
लोगों ने यातना सहकर भी कांग्रेस के अभियान को पूर्ण समर्थन दिया। ‘गो बैक’ का
उद्घोष चारों ओर गूंजता था। इस ‘गो बैक’ के नारों से परेशान साइमन कमीशन बड़ी फजीहत
लेकर इंग्लैंड लौट गया। साइमन कमीशन के बहिष्कार से देश की सोई राजनीति
में एक उफान सा आ गया। इधर-उधर बिखरे हुए सारे राजनैतिक दल एक मंच पर आ गए।
गांधीजी ने इस चर्चा में
शामिल होने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह उनके लिए एक अलग विषय है, लेकिन वे कांग्रेस की राय का पालन करेंगे। उन्होंने कहा कि
उन्होंने साइमन कमीशन के मामले में अपनी अंतरात्मा की आवाज कांग्रेस के अध्यक्ष के
पास रख दी है। गांधीजी ने नवंबर का अधिकांश समय सीलोन का दौरा करते हुए बिताया। 12
नवंबर को वहां पहुंचकर वे 30 तारीख को भारत लौट आए।
आयोग की सिफारिशें
- 'रद्दी
की टोकरी में फैंकने के लायक़’
साइमन ने समझौता करने की कोशिश की। इरविन ने प्रलोभन दिया
और खुशामद की। कुछ कटु या महत्वाकांक्षी अछूतों और मुट्ठी भर बहुत ही मामूली
राजनेताओं को साइमनाइट्स के सामने आने के लिए प्रेरित किया गया। लेकिन कोई भी
प्रतिनिधि भारतीय उनसे मिलने नहीं आया। उन्होंने ईमानदारी से मेहनत की और बहुमूल्य
तथ्यों और आंकड़ों का एक बुद्धिमानी से संपादित संग्रह तैयार किया। यह ब्रिटिश
शासन पर एक विद्वत्तापूर्ण समाधि-लेख था।
साइमन आयोग ने अपना रिपोर्ट प्रस्तुत किया जिसे जून, 1930 में प्रकाशित किया गया। इसमें द्वैध
शासन को समाप्त करने और प्रान्तों को स्वायत्तता सौंपने की सिफारिश की गयी थी।
भारतीयों के मताधिकार के विस्तार का भी प्रस्ताव था। साथ ही मुसलमानों को विशेष
प्रतिनिधित्व देने की बात की गयी थी। काउंसिलों में देशी रियासतों के प्रतिनिधियों
को शामिल करने का सुझाव था। सेना के भारतीयकरण का भी सुझाव था। स्वराज के बारे में
कोई सुझाव नहीं था। इस रिपोर्ट में भारतीयों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों के
अयोग्य बताया गया था, जिसे एक तरह से भारतीयों को अपमानित किया जाना ही माना जाना
चाहिए। राजनीतिक दस्तावेज़ के रूप में आयोग की रिपोर्ट कागजों का मात्र एक ऐसा पुलिंदा
भर थी, जिसे सर शिवस्वामी अय्यर ने 'रद्दी की टोकरी में
फैंकने के लायक़’ बताया था। एक तरफ जहाँ इस आयोग में
किसी भारतीय को शामिल न कर उनका अपमान किया गया वहीं दूसरी तरफ भारतीयों को
उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों के अयोग्य बताया गया। अत: हम कह सकते हैं कि ‘साइमन कमीशन
भारतीयों की आँखों में धूल झोंकने का एक तरीका था और उनके जले पर नमक छिड़कने का
प्रयास’।
साइमन कमीशन के
बहिष्कार का प्रभाव और उपसंहार
साइमन आयोग की नियुक्ति ने न केवल पूर्ण स्वतंत्रता बल्कि
समाजवादी तर्ज पर प्रमुख सामाजिक-आर्थिक सुधारों की मांग करने वाली भारतीय ताकतों
को प्रोत्साहन दिया। वैसे तो साइमन कमीशन का गठन अंग्रेजों की औपनिवेशिक चाल का ही
एक हिस्सा था, लेकिन यह दाव उनके लिए उलटा पड गया। नियत समय से दो साल पहले ब्रिटेन
की लिबरल सरकार उस समय भारत में आयोग भेजना चाहती थी, जबकि देश में सांप्रदायिक दंगे उफान पर थे,
भारत की एकजुटता नष्ट हो चुकी थी, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक ठहराव था और
गांधीजी के नेपथ्य में चले जाने का कारण यह दिशाहीन थी। इस शाही आयोग की नियुक्ति इस उद्देश्य से की गयी थी कि आयोग यह समीक्षा
करेगा कि भारत और अधिक सुधारों और संसदीय जनतंत्र के योग्य हुआ है या नहीं।
साम्राज्यवादियों को विश्वास था कि सुधारों के प्रस्तावों पर नियत समय से दो साल
पहले काम शुरू करके राष्ट्रीय आन्दोलन को बढ़ने से रोक दिया जाएगा। लेकिन घोषणा के
बाद आक्रोश का ऐसा तूफ़ान उठा जिसने उनकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया। भारतवासियों
ने इस आयोग को भारतीय जनता पर एक अपमान और धब्बा के रूप में लिया। साइमन कमीशन के
बहिष्कार से देश की सोई राजनीति में एक उफान सा आ गया। इसने कांग्रेस के टिमटिमाते
दिए में फिर से जान फूँक दी। इधर-उधर बिखरे हुए सारे राजनैतिक दल एक मंच पर आ गए।
‘साइमन लौट जाओ’ के नारे ने राष्ट्रीय संघर्ष में एकता का एक
विश्वास पैदा किया। साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध में सब दल एक हो गए। पहली बार बड़ी
संख्या में मज़दूरों और छात्रों ने भी बहिष्कार के निर्णय में कांग्रेस का साथ
दिया। साइमन आंदोलन में भागीदारी ने पूरे देश में युवा लीग और युवक संघों के गठन
को वास्तविक बढ़ावा दिया। हालाकि देश ने लालाजी जैसे महान सपूत को खोया था, लेकिन जवाहर लाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस युवाओं और छात्रों की नई लहर
के नेता के रूप में उभरे। साइमन आयोग के कारण संवैधानिक सुधार तात्कालिक राष्ट्रीय
मुद्दा बन गया था। साइमन आयोग के बहिष्कार का परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही दिनों बाद सविनय
अवज्ञा आन्दोलन के रूप में देश ने साम्राज्यवादियों से संघर्ष किया और मार्च, 1931 के गांधी-इरविन समझौते तक राष्ट्रीय आन्दोलन ने लगभग समानता की
स्थिति प्राप्त कर ली थी। गांधीजी के साथ बराबरी से बात करके इरविन ने उन्हें एक
नया क़द प्रदान किया। अत: निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि साइमन कमीशन की नियुक्ति से
भारतीयों दलों में व्याप्त आपसी फूट एवं मतभेद की स्थिति से उबरने एवं राष्ट्रीय
आन्दोलन को उत्साहित करने में सहयोग मिला। साइमन
बहिष्कार आंदोलन ने राष्ट्रवादी ताकतों के तेजी से विकास को प्रेरित किया, जो न केवल पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे, बल्कि समाजवादी दिशा में कई तरह के सामाजिक-आर्थिक बदलावों
की भी मांग कर रहे थे।
1930 तक, हालांकि, गांधी ने भारत और इंग्लैंड के बीच संबंधों को कठोर सौदेबाजों के बीच
बातचीत में बदल दिया था। 1930 तक, ब्रिटिश हुक्म के प्रति
भारतीयों का स्वतः पालन अतीत की बात हो गई थी। अनजाने में, 1928,
1929 और 1930 में, यहां तक कि खुद उन्हें भी
नहीं पता था, और बाहरी लोगों को भी शायद ही पता चला हो,
भारतीय स्वतंत्र व्यक्ति बन गए। शरीर में अभी भी बेड़ियां थीं;
लेकिन आत्मा जेल से बाहर निकल आई थी। गांधीजी ने चाबी घुमा दी थी।
दुश्मन के खिलाफ सेनाओं का निर्देशन करने वाला कोई भी जनरल कभी भी उस संत से अधिक
निपुणता के साथ नहीं चला, जो अपनी ढाल के रूप में धार्मिकता
और अपने भाले के रूप में नैतिक कारण से लैस था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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