राष्ट्रीय आन्दोलन
311. युवाओं द्वारा आंदोलन
1928
राष्ट्रीय आन्दोलन में
अब जगह-जगह पर, शहरी प्रदर्शनों
में, खास तौर से शहरों में युवाओं का प्रदर्शन हो रहा था। युवाओं
के बीच यह उभार समाजवाद के नए क्रांतिकारी विचारों के अंकुरण और प्रसार के लिए भी
एक उपयोगी आधार साबित हुआ। इसमें मध्यम वर्ग के छात्र और युवक प्रमुख रूप से भाग
लेते थे। युवा वर्ग पूर्ण
स्वराज के लिए आतुर था। 1928 और 1929 छात्र और युवा सम्मेलनों और संघों से भरे साल
थे। वे क्रांतिकारी सामाजिक और आर्थिक बदलावों की मांग उठा रहे
थे। वह संगठित भी हो रहा था और संघर्ष के लिए सड़क पर भी आ रहा था। इस वर्ग के
प्रवक्ता थे जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस। देश में बड़े पैमाने पर युवा
आन्दोलन हो रहा था। इनकी मांगों में दो मांगें प्रमुख होती थीं, एक पूर्ण
स्वाधीनता और दूसरी सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन। यूथ लीग और छात्र संगठन आंदोलन की मुख्य धारा को प्रभावित कर रहे थे। 1927 में युवा वर्ग जनरल नेल की प्रतिमा हटाने के आन्दोलन में शरीक हो चुका था। कई युवा पुलिस की गोली के शिकार हुए। यह वर्ग पूर्ण स्वाधीनता की मांग करने लगा था। वे पूरे देश में सविनय अवज्ञा
आन्दोलन छेड़ने के हिमायती थे।
जवाहरलाल नेहरू 1927 में साम्राज्यवाद के खिलाफ लीग के
ब्रुसेल्स कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने के बाद
यूरोप से लौटे थे। उन्होंने सोवियत संघ का भी दौरा किया और समाजवादी विचारों से
बहुत प्रभावित हुए। ब्रसेल्स में हुए लीग ऑफ
कांग्रेस लौटने के बाद से ही जवाहरलाल
नेहरू ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को वामपंथ की ओर मोड़ने का प्रयास किया। युवाओं
के साथ उन्होंने पहली बार अपने विकसित दृष्टिकोण को साझा किया। कांग्रेस के युवा
वर्ग पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा था। 1927 के अंत में जब साइमन कमीशन की घोषणा हुई, तो नेहरू ने
इसका हर स्तर पर विरोध करने की अपील की। पूर्ण स्वाधीनता की मांग की गई। अब युवा वर्ग के लिए
हरी झंडी मिल गई थी, जिसका उन्हें लंबे समय से इंतज़ार था। 1928 में
बंबे प्रेसीडेंसी यूथ लीग ने पूना में दिसंबर में सम्मेलन कर देश के सामने अपने
कार्यक्रम निर्धारित कर दिए। जिनमें से मुख्य था, पूर्ण स्वाधीनता के लिए संघर्ष,
सांप्रदायिकता का विरोध, सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रगतिशील नीतियों को अपनाना,
मज़दूरों के हितों की आवाज़ उठाना। ‘यंग लिबरेटर’ और ‘वैंगार्ड’ नामक साप्ताहिक पत्र
भी ये निकालते थे। बंगाल में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में ‘अखिल बंगाल छात्र
सम्मेलन ने भी क्रांति का बिगुल बजा दिया।
कांग्रेस ने हिन्दुस्तानी
सेवा दल के माध्यम से युवकों को संगठित करने का प्रयास किया। इस संगठन की
शुरुआत एन.जी. हार्डिकर ने की थी। कांग्रेस ने हिंदुस्तानी सेवा दल की शुरुआत 1920 के दशक में कर्नाटक
में एन.जी. हार्डिकर के नेतृत्व में, और 1928 और 1929 के दौरान जवाहरलाल
नेहरू और सुभाष बोस देश के कई हिस्सों में युवा सम्मेलनों को संबोधित करने में
व्यस्त रहे। दिसंबर 1928 में कलकत्ता में जवाहरलाल ने एक समाजवादी युवा कांग्रेस
की अध्यक्षता की,
जिसने
स्वतंत्रता को 'साम्यवादी समाज के लिए
एक आवश्यक प्रारंभिक कदम'
बताया, जबकि सुभाष ने एक अन्य
युवा कांग्रेस को कुछ अस्पष्ट तरीके से संबोधित करते हुए 'जर्मनी, इटली, रूस और चीन' के युवा आंदोलनों की
अंधाधुंध प्रशंसा की।
मद्रास में एक साल
पहले जवाहरलाल रिपब्लिकन कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, जिसने पूर्ण
स्वतंत्रता की मांग की थी,
साम्राज्यवाद
के खिलाफ लीग के साथ घनिष्ठ संबंधों का आह्वान किया था, और अल्लूरी सीताराम
राजू के साथ-साथ सैको और वैनजेटी (अमेरिका के इतालवी मजदूर शहीद) की प्रशंसा करते
हुए प्रस्ताव पारित किए थे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में युवा और उग्र
राष्ट्रवादियों की नेहरू रिपोर्ट पर अपनी अलग आपत्तियाँ थीं। वे भारत के भावी
संविधान के आधार के रूप में स्वशासित डोमिनियन की तर्ज पर डोमिनियन स्टेटस की
घोषणा से असंतुष्ट थे। उनका नारा था 'पूर्ण स्वतंत्रता।' जब नेहरू रिपोर्ट ने
डोमिनियन स्टेटस का विकल्प चुना, तो जवाहरलाल और सुभाष ने कांग्रेस
के भीतर एक दबाव समूह के रूप में भारत के लिए स्वतंत्रता लीग का गठन किया, ताकि पूर्ण स्वतंत्रता
के लक्ष्यों को स्वीकार करने के लिए अभियान चलाया जा सके।
दिसंबर 1928 में
कलकत्ता में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में यह लड़ाई शुरू हुई। जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस और
सत्यमूर्ति ने बड़ी संख्या में प्रतिनिधियों के समर्थन से कांग्रेस के लक्ष्य के
रूप में 'पूर्ण स्वराज' या पूर्ण स्वतंत्रता
को स्वीकार करने पर जोर दिया। गांधीजी, मोतीलाल नेहरू और कई अन्य वरिष्ठ
नेताओं ने महसूस किया कि डोमिनियन स्टेटस पर इतनी बड़ी मुश्किल से हासिल की गई
राष्ट्रीय सहमति को इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जाना चाहिए और सरकार को इसे स्वीकार
करने के लिए दो साल का समय दिया जाना चाहिए। दबाव में, सरकार के लिए अवधि
घटाकर एक वर्ष कर दी गई और,
इससे
भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस ने फैसला किया कि यदि सरकार वर्ष के अंत तक
डोमिनियन स्टेटस पर आधारित संविधान को स्वीकार नहीं करती है, तो कांग्रेस न केवल
पूर्ण स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य बनाएगी, बल्कि उस लक्ष्य को प्राप्त करने
के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन भी शुरू करेगी।
नेहरू की पहल पर ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ का गठन
हुआ और बंगाल शाखा के अध्यक्ष बने सुभाषचन्द्र बोस। जवाहरलाल नेहरू और
सुभाषचन्द्र बोस देश के विभिन्न भागों में जाकर युवकों की सभाओं को संबोधित करते
थे। ये इन सभाओं में स्वतंत्रता का आह्वान किया करते थे। अपने पूर्ण स्वाधीनता के
लक्ष्यों को स्वीकार करवाने के लिए इन्होंने कांग्रेस के भीतर ही एक दबाव समूह के रूप
में ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ की स्थापना की। इस लीग के मंच से नेहरू
ने ‘समाजवादी जनतांत्रिक राज्य’ की बात की थी। इस राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को
विकास के पूरे अवसर होंगे। इसके तहत उनका विचार था कि उत्पादन के साधनों और वितरण
पर राज्य का नियंत्रण होगा। ये सब
कांग्रेस के भीतर ताकतवर ग्रुप के रूप में उभरे।
पंजाब में भी 1926 से ही भगत सिंह के नेतृत्व में ‘नौजवान भारत सभा’ ने काम करना शुरू कर दिया था। बारदोली सत्याग्रह के समय सभी छात्र संगठनों ने
काफी सक्रिय आन्दोलन का नेतृत्व किया था। बोस और नेहरू देश भर का दौरा कर युवाओं
प्रेरित कर रहे थे। इस प्रकार बोस और नेहरू कांग्रेस की राजनीति को बहुत हद तक
बदलने में कामयाब रहे। कांग्रेस अब एक जुझारू संगठन बन चुका था।
लेकिन यह संगठन कोई
ठोस कार्य करने या विस्तृत संगठन बनाने में असफल रहा। जुलाई 1929 में नेहरू ने गांधीजी
के सामने माना, ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ एक निराशाजनक असफलता सिद्ध
हुई है। मुझमें समूहों और दलों का गठन
हिंदुस्तान
समाजवादी प्रजातंत्र संघ
मौखिक कट्टरवाद से असंतुष्ट होकर, शिक्षित शहरी युवाओं का एक वर्ग एक बार फिर
क्रांतिकारी तरीकों की ओर मुड़ गया। बंगाल में, बुजुर्ग अनुशीलन और युगांतर दादाओं ने धैर्यपूर्वक तैयारी
करने की सलाह दी,
किसी भी तत्काल कार्रवाई को
हतोत्साहित किया और इस बीच खुद को कांग्रेस के गुटीय झगड़ों में उलझा लिया। गांतर
ने सुभाष और अनुशीलन सेनगुप्ता का उस भयंकर संघर्ष में साथ दिया जो बोस की रिहाई
के तुरंत बाद 1928 से शुरू हुआ था। इस वातावरण में भगतसिंह देश के स्वतंत्रता
आन्दोलन के क्षितिज पर उदय हुए। सितंबर 1928 को दिल्ली के फीरोजशाह कोटला में आयोजित एक सभा में
भगतसिंह और उनके पंजाब समूह, सचिन सान्याल के भाई यतीन्द्रनाथ घोष, यूपी से अजय
घोष और बिहार से फणीन्द्रनाथ घोष ने मिलकर हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ
की स्थापना की। इसके नेता नए विचारों के प्रति अत्यंत खुला दृष्टिकोण रखते थे। इस
संगठन ने उन दिनों कई कार्य किए। एच.एस.आर.ए. के कार्यों में दिसंबर 1928 में
लाहौर में लाजपत राय पर हमले का बदला लेने के लिए सॉन्डर्स की हत्या, 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्ता
द्वारा विधान सभा में बम फेंकना, दिसंबर
1929 में दिल्ली के पास इरविन की ट्रेन को उड़ाने का प्रयास और 1930 में पंजाब और
उत्तर प्रदेश के शहरों में आतंकवादी कार्रवाइयों की एक पूरी श्रृंखला शामिल थी। 8
अप्रैल, 1929 को, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA)
के भगत सिंह और बटुकेश्वर
दत्त ने केंद्रीय विधान सभा में हानिरहित बम फेंके और उन्हें गिरफ्तार कर लिया
गया। एच.एस.आर.ए. और इसके प्रभाव में खुले युवा संगठन, नौजवान भारत सभा, का
वास्तव में एक बहुत व्यापक दृष्टिकोण था। युवा संगठन, नौजवान भारत सभा, का
वास्तव में एक बहुत व्यापक दृष्टिकोण था। जैसा कि भगत सिंह ने अपने लेख में स्पष्ट
किया है, उनके लिए क्रांति बम और पिस्तौल का पंथ नहीं है, बल्कि समाज का संपूर्ण परिवर्तन है, जिसकी परिणति विदेशी और भारतीय पूंजीवाद दोनों
को उखाड़ फेंकने और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना में होती है। 'क्रांति मानव जाति की अविभाज्य आत्मा है।
स्वतंत्रता सभी का अनिवार्य जन्मसिद्ध अधिकार है। मजदूर ही समाज का वास्तविक
पालनहार है... इस क्रांति की वेदी पर हम अपनी जवानी को धूप की तरह लेकर आए हैं, क्योंकि इतने महान उद्देश्य के लिए कोई भी
बलिदान कम नहीं है। हम संतुष्ट हैं। हम क्रांति के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
इंकलाब जिंदाबाद।'
असेंबली बमों का उद्देश्य
केवल प्रदर्शन करना था, और
इसका अवसर, काफी हद तक, मजदूर विरोधी व्यापार विवाद विधेयक था।
जतीन दास का बलिदान
इसी तरह हिंसप्रस के जतीन दास ने भी अपने
बलिदान द्वारा बहुत ही ऐतिहासिक काम किया। 1929 में राजनीतिक क़ैदियों
की जेल में नारकीय जीवन-सी की हैसियत में सुधार के लिए उन्होंने भूख हड़ताल की। इस
हड़ताल के चौंसठवें दिन उनका देहांत जेल में ही हो गया। इस घटना से युवाओं में विद्रोह
का ज्वालामुखी फट पड़ा। बंगाल और देश के विभिन्न भागों में प्रदर्शन और हड़तालें
हुईं। क्रांतिकारी युवकों का साहस बढ़ा।
साइमन आंदोलन में भागीदारी ने ही पूरे देश में
युवा लीगों और संगठनों के गठन को वास्तविक प्रोत्साहन दिया। जवाहरलाल नेहरू और
सुभाष बोस युवाओं और छात्रों की इस नई लहर के नेता के रूप में उभरे और उन्होंने एक
प्रांत से दूसरे प्रांत की यात्रा की और असंख्य युवा सम्मेलनों को संबोधित किया और
उनकी अध्यक्षता की। युवाओं में राष्ट्रीयता के प्रति उभार के परिणामस्वरूप, जो युवा लोग साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन की ओर
आकर्षित हो रहे थे,
वे समाजवाद के विचारों के
प्रति भी सहानुभूति रखने लगे और कुछ क्षेत्रों में युवा समूहों ने मजदूरों और
किसानों के संघर्षों से भी संबंध विकसित कर लिए। एच.एस.आर.ए. के नायकों और शहीदों
ने उल्लेखनीय लोकप्रियता हासिल की। सितंबर 1929 में जब राजनीतिक कैदियों की
स्थिति में सुधार के लिए भूख हड़ताल के 64वें दिन जतिन दास की जेल में मृत्यु हो
गई, तो कलकत्ता में उनकी अर्थी के पीछे दो मील लंबा
जुलूस निकाला गया। जवाहरलाल ने अपनी आत्मकथा में बाद में पंजाब और उत्तर भारत में
भगत सिंह की 'अचानक और आश्चर्यजनक लोकप्रियता' को याद किया और एक गोपनीय खुफिया ब्यूरो के
खाते, भारत में आतंकवाद (1917-1936) ने यहां तक कहा
कि 'एक समय के लिए, उन्होंने श्री गांधी को उस समय के सबसे प्रमुख राजनीतिक
व्यक्ति के रूप में पीछे छोड़ दिया था।'
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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