306. भंसाली की कथा
आचार्य भंसाली
अहमदाबाद के कॉलेज में प्राध्यापक रह चुके थे। वे गांधी जी के बरसों से क़रीबी
सहयोगी थे। गांधी जी उनकी तापसिक मान्यताओं और उन पर अमल करने की उनकी दृढ़ता का
बहुत सम्मान करते थे। अनशन करने में उनका कोई मुकाबला नहीं था। पहली बार जब
उन्होंने अनशन किया, तो वह 40 दिनों का था। दूसरी बार 55 दिनों का और
तीसरी बार 63 दिनों
का। आष्टी-चिमूर के अत्याचारों के निषेध में किया गया 63 दिनों का यह
का अनशन तो देश-विख्यात अनशन था। आष्टी-चिमूर में स्त्रियों पर पुलिस ने अत्याचार
किया था। उसकी करुण कहानी सुनकर आचार्य भंसाली का हृदय व्यथित हो उठा और उसके
विरोध में उन्होंने अनशन किया। भारत के इतिहास में इस अनशन की एक अमर कहानी बन गई।
इस अनशन के दौरान भंसाली ने शुरू के पन्द्रह दिन पदयात्रा की थी और पानी पीना भी
छोड़ दिया था। आखिर के 48 दिन वे बिस्तर पर थे। वह दौर 1942 के ‘भारत
छोड़ो’ आन्दोलन का दौर था। सरकार ने आन्दोलन में जनता को बेरहमी से कुचला था। लेकिन
भंसाली के इस अनशन ने जनता में एक अलग ही चेतना पैदा की थी। उस समय रेल की पटरी
उखाड़ने, तार
काटने, डाक के
डिब्बे जलाने के कार्यकमों का जवाब तो सरकार के पास था, लेकिन एक
विशुद्ध नैतिक प्रश्न को लेकर एक संत ने जो अनशन किया था उसका जवाब उस निष्ठुर
सरकार के पास कुछ नहीं था। हारकर सरकार ने उस अत्याचार की जांच करना स्वीकार कर
लिया था। इस भारत की नारीत्व की मर्यादा का रक्षण हुआ।
एक दिन वे
हिमालय की यात्रा पर निकल चुके। आश्रम से हिमालय तक अपनी यात्रा में भंसाली ने
बारह साल तक मौन व्रत रखने का संकल्प ले लिया था। वे अपने किसी पाप का प्रायश्चित
करना चाहते थे। हिमालय से वापस आते समय एक रात, वे
मैदानी इलाके में एक गांव में मवेशी के बाड़े में सो रहे थे कि अचानक किसी पशु की
आहट पर जाग गए। उनके मुंह से अनायास निकला,
“कौन है?” उन्हें फ़ौरन ही अहसास हुआ कि उनका मौन
व्रत तो भंग हो गया। आगे ऐसा न हो, यानी नींद में
मौन न टूटे, इसके लिए उन्होंने एक सुनार को राज़ी
किया कि वह उनके होठों को तांबे के तार से सिल दे ताकि नींद में भी व्रत न टूटे।
उस दौरान वे आटा और नीम के पत्तियों का पानी में घोल बनाकर पीते थे। यही उनका आहार
था। सुनार ने तांबे की एक नली भी उन्हें दी थी जिसे मुंह के एक छोर में घुसाकर वे
वह घोल पिया करते थे।
महीनों से
उन्होंने बाल नहीं बनवाया था। दाढ़ी-मूंछ भी काफ़ी
बढ़ी हुई थी। फिर भी जब वे आश्रम पहुंचे तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया। “भंसाली भाई आ गए!” जंगल
की आग की तरह यह खबर पूरे आश्रम में फैल गई। जब वे बापू के कमरे तक पहुंचे उनके
पीछे दर्जनों आश्रमवासी थे। बापू किसी बीमार आश्रमवासी को देखने गए थे। सब लोग
बापू की प्रतीक्षा करने लगे। जब बापू लौटे तो भंसाली को देखते ही उनका चेहरा खिल
उठा। दोनों दोस्त गले मिले। संयोग से वह दिन बापू के मौन का दिन था। बापू लगातार
मुस्कुरा रहे थे। सिर हिला रहे थे।
अगले दिन बापू
ने भंसाली के होंठों को सीने वाला तार निकाल देने का आदेश दिया। भंसाली बाबा ने
तार कटवा लिए। बाद में बहस करके गांधीजी ने मौन व्रत में से भगवान के नामोच्चारण
करने की छूट पर उन्हें राज़ी करवाया। वे फौरन तो उन्हें मौन व्रत तोड़ने के लिए राज़ी
नहीं कर पाए। जब दोनों में चर्चा होती बापू बोलते जाते और भंसाली बापू से लिख कर
संवाद करते थे। धीरे-धीरे बापू ने उन्हें चर्चा के समय मौन छोड़ने का आग्रह किया।
अंततः भंसाली केवल बापू से बातचीत शुरू करने पर राज़ी हुए। कुछ दिनों के बाद आश्रम
के बच्चों को पढ़ाने के लिए भी मौन छोड़ने पर गांधीजी ने उन्हें मना लिया। वे आश्रम
के बच्चों को पढ़ाने लगे। वे गांधीजी की कोई बात नहीं काटते थे। लेकिन एक बार उनके
बीच मतभेद उभर आया। आश्रम की एक बहन की एक छोटी-सी भूल के कारण गांधीजी ने उसे
आश्रम छोड़कर चले जाने को कहा था। वह विधवा थी। उसने भंसाली बाबा से अपना दुखड़ा
सुनाया कि वह कहां जाए? भंसाली बाबा
को लगा कि गांधीजी के हाथों अन्याय हो रहा है। उन्होंने गांधीजी से कहा, “आपने इस बहन को आश्रम छोड़ने का आदेश दिया है, तो मैं भी आश्रम छोड़कर चला।” गांधीजी
को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। दुर्बल और पीड़ितों के लिए भंसाली बाबा का हृदय बहुत
संवेदनशील था। ग़रीबों के साथ अन्याय होता वे देख नहीं सकते थे।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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