मंगलवार, 11 मार्च 2025

308. एक वर्ष तक साबरमती आश्रम में रहने का निर्णय

 308. एक वर्ष तक साबरमती आश्रम में रहने का निर्णय


1927

असहयोग आन्दोलन की व्यस्तता के कारण आश्रम विकास को गांधीजी पूरा समय नहीं दे पा रहे थे। कुछ समय के लिए बाहरी गतिशीलता को रोककर विचारशील आत्मचिंतन करना चाहते थे। इसलिए 1927 में उन्होंने पूरे एक वर्ष तक साअबरमती अश्रम में रहने का निर्णय लिया। इस वर्ष उन्होंने अनेक काम किए। ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ के माध्यम से क्रांतिकारी विचारधारा को पूरे देश में फैलाया। निरुत्साहित लोगों को आध्यात्मिक शक्ति जगाकर साहस दिया। आश्रम सारे देश की प्रयोगशाला था। हर विषय पर नए ढ़ंग से सोचा जाता। चाहे वह चूल्हा-चक्की हो, या पाखाने की सफाई, चाहे गुड़ाई-निराई हो या फलों की कलम तैयार करना। सबसे अच्छा चरखा बनाने के लिए उन्होंने पांच सौ रुपए के पुरस्कार की घोषणा की थी। लोगों को उपनिषद सिखाया जाता, वेदांत का मर्म समझाया जाता। पंडित खरे संगीत सिखाते। राजेन्द्र बाबू रामायण के माध्यम से हिंदी सिखाते। एक अपूर्व दिव्यता से आश्रम सुरभित रहता।

भगवत्भक्ति आश्रम में

26 मार्च 1927 को बापू एक दिन के लिए रेवाड़ी के भगवत्भक्ति आश्रम में दिल्ली से आए। उनके साथ महादेव भाई और देवदास गांधी थे। बापू काफ़ी ख़ुश थे। आसपास के गांवों के लोग उनके दर्शन के लिए दोपहर में आश्रम के फाटक पर जमा हो गए। गांधीजी ने उन्हें चरखा कातने और गांवों में शौचालय बनाने के महत्व के बारे में बताया। शाम के समय टहलते वक़्त बापू ने मीरा बहन से पूछा कि उन्हें भगवत्भक्ति आश्रम का जीवन कैसा लग रहा है तो मीरा बहन ने बताया कि बापू के आश्रम की तरह वहां का जीवन उन्हें पसंद नहीं आ रहा और वे वहां के लोगों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।

दिल का दौड़ा

मार्च 1927 के अंतिम सप्ताह में बापू को भारी दिल का दौड़ा पड़ने वाला था, लेकिन वे बच गए। उनका रक्तचाप बहुत ऊंचा हो गया था। डॉक्टरों ने इसे काम की थकान और घबराहट का नतीज़ा बताया। उन्हें पूर्ण विश्राम की सलाह दी गई। गांधी जी की प्रस्तावित दक्षिण भारत की यात्रा रद्द कर दी गई।

मृत्यु की घोषणा

बहुत लोगों को शायद पता न हो कि गांधी जी जिन्होंने यह घोषित कर रखा था कि वे 125 साल तक जिएंगे, ने यह भविष्यवाणी की थी कि उनकी मत्यु 13 अप्रैल 1928 के पहले कभी भी हो सकती है। जब अपने सारे प्रयासों के बावज़ूद हिन्दू-मुसलिम सौहार्द्र स्थापित करने में सफल नहीं हुए तो उन्होंने जीने की तमाम उम्मीदें छोड़ दी थीं। और न ही फरवरी 1924 में यरवदा जेल से छूटने के बावज़ूद भी वे असहयोग अन्दोलन को फिर से ज़ारी नहीं कर पाए।

ऐसा लग रहा था कि उन्होंने सक्रिय राजनीति से अवकाश ले लिया हो और अपना सारा समय अन्य रचनात्मक कार्य जैसे चरखे से सूत कातने का प्रचार-प्रसार, स्वदेशी, अस्पृश्यता निवारण और ग्राम अर्थव्यवस्था का पुनर्निमाण, में लगाने लगे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे काफ़ी यात्रा करने लगे। अनगनित सभाओं को संबोधन करने के लिए की गई इन यात्राओं ने उनको थका डाला। मार्च 1927 में पूणा रेलवे स्टेशन पर गांधी जी को काफ़ी कमज़ोरी महसूस हुई। उन्हें चक्कर आने लगा। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उन्हें टांग कर बंगलोर जाने वाली ट्रेन तक लाना पड़ा। उन्हें ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। उनका ब्लडप्रेशर बढ़ गया था। डॉक्टर ने कहा कि उनकी स्थिति बहुत ही नाज़ुक है। कम से कम दो महीने आराम करने की सलाह दी गई। डॉ. बी.सी. रॉय, जो बाद के दिनों में उनके चिकित्सक रहे और डॉ. एफ. गिल्डर जो बम्बई और लन्दन में प्रैक्टिस करते थे ने कहा कि उन्हें हल्का स्ट्रोक आया था।

इसके बाद कई पत्रों में गांधी जी ने अपनी संभावित मौत का ज़िक्र किया, किसी भी तरह से मैं 13 अप्रैल 1928 से अधिक नहीं जीने वाला। मार्च 1927 में सतीश चन्द्र दास को लिखे पत्र में उन्होंने बताया , मेरी घड़ी की सूई अटक गई है, मुझे कोई नई बात नहीं कहनी है।

1928 के मार्च के दूसरे सप्ताह के आते ही अखबारों में भी इस बात की चर्चा ने ज़ोर पकड़ लिया और उनकी संभावित मौत की तिथि मार्च 17 बताई गई। कई जगह से तार आने शुरु हो गए। बाद में गांधीजी को इस बात का स्पष्टीकरण देना पड़ा कि वे बिल्कुल स्वस्थ हैं। अप्रैल और मई में गांधीजी मैसूर की नन्दी पहाड़ियों में स्वास्थ्य लाभ और आराम करते रहे।

राजनैतिक हलचल तेज

क़रीब चार साल के बाद देश में राजनैतिक हलचल तेज होने लगी थी। पूरे देश में अव्यक्त सहमति थी कि अब ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ संघर्ष तेज़ करने का समय आ गया है। लोग गांधीजी की तरफ़ देख रहे थे कि वे संघर्ष का कोई स्वरूप तय करें। सक्रिय रजनीति से पूरे एक साल तक दूर रहने के बाद गांधीजी नई उर्जा से भरे हुए थे। वे समूचे हिंदूस्तान की यात्राएं कर जनसभाओं को संबोधित कर रहे थे। खादी आंदोलन के लिए चंदा भी इकट्ठा कर रहे थे।

साल के अंत में वायसराय लॉर्ड इरविन ने गांधीजी को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया। ऐसा लगने लगा कि शायद राजनीतिक संकट टल जाए। लोगों को उम्मीद जगी कि किसी योजना के तहत अंगरेज़ भारत को स्वराज सौंपने की किसी समय सारिणी पर बात करेंगे। लेकिन 2 नवम्बर 1927 को लॉर्ड इरविन के साथ हुई वार्ता विफल हो गई। लॉर्ड इरविन ने गांधीजी को सूचित किया कि उनकी सरकार ने भारत की संवैधानिक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए और भारत के भावी संविधान के बारे में सिफ़ारिश देने के लिए सर जॉन साइमन की अध्यक्ष्यता में एक आयोग गठन करने का फैसला किया है। ब्रिटिश सरकार यह चाहती है कि जब आयोग भारत के दौरे पर आए तो गांधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उनके कामकाज में सहयोग प्रदान करें। गांधीजी को इससे कोई निराशा नहीं हुई। उन्होंने और कुछ की अपेक्षा नहीं की थी। 8 नवंबर 1927 को जान-बूझकर और अपमानजनक ढंग से केवल गोरे सदस्यों वाली इस कमीशन की घोषणा द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन की अवहेलना की गई थी। भारत में सभी आहत हुए और आग में घी का काम किया बर्केनहेड के इस वक्तव्य ने, भारतीय किसी भी व्यावहारिक राजनीतिक योजना पर एकमत होने में अक्षम हैं। भारतीय एकता के अच्छे अवसर वातावरण में स्पष्ट दिख रहे थे। कांग्रेस के साथ-साथ लगभग सभी प्रतिष्ठित राजनीतिक समूहों ने साइमन कमीशन के बहिष्कार का निश्चय कर लिया। पूरे देश में इसके ख़िलाफ़ ज़ोरदार प्रदर्शन की तैयारियां होने लगी।

दिसंबर में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में भी साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित हुआ। इस अधिवेशन में जिन्ना के समझौते के सूत्र को अपनाया गया। इसके अनुसार अगर संयुक्त निर्वाचक मंडलों के साथ-साथ मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों का आश्वासन दिया जाए और केन्द्रीय धारा-सभा में मुसलमानों के लिए के तिहाई प्रतिनिधित्व तथा पंजाब और बंगाल एवं तीन नए मुस्लिम बहुल प्रांतों (सिंध, बलूचिस्तान और पश्चिमोत्तर प्रांत) में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का वादा किया जाए तो मुसलमान के लिए पृथक निर्वाचक मंडल का विचार जिन्ना त्याग देगा। कांग्रेस का अधिवेशन दिसंबर में एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में मद्रास में हुई। इसमें गांधीजी ने भाग नहीं लिया था। इस अधिवेशन में जहां एक ओर जिन्ना के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया वहीं दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू जैसे युवा वर्ग के पूर्णस्वाधीनता के प्रस्ताव की हिमायत की गई। हां, नेहरू के इस प्रस्ताव में निहित उन धाराओं को नहीं माना गया जिसमें अंग्रेज़ों को तुरंत ही भारत छोड़ने की बात की गई थी। बाद में गांधीजी ने नेहरू को कहा भी था, आपकी रफ़्तार आवश्यकता से अधिक है। नेहरू से इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, क्या मैं राजनीति में आपका बालक नहीं हूं? हां, थोड़ा कामचोर, भटका हुआ ज़रूर हूं।

नेहरू रिपोर्ट

तत्कालीन भारत सचिव लार्ड बिरकनहेड ने भारतीयों को ऐसे संविधान के निर्माण को चुनौती दी जो सभी गुटों एवं दलों को मान्य हो। इस चुनौती को स्वीकार कर देश के विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं का एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। यह सम्मेलन पहले दिल्ली फिर पुणे में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारतीय संविधान का मसविदा तैयार करने हेतु मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक उप-समिति का गठन किया गया। अली इमाम, सुभाष चन्द्र बोस, एम. एस. एनी, मंगल सिंह, शोएब कुरैशी, जी. आई. प्रधान तथा तेजबहादुर सप्रू उप-समिति के अन्य सदस्य थे। देश के संविधान का प्रारूप तैयार करने की दिशा में भारतीयों का यह पहला बड़ा कदम था। अगस्त में इस उप-समिति ने अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट पेश की, जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। इस रिपोर्ट की सभी संस्तुतियों को एकमत से स्वीकार कर लिया गया। रिपोर्ट में भारत को डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा दिये जाने की मांग पर बहुमत था लेकिन राष्ट्रवादियों के एक वर्ग को इस पर आपत्ति थी। वह डोमिनियन स्टेट्स के स्थान पर पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर रहा था। लखनऊ में डा. अंसारी की अध्यक्षता में पुनः सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया।

नेहरू रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशें

1- भारत को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा मिले तथा उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अधीन अन्य उपनिवेशों के समान ही हो।

2- सार्वजनिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर दिया जाये, जो कि अब तक के संवैधानिक सुधारों का आधार था; इसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था हो; केंद्र एवं उन राज्यों में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हों, उनके हितों की रक्षा के लिये कुछ स्थानों को आरक्षित कर दिया जाये (लेकिन यह व्यवस्था उन प्रांतों में नहीं लागू की जाये जहां मुसलमान बहुसंख्यक हों जैसे-पंजाब एवं बंगाल)

3- भाषायी आधार पर प्रांतों का गठन।

4- संघ बनाने की स्वतंत्रता तथा वयस्क मताधिकार जैसी मांगें सम्मिलित थीं।

5- केंद्र तथा राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये।

केंद्र में भारतीय संसद या व्यवस्थापिका के दो सदन हों- निम्न सदन (हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव) की सदस्य संख्या 500 हो; इसके सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति से हो। उच्च सदन (सीनेट) की सदस्य संख्या 200 हों; इसके सदस्यों का निर्वाचन परोक्ष पद्धति से प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं द्वारा किया जाये। निम्न सदन का कार्यकाल पांच वर्ष तथा उच्च सदन का कार्यकाल सात वर्ष हो; केंद्र सरकार का प्रमुख गवर्नर-जनरल हो, जिसकी नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जायेगी; गवर्नर-जनरल, केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा, जो कि केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होगी।

प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं का कार्यकाल पांच वर्ष होगा। इनका प्रमुख गवर्नर होगा, जो प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा।

1- मुसलमानों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों को पूर्ण संरक्षण।

2- पूर्णधर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना, राजनीति से धर्म का प्रथक्करण।

3- कार्यपालिका को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाये।

4- केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाये किन्तु अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी जायें।

5- सिन्ध को बम्बई से पृथक कर एक पृथक प्रांत बनाया जाये।

6- उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की ब्रिटिश भारत के अन्य प्रांतों के समान वैधानिक स्तर प्रदान किया जाये।

7- देशी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाये। उत्तरदायी शासन की स्थापना के पश्चात ही किसी राज्य की संघ में सम्मिलित किया जाए।

8- भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाये।

मुस्लिम एवं हिन्दू साम्प्रदायिक प्रतिक्रियाः नेहरू रिपोर्ट के रूप में देश के उपलब्धि थी। यद्यपि प्रारंभिक अवसर पर रिपोर्ट के संबंध में उन्होंने प्रशंसनीय एकता प्रदर्शित की किन्तु सांप्रदायिक निर्वाचन के मुद्दे को लेकर धीरे-धीरे अनेक विवाद उभरने लगे।

प्रारंभ में दिसम्बर 1927 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया तथा एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में सम्मिलित 4 मांगों को उन्होंने संविधान के प्रस्तावित मसौदे में सम्मिलित किए जाने की मांग की। दिसम्बर 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में इन मांगों को स्वीकार कर लिया गया तथा इसे दिल्ली प्रस्ताव की संज्ञा दी गयी। ये चार मांगें इस प्रकार थीं-

1- पृथक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था की जाये, जिसमें कुछ सीटें मुसलमानों के लिये आरक्षित की जायें।

2- केंद्रीय विधान मंडल में मुसलमानों के लिये एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जायें।

3- पंजाब और बंगाल के विधान मंडलों में जनसंख्या के अनुपात में मुसलमानों के लिये स्थान आरक्षित किये जायें।

4- सिंध, बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत नामक 3 मुस्लिम बहुल प्रान्तों का गठन किया जाये।

यद्यपि हिन्दू महासभा ने तीन मुस्लिम बहुल प्रांतों के गठन तथा पंजाब एवं बंगाल जैसे मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटें आरक्षित किये जाने के प्रस्ताव का तीव्र विरोध किया। मह्रासभा का मानना था कि इस व्यवस्था से इन प्रांतों की व्यवस्थापिकाओं में मुसलमानों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो जायेगा। उसने सभी के लिये समान व्यवस्था किये जाने की मांग भी की। किंतु हिन्दू महासभा के इस रवैये से यह मुद्दा अत्यंत जटिल हो गया।

दूसरी ओर मुस्लिम लीग, प्रांतीय तथा मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटों के आरक्षण के मुद्दे पर अड़ी हुई थी। इस प्रकार दोनों पक्षों के अड़ियल रवैये के कारण मोतीलाल नेहरू तथा रिपोर्ट से जुड़े अन्य नेता असमंजस में पड़ गये। उन्होंने महसूस किया कि यदि मुस्लिम साम्प्रदायवादियों की मांगे मान ली गयीं तो हिन्दू साम्प्रदायवादी अपना समर्थन वापस ले लेंगे तथा यदि हिन्दुओं की मांगे मान ली गयीं तो मुसलमान इस प्रस्ताव से अपने को पृथक कर लेंगे।

जब नेहरू रिपोर्ट ज़ारी हुई तो जिन्ना देश में नहीं था। जब वह यूरोप से लौटा तो उसने कहा, इस रिपोर्ट के द्वारा मुस्लिम प्रस्तावों को मानने की दिशा में गंभीर प्रयास किए गए हैं। इसके खिलाफ आप भड़के नहीं, बल्कि शान्ति रखते हुए अपनी बातों प्र जोर देने के लिए खुद को संगठित करें

बाद में नेहरू रिपोर्ट में एक समझौतावादी रास्ता अखितयार कर निम्न प्रावधान किये गये-

1- सीटें उन्हीं स्थानों पर आरक्षित की जायेंगी जहां वे अल्पमत में है।

2- डोमिनियन स्टेट्स की प्राप्ति के बाद ही सिंध को बम्बई से पृथक किया जायेगा।

3- एक सर्वसम्मत राजनीतिक प्रस्ताव तैयार किया जायेगा।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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