राष्ट्रीय आन्दोलन
303. स्वराज पार्टी, कांग्रेस और गांधी
1925
गांधीजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस
कमेटी की पहली बैठक सितम्बर 1925 में तय की और परिवर्तन न करने वालों की ओर से
तीव्र विरोध आने लगा: "आपने पिछले वर्ष स्वराजवादियों के साथ समझौता किया था।
क्या उन्होंने बेलगाम में किए गए वादे के अनुसार ईमानदारी से उस पर अमल किया? आप जानते हैं कि
परिवर्तन न करने वालों में से अधिकांश को यह समझौता पसंद नहीं आया, लेकिन उन्होंने अपनी
इच्छा के विरुद्ध आपके लिए इसे स्वीकार कर लिया। अब फिर से आपने स्वराजवादियों से
बिना उनके परामर्श के किए गए अपने वादे से उन्हें किनारे कर दिया है। क्या परिषद
का कार्यक्रम ही एकमात्र राजनीतिक कार्यक्रम है? स्वराजवादी आपकी कताई संघ नहीं
चाहते। क्यों न इसे कांग्रेस के बाहर शुरू किया जाए और स्वराजवादियों के सामने
पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया जाए?"
यंग इंडिया के माध्यम से गांधीजी
ने जवाब दिया, "कोई भी व्यक्ति वैकल्पिक मताधिकार के रूप में कताई
या मताधिकार के अंग के रूप में खद्दर पहनने का विरोध कर सकता है। अन्य लोग भी कताई
और खद्दर को बरकरार रखने पर जोर दे सकते हैं। हम चाहें तो लोगों की राय पर आपत्ति
कर सकते हैं। यह असहिष्णुता का संकेत होगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्यक्रम
में विश्वास होना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो अकेले ही उस पर काम करने के लिए तैयार
रहना चाहिए। अनुभव मुझे सिखाता है कि देश में दोनों कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त
जगह है, कताई और परिषद में प्रवेश के लिए।
मुझे, जबकि मैं परिषद में प्रवेश के बारे
में अपने विचारों को अमूर्त रूप में रखता हूं, उन परिषद-जाने वालों
का समर्थन करना चाहिए जो मेरे आदर्शों की बेहतर सेवा कर सकते हैं, जिनके पास प्रतिरोध की
अधिक शक्ति है और चरखे और खद्दर में अधिक विश्वास है। ये आम तौर पर स्वराजवादी
हैं।”
गांधीजी स्वराजियों के हाथों में
सारी शक्ति दे देना चाहते थे। बंगाल में स्वराज्य पार्टी की जड़े मज़बूत करने के लिए
उन्होंने अपने प्रयास तेज़ कर दिए। कलकता में कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई थी।
उसमें भी इस पर चर्चा हुई। इसके बाद 15 जुलाई को उन्होंने
मोतीलाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा, चूंकि कांग्रेस में स्वराजियों की बहुलता है,
इसलिए आप कांग्रेस कार्य समिति की अध्यक्षता का भार उठा लें। मैं इसका अध्यक्ष अब
अधिक समय तक नहीं रहना चाहता। स्वराजियों में तो खुशी की लहर दौड़ गई लेकिन मोतीलालजी
ने मना कर दिया। अगस्त में गांधीजी ने कहा, कांग्रेस का पथ-प्रदर्शन मुझ जैसे आदमी
से अब नहीं होगा। मैं अपना सारा ध्यान रचनात्मक कार्य में लगाना चाहता हूं।
कांग्रेस महासमिति की बैठक पटना में हुई। सितंबर 1925 में पटना में A.I.C.C. की बैठक में, इस तथ्य के बावजूद कि
स्वराजवादी बहुमत में थे,
एक
संशोधन पारित किया गया जिसमें सभी कांग्रेसियों को खादी पहनने की आदत डालनी थी।
स्वराजवादी नेतृत्व हैरान रह गया। सेन गुप्ता ने कहा कि महाराष्ट्र के सदस्यों को
इस आवश्यकता को पूरा करने में बहुत कठिनाई होगी। मोतीलाल नेहरू को भी लगा कि इस
आवश्यकता को लागू करने में कठिनाइयाँ होंगी। गांधीजी ने उन्हें समायोजित करने के
लिए हर संभव प्रयास किया। उन्होंने दूसरे मतदान के लिए कहा। संशोधन गिर गया। इस
अधिवेशन में कांग्रेस का भार स्वराज्य पार्टी को सौंप दिया गया। अब मानों स्वराज्य
पार्टी ही कांग्रेस हो गयी थी। कानपुर कांग्रेस ने इस निश्चय पर मुहर लगा दी। दिसंबर
1925 में कानपुर में आयोजित कांग्रेस की निर्वाचित अध्यक्ष सरोजिनी नायडू थीं। यह
पहली बार था कि कोई भारतीय महिला कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गई थी। गांधीजी ने उन्हें
अध्यक्ष पद सौंपकर खुशी जाहिर की। एक तरफ जहां गांधीजी अपने प्रयासों से स्वराज
पार्टी को हर संभव तरीके से मजबूत करने की दिशा में काम कर रहे थे, स्वराजवादी धीरे-धीरे
परिषदों में "निरंतर,
सतत
और एकसमान अवरोध" की अपनी नीति को छोड़ रहे थे और समितियों में नामांकन
स्वीकार कर रहे थे और परिषदों और विधानसभा के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हो रहे थे।
हिन्दू-मुस्लिम समझौते का प्रयास
जिन्ना ने अली बंधु और
कुछ अन्य मुसलमान नेताओं और कांग्रेस के स्वराज्यवादियों के साथ मिलकर
हिन्दू-मुस्लिम समझौते की संभावनाओं का पता लगाने का प्रयास किया। यह कोशिश सफल नहीं हुई। दिल्ली प्रस्ताव में संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र
की बात कही गई थी। संयुक्त
निर्वाचन क्षेत्र की बात मनाकर जिन्ना खुद को मुसलमानों के एक बड़े वर्ग से विमुख
कर लेता। फिर
भी कांग्रेस द्वारा इस पर सहमति देने से संयुक्त मोर्चा बनाता। जिन्ना ने एसेम्बली में कहा था, “मैं सबसे पहले राष्ट्रवादी हूँ, उसके बाद भी राष्ट्रवादी।”
सांप्रदायिक
वैमनस्य की घटनाएं
भारत का स्वतंत्रता संग्राम बिखरी हुई हालत में था। नेताओं
के बीच मतभेद पैदा हो रहे थे। पूरे देश में सांप्रदायिक वैमनस्य की घटनाएं हो रही
थीं। उपवास समाप्त होने के बाद गांधीजी को यह बात समझ में आ गई कि स्वराज, जो कभी उनकी पहुंच में था, अभी भी दूर है और हिंदू-मुस्लिम एकता को फिर से
नई नींव से बनाना होगा। उन्होंने चरखा थामे रखा। उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की, अपार भीड़ को संबोधित किया, चरखे के महत्व और अहिंसक कार्यों की आवश्यकता
पर जोर दिया और उन्होंने अछूतों पर एक प्रवचन भी दिया। गांधीजी के फैसले से छात्र
असंतुष्ट थे। जन आन्दोलन की जगह गांधीजी उनसे ऐसे अभियानों में शरीक होने के लिए
कह रहे थे जिसका मकसद उनकी समझ से बाहर था। चरखे से काता गया सूत देश को स्वराज के
लिए भला कैसे तैयार करेगा? जब वे चुपचाप चरखा चला रहे थे और क्रांतिकारी आंदोलन का
नेतृत्व नहीं कर रहे थे, तब
भी वे एक ऐसी शक्ति थे, जिसका
सामना किया जा सकता था। बार-बार उन्होंने दावा किया कि चक्र उनके दर्शन का केंद्र
था। यह जादुई ताबीज था जिसने भारत के मरते हुए शरीर में नई जान फूंक दी। ऐसा लगता
था मानो लोगों की निराशा में उन्हें केवल चक्र के अनुशासित घुमावों में ही संतोष
मिलता था।
खादी और कताई से
संबंधित गतिविधियां
खादी और कताई से संबंधित गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए, जिसे अब राजनीतिक कार्य से अलग कर दिया गया था, अखिल भारतीय स्पिनर्स एसोसिएशन की स्थापना की
घोषणा की गई। गांधीजी द्वारा तैयार किए गए संघ के संविधान में यह घोषित किया गया
कि संघ की स्थापना अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की सहमति से कांग्रेस संगठन के
अभिन्न अंग के रूप में की गई है, लेकिन
इसका अस्तित्व और शक्तियां स्वतंत्र होंगी। पांच वर्ष तक पद पर बने रहने के लिए एक
कार्यकारी परिषद का मनोनयन किया गया, जिसके
सदस्य थे: 1) महात्मा गांधी, अध्यक्ष, 2) मौलाना शौकत अली, 3) राजेंद्र प्रसाद, 4) सतीश चंद्र दास गुप्ता, 5) मगनलाल गांधी, 6)
जमनालाल बजाज (कोषाध्यक्ष), 7)
शुएब कुरैशी, 8) शंकरलाल बैंकर और 9) जवाहरलाल नेहरू (अंतिम
तीन सचिव)। संविधान में आगे कहा गया कि "परिषद अखिल भारतीय खादी बोर्ड और सभी
प्रांतीय खादी बोर्डों से संबंधित सभी निधियों और परिसंपत्तियों को अपने अधीन ले
लेगी और इन निधियों और अन्य निधियों को प्रशासित करने की पूरी शक्ति के साथ अपने
मौजूदा वित्तीय दायित्वों का निर्वहन करेगी।"
सक्रिय राजनीति से
अलग
इस दौरान सक्रिय राजनीति से अलग-थलग बापू साबरमती आश्रम
आत्मानुशासन, सहनशीलता और सादगी के उच्चतर मूल्यों को समर्पित एक समुदाय की रचना
में व्यस्त थे। गांधीजी के लिए आध्यात्मिकता का अर्थ था आत्मानुशासन और समाज के
प्रति पूर्ण समर्पण। वे साबरमती आश्रम में चुपचाप रहते थे। यह गांधीजी का मौन वर्ष
था। इस मौन वर्ष में ऐसे बावन मौन सोमवार थे जब गांधीजी ने बात नहीं की। उन दिनों, वह साक्षात्कारकर्ता की बात सुनते थे और
कभी-कभी कागज के एक टुकड़े का कोना फाड़कर पेंसिल से कुछ शब्द लिख लेते थे। चूंकि
यह बातचीत करने का सबसे अच्छा तरीका नहीं था, इसलिए साप्ताहिक मौन दिवस ने उन्हें कुछ गोपनीयता प्रदान
की। इस मौन दिवस की उपयोगिता के बारे में अपने जीवनीकार लुई फिशर को वे बताते हैं, 'यह तब हुआ जब मैं टुकड़ों में बिखरा हुआ था, मैं बहुत मेहनत कर रहा था, तपती ट्रेनों में यात्रा कर रहा था, लगातार कई सभाओं में बोल रहा था और ट्रेनों और
अन्य जगहों पर हज़ारों लोग मुझसे सवाल पूछते थे, विनती करते थे और मेरे साथ प्रार्थना करना
चाहते थे। मैं सप्ताह में एक दिन आराम करना चाहता था। इसलिए मैंने मौन दिवस की
शुरुआत की। बाद में बेशक मैंने इसे सभी तरह के गुणों से भर दिया और इसे आध्यात्मिक
आवरण दे दिया। लेकिन प्रेरणा वास्तव में इससे ज़्यादा कुछ नहीं थी कि मैं एक दिन
की छुट्टी चाहता था।' वे
इस बात से सहमत थे कि मौन रहने से आध्यात्मिक अभ्यास का अवसर मिलता है।
राजनीतिक रूप से शान्त भारत में अन्य विपदाओं की कमी नहीं
थी। बंगाल और असम में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई। मद्रास प्रेसिडेंसी के कुछ ज़िलों और
राजपुताना की अधिकतर रियासतों में सूखा पड़ा, जिससे धन-जन की क्षति हुई। त्रावणकोर के दर्जन भर गांव
जातीय अत्याचार से जल उठा। देश के कई भागों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। दोनों समुदायों में अमन क़ायम
करने की कोशिशों के लिए वे रावलपिंडी जाना चाहते थे, पर ब्रिटिश हुक़ूमत ने अनुमति नहीं दी।
अप्रैल में गुजरात के कॉलेज में भाषण देने
पहुंचे। वे हमेशा छोटी-सी धोती पहने रहते थे। वह धोती उनकी उभरी हड्डियों वाले
उनके घुटनों के ऊपर तक ही आती थी। शरीर उनका दुबला-पतला था। भूरी-सी चमड़ी से उनके
कंधे की हड्डियां और पसलियां उभरी हुई दिखती थीं। बड़ी जन सभाओं में वे ऊंचे मंच पर
बैठे होते और उनके सामने माइक्रोफोन होता। भीड़ के बीच में अकसर अपने पंजों पर उचक
कर लोग हाथ हिलाते। गांधीजी जब बोलना शुरू करते तो प्रायः एक चुप्पी छा जाती। वे
गुजरात में गुजराती में भाषण देते। वे बिलकुल बातचीत की शैली में बोलते। उनके भाषण
में कोई लफ़्फ़ाज़ी या भावुकतापूर्ण शब्दाडंबर नहीं होता। छात्रों की उस सभा में
गांधीजी कह रहे थे,
“स्वराज पाने का रास्ता यह है कि छात्र अपने शौचालय की सफ़ाई ख़ुद
करें और मल भी ख़ुद फेंकें, न कि इसके लिए किसी सफ़ाई वाले का इंतज़ार करें। अगर वे देश
की आज़ादी सचमुच चाहते हैं, तो वे शहर के पुराने भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में हर रोज़ जाएं और
सड़क पर फैले कचरे की सफ़ाई करें। इस तरह अस्पृश्यता की कुप्रथा ख़त्म होगी, जिसके
बिना स्वराज बेमानी है।”
सभाकक्ष में बेचैनी दिखने लगी। लोग ज़ोर से गला
साफ़ करने या खांसने लगे। कुछ तो इधर-उधर सरकने लगे। छात्र लोग आपस में एक-दूसरे को
प्रश्नवाचक नज़रों से देखने लगे। वे महात्मा को अविश्वास से देखने लगे। किसी ने
सवाल उठाया, “स्वराज के लिए अस्पृश्यता निवारण को शर्त क्यों बनाया जाए? यह
काम तो आज़ादी के बाद भी हो सकता है, ज़रूरी क़ानून बना कर।”
गांधी जी ने जवाब दिया, “पंचम्मा
और उसके काम को नीचा मत समझिए। झाड़ू देना भी एक कला है। अगर मेरी चलती तो मैं ख़ुद सड़कों
पर झाड़ू लगता। यही नहीं, मैं सड़क किनारे फूलों के पौधे लगाता और रोज़ पानी देता।
तमाम गांवों और शहरों में कूड़े के ढेर मिलेंगे। मैं उन्हें बगीचा बना देता।”
जब सभाकक्ष में शोर बढ़ गया तो वे थोड़ी देर के
लिए चुप हो गए। कुछ देर बाद फिर उन्होंने कहना शुरू किया, “मैं उस
व्यवस्था की भर्त्सना करता हूं जिसने बड़ी संख्या में हिंदुओं को पशु से भी बदतर
बना दिया है। स्वराज का अर्थ मेरे लिए यह है कि निचले से निचले तबके को आज़ादी
मिले। जब हम सब कष्ट में हैं तब अगर पंचम्मा की स्थिति नहीं सुधरती तो स्वराज के
नशे में कोई बेहतर नहीं हो जाएगी। मैं केवल अंगेज़ों की ग़ुलामी से भारत की आज़ादी
नहीं चाहता। मैं हर तरह की ग़ुलामी से भारत की आज़ादी चाहता हूं।”
भाषण के बाद फीकी रस्मी तालियां बजीं। उस भाषण
को छात्रों ने कोई खास तवज्जो नहीं दी। उनकी बातें एक ऐसे व्यक्ति की महानता ज़ाहिर
करती थीं जो छोटी-छोटी बातों पर भी ग़ौर करता था। जो व्यक्ति साफ़-सफ़ाई को राजनैतिक
आज़ादी जितना ही महत्वपूर्ण मानता था। जिसके शौचालय की स्वच्छता उतनी ही महत्वपूर्ण
थी जितना आध्यात्मिक उत्थान। उनका मानना था, ग़रीबों की सेवा करना आसान है, उनके
जैसा जीवन बिताना कठिन। वे चाहते थे आश्रम में लोग ग़रीबों जैसा जीवन बिताएं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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