राष्ट्रीय आन्दोलन
383. 1857 महाविद्रोह का परिणाम
- 378. 1857 का महाविद्रोह-उद्गम
- 379. 1857 का महाविद्रोह- स्वरूप
- 380. 1857 का महाविद्रोह-प्रमुख नेता
- 381. 1857 विद्रोह की असफलता के कारण
- 382. 1857 महाविद्रोह का प्रभाव
1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके बाद ब्रिटिश शासन की नीतियों और दृष्टिकोण में व्यापक
परिवर्तन हुए। हालाकि यह विद्रोह असफल हो गया, लेकिन विद्रोह के
परिणामस्वरूप कई महत्वपूर्ण घटनाएँ और परिवर्तन हुए, जिनका
प्रभाव लंबे समय तक भारत पर बना रहा। यह विद्रोह एक युग की समाप्ति और नए युग के
आगमन का द्योतक था। इसने भारतीय राजनीति, प्रशासन,
सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय भावना को गहरे रूप से प्रभावित किया।
मुग़ल शासन की
समाप्ति
1857 के विद्रोह का तात्कालिक परिणाम था मुग़ल शासन की
समाप्ति। 1707 से ही मुगलों की सत्ता कमजोर पड़ने लगी थी। विद्रोह आरंभ होने के समय
तक वे नाम मात्र के शासक थे। मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर गद्दी पर बने हुए थे।
विद्रोहियों ने उन्हें अपना नेता बनाया। उन्हीं के नेतृत्व में अंग्रेजों से
संघर्ष किया गया। डलहौजी और कैनिंग उसे गद्दी से हटाने पर तुले हुए थे। विद्रोह की
विफलता के बाद विद्रोह का दुष्परिणाम भी मुगलों को भुगतना पडा। बहादुर शाह के
उत्तराधिकारियों की ह्त्या दिल्ली में अँग्रेज़ कप्तान हडसन ने कर दी। बहादुर शाह
को उनकी पत्नी के साथ गिरफ्तार कर गुप्त रूप से लाल किला लाया गया। उन्हें गद्दी
से हटा दिया गया और रंगून ले जाकर क़ैद में रखा गया। रंगून में ही 1862 में बहादुर
शाह की मृत्यु हो गई। इसके साथ ही भारत में मुग़ल वंश का शासन समाप्त हो गया। अब
अंग्रेजी शासन शुरू हुआ।
कंपनी के शासन की
समाप्ति
1757 से ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर शासन करती आ रही थी।
इंग्लैण्ड की सरकार ने कंपनी के आर्थिक और राजनीतिक लाभ को देखते हुए इस पर अपना
नियंत्रण स्थापित करने की प्रयास किया। रेग्युलेटिंग ऐक्ट (1773), पिट्स इंडिया
ऐक्ट (1754) और चार्टर ऐक्ट (1813, 1833 और 1853)
द्वारा कंपनी पर अंग्रेजी शासन का नियंत्रण बढ़ता गया था। यह स्पष्ट कर दिया गया था
कि ब्रिटिश ससंद आवश्यकतानुसार किसी भी समय कंपनी का प्रशासन अपने नियंत्रण में ले
सकती है। विद्रोह के बाद, ब्रिटिश शासन ने अपनी
नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर
दिया गया और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया। 1858 का भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act 1858) पारित किया गया, जिसके
तहत ब्रिटिश सरकार ने भारत के प्रशासन को अपने नियंत्रण में लिया। सरकार ने प्रशासनिक नियंत्रण भारतीय राज्य सचिव (सेक्रेटरी
ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया) को सौंप दिया। ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के तौर पर वह
भारत के शासन को नियंत्रित करने लगा। उसकी सहायता के लिए १५ सदस्यीय इंडिया कौंसिल
का गठन किया गया। यह कौंसिल राज्य सचिव को परामर्श देती थी। राज्य सचिव काउन्सिल
के परामर्श को अस्वीकार भी कर सकता था।
गवर्नर जनरल की
स्थिति में परिवर्तन
1858 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल की स्थिति में भी
परिवर्तन हुआ। वह अब ब्रिटिश ताज के वैयक्तिक प्रतिनिधि के रूप में भारत पर शासन
करने लगा। उसे अब वायसराय की उपाधि प्रदान की गई। वह ब्रिटिश सरकार के निर्देश पर
भारत में शासन करता था। उसकी सहायता के लिए एक कार्यकारिणी परिषद् थी। वह राज्य
सचिव और इंडिया कौंसिल के निर्देश पर भारत में शासन करने लगा। इस तरह अब भारत पर
शासन इंग्लैण्ड से होने लगा। ब्रिटेन के उद्योगपतियों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए
शासन अधिक अनुदार और प्रतिक्रियावादी बनाता गया।
सरकारी नीतियों में
परिवर्तन की घोषणा
1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों में बेचैनी फैला दी थी।
भारतीय साम्राज्य से होने वाली आय के बनाए रखने के लिए अंग्रेजों कई उपाय किए।
भारतीयों को संतुष्ट करने का दिखावा कर अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा
के लिए और भारतीयों की एकता को नष्ट कर विद्रोह की संभावना की कम करने का उपाय
ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने सोचा। नवंबर 1858 में महारानी विक्टोरिया ने एक
महत्वपूर्ण घोषणा-पत्र जारी किया। इसमें यह बताया गया था कि सरकार विस्तारवादी और
साम्राज्यवादी नीति का पालन नहीं करेगी, बल्कि देशी राजाओं के अधिकारों, उनके सम्मान और गौरव की रक्षा करेगी। भारतीय प्रजा को यह
विश्वास दिलाया गया कि सरकार भारतीयों की प्राचीन परंपराओं, रिवाजों की अवमानना नहीं करेगी और सरकारी नौकरियों में
जाती, धर्म का भेदभाव किए बिना योग्यता के आधार पर सबको सामान
अवसर प्रदान करेगी। इससे विद्रोह की कटुता कम हुई। शांति व्यवस्था पुन: स्थापित
होने लगी।
भारतीय राजाओं और
जमींदारों के साथ संबंध
महारानी की घोषणा के साथ ही सरकार ने देशी राज्यों और
सामन्ती तत्वों को अपना हितैषी बना लिया। विद्रोह के बाद, ब्रिटिश शासन ने भारतीय राजाओं और जमींदारों के साथ अपने
संबंधों को पुन: स्थापित किया। ब्रिटिश सरकार ने उनकी शक्तियों और संपत्तियों को
संरक्षित किया, जिससे वे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार बने रहे। उन्हें
गोद लेने का अधिकार भी वापस दे दिया गया। उनके विशेषाधिकारों की रक्षा की गई। यह
नीति विद्रोह के समय उनके असंतोष को कम करने के उद्देश्य से अपनाई गई।
साम्राज्यवादी
दृष्टिकोण में बदलाव
विद्रोह ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को भी प्रभावित
किया। अब ब्रिटिश शासन ने भारत को अपने साम्राज्य का अभिन्न हिस्सा मानना शुरू
किया और भारत की सुरक्षा और राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए गंभीर कदम
उठाए। सभी देशी राज्यों को अंग्रेजी अधिसत्ता (British Paramountcy) के अंतर्गत लिया गया। सभी
देशी नरेश ब्रिटिश ताज के अधीनस्थ शासक बन गए। 1876 में महारानी विक्टोरिया ने
‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि धारण कर ली। देशी नरेशों का राज्य पर से वंशानुगत
अधिकार समाप्त हो गया। सरकार देशी राज्यों के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप कर सकती
थी।
देशी नरेशों का स्वामीभक्त
बनना
सुविधाओं की वापसी के बाद देशी नरेश और सामन्ती वर्ग अँग्रेज़
सरकार के हिमायती बन गए। इस तरह अँग्रेज़ सरकार ने ‘फूट डालकर राज’ करने की नीति अपनाई।
भारतीयों को सरकारी
नौकरियों में स्थान
सरकार ने 1861 में ‘भारतीय नागरिक सेवा अधिनियम’ बनाया। अब भारतीय लन्दन में होने वाली इस सेवा की
प्रतियोगिता परीक्षा में भाग ले सकते थे। हालाकि यह प्रतियोगिता बहुत कठिन थी
इसलिए इस सेवा में अंग्रेजों का वर्चस्व बना रहा। इससे भारतीयों में असंतोष बढ़ा।
विभेद की नीति के कारण असंतोष और बढ़ा। भारतीय इस सेवा में एक ख़ास पद के आगे नहीं
बढ़ सकते थे। महत्वपूर्ण विभागों और पदों पर अँग्रेज़ ही बहाल किए जाते थे।
भारतीय सेना का
पुनर्गठन
विद्रोह के बाद भारतीय सेना का पुनर्गठन किया गया। 1858 में
सैनिक पुनर्गठन के लिए पील कमीशन की नियुक्ति की गई। इसकी सिफारिशों के
आधार पर ब्रिटिश सरकार ने सेना में भारतीय सैनिकों की संख्या को कम कर दिया और
ब्रिटिश सैनिकों की संख्या को बढ़ा दिया। सेना में सिखों, गोरखाओं, और पठानों जैसे ‘वफादार’
समुदायों को प्राथमिकता दी गई, जबकि बंगाल सेना, जिसने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, को भंग कर दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को अब
सम्राट की सेना में परिवर्तित कर दिया गया।
सांप्रदायिक विभाजन
की रणनीति
अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने और राष्ट्रवाद को कमजोर
करने के लिए हिंदू और मुसलमानों को आपस में बाँटने की रणनीति अपनाई। मुसलमानों के प्रति अनुदार रुख अपनाया गया। अनेक नवाबों और शाहज़ादों
को मृत्यु दंड दिया गया। उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली गई। मुसलमानों को दिल्ली लौटने
पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जबकि हिन्दुओं के साथ ऐसा नहीं किया गया। दोनों वर्गों के
बीच खाई बढती गयी। अंग्रेजों ने इस खाई को अधिक बढाने में मदद की। इस तरह उन्होंने
साप्रंदायिकता को बढ़ावा दिया।
साम्राज्यवादी
विस्तार की नीति
भारत को केंद्र बनाकर साम्राज्यवादी विस्तार की नीति की
सुरक्षा के उद्देश्य से भारतीय साम्राज्य का विस्तार किया गया। अफगानिस्तान, ईरान, बर्मा, तिब्बत, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन
को अपने प्रभाव में लेन का प्रयास अंग्रेजों ने किया। इस विस्तारवादी योजना में
भारतीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया गया।
भारतीय समाज पर
प्रभाव
विद्रोह ने भारतीय समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित किया।
सामाजिक और धार्मिक सुधारों को बढ़ावा दिया गया, लेकिन
साथ ही भारतीयों पर नियंत्रण को मजबूत करने के लिए कठोर नीतियों को अपनाया गया।
ब्रिटिश शासन ने भारतीयों के बीच विभाजन और विवादों को भड़काने के लिए ‘फूट डालो
और राज करो’ (Divide
and Rule) की नीति अपनाई। भारतीय
सामाजिक एकता को समाप्त कर दिया गया। हिन्दू-मुसलमान में विभेद बढ़ा। वैमनस्य की
भावना बढ़ी।
राजनीतिक जागरूकता
का उदय
विद्रोह के बाद, भारत
में राजनीतिक जागरूकता और राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा मिला। हालांकि विद्रोह
असफल रहा, लेकिन इसने भारतीयों में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की
भावना को जन्म दिया। 1857 के विद्रोह ने भारतीय
राष्ट्रवाद के लिए प्रेरणा का काम किया, और इससे
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगले चरणों की नींव रखी गई। अंग्रेजों के
दुर्व्यवहार के प्रति रोष के साथ भारतीयों में आत्माभिमान और राष्ट्रीयता की भावना
का विकास हुआ।
वर्ग संघर्ष का तीव्र होना
1857
का विद्रोह भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई। विद्रोह केवल
एक सैन्य विद्रोह नहीं था, बल्कि इसका गहरा सामाजिक आधार था।
यह विद्रोह भारतीय समाज में वर्ग संघर्ष की तीव्रता को उजागर करता है और यह दिखाता
है कि कैसे विभिन्न वर्गों के हित आपस में टकरा रहे थे। 1857 के विद्रोह ने पहली बार भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को एक बड़े
राष्ट्रीय संघर्ष में एकजुट होते देखा। हालांकि, वर्गीय
मतभेदों और आंतरिक विफलताओं के कारण यह विद्रोह सफल नहीं हो सका, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा और गति को स्पष्ट रूप से
प्रभावित किया। यह वर्ग संघर्ष भले ही तत्काल सफल न हुआ हो, किंतु
इसने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई सामाजिक चेतना और सामूहिक एकता की दिशा प्रदान
की। आने वाले दशकों में यही वर्ग संघर्ष भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की वैचारिक नींव
बन गया।
सामाजिक और धार्मिक
नीतियों का परिवर्तन
विद्रोह के बाद, ब्रिटिश
सरकार ने सामाजिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने से परहेज किया। विद्रोह का
एक प्रमुख कारण धार्मिक असंतोष था, इसलिए
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समाज की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना शुरू किया और इस
क्षेत्र में अपनी नीतियों को संयमित किया।
आर्थिक नीतियों का
प्रभाव
विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश आर्थिक नीतियों में भी
बदलाव आया। अब ब्रिटिश सरकार ने भारत की आर्थिक संरचना को मजबूत करने की बजाय, उसे कमजोर करने की नीति अपनाई। इसने भारतीय उद्योगों को
नुकसान पहुंचाया और भारत को एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल की
आपूर्ति करना था। एक नए प्रकार के उद्योगीकरण की प्रक्रिया बढ़ी। समाज में भारतीय
उद्योगपतियों का एक नया वर्ग उत्पन्न हुआ, जिसकी सहानुभूति
अंग्रेजों के साथ थी। उद्योगों के विकास के साथ श्रमिक वर्ग का भी उदय हुआ।
शिक्षा और संचार के
क्षेत्र में सुधार
विद्रोह के बाद, ब्रिटिश
सरकार ने भारत में शिक्षा और संचार के क्षेत्र में सुधार किए। अपने आर्थिक हितों
की सुरक्षा के लिए रेलवे, टेलीग्राफ, और डाक सेवाओं का विस्तार किया गया। इसके साथ ही, अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया, जिससे भारतीय समाज में नई विचारधाराओं का उदय हुआ।
भारतीय समाज पर
दीर्घकालिक प्रभाव
विद्रोह का भारतीय समाज पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा। इसने
भारतीयों के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति अविश्वास और असंतोष को बढ़ाया। विद्रोह
ने भारतीयों को यह एहसास दिलाया कि ब्रिटिश शासन को चुनौती देना संभव है, और इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का काम
किया।
स्वतंत्रता संग्राम
की नींव
1857 का विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। इसने
भारतीयों में स्वतंत्रता की आकांक्षा को जागृत किया और भविष्य के स्वतंत्रता
आंदोलनों के लिए प्रेरणा प्रदान की।
भारतीय समाज की
एकता
विद्रोह ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एकता की
भावना को प्रोत्साहित किया। हालांकि विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भारतीय समाज में सामूहिक संघर्ष और एकजुटता की
भावना को जागृत किया।
स्वतंत्रता आंदोलन
में योगदान
विद्रोह ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इसने भारतीय जनता को वे स्वतंत्रता की आकांक्षा को स्पष्ट किया और भविष्य के
संघर्षों के लिए एक आधार तैयार किया। 1857 का
विद्रोह विदेशी शासन के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा बना। इसने अन्य उपनिवेशित देशों
को भी अपने स्वतंत्रता संघर्षों में प्रोत्साहित किया और उनके संघर्षों के लिए एक
मॉडल प्रस्तुत किया। विद्रोह ने सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा के विकास को
प्रोत्साहित किया। इसने भारतीय नेताओं और विचारकों को स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक न्याय की दिशा
में सोचने के लिए प्रेरित किया।
उपसंहार
1857 का विद्रोह एक जटिल और बहुपरकारी घटना थी, जिसका स्वरूप और परिणाम विभिन्न दृष्टिकोणों से समझा जा
सकता है। इसे एक राष्ट्रवादी आंदोलन, धार्मिक
संघर्ष, सैन्य विद्रोह और सामाजिक संघर्ष के रूप में देखा जा सकता
है। विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन ने अपनी नीतियों में व्यापक परिवर्तन
किए, भारतीय समाज में जागरूकता और राष्ट्रवाद की भावना का उदय
हुआ, और भविष्य के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक नींव रखी
गई। यह विद्रोह असफल होने के बावजूद, भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जिसने भारतीय समाज को एकजुट किया और स्वतंत्रता के लिए
संघर्ष की दिशा में प्रेरित किया। इसके अध्ययन से हम न केवल इतिहास को समझ सकते
हैं, बल्कि भारतीय समाज और राजनीति के विकास को भी बेहतर ढंग से
समझ सकते हैं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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