राष्ट्रीय आन्दोलन
379. 1857 का महाविद्रोह- स्वरूप
1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ, जो जल्द ही किसानों, जमींदारों
और आम जनता को शामिल करते हुए एक बड़ा जन विद्रोह बन गया। इसका स्वरूप कई तरह से था, जिसमें
पहला स्वतंत्रता संग्राम होने की भावना, राष्ट्रीयता
का उदय, और सामाजिक व धार्मिक असंतोष शामिल थे।
1857 के महाविद्रोह को सभी वर्गों का समर्थन नहीं था।
यह विद्रोह मुख्यतः सैनिकों द्वारा शुरू किया गया था। इसके बाद ही अन्य लोग इसमें
शामिल हुए। यह विद्रोह किसी वर्ग विशेष का नहीं था। इसमें विभिन्न वर्गों के लोगों
ने भाग लिया, लेकिन किसी भी सम्पूर्ण वर्ग का समर्थन इसे नहीं मिल सका।
अनेक वर्गों ने या तो तटस्थ भूमिका निभाई या अंग्रेजों का ही पक्ष लिया। इसलिए यह
पूरे भारत में सामान रूप से फैल नहीं सका। हालाकि इस विद्रोह में सेना ने मुख्य
भूमिका निभाई, लेकिन सिख सैनिक इसमें शामिल नहीं हुए। विद्रोह के दमन में
भी भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों की मदद की। इस विद्रोह में सभी देशी शासकों ने भी
भाग नहीं लिया। इसके उलट ग्वालियर, इंदौर, हैदराबाद, राजपुताना के अनेक राज्यों, भोपाल, पटियाला, नाभा, जिन्द, कश्मीर, नेपाल के शासकों और अन्य बड़े ताल्लुकेदारों और
ज़मींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता की।
इस विद्रोह में अंग्रेजी नीतियों से प्रभावित वर्ग और
व्यक्तियों का भाग लेना इसकी एक प्रमुख विशेषता थी। विद्रोह में सिर्फ उन्हीं
शासकों और ज़मींदारों ने सक्रिय रूप से भाग लिया जिन्हें अंग्रेजी नीतियों से
व्यक्तिगत तौर पर हानि पहुंची थी। उनकी ज़मींदारी छीन ली गई थी। राज्य का अधिग्रहण
कर लिया गया था। पेंशन बंद कर दिया गया था। एक अनुमान के अनुसार एक प्रतिशत से
अधिक ज़मींदारों और राजाओं ने इसमें भाग नहीं लिया था।
इस विद्रोह में हिन्दू-मुसलमानों का सामान रूप से भाग
लेना बहुत ही गौर करने वाली बात थी। न तो यह पूर्णतया हिन्दुओं का विद्रोह था
और न ही मुसलमानों का। दोनों धर्मों के लोगों और नेताओं ने इसमें भाग लिया। जहां
एक ओर मुसलमानों ने हिन्दुओं की भावना का सम्मान देते हुए गो-हत्या बंद कर दी वहीँ
दूसरी ओर हिन्दुओं ने बहादुरशाह को अपना बादशाह मान लिया। विद्रोह के दमन में भी
हिन्दू और मुसलमानों दोनों ने अंग्रेजों का सहयोग किया।
इस विद्रोह को समाज के धनी और मध्यम वर्ग का सहयोग नहीं
मिला। समाज का धनीवर्ग, महाजन, बनिए, सौदागर, बंगाल का ज़मींदार वर्ग,
आधुनिक शिक्षाप्राप्त मध्यम वर्ग में विद्रोह के प्रति सहानुभूति नहीं थी। वे
अंग्रेजों के ही हिमायती थे।
विद्रोह को किसानों और दस्तकारों का सहयोग मिला।
किसानों का एक बड़ा वर्ग भी विद्रोह से अलग ही रहा। लेकिन अनेक स्थानों, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में किसानों और दस्तकारों ने
बड़ी संख्या में विद्रोह में भाग लिया। इन लोगों ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया
और सरकारी प्रशासन को ठप्प कर दिया। इसने विद्रोह को एक ठोस आधार प्रदान किया।
यह विद्रोह उत्तर और मध्य भारत में व्यापक था। उत्तर
और मध्य भारत के अलावे भारत के अन्य भागों, मद्रास, बंबई, बंगाल और पश्चिम पंजाब में
विद्रोह का कोई खास असर नहीं था।
विद्रोह को व्यापक जनाधार का अभाव था। समाज के विभिन्न वर्गों ने व्यक्तिगत हितों से
उत्प्रेरित होकर ही इसमें भाग लिया था। इसे किसी वर्ग विशेष का या जन-साधारण का
विद्रोह कहना उचित नहीं होगा।
1857 का महाविद्रोह- स्वरूप
11 मई, 1857 को मेरठ में विद्रोह
शुरू हुआ। मेरठ की विद्रोही सेना ने जेल तोड़कर अपने साथियों को रिहा किया।
विद्रोहियों ने अंग्रेजों की ह्त्या की और मेरठ से दिल्ली आए। उन्होंने बहादुरशाह
को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। अब विद्रोह को मुग़ल बादशाह के नाम से चलाया जा
सकता था। इस प्रकार सिपाहियों ने ग़दर को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। ज़फर
भारतीय एकता के प्रतीक बन गए थे। विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दिल्ली
की जनता ने भी विद्रोहियों का साथ दिया। दिल्ली में एक सैनिक और असैनिक
प्रबन्धकर्ता समिति बनी। इसका प्रधान जनरल बख्त खान थे। इसमें सैनिकों के अलावा आम
जनता के प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया गया। दिल्ली पर
कब्ज़ा करने के एक महीने के भीतर, विद्रोह
देश के विभिन्न हिस्सों में फैल गया: कानपुर,
लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, बरेली, जगदीशपुर
और झाँसी। लगभग पूरे उत्तरी और मध्य
भारत में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। कानपुर में विद्रोहियों ने पेशवा बाजीराव
द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब के सामने विद्रोह का नेतृत्व संभालने का
प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। झाँसी की रानी को आम जनता
के दबाव में विद्रोह का नेतृत्व संभालना पड़ा। बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार
कुंवर सिंह ने नेतृत्व प्रदान किया। लखनऊ में लोगों ने नवाब वाजिद अलीशाह के युवा
बेटे बिरजिस कादिर को अपना नेता घोषित कर दिया। विद्रोहियों ने अंग्रेजों से खुला
युद्ध किया। अंग्रेजों की हत्याएं की। सकारी खजानों और शस्त्रागारों को लूटा।
सरकारी दफ्तरों, कचहरियों, लगान कार्यालयों, थानों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर दिया। अनेक स्थानों से
कुछ समय के लिए ‘कंपनी राज’ समाप्त कर दिया। लेकिन दिसंबर, 1858 तक
विद्रोहियों पर सरकार ने काबू पा लिया।
1857 का महाविद्रोह का वास्तविक स्वरुप एक विवाद का विषय
रहा है। मार्श, मैन, सीले, जॉन लारेंस, जैसे साम्राज्यवादी
विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने इस विद्रोह का महत्व कम करने के लिए इसे ‘ग़दर’ या ‘सैनिक विद्रोह’ का नाम दिया। उनका मानना था कि कारतूस वाली घटना से
क्षुब्ध होकर कुछ सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया था। उनका तर्क है कि इस विद्रोह
में जन-साधारण ने भाग नहीं लिया। गाँव इस विद्रोह की तपिश से दूर थे। जो जमींदार, शासक इस विद्रोह में शामिल थे वे केवल अपने स्वार्थ के कारण
अंगेजों से बदला लेना चाहते थे। इस विद्रोह का प्रारंभ सैनिक छावनी से हुआ। केवल
उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों तक ही इस विद्रोह का प्रभाव था। पंजाब में इसका कोई
प्रभाव नहीं था। इस विद्रोह को मुट्ठीभर सैनिकों ने दबा दिया। सिखों और गोरखों ने
अंग्रेजों का विद्रोह के दमन में साथ दिया। इसलिए इस विद्रोह में राष्ट्रीय
संग्राम का रूप नहीं देखा जा सकता।
कुछ विद्वानों द्वारा इस विद्रोह को ‘ईश्वर द्वारा भेजी
गई विपत्ति’, ‘हिन्दू मुस्लिम षड्यंत्र’, ‘धर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध विद्रोह’, ‘बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध’ माना है। लेकिन यह व्याख्या विद्रोह के स्वरुप को पूरी तरह
नहीं दर्शाता। ऐसा लगता है की इन विद्वानों ने सही तथ्यों की अनदेखी की है। इसके
विपरीत अनेक तत्कालीन अँग्रेज़ इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने इसे राष्ट्रीय
विद्रोह माना है। उनके अनुसार इसका उद्देश्य भारत से अंग्रेजी शासन को समाप्त
करना था। अनेक भारतीय विद्वानों ने इसे ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता का युद्ध’ और ‘सामान्य जनता का विद्रोह’ माना है।
सिपाही अंग्रेजी शासन के दमन के प्रति सचेत थे। सेना अपने
आप में ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का पर्याय हो गई थी। सैनिक किसी न
किसी तरह आम जनता से जुड़े थे। ग्रामीण जनता के बीच अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ जो
विद्रोही काम कर रहे थे उन्होंने विद्रोही सिपाहियों का समर्थन किया। उत्तर और
मध्य भारत में हर जगह पर सिपाहियों का यह ग़दर जनता के विद्रोह में बदल गया।
सिपाहियों की कार्रवाई ने ग्रामीण आबादी को राज्य और प्रशासन के नियंत्रण के
भय से मुक्त कर दिया। उनकी संचित शिकायतें तुरंत सामने आईं और वे सामूहिक रूप से
उठ खड़े हुए और ब्रिटिश शासन के प्रति अपना विरोध प्रकट किया। इस विद्रोह में सैनिक ही नहीं लडे, बल्कि जनसाधारण भी लड़ा था। इसने व्यापक और संगठित रूप से
पहली बार अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी गई। यह मध्ययुगीन विशिष्ट, किन्तु अशक्त
वर्गों की अपनी खोई हुई सत्ता को प्राप्त करने का अंतिम प्रयास था। इसका आरंभ एक
सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ, लेकिन यह सेना तक सीमित
नहीं रहकर सामान्य जनता तक पहुँच गया। यह सैनिक, सामंत, कृषक, दस्तकारों का एक संयुक्त
संगठन था, जिसके शिकार ब्रिटिश साम्राज्यवादी और नया ज़मींदार और
सम्पत्तिवाला वर्ग था। अंग्रेजों के साथ ही नए ज़मींदारों और साहूकारों को भी
विद्रोहियों का कोपभाजन बनना पडा। विद्रोही गतिविधियाँ तीव्र
ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं से प्रभावित थीं और प्रशासन को हमेशा के लिए उखाड़ फेंका
गया। अपने ही खेमे से किसी नेता के अभाव में,
विद्रोहियों ने भारतीय समाज के पारंपरिक नेताओं - क्षेत्रीय अभिजात वर्ग और
सामंती सरदारों की ओर रुख किया, जिन्होंने
अंग्रेजों के हाथों कष्ट झेले थे।
क्षेत्र-विशेष में विद्रोह का स्वरुप भिन्न था। जैसे पंजाब
और मध्य भारत में यह विद्रोह मुख्यतः सैनिक विद्रोह ही था जिसमें अन्य व्यक्ति भी
शामिल हुए। मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार में
सैनिक विद्रोह के बाद सामान्य जनता ने भी पुराने ज़मींदारों के साथ मिलकर विद्रोह
कर दिया। राजस्थान और महाराष्ट्र में जनता विद्रोहियों से सहानुभूति रखते हुए भी
इसमें सम्मिलित नहीं हुई। झाँसी और दिल्ली के नागरिक सैनिकों के साथ मिलकर
अपने-अपने नगर की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी सेना को पीछे धकेल दिया।
दिल्ली और मेरठ के बीच गांवों के लोग भी सैनिकों के साथ आ मिले थे। किसानों ने
उनका साथ दिया। इसलिए गांवों का मूल्यांकन कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।
हालाँकि
विद्रोहियों को जनता की सहानुभूति मिली, लेकिन
पूरा देश उनके साथ नहीं था। व्यापारी, बुद्धिजीवी और भारतीय शासक न केवल
अलग-थलग रहे, बल्कि
सक्रिय रूप से अंग्रेजों का समर्थन भी किया। कई स्थानों पर सैनिकों की टुकड़ी अंगेजों के प्रति स्वामीभक्ति
बनी रही। इसलिए इस विद्रोह को पूरी तरह से सैनिक विद्रोह कहना ठीक नहीं है।
अंग्रेजी सेना ने जब विद्रोह को कुचला तो उन्होंने केवल विद्रोही सैनिकों को ही
दंडित नहीं किया, बल्कि स्त्री, पुरुष, और बच्चों को भी रौंदते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। एक अनुमान
के अनुसार अंग्रेजों से लड़ते हुए अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद
हुए। इससे स्पष्ट होता है कि जनसाधारण ने भी विद्रोह में भाग लिया था। विद्रोह ने
लोकप्रिय विद्रोह का स्वरुप ले लिया था। इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर विभिन्न
वर्गों के लीग शामिल हुए थे। किसानों और पुराने ज़मींदारों ने अपनी भावनाओं का
खुलकर प्रदर्शन किया। कई स्थानीय नेतृत्व कर रहे लोगों के पीछे असंख्य लोग
सिपाहियों की तरह लड़ने-मिटने के लिए तैयार खड़े थे। जिन स्थानों पर विद्रोह नहीं
भड़का वहाँ के लोगों की सहानुभूति भी विद्रोहियों के साथ थी। जहां सिपाही अंग्रेजी
सरकार के प्रति वफादार थे, उन स्थानों पर सिपाहियों
का सामाजिक बहिष्कार किया गया। हड़प नीति के बावजूद, भारतीय शासकों ने, जिन्हें उम्मीद थी कि अंग्रेजों के साथ
उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा, उदारतापूर्वक
उन्हें सैनिक और सामग्री प्रदान की। वास्तव में, अगर सिपाहियों को उनका समर्थन मिलता, तो वे बेहतर लड़ाई लड़ सकते थे।
इस तरह हम देखते हैं कि 1857 का महाविद्रोह वस्तुतः एक
मिश्रित स्वरुप था। इसलिए निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि “1857 का ग़दर, सिपाहियों के
ग़दर से कहीं अधिक तथा राष्ट्रीय विद्रोह से कहीं कम था।” विद्रोह सिर्फ़ सिपाहियों
का विद्रोह नहीं था, क्योंकि इसमें किसान, कारीगर
और कुछ शासक भी शामिल थे। हालांकि, यह
पूर्ण राष्ट्रीय विद्रोह भी नहीं था, क्योंकि
इसमें पूरे देश ने भाग नहीं लिया और कुछ बड़े शासक और वर्ग इसमें शामिल नहीं हुए
थे। इसमें अखिल भारतीय चरित्र का अभाव था, विद्रोह पूरे देश में नहीं फैला। दक्षिण भारत में यह बहुत
कम प्रभावी था, और सभी क्षेत्रों के लोग एक साथ नहीं आए थे। विद्रोह के लिए
कोई एक एकीकृत योजना या केंद्रीय नेतृत्व नहीं था, जिससे
यह एक सुनियोजित राष्ट्रीय आंदोलन के बजाय स्थानीय विरोधों का एक समूह बन गया।
विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की सारी कोशिशें छिटपुट हुईं और
स्थानीय स्तर तक ही सीमित रही। ये कोशिशें एक-दूसरे से पूरी तरह
अलग-थलग भी रहीं। चूंकि इन विद्रोहों के पीछे महज स्थानीय कारण और मुद्दे ही थे,
इसलिए ये स्थानीय स्तर तक ही सिमटे रहे। यों तो इनमें से कई विद्रोहों का चरित्र
एक जैसा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं था कि ये कहीं से भी
राष्ट्रीय प्रयासों को प्रतिनिधित्व करते थे, बल्कि इसका
कारण यह था कि इनमें से कई विद्रोहों का जन्म एक जैसी पृष्ठभूमि और परिस्थितियों
के कारण हुआ था।
विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर सैनिकों द्वारा आरम्भ
किए गए विद्रोह से उत्पन्न स्थिति का लाभ उठाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के
लोग इसमें शामिल हुए। इन सभी ने अंग्रेजी अत्याचारों से मुक्त होने का प्रयास किया।
हालाकि भारत को बचाने का यह हताशा भरा प्रयास पुराने तरीके से और परंपरागत नेतृत्व
में किया गया था, लेकिन वह ब्रितानी साम्राज्य से भारतीय जनता को मुक्त करने
का पहला बड़ा संघर्ष था। देश में घर-घर में विद्रोही नायकों की चर्चा होने लगी। सिपाहियों
की सीमाओं और कमजोरियों के बावजूद, देश को
विदेशी शासन से मुक्त कराने का उनका प्रयास एक देशभक्तिपूर्ण कार्य और एक
प्रगतिशील कदम था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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