राष्ट्रीय आन्दोलन
371. सन्थाल हुल
1855-56
प्रवेश
भारत के एक बड़े हिस्से में फैले
आदिवासी लोगों ने 19वीं
सदी में सैकड़ों उग्र आंदोलन और बगावतें कीं। इन विद्रोहों में उनकी तरफ से बहुत
ज़्यादा हिम्मत और कुर्बानी और शासकों की तरफ से बेरहमी और कत्लेआम देखने को मिला।
औपनिवेशिक प्रशासन ने उनके तुलनात्मक रूप से अलग-थलग होने को अस्तित्व को खत्म
किया और उन्हें पूरी तरह से उपनिवेशवाद के दायरे में ले आया। आदिवासी सरदारों को
ज़मींदार के तौर पर मान्यता दी और ज़मीन से होने वाली आय और आदिवासी उत्पादों पर
टैक्स का एक नया सिस्टम शुरू किया। आदिवासियों के बीच बिचौलियों के तौर पर बड़ी
संख्या में साहूकारों, व्यापारियों और महाजनों को लाया। बिचौलिए
बाहरी लोग थे जिन्होंने तेज़ी से आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया और
आदिवासियों को कर्ज़ के जाल में फंसा दिया। इन सब कारणों से आदिवासियों में रोष
उत्पन्न हुआ और उन्हें विद्रोह करना पडा।
‘हूल’ यानी क्रांति/आंदोलन 
कई आदिवासी विद्रोहों में से, संथाल हूल या बगावत सबसे बड़ी थी। 30 जून 1855
को प्रारंभ हुआ ‘संथाल हूल’ भारत में प्रथम सशस्त्र
जनसंघर्ष था। मार्क्सवादी दर्शन के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने भी अपनी पुस्तक ‘नोट्स
ऑफ इण्डियन हिस्ट्री’ में इस ‘संथाल हूल’ को सशस्त्र जनक्रान्ति की
संज्ञा दी है। ‘हूल’
संथाली आदिवासी शब्द है जिसका अर्थ होता है क्रांति/आंदोलन यानी शोषण, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ उठी बुलंद आवाज। ‘संथाल हुल’ को इतिहासकार ‘संथाल-विद्रोह’
मानते रहे हैं। सच तो यह है कि यह कोई विद्रोह या आंदोलन नहीं था, बल्कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध था। इसे समझने के लिए युद्ध
और विद्रोह के बीच फर्क को समझना होगा। विद्रोह किसी भी सत्ता से असंतुष्ट
जनआंदोलन को कहा जा सकता है, जबकि युद्ध दो सत्ताओं के
बीच अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए होता है, और ‘संथाल
हूल’ संथालों द्वारा अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ
युद्ध था। 
महाजनों और सरकारी कर्मचारियों का
अत्याचार
संथाल
शान्त प्रिय तथा विनम्र लोग थे। जो आरम्भ में मानभूम, बड़ाभूम, हजारीबाग, मिदनापुर,
बांकुड़ा तथा बीरभूम प्रदेश में रहते थे और वहाँ की भूमि पर खेती
करते थे। 1773 ई. में स्थायी भूमि बन्दोवस्त व्यवस्था लागू
हो जाने के कारण इनकी भूमि छीनकर जमींदारों को दे दी गयी। जमींदारों की अत्यधिक
उपज मांग के कारण ये लोग अपनी पैतृक भूमि छोड़कर राजमहल की पहाड़ियों के आसपास बस
गये, जो ‘दमन-ए-कोह’के
नाम से विख्यात हुआ। वहाँ पर कड़े परिश्रम से इन लोगों ने जंगलों को काटकर कृषि
योग्य भूमि बनाई और खेती करना शुरू किया। संथालों के परिश्रम से यहाँ अच्छी खेती
होने लगी। परिणामस्वरूप यहाँ से राजस्व प्राप्त करने के लिए सरकारी व्यवस्था शुरू
की गई। जमींदारों ने इस भूमि पर भी अपना दावा कर दिया। सरकार ने भी जमींदारों का
समर्थन किया और संथालों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया। इस व्यवस्था से ज़मींदारों, साहूकारों और सरकारी कर्मचारियों की चांदी हो गयी।
जमींदार
उनका शोषण करने लगे अंग्रेज अधिकारी भी जमींदारों का पक्ष लेते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव का बंगाल सूबे पर कब्जे के
बाद लोगों से लगान वसुलने के लिए जमींदारी प्रणाली तैयार की, जिसके
बाद साहुकारों की भी एक बड़ी जामात तैयार हो गई, जो लगान
देने के लिए लोगों को सूद पर कर्ज देते और बदले में उनकी जमीन जायदाद को अपने
कब्जे में ले लेते। जमींदार के कारिंदे लोगों से जबरन लगान
वसूलते थे, नहीं
देने की स्थिति में काफी शारीरिक प्रताड़ना दी जाती थी। लगान
चुकाने के लिए संथालों को साहूकारों और महाजनों से क़र्ज़ लेना पड़ता था। क़र्ज़
की राशि पर उन्हें 50% से 500% तक ब्याज देना पड़ता था। इसे
चुकाने में उनके खेत, अनाज,
पशु, खुद वे और उनके परिवार के सदस्य महाजन की भेंट चढ़ जाते
थे। महाजनों और ज़मींदारों ने उन्हें अपना गुलाम
बनाकर उनका आर्थिक-सामाजिक शोषण शुरू कर दिया। अंग्रेजी कंपनी और उसके
समर्थकों, जमींदारों,
महाजनों, साहुकारों और उनकी पुलिस आदि
के द्वारा लूट-पाट, शोषण, बलात्कार
जैसे उत्पीड़न व जुल्म से  त्रस्त संथाल भागते फिर
रहे थे, लेकिन उनकी अधीनता स्वीकार करने को कतई तैयार
नहीं थे। संथालों को इनसे मुक्ति पाने का कोई वैधानिक
रास्ता नहीं था।  उनके इस असंतोष ने विद्रोह का रूप
ले लिया।
विद्रोह के नेता
1854 तक, आदिवासी मुखिया मिलने लगे और बगावत की संभावना पर
चर्चा करने लगे। ज़मींदारों और साहूकारों को लूटने के छिटपुट मामले सामने आने लगे।
शुरू
में यह विद्रोह सरकार विरोधी नहीं था। संथालों
का क्रोध महाजनों के विरुद्ध था। सरकार महाजनों का पक्ष ले रही थी।
इससे संथालों का क्रोध सरकार और सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध भी फूट पडा।
संथालों को संगठित करने का काम शुरू हुआ।
इसका जिम्मा चार भाइयों, सिदो,
कान्हू, चाँद और भैरव ने लिया।
संथालों में प्रतिशोध की भावना जगाने और उन्हें विद्रोह के लिए तैयार करने में
उनकी धार्मिक भावनाओं को उभारा गया। सिदो
ने खुद को देवी पुरुष घोषित किया। खुद को संथालों के ईश्वर ‘ठाकुर’ का
प्रतिनिधि बताया। बाद में, फूलो और झानो ने भी उनका साथ दिया। फुलो-झानो बहनों ने 1,000 महिलाओं की सेना का नेतृत्व किया था।
इन तमाम घटना क्रम को
देखते हुए सिदो-कान्हू ने संथाल गांवों में डुगडुगी
बजवा कर 400 गांवों
को न्योता दिया। 30 जून, 1855 को
400 गांवों के करीब 6 हजार आदिवासी भगानिडीही गांव पहुंचे, एक
विराट सभा हुई। मुख्य बागी नेताओं सिदो-कान्हू
ने दावा किया कि ठाकुर (भगवान) ने उनसे
बात की थी और उन्हें हथियार उठाने और आज़ादी के लिए लड़ने के लिए कहा था। सिदो ने
अधिकारियों को एक घोषणा में बताया: ‘ठाकुर ने मुझे आदेश दिया है कि देश साहिबों का
नहीं है... ठाकुर खुद लड़ेंगे। इसलिए, तुम साहिब और सैनिक खुद ठाकुर से
लड़ोगे।’ उन्होंने घोषणा कर दी कि "वे देश को अपने
हाथ में ले लेंगे और अपनी सरकार स्थापित कर देंगे।" सभा में यह घोषणा कर दी
गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे। लोगों को सरकारी अत्याचारों का
मुकाबला करने और अंग्रेजी शासन समाप्त करने का आदेश दिया गया। यही से अंग्रेजी कंपनी और
उसके समर्थकों के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ जो जनयुद्ध में बदल गया। यह तय किया गया कि सलियुग, ‘सत्य का राज’ और ‘सच्चा न्याय’ लाया जाए।
विद्रोह का प्रसार
नेताओं ने ढोल बजाने वालों और दूसरे
संगीतकारों के साथ गांवों में बड़े जुलूस निकालकर संथाल पुरुषों और महिलाओं को
इकट्ठा किया। नेता घोड़ों, हाथियों
और पालकी में सवार होकर निकले। जल्द ही लगभग 60,000 संथाल इकट्ठा हो गए। संथाल विद्रोह में बड़ी संख्या में
गैर-आदिवासी और गरीब दिकुओं ने मदद की। ग्वालों (दूध वालों) और दूसरों ने बागियों
को खाने-पीने की चीज़ों और सेवाओं से मदद की; लोहारों ने बागियों के साथ मिलकर
अपने हथियार अच्छी हालत में रखे।
इसके बाद अंग्रेजी कंपनी
ने सिदो, कान्हू,
चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। जुलाई, 1855 में जिस अत्याचारी दारोगा,
महेश लाल, को चारों भाइयों को
गिरफ्तार करने के लिए वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या
कर दी। बाज़ार और दूकान लूट लिए गए। भागलपुर
और पूर्णिया से संथालों के लिए ‘घोषणापत्र’ ज़ारी किया गया।
आह्वान किया गया की महाजनों और सरकारी कर्मचारियों का अत्याचार समाप्त किया जाएगा।
सरकारी दफ्तरों, कर्मचारियों, महाजनों पर आक्रमण किए गए।
आतंक, ह्त्या, लूटपाट किए गए।
भागलपुर और राजमहल के बीच डाक-तार और रेल सेवा भंग कर दी गयी। अंग्रेजी
शासन की समाप्ति की घोषणा कर संथालों ने अपना शासन स्थापित कर लिया गया।
सरकारी दमन
इस दौरान कंपनी के
अधिकारियों में भी इस विद्रोह से भय पैदा हो गया था। जब सरकार को बगावत का बड़ा रूप समझ
आया, तो उसने बागियों के खिलाफ एक बड़ा
मिलिट्री कैंपेन चलाया। इसे दबाने के लिए अंग्रेजों ने कलकत्ता
से इस इलाके में मेजर बर्रो के नेतृत्व में सेना भेज दी गयी। पूर्णिया
से भी सेना की एक टुकड़ी भेजी गई। सेना क्रूरतापूर्वक कार्रवाई करते
हुए जमकर आदिवासियों की गिरफ्तारियां की और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने
लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए असर वाले इलाकों में मार्शल लॉ लगा दिया गया। संथालों
ने छापामार युद्ध प्रणाली का सहारा लिया।
लेकिन वे सेना के सामने ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं सके।
फरवरी, 1856 तक अनेक संथाल मारे गए, उनके नेता गिरफ्तार कर
लिए गए। संथालों का मनोबल टूट गया। कंपनी ने सिदो-कान्हू को पकड़ने के लिए 10,000 हजार
रुपए इनाम की घोषणा की। इस विद्रोह के साथ संथालों सहित उस क्षेत्र में रहने वाले
कई गैर-संथाली लोगों ने भी बड़ी हिस्सेदारी निभाई। 10,000 हजार रुपए इनाम की लालच ने काम किया और अपनों में से ही किसी ने
मुखबिरी करके सिदो-कान्हू को पकड़ा दिया। सिदो
को धोखा देकर अगस्त 1855 में पकड़
लिया गया और मार दिया गया।  फरवरी
1856
में कान्हू मारे गये। फलस्वरूप 1856 के अन्त
तक विद्रोह को बहुत कठोरता से दबा दिया गया। 15,000 से ज़्यादा संथाल मारे गए और
दसियों गाँव तबाह हो गए।
संसाधनों की कमी से पराजय
अंग्रेज कंपनी के विरोध
में चल रहे इस युद्ध के लिए जितने संसाधनों जरूरत थी, उसे
अकेले संथालों द्वारा जुटा पाना संभव नहीं था। अगर पारंपरिक हथियारों तीर-धनुष,
टांगा, बलुआ आदि की हम बात करें तो वह
लुहारों के सहयोग के बिना जुटा पाना संभव नहीं था। वैसे भी ये जातियां भी संथालों की ही
तरह ब्रिटिश कंपनी की नीतियों और सामंतों, महाजनों, साहूकारों
व व्यापारियों से पीड़ित थीं। अत: 30 जून 1855 को जब सिदो ने खुद को ‘सूबा
ठाकुर’ (क्षेत्र का सर्वोच्च शासक) घोषित किया और अंग्रेजों को इलाका छोड़ने का
‘फरमान’ जारी किया, तो उनके साथ उत्पीड़ित होने वाले गैर-आदिवासी समूह
भी गोलबंद हो गए। वहीं यह भी सच है कि इन्हीं में से किसी ने मुखबिरी करके सिदो-कान्हू को पकड़वाया था, जिससे
संथालों में आज भी दिकूओं यानी गैर-आदिवासियों पर भरोसा नहीं होता है।
संथाल विद्रोह के परिणाम
“संथाल हुल” एक व्यापक प्रभाव वाला युद्ध था।
संथाल विद्रोह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ शुरुआती और सुनियोजित जनजातीय
विद्रोहों में से एक था। इतिहासकार वाल्टर हॉउजर ने अपनी पुस्तक " Aadivasi and the Raj : Socio
Economic Transition of the Santhal in Eastern India" में
संथाल हूल विद्रोह या हुल विद्रोह को हक की लड़ाई और ब्रिटिश सरकार के नीतियों के
खिलाफ संघर्ष के रूप में देखा। कठोरता से विद्रोह को दमन करने के बाद ‘राजमहल की
पहाड़ियाँ लड़ते हुए संथाल किसानों के खून से लथपथ थीं।’ संथाल बागियों की बहादुरी
का एक खास उदाहरण L.S.S. ओ’मैली ने बताया है: ‘उन्होंने बहुत हिम्मत
दिखाई, उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब
हार गए और सरेंडर करने से मना कर दिया। एक बार, पैंतालीस संथालों ने एक मिट्टी की
झोपड़ी में शरण ली, जिसे उन्होंने सिपाहियों के खिलाफ पकड़ रखा था। उस पर एक के
बाद एक गोलियाँ चलाई गईं… हर बार संथालों ने तीरों की बौछार से जवाब दिया। आखिर
में, जब उनकी फायरिंग बंद हुई, तो सिपाही झोपड़ी में घुसे और पाया
कि सिर्फ़ एक बूढ़ा आदमी ज़िंदा बचा था। एक सिपाही ने उसे सरेंडर करने के लिए कहा, जिस पर वह बूढ़ा आदमी उस पर झपटा और
अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया।
ब्रिटिश राज ने आदिवासी इलाकों में वाणिज्यीकरण
को और मज़बूत किया, जिससे
मैदानी इलाकों के बाहरी लोगों - साहूकारों, व्यापारियों, ज़मीन हड़पने वालों और ठेकेदारों - की पहले से मौजूद घुसपैठ
की प्रवृत्ति और मज़बूत हुई, जिनसे संथाल
बहुत नफ़रत करते थे। बाहरी तत्त्वों की घुसपैठ को संथाल दिकू कहते
थे। दिकुओं ने संथालों के ज्ञात संसार को पूरी तरह बर्बाद कर दिया तथा उन्हें अपना
खोया क्षेत्र प्राप्त करने के लिए कार्यवाही करने पर मज़बूर कर दिया। पूरी तरह से प्राइवेट प्रॉपर्टी की
ब्रिटिश कानूनी सोच ने जॉइंट ओनरशिप की परंपराओं (जैसे छोटा नागपुर में खुंटकट्टी
तेनुई) को खत्म कर दिया और आदिवासी समाज के अंदर तनाव को बढ़ा दिया। जब संथाल विद्रोह में उठ खड़े हुए; तब बाहरी लोगों – दिकुओं – को निकालने
की पक्की कोशिश की और विदेशी शासन के पूरी तरह ‘खत्म’ का ऐलान किया। संथाल लोग
दिकुओं और सरकारी कर्मचारियों को नैतिक रूप से भ्रष्ट मानते थे क्योंकि वे भीख
मांगते, चोरी करते, झूठ बोलते और शराब पीते थे। इस विद्रोह
का लक्ष्य सिर्फ अंग्रेजों का विरोध करना नहीं था, बल्कि सभी शोषकों, जिन्हें "दिकू" कहा जाता था, का विरोध
करना था।
विद्रोह
के दमन के बाद, ब्रिटिश सरकार को संथाल परगना
काश्तकारी अधिनियम, 1876 (SPT Act) और छोटा नागपुर काश्तकारी
अधिनियम, 1908 (CNT Act) जैसे कानून पारित करने पड़े,
जिन्होंने आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा की। सरकार को संथाल परगना को नया जिला बनाकर उनके रोष को शान्त करना पड़ा। संथाल
हुल केवल दमन तक ही सीमित नहीं था। इसने बाद के विद्रोहों को प्रेरित किया,
विशेष रूप से 1857 के विद्रोह के दौरान।
प्रतिरोध की भावना इस क्षेत्र में जारी रही, जिसने बाद के
आंदोलनों को प्रभावित किया। इस विद्रोह ने औपनिवेशिक शासन के तहत आदिवासी समुदायों
की दुर्दशा को उजागर किया और आदिवासी अधिकारों पर विमर्श को बढ़ावा दिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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