राष्ट्रीय आन्दोलन
381. 1857 विद्रोह की असफलता के कारण
1857
का विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय जनता का सबसे बड़ा उभार था।
यह विद्रोह भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें
समाज के विभिन्न वर्गों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई। इसने ब्रिटिश सत्ता के समक्ष
गंभीर चुनौती पेश की। यद्यपि इसका आरंभ कम्पनी के सेना के भारतीय सिपाहियों द्वारा
हुआ लेकिन जल्द ही एक व्यापक क्षेत्र के लोग इसमें शामिल में गये। देखते ही देखते
देश के एक बड़े भूभाग में यह विद्रोह फैल गया। कई स्थानों पर तो अंग्रेजी राज्य के
चिह्न तक को मिटा देने का प्रयत्न किया गया, परंतु शीघ्र ही
जिस गति से यह विद्रोह फैला उसी गति से इसे दबा दिया गया। इस तरह यह विद्रोह असफल
समाप्त हुआ।
1857
के महाविद्रोह की असफलता के कई कारण थे, जिनमें योग्य नेतृत्व और एकीकृत योजना का अभाव, ब्रिटिश
सेना की श्रेष्ठ सैन्य शक्ति (बेहतर हथियार और संसाधन), विद्रोह
का सीमित क्षेत्रीय स्वरूप (यह केवल उत्तर और मध्य भारत तक सीमित था), और अधिकांश भारतीय शासकों व शिक्षित वर्ग का समर्थन न मिलना प्रमुख थे। इसके अलावा, विद्रोह को लेकर भारतीय
नेताओं में एकता और समन्वय की कमी, आधुनिक हथियारों का अभाव
और संचार व्यवस्था का कमजोर होना भी महत्वपूर्ण कारण थे।
विद्रोह का स्थानीय स्वरूप होना
1857
ई के विद्रोह की असफलता का मुख्य कारण इसका स्थानीय स्वरूप होना था।
इस विद्रोह में यद्यपि सेना, बेदखल जमींदार, कृषक, दस्तकार एवं आम नागरिक भी शामिल थे फिर भी इस विद्रोह ने व्यापक स्वरूप को
प्राप्त नहीं किया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संभवतः विद्रोह नियोजित समय के
पहले ही आरंभ हो गया इसलिये अखिल भारतीय चरित्र को प्राप्त नहीं कर सका। इसके विपरीत
कई देशी शासकों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का सक्रिय सहयोग किया।
नेतृत्व की कमी
विद्रोह
के दौरान नेतृत्व की कमी प्रमुख कारणों में से एक थी। विद्रोहियों के पास योग्य
नेतृत्व का अभाव था। विभिन्न क्षेत्रों में असंगठित और असमान नेतृत्व ने विद्रोह
को एकजुटता और समन्वय की कमी प्रदान की। सभी नेता अलग-अलग योजनाएं बनाते थे। जबकि
अंग्रेजों की सेनाओं का संचालन एक ही प्रधान सेनापति के अधीन नील, हैवलाक, आट्रम, हुरोज,
निकोल्सन और लौरेंस जैसे योग्य और अनुभवी जनरलों ने किया। क्रांतिकारियों के
प्रधान सेनापति मिर्ज़ा मुग़ल (बहादुर शाह का पुत्र) था, जिसमें किसी भी प्रकार की
सैनिक प्रतिभा नहीं थी। केवल झांसी की रानी और तात्या टोपे योग्य सेनानी थे। अतः
विद्रोही बिना किसी निश्चित योजना के लड़ते रहे। इस बिखरी हुई शक्ति को नष्ट करने
में अंग्रेजों को अधिक समय नहीं लगा।
संगठन का अभाव
यह
क्रान्ति सारे भारत की संगठित क्रान्ति नहीं थी। संगठन के अभाव के कारण यह
देशव्यापी क्रान्ति का स्वरुप नहीं धारण कर सकी। भारतीयों में राष्ट्रीयता का भाव
नहीं था। बागियों
का पहला इरादा हमेशा दिल्ली की ओर बढ़ना होता था, चाहे वे मेरठ, कानपुर या झांसी में हों। फ़ायदे को
बनाए रखने के लिए एक संगठन और एक पॉलिटिकल संस्था बनाने की ज़रूरत ज़रूर महसूस की
गई। लेकिन ब्रिटिश जवाबी हमले के सामने, इन शुरुआती धुंधले आइडिया पर आगे बढ़ने का कोई मौका नहीं
था।
1857 ई के विद्रोह की असफलता का एक अन्य कारण विद्रोह के नेतृत्व एवं विद्रोह
की शक्ति के बीच सामंजस्य का नहीं होना भी था। विद्रोह की मुख्य शक्ति कृषक एवं
दस्तकार थे, जबकि नेतृत्व को जमींदारों ने सँभाला। अगर इस
विद्रोह को कृषक एवं अन्य ग्रामीण शहरी सर्वहारा वर्ग के प्रवाह में बढ़ने दिया
जाता तो संभवतः इतिहास का रुख कुछ और होता। किंतु सामन्ती नेतृत्व ने इस विद्रोह की
प्रगति को स्वाभाविक गति से बढने नहीं दिया। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विभिन्न
सामंती वर्ग अपने-अपने स्वार्थ के कारण ही विद्रोह में शामिल हुए। नाना साहब विठुर
की जागीरदारी छीनने पर एवं झांसी की रानी उत्तराधिकार की समस्या के कारण की इसमें
सम्मिलित हुए। जब अवध के तालुकदार को जमींदारी वापस करने का आश्वासन दिया गया तो
उसने विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया।
उद्देश्य का अभाव
क्रांतिकारियों
का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं था। सभी शासकों और ज़मींदारों के निजी स्वार्थ थे,
जिनके लिए वे लड़ रहे थे। मुसलमान मुग़ल साम्राज्य को पुनर्जीवन देना चाहते थे।
हिन्दू लोग हिन्दू राज्य की स्थापना के इच्छुक थे। विद्रोह में जितने नेता उभरे थे, उन सबका उद्देश्य एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न था जैसे- बहादुर शाह दिल्ली
पर अधिकार बनाए रखना चाहते थे। झांसी की रानी अपने पुत्र के लिए झांसी को बचाए
रखना चाहती थीं। नाना साहब पेंशन को बचाए रखने के लिए जूझ रहे थे। किसानों को अपनी
खोई हुई जमीन चाहिए थी, साथ ही उन्हें लगान से मुक्ति चाहिए
थी, जो किसान महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फंसे थे,
उन्हें ब्याज से मुक्ति चाहिए थी। सैनिकों को अच्छा वेतन चाहिए था,
साथ ही अपने धर्म के पालन की अनुमति चाहिए थी। चूंकि सब अपने-अपने
उद्देश्य के लिए लड़ रहे थे इसलिए एक साझा उद्देश्य नहीं बन पाया इसलिए कहा गया है
कि विद्रोहियों पास ब्रिटिश मुक्त भारत की कोई भावी रणनीति ही नहीं थी। 1857
का विद्रोह किसी आधुनिक विचारधारा अथवा किसी गतिशील विचारधारा पर
आधारित नहीं था। यह वास्तव में मध्यकालीन सोच पर आधारित था। विद्रोहियों के पास
कोई स्पष्ट कार्यक्रम और विचारधारा ही नहीं था। उन्हें यह तो पता था कि हमें
अंग्रेजों का विरोध करके उन्हें भारत से हटाना है किन्तु उन्हें यह मालूम नहीं था
कि जब अंग्रेज भारत से चले जायेंगे तो हम किस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था
लागू करेंगे।
ब्रिटिश सेना की मजबूत स्थिति
ब्रिटिश
सेना की मजबूत स्थिति और उनकी सैन्य रणनीतियों ने विद्रोहियों को हराने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटिश सेना के पास आधुनिक हथियार और बेहतर प्रशिक्षण
था। लगभग आधे भारतीय सैनिकों ने न
सिर्फ़ बगावत नहीं की बल्कि अपने ही देश के लोगों के ख़िलाफ़ लड़े। दिल्ली पर फिर
से कब्ज़ा पाँच कॉलम ने किया जिसमें 1700 ब्रिटिश सैनिक और 3200 भारतीय थे।
कश्मीरी गेट को उड़ाने का काम छह ब्रिटिश अफ़सरों और NCO और चौबीस भारतीयों ने किया, जिनमें
से दस पंजाबी थे और चौदह आगरा और अवध से थे। एक ऐसा साम्राज्य जो पूरे विश्व में
शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर हो उसे पराजित करना इतना आसान नहीं था।
अंग्रेजों के लिये अनुकूल परिस्थितियां
अंग्रेजों
के लिये इस समय परिस्थितियां भी अनुकूल हो गई थी। इस समय अंग्रेज अन्य अन्तर्राष्ट्रीय
समस्या में उलझे हुए नहीं थे। क्रीमिया तथा चीन की लड़ाई का अंत हो चुका था, फ्रांस को हराया जा चुका था एवं अफगानिस्तान से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित
हो चुका था। ऐसे में अँग्रेज़ों के पास विद्रोह दबाने के लिए पर्याप्त समय था।
कूटनीतिक स्तर पर
कूटनीतिक
स्तर पर भी अंग्रेज सफल रहे। यह इससे स्पष्ट है कि दस वर्ष पूर्व जिन सिक्खों
से अंग्रेजों ने राज्य छीना था, लॉर्ड एलनबरो ने जिस सिंधिया
का अपमान किया था, 1853 में जिस निजाम से बरार छीना था तथा अफगानों,
जिनसे अंग्रेज निरंतर युद्ध करते थे, इन सबों को अंग्रेजों ने अपने
पक्ष में मिला लिया। इसके विपरीत विद्रोहियों ने अदूरदर्शिता का परिचय दिया तथा
लूट खसोट के द्वारा अपने ही वर्ग का समर्थन खो दिया।
सांप्रदायिक विभाजन
विद्रोह
के दौरान सांप्रदायिक विभाजन और जातीय असहमति ने एकजुटता को बाधित किया। विभिन्न
धार्मिक और जातीय समूहों के बीच अंतर ने विद्रोह को कमजोर किया।
रणनीतिक कमजोरियाँ
विद्रोहियों
की रणनीतिक कमजोरियाँ, जैसे कि आपूर्ति और संचार की
समस्याएँ, ने उनकी स्थिति को कमजोर किया। वे ब्रिटिश सेना के
साथ सामरिक रूप से प्रभावी ढंग से नहीं लड़ सके। डलहौजी के शासन काल में यातायात के संसाधनों और संचार के साधनों का विकास हुआ था। वास्तव
में इस विद्रोह को दबाने में यातायात और संचार के साधनों का भी लाभ अंग्रेजों को
प्राप्त हुआ था। विद्रोही इस बात को समझ सकने में असफल रहे की भारत की मुक्ति
मध्यकालीन सामंती व्यवस्थाओं को पुनः स्थापित करने में नहीं है बल्कि आगे बढ़कर आधुनिक समाज, आधुनिक अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा और प्रगतिशील राजनीतिक संस्थाओं को गले लगाने से
है। प्रगतिशील योजना और कार्यक्रम के अभाव में प्रतिक्रियावादी और सामंती तत्त्व
आन्दोलन का नेतृत्व हड़पने में सफल रहे।
वर्ग संघर्ष के मुद्दे और निहित स्वार्थ
की लड़ाई
इस
विद्रोह में भावी भविष्य और रणनीति का तो पूरी तरह से अभाव था इसलिए भावी रणनीति
और स्पष्ट उद्देश्य के अभाव में कहीं वर्ग संघर्ष के मुद्दे उभर गये, कहीं निहित स्वार्थ की लड़ाई शुरू हो गई। इस विद्रोह में कहीं जमींदारों को
मारा गया, कहीं महाजनों के घरों में आग लगा दिया गया। वास्तव
में सैनिक स्वार्थ रहित थे और निःसंदेह सैनिक बहादुर भी थे, किन्तु
इन सैनिकों में सबसे बड़ी कमी यह थी कि सैनिक अनुशासित नहीं थे।
स्थानीय समर्थन की कमी
विद्रोहियों
को स्थानीय समर्थन की कमी का सामना करना पड़ा। कई क्षेत्रों में स्थानीय शासकों,
देशी नरेशों, सामंतों और जनता ने ब्रिटिश शासन का समर्थन किया, जिससे विद्रोहियों को सहायता नहीं मिली। भारतीय रजवाड़ों के अधिकाँश शासक
और ज़मींदार स्वार्थी थे। ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के
होलकर, हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के
राजा और अन्य राजपुर शासक, भोपाल के नवाब, पटियाला, नाभा और जींद के सिख शासक और पंजाब के सिख सरदार, कश्मीर के महाराजा आदि
ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की। जमींदारों और महाजनों का
साथ न देना तो समझ में आता है कि दोनों वर्ग अंग्रेजी राज की ही उपज ये और इसी राज
में ही उनके स्वार्थ की पूर्ति हो सकती थी। इसी प्रकार व्यापारी वर्ग भी विद्रोह
से उदासीन था।
संसाधनों की कमी
विद्रोहियों
के पास आवश्यक संसाधनों की कमी थी। हथियार, आपूर्ति और आर्थिक
संसाधनों की कमी ने उनकी युद्ध क्षमताओं को सीमित कर दिया। उनके पास कुशल सेना और
धन की कमी थी। विद्रोही भाले, तलवार आदि प्राचीन हथियार से
ही लड़ रहे थे। सिपाहियों में अनुशासन की कमी थी। विद्रोहियों में कोई तालमेल नहीं
था। अंग्रेजों के पास आधुनिक शास्त्रों से लैस सेना थी। अच्छे सेनापति थे। रेलवे
और यातायात के अन्य साधन थे। अंग्रेजों की नौसैनिक शक्ति और तोपखाना अधिक उपयोगी
थे। विद्रोहियों
के पास हथियार और गोला-बारूद का कोई ज़रिया नहीं था; ब्रिटिश हथियारों के जखीरे से जो
कुछ भी उन्होंने पकड़ा था, उससे
वे ज़्यादा दूर नहीं जा सके। उन्हें अक्सर सबसे मॉडर्न हथियारों से लैस दुश्मन के
खिलाफ तलवारों और भालों से लड़ना पड़ता था। उनके पास कम्युनिकेशन का कोई तेज़
सिस्टम नहीं था और इसलिए, कोई तालमेल मुमकिन नहीं था। इसलिए, उन्हें अपने देश के लोगों की ताकत और कमज़ोरियों का पता
नहीं था और इस वजह से वे मुश्किल समय में एक-दूसरे की मदद नहीं कर सकते थे। हर कोई
अकेला रह गया था। रेलवे के विकास के चलते अंग्रेजी सैनिकों के
तीव्र आवागमन को मदद मिला। साथ ही डाक और तार व्यवस्था के विकास के कारण
अंग्रेज परस्पर संपर्क में बने रहे। इसके चलते अंग्रेज एक दूसरे की
गतिविधियों से अंजान नहीं थे बल्कि ये आपस में संपर्क में बने रहे, जबकि भारतीय विद्रोही इसका लाभ नहीं उठा पाए क्योंकि अंग्रेजी सरकार ने
इसका विकास किया था। यही कारण था कि भारतीय विद्रोही एक
दूसरे से अलग-थलग बने रहे और एक दूसरे के गतिविधियों से अंजान बने रहे।
ब्रिटिश प्रशासन की सख्ती
ब्रिटिश
प्रशासन की सख्ती और दमनात्मक नीतियों ने विद्रोहियों को कुचलने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। उत्तर भारत को दुबारा जीतने के लिए फौजियों की सहायता के लिए कई
कानून पारित किए। समूचे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। आम
हिन्दुस्तानियों पर मुक़दमा चलाने और उनको सज़ा देने का अधिकार दे दिया गया जिन पर
विद्रोह में शामिल होने का शक था। विद्रोह के नेताओं को कठोर दंड दिया गया और
विद्रोह को समाप्त करने के लिए सख्त उपाय किए गए।
राजनीतिक असमर्थता
विद्रोहियों
के बीच राजनीतिक असमर्थता और असंगठित प्रयासों ने उनके प्रयासों को विफल कर दिया।
एकजुटता और समन्वय की कमी ने विद्रोह की ताकत को कम कर दिया। बहादुर शाह में सैनिक
क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव था। झांसी की रानी, कुंवर सिंह और मौलवी अहमदुल्ला
जैसे कुछ इज्जतदार लोगों को छोड़कर, बागियों की उनके नेताओं ने ठीक से सेवा नहीं की। उनमें से
ज़्यादातर विद्रोह की अहमियत को समझ नहीं पाए और उन्होंने बस कुछ खास नहीं किया।
बहादुर शाह और जीनत महल को सिपाहियों पर कोई भरोसा नहीं था और उन्होंने उनकी
सुरक्षा के लिए अंग्रेजों से बातचीत की। ज़्यादातर तालुकदारों ने सिर्फ़ अपने
फायदे की रक्षा करने की कोशिश की। उनमें से कुछ, जैसे मान सिंह, ने कई बार पाला बदला, यह इस बात पर निर्भर करता था कि
किसका पलड़ा भारी था। दूसरे देशों के राज के लिए एक जैसी नफ़रत के अलावा, विद्रोहियों के पास कोई पॉलिटिकल नज़रिया या भविष्य का कोई
पक्का विज़न नहीं था। वे सब अपने ही अतीत के कैदी थे, जो खासकर अपने खोए हुए खास अधिकार वापस पाने के लिए लड़ रहे
थे।
हैरानी की बात नहीं कि वे एक नई पॉलिटिकल व्यवस्था लाने में नाकाम साबित हुए। जॉन लॉरेंस
ने सही कहा था कि अगर उनमें (विद्रोहियों में) एक भी काबिल लीडर उठता तो हम शायद
कभी नहीं बच पाते। इस आन्दोलन में तरह-तरह के तत्त्व जैसे-सैनिक, किसान, मजदूर और राजा आदि शामिल थे, और इनके अपने-अपने निजी उद्देश्य भी
थे। ये सभी लोग अंग्रेजों से साझी घृणा के कारण ही एक दूसरे से जुड़े हुए थे। इनके
बीच कोई अन्य संपर्क सूत्र नहीं था। इनमें से हर-एक की अपनी शिकायत थी और स्वतंत्र
भारत की राजनीति की अपनी धारणाएं थी।
जनसमर्थन की कमी
विद्रोह
के दौरान जनसमर्थन की कमी ने विद्रोहियों को मजबूत आधार प्रदान नहीं किया। जनता का
समर्थन न मिलने से विद्रोह की ताकत कमजोर हो गई। हालांकि बागियों को लोगों की
हमदर्दी मिली, लेकिन पूरा देश उनके साथ नहीं था। व्यापारी, बुद्धिजीवी और भारतीय शासक न सिर्फ अलग-थलग रहे, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया। डॉक्ट्रिन
ऑफ़ लैप्स के बावजूद, भारतीय शासकों को उम्मीद थी कि
अंग्रेजों के साथ उनका भविष्य ज़्यादा सुरक्षित रहेगा, उन्होंने उन्हें खुले दिल से आदमी और सामान दिया।
ब्रिटिश आंतरिक सुलह और रणनीति
ब्रिटिशों
ने विद्रोहियों के खिलाफ आंतरिक सुलह और प्रभावी रणनीति अपनाई। उन्होंने
विद्रोहियों की कमजोरियों का फायदा उठाया और विद्रोह को कुचलने में सफलता प्राप्त
की। आधुनिक शिक्षाप्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। उनका
मानना था कि अंग्रेज़ आधुनिकीकरण के कार्य को पूरा करने के लिए उनकी सहायता करेंगे। इस वर्ग ने विद्रोह को अविवेकपूर्ण एवं
प्रतिक्रियावादी माना क्योंकि इस विद्रोह का चरित्र मुख्यतः सामंतवादी था और इसलिये
इन्होंने विद्रोह का समर्थन नहीं किया। भारत का यह वर्ग छोटा जरूर था किंतु इसका समर्थन
और खासकर इसका नेतृत्व विद्रोह के भाग्य को बदल सकता था। लेकिन यह वर्ग किसी भी
हालत में भारत को अतीत के सामंतवादी युग में पहुंचाना नहीं चाहता था। इस वर्ग का
यह भी मत था कि आधुनिक पश्चिमीकरण द्वारा ही भारत का भाग्य संवर सकता है और इसी
कारण उसे अंग्रेजी राज में भी विश्वास था।
विद्रोह एक सीमित क्षेत्र में
विद्रोह
एक सीमित क्षेत्र में हुआ था, इसलिए अँग्रेज़ इसे आसानी से
दबा सके। यह पूरे देश या भारतीय समाज के सभी वर्गों को अपनी लपेट में नहीं ले सका।
यह दक्षिणी भारत या पूर्वी या पश्चिमी भारत के अधिकाँश भागों में नहीं फैल सका। यह
विद्रोह अखिल भारतीय स्वरूप धारण नहीं कर पाया। विद्रोह हालांकि उत्तर भारत के एक
बड़े क्षेत्र में फैला इसके बावजूद यह विद्रोह पंजाब और बंगाल में नहीं फ़ैल पाया। इसके
अतिरिक्त उड़ीसा, जम्मू कश्मीर और पूरा दक्षिण भारत पूरी तरह से इस विद्रोह से अछूता रहा।
राष्ट्रवाद की भावना का विकसित ना होना
राष्ट्रवाद
की भावना का विकसित ना होना भी 1857 के विद्रोह की असफलता का एक
अन्य कारण था। भारत में यूरोप के समान राष्ट्रवाद की भावना इसलिये विकसित नहीं हो
सकी क्योंकि यहाँ पर औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी और भूमि एवं गाँव का महत्व
सर्वाधिक था। राष्ट्रवाद के अभाव में परंपरागत सामाजिक मूल्य जैसे जाति के प्रति
एवं गांव के प्रति चेतना ही महत्वपूर्ण था, ज्यादा से ज्यादा
इसका विस्तार क्षेत्रों तक होता था। वस्तुतः यही कारण है कि अखिल भारतीय स्तर पर ब्रितानी
शासन का विरोध न हो सका।
उपसंहार
1857
के विद्रोह की असफलता ब्रिटिश श्रेष्ठता और विद्रोह की कमजोरियों
में निहित थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद सारी दुनिया में अपनी शक्ति के शिखर पर था। और
इस समय भारत आधुनिक राष्ट्रवाद से परिचित नहीं था। रियासतों के अधिकांश रजवाड़ों और
सरदारों ने उसे मदद की। उसकी सैनिक शक्ति विद्रोहियों के मुकाबले कहीं बहुत बड़ी थी।
विद्रोहियों में शस्त्रों से लेकर संगठन, अनुशासन और
एकताबद्ध कृतसंकल्प नेतृत्व का अभाव था। इसके पहले कि विद्रोही अपनी इन कमियों पर
काबू पा सकें ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी अपार शक्ति और साधन का इस्तेमाल करके विद्रोह
को निहायत बेरहमी से कुचल दिया। 1859 के अंत तक भारत पर ब्रितानी शासन पूरी तरह
स्थापित हो चुका था। विदेशी राज को खत्म करने की यह एक नाकाम लेकिन बहादुरी भरी
कोशिश का विद्रोह था। यह विद्रोह हमें यह सिखाता है कि सामाजिक और
राजनीतिक परिवर्तन की लड़ाई में सभी वर्गों का एक साथ आना आवश्यक है। जब तक एक
मजबूत और एकजुट नेतृत्व और वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होगी, तब तक कोई भी विद्रोह सफल नहीं हो सकता। 1857 का
विद्रोह इसी कारण असफल रहा क्योंकि इसमें संगठन की कमी, वर्गीय
विभाजन और सामंती विश्वासघात जैसे कई कारक शामिल थे। हालांकि, यह विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव बन गया और आने वाले संघर्षों के लिए एक प्रेरणा स्रोत रहा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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