राष्ट्रीय आन्दोलन
380. 1857 का महाविद्रोह-प्रमुख नेता
मंगल पांडे
भारतीय
इतिहास में प्रायः मंगल पांडे को 1857 के विद्रोह का प्रथम जनक, महान देशभक्त और
क्रांतिकारी माना जाता है। मंगल
पांडे का जन्म उत्तर प्रदेश (बलिया) में एक उच्च जाति के हिंदू परिवार में हुआ था।
वह बैरकपुर (बंगाल) की 34वीं (सैन्य) बटालियन का
एक साधारण सिपाही थे। उन्हें यह जानकर बहुत गुस्सा आया कि न्यू
एनफील्ड राइफलों में प्रयुक्त कारतूस पशु चर्बी से बने थे, मुख्यतः गायों और सूअरों की। उन्होंने अपनी छावनी में चर्बी वाले कारतूस की बात पहुंचाई
और अँग्रेज़ अधिकारियों के धर्म विरोधी आदेश की अवहेलना की। सिपाहियों
को लगा कि उनका धर्म गंभीर खतरे में है
और इसे 1857 के विद्रोह के प्रमुख कारणों में से एक माना जाता है। मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को सार्जेंट मेजर हग्सन और
लेफ्टिनेंट बाम को उनके घोड़े सहित ढेर कर दिया। बाद में उन्हें क़ैद कर लिया गया और
8 अप्रैल, 1857 को फांसी दे दी गयी। मंगल
पांडे के साहसिक कार्य ने पूरे देश में विद्रोहों की एक श्रृंखला शुरू कर दी। उनकी वीरता और कुर्बानी ने बाद में मेरठ छावनी के विप्लव की
भूमिका तैयार की।
बहादुरशाह ज़फर
1857 के महाविद्रोह का नेतृत्व मुग़ल वंश के अंतिम बादशाह
बहादुरशाह ज़फर को सौंपा गया। वह बूढा और कमज़ोर हो चले थे। विद्रोहियों के प्रभाव
में आकर उन्होंने नेतृत्व संभाला। भारत का सम्राट घोषित किए जाने पर, उन्होंने अराजकता के बीच एक एकजुटता का
सूत्रपात किया। उनके समर्थन ने विद्रोह को वैधता प्रदान की, हालाँकि उनका
अधिकार केवल प्रतीकात्मक ही था, लेकिन विद्रोह पूरे देश में फैल गया था। वह विद्रोह को योग्य नेतृत्व प्रदान करने में असफल रहे।
उन्हें गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया गया। वहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने
केवल नाम मात्र का शासन किया, लेकिन विद्रोही उन्हें एकता
के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। उनके नेतृत्व ने विद्रोह को राष्ट्रीय पहचान
दी।
अवध की बेगम हज़रतमहल
अवध विद्रोहियों का गढ़ था। यहाँ विद्रोह का नेतृत्व हज़रतमहल
ने किया था। वह नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थीं। वाजिद अली शाह को निर्वासित कर अंग्रेजों
ने छल से अवध पर नियंत्रण कर लिया और उसे जवाबी लड़ाई के लिए मजबूर कर दिया। बेगम
हज़रत महल ने जब शासन संभाला तो वहाँ की जनता की सहानुभूति अपदस्थ नवाब के पक्ष
में थी। उन्होंने अपने पुत्र
बिरजिस कादर को अवध की खाली गद्दी पर बिठाकर अंग्रेजों से संघर्ष छेड़ दिया। बेगम
को अवध की जनता का अपार समर्थन और सहयोग मिला। अपने साहस के बल पर उन्होंने लखनऊ
पर अधिकार कर अंग्रेजों को रेजीडेंसी में शरण लेने को बाध्य कर दिया। चीफ कमिश्नर
लौरेंस मारा गया। अँग्रेज़ बहुत कठिनाई से ही लखनऊ पर अधिकार कर सके। 1 मार्च, 1858 को कैम्पवेल ने विद्रोह को
समाप्त किया। बेगम हजरत महल ने आत्मसमर्पण नहीं किया और वो नेपाल चली गयी।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
विद्रोह की
सबसे प्रमुख नेता झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
थीं। गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने उनके पति राजा
गंगाधर राव की मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र को गद्दी पर बैठने की अनुमति देने
से इनकार कर दिया था और राज्य को हड़पने के सिद्धांत के तहत अपने अधीन कर लिया था।
अपनी संतान न होने के कारण उन्होंने एक बच्चे को
दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया था और उसे झांसी का उत्तराधिकारी घोषित किया था।
अंग्रेजों ने उनके उत्तराधिकार की घोषणा के अधिकार को मान्यता नहीं दी। रानी
ने इस फैसले को पलटने की हर संभव कोशिश की थी। उन्होंने यह भी पेशकश की थी कि अगर
अंग्रेज उनकी इच्छा पूरी कर दें तो वे झाँसी को उनके लिए 'सुरक्षित' रखेंगी। जब यह स्पष्ट हो गया कि कुछ भी काम नहीं कर रहा है, तो वह सिपाहियों के साथ शामिल हो गईं और
समय के साथ, अंग्रेजों के
सबसे दुर्जेय दुश्मनों में से एक बन गईं। 23 मार्च 1858 को झाँसी पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया तो
उन्होंने प्रतिरोध की भावना को मूर्त रूप देते हुए, " मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी" की घोषणा की।
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी सेना का
वीरतापूर्वक सामना किया। उन्होंने मृत्युपर्यन्त अंग्रेजों से हार नहीं मानी। उनका
डटकर मुकाबला किया। झाँसी और कालपी में पराजित होकर रानी ग्वालियर चली गईं। वहाँ नाना
साहब के विश्वसनीय सेनापति तात्या टोपे और अफगान सरदारों के साथ मिलकर ग्वालियर पर
अधिकार कर लिया और तात्या को पेशवा के पद पर पुनर्स्थापित किया। ग्वालियर की रक्षा
के लिए स्मिथ एवं ह्यूरोज की
सम्मिलित सेना से युद्ध करते हुए जून, 1858 में रानी
लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की। तात्या टोपे को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में
उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी बहादुरी ने बाद के वर्षों में कई स्वतंत्रता
सेनानियों को प्रेरित किया।
तात्या टोपे
तात्या टोपे नाना साहब की सेना के एक कुशल, अत्यधिक साहसी, परमवीर और विश्वसनीय सेनापति थे। वह अपने उत्कृष्ट सैन्य
कौशल के लिए जाने जाते थे। उन्होंने 1857 के विद्रोह में कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध
कुशलतापूर्वक गुरिल्ला नीति से लड़ते हुए अंग्रेजी सेना की नाक में दम कर दिया था।
उन्होंने अँग्रेज़ जनरल बिन्द्र्हैम को बुरी तरह परास्त किया। उन्होंने झाँसी की
रानी लक्ष्मीबाई का पूर्ण निष्ठा से सहयोग
दिया। बाद में सर कॉलिन कैम्पवेल ने उनको हराया। अप्रैल, 1859 तक वीरता और कुशलता से वह गुरिल्ला युद्ध लड़ते रहे।
लेकिन अपने एक जमींदार दोस्त के विश्वासघात का वह शिकार हो गए। तात्या टोपे को
गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन्हें फांसी दे दी गई।
नाना साहब
कानपुर में विद्रोहियों के प्रमुख नेता अंतिम पेशवा बाजीराव
द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब थे। उन्होंने पारिवारिक उपाधि लेने से
इनकार कर दिया था और पूना से निर्वासित होकर कानपुर के पास रह रहे थे। 1857 के विद्रोहियों ने उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध कानपुर
में विप्लव छेदने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बगावत की बागडोर अपने हाथ में ले
ली। 1851 से ही, जब पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हुए थी, अंग्रेजों से नाना साहब को न तो पेशवा माना और न ही उन्हें
पेंशन दी। विद्रोह आरंभ होने के बाद नाना ने तात्या टोपे को मदद से अँग्रेज़
सेनापति नील और हैवलोक को पराजित कर कानपुर पर अधिकार कर लिया और खुद को पेशवा
घोषित किया। नाना साहब ने बाहादुरशाह को भारत का सम्राट और खुद को उनका गवर्नर
घोषित किया। जून 1857 में, उन्होंने
तात्या टोपे के साथ मिलकर
53वीं नेटिव इन्फैंट्री के ब्रिटिश सैनिकों पर हमला किया और जनरल सर ह्यू व्हीलर के नेतृत्व में
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की घेराबंदी को निशाना बनाया। भयंकर टकराव के बाद, सर
ह्यू व्हीलर ने
इलाहाबाद तक सुरक्षित मार्ग के बदले में नाना साहब के सामने आत्मसमर्पण कर
दिया। नाना ने अनेक युद्धों में
तात्या टोपे और अजीमुल्ला की सहायता से अंग्रेजों को परास्त किया। आखिरकार नाना
साहब को सर कौलीन कैम्पवेल के हाथों मात खानी पडी। अंग्रेजों ने कानपुर, बिठूर और उनके अन्य ठिकानों पर अधिकार कर उन्हें भारत
छोड़कर नेपाल भागने को मज़बूर कर दिया।
जगदीशपुर के बाबू कुंवरसिंह
बिहार में विद्रोह का सफल संचालन जगदीशपुर के ज़मींदार बाबू
कुंवरसिंह ने किया, जो दिवालिया होने की कगार पर थे। वह अंग्रेजों से रंजिश रखते थे। सत्तर साल की उम्र
पार करने के बावजूद उनके मन में गहरा आक्रोश था। अंग्रेजों ने उनकी जागीरें छीन ली
थीं और उनका प्रबंधन सौंपने की उनकी बार-बार की गई अपीलें भी अनसुनी कर दी गईं। वह बड़े जमींदार होने के कारण लोगों में राजा के नाम से
विख्यात थे। उन्हें बिहार का शेर भी कहा जाता था। वह एक दृढ़ निश्चयी योद्धा थे। हालाँकि
उन्होंने विद्रोह की कोई योजना नहीं बनाई थी,
फिर भी दीनापुर से आरा पहुँचने पर वह बिना किसी हिचकिचाहट के सिपाहियों के साथ
शामिल हो गए। नाना साहब के साथ मिलकर
उन्होंने अवध और मध्य भारत में अंग्रेजों से अनेक युद्ध लडे और उन्हें पराजित किया।
वृद्ध होने पर भी, और एक हाथ खोने के बाद
भी उन्होंने लड़ाई जारी रखी। उन्होंने हार नहीं मानी और आरा, जगदीशपुर और अन्य निकटवर्ती क्षेत्रों से ब्रिटिश सत्ता
समाप्त कर दी। उनके नेतृत्व में सैन्य और नागरिक विद्रोह इतने मिश्रित हो गये थे
कि अंग्रेज उनसे सबसे अधिक भयभीत थे। अप्रैल, 1858 में उनकी मृत्यु के बाद बिहार में विद्रोह का नेतृत्व
उनके भाई अमर सिंह ने किया। कड़े संघर्ष के बाद अँग्रेज़ अमर सिंह को पराजित करने
में सफल रहे। जगदीशपुर पर अंग्रेजी सेना ने अधिकार कर लिया और अमर सिंह को भागना
पडा।
जनरल बख्त खान
जनरल बख्त खान विद्रोह के एक प्रमुख नेता थे। दिल्ली में
बहादुर शाह नेता थे। असली ताकत तो सैनिकों के हाथ में थी। बख्त खान, जिन्होंने बरेली में सैनिकों के विद्रोह का नेतृत्व किया था, 3 जुलाई 1857 को दिल्ली पहुँचे। दिल्ली की असली
कमान जनरल बख्त खान के नेतृत्व में सैनिकों के एक दरबार के पास थी, जिसने बरेली के सैनिकों के
विद्रोह का नेतृत्व किया था और उन्हें दिल्ली लाया था। वह दिल्ली के सैनिक परिषद् के प्रधान थे। उन्होंने बरेली, दिल्ली और लखनऊ में अंग्रेजों के विरुद्ध कडा संघर्ष किया।
1859 में एक युद्ध के दौरान वे मारे गए।
मौलवी अहमदुल्ला
मौलवी अहमदुल्ला मद्रास के रहने वाले थे। हैदराबाद में
शिक्षा प्राप्त करके वह इस्लाम के प्रचारक और उपदेशक बन गए थे। गाँव-गाँव जाकर वह
अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति का आह्वान कर रहे थे। 1856 में वह लखनऊ
पहुंचे तो अँग्रेज़ सिपाहियों ने धार्मिक उपदेश देने की अनुमति नहीं दी। फैजाबाद
आकर 1857 में उन्होंने क्रान्ति का संदेश फैलाना शुरू कर दिया। उन्हें गिरफ्तार कर
लिया गया और फैजाबाद की जेल में रखा गया। अवध क्षेत्र में मौलवी ने महत्त्वपूर्ण
भूमिका निबाही। बाद में वह बुंदेलखंड में विद्रोहियों की सहायता करने लगे। यहीं पर
उनकी ह्त्या कर दी गई।
शाहमहल
शाहमहल उत्तर प्रदेश के एक जाट परिवार से संबंध रखते थे। वह
परिवार चौरासी गांव (चौरासीदस नामक क्षेत्र) में फैला हुआ था। अंग्रेजों ने इस
क्षेत्र में ऊंची लगान लगा रखी थी। लगान कठोरता से वसूला जाता था। परिणामस्वरूप
वास्तविक रैयत या काश्तकार भूमि से बेदखल होकर नए ज़मींदारों या जोतदारों (धनाढ्य
व्यापारियों और साहूकारों) की दया पर आश्रित होते चले जा रहे थे। शाहमहल ने
चौरासीदस के काश्तकारों और मुखियाओं (मुक़दमों) को संगठित किया। उन्होंने एक अँग्रेज़
अफसर के बंगले पर अधिकार कर उसे ‘न्याय भवन’ की संज्ञा दी।
उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध किसानों को जुलाई, 1857
तक विप्लव करने की प्रेरणा दी और विद्रोहियों का नेतृत्व किया। जुलाई, 1857 में शाहमहल अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में मारे गए।
अजीम उल्ला खां
अजीमुल्ला खां एक साहसी युवक,
प्रतिभाशाली, वीर नेता थे। वह कानपुर में विद्रोह का संचालन करने वाले
नाना साहब के विश्वसनीय परामर्शदाता थे। विद्रोह की अधिकांश योजनाएं अजीम उल्ला
खां के दिमाग की उपज होती थी। शुरू में वह एक यूरोपीय के बावर्ची थे। उन्होंने उसी
से अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाएँ सीखी थी। कुछ समय बाद एक विद्यालय में अध्यापक
नियुक्त हुए। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर नाना साहब ने उन्हें पाना विशेष
सलाहकार बना लिया था। उन्होंने नाना साहब को पेंशन दिलाने के लिए बहुत प्रयास किया
पर उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने विद्रोह के दिनों में नाना साहब को पूर्ण
सहयोग और परामर्श दिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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