राष्ट्रीय आन्दोलन
368. भील आन्दोलन
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही विद्रोह-आंदोलनों का इतिहास भी प्रारंभ होता है। जनजातीय आंदोलन भी इसके अपवाद नहीं हैं। भारत में ब्रिटिश सत्ता का बनना, धीरे-धीरे जीत और मज़बूती की एक लंबी प्रक्रिया थी और अर्थव्यवस्था और समाज का उपनिवेशीकरण था। इस प्रक्रिया से हर स्टेज पर नाराज़गी, गुस्सा और विरोध पैदा हुआ। इसमें से एक लोकप्रिय विरोध था आदिवासी विद्रोह। भारत के एक बड़े हिस्से में फैले आदिवासी लोगों ने 19वीं सदी में सैकड़ों उग्र आंदोलन और बगावतें कीं। इन विद्रोहों में उनकी तरफ से बहुत ज़्यादा हिम्मत और कुर्बानी और शासकों की तरफ से बेरहमी और क़त्लेआम देखने को मिला। आदिवासियों के कई कारणों से परेशान होने की वजह थी। औपनिवेशिक प्रशासन ने उनके अलग-थलग होने को खत्म किया और उन्हें पूरी तरह से उपनिवेशीकरण के दायरे में ले आया। इसने आदिवासी मुखियाओं को ज़मींदार के तौर पर मान्यता दी और ज़मीन से होने वाली आय और आदिवासी उत्पादों पर टैक्स का एक नया सिस्टम शुरू किया। इसने आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनरियों के आने को बढ़ावा दिया। इसने आदिवासियों के बीच बिचौलियों के तौर पर बड़ी संख्या में साहूकारों, व्यापारियों और रेवेन्यू किसानों को लाया। ये बिचौलिए आदिवासी लोगों को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था और शोषण के भंवर में लाने के मुख्य ज़रिया थे। बिचौलिए बाहरी लोग थे जिन्होंने तेज़ी से आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया और आदिवासियों को कर्ज़ के जाल में फंसा दिया।
उपनिवेशवाद ने जंगल के साथ उनके रिश्ते को भी
बदल दिया। वे खाने, ईंधन और जानवरों के चारे के लिए जंगल पर निर्भर
थे। वे झूम खेती करते थे, जब उनकी मौजूदा ज़मीन खत्म होने लगती थी तो वे
नई जंगल की ज़मीन का सहारा लेते थे। औपनिवेशिक सरकार ने यह सब बदल दिया। उसने जंगल
की ज़मीन हड़प ली और जंगल के उत्पाद, जंगल की ज़मीन और गाँव की आम ज़मीन तक पहुँच पर
रोक लगा दी। उसने खेती को नए इलाकों में जाने से मना कर दिया। पुलिसवालों और दूसरे
छोटे अधिकारियों के ज़ुल्म और ज़बरदस्ती की वसूली से आदिवासियों की परेशानी और बढ़
गई। आदिवासी समुदायों की पुरानी खेती-बाड़ी की व्यवस्था में पूरी तरह से रुकावट ने
सभी आदिवासी विद्रोहों के लिए एक आम वजह दी। ये विद्रोह बड़े पैमाने पर हुए, जिनमें हज़ारों
आदिवासी शामिल थे।
1818 का भील विद्रोह देश में किसी भी समूह या जनजाति
द्वारा चलाया गया पहला ब्रिटिश प्रतिरोध आंदोलन था। यह
विद्रोह राजपूताना में ब्रिटिश सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। ब्रिटिश प्रशासन और सामंती
व्यवस्था द्वारा लाए गए परिवर्तनों ने उन्हें सरकार के खिलाफ उग्र बना दिया। विद्रोही
भीलों ने न केवल सरकारी अधिकारियों को मौत के घाट उतारा, अपितु
महाजनों की दुकानों को भी आग लगा दी। 1818 के भील विद्रोह का मुकाबला करने के लिए,
ब्रिटिश सरकार ने असहमति को दबाकर
विद्रोह को कुचलने के लिए सेना भेजी। सेना ने भील योद्धाओं को तुरंत आत्मसमर्पण करने के लिए
मजबूर किया, लेकिन इसका उल्टा असर
हुआ क्योंकि इससे अंग्रेजों के खिलाफ और अधिक कड़वाहट
और आक्रोश पैदा हो गया। मेवाड़ के शासक के अधीनस्थों ने भीलों को बातचीत की मेज पर लाने की कोशिश की, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। अंततः, ब्रिटिश प्रतिनिधि कर्नल वाल्टर ने आदिवासियों
के साथ शांति समझौता किया।
समझौते के तहत मूल निवासियों को विभिन्न करों और वन
अधिकारों में रियायत दी गई। हालाकि अंग्रेज विद्रोह को दबाने का दावा कर सकते थे, फिर भी वे भीलों के निवास वाले क्षेत्रों में स्थायी
शांति स्थापित करने में कभी सफल नहीं हो सके।
विद्रोह का कारण
मुख्यतः ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों भीलों से क्रूर व्यवहार था, जिसने उन्हें उनके पारंपरिक वन अधिकारों से वंचित कर दिया और उनका शोषण
किया। भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन से देश में कुछ प्रशासनिक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों से पहले भील जनजाति के लोग वन अधिकारों का पूर्ण रूप से आनंद लेते थे। वर्ष 1818 में विद्रोह के बाद सभी भील आदिवासी राज्यों ने ब्रिटिश प्रशासन के साथ
मिलकर एक संधि की। इस संधि के बाद अंग्रेज वास्तविक
स्वामी बन गये क्योंकि अब उन्हें राज्य के वाह्य और
आंतरिक दोनों मामलों में हस्तक्षेप और नीति निर्माण का अधिकार सौंप दिया गया था। इस
संधि के परिणामस्वरूप भीलों को जंगल में प्रचुर मात्रा
में उत्पादित विभिन्न उत्पादों के उपभोग और उपयोग के अधिकार से वंचित कर दिया गया। आस-पास के गांवों और जनजातियों में कुछ उत्पादों के
घरेलू उपभोग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जनजाति के लोगों को अपने घरों में खुलेआम शराब बनाने की मनाही कर दी गयी। राज्य शराब
बनाने का ठेका व्यापारियों को देते थे और उससे कमाई करते थे।
ब्रिटिश शासन स्थानीय
लोगों के जनजातीय जीवन शैली, उनकी सामाजिक संरचना व उनकी संस्कृति में हस्तक्षेप करते रहते थे। उन्हें विभिन्न बुनियादी
सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा था। ब्रिटिश प्रशासन ने
भीलों के पारंपरिक वन अधिकारों को छीन लिया। इससे वहाँ के लोगों में तीव्र क्षोभ
व्याप्त था। ब्रिटिशों के व्यवहार ने पूरे देश में जनजातीय असंतोष को जन्म दिया। अंग्रेजों
ने कठोर करों और वन उत्पादों पर प्रतिबंध लगाकर शोषण किया। भीलों के स्वशासन में ब्रिटिश और सामंती व्यवस्था का हस्तक्षेप हुआ।
ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार, महाजन और ठेकेदारों के एक नए शोषक समूह का
उद्भव हुआ। साहूकारों ने भीलों का आर्थिक शोषण किया।
साहूकारों से ऊंची ब्याज दर पर लिए गए ऋण को चुकाने में असमर्थता के कारण वे उनकी
जमीनें जब्त कर लेते थे। 1879 में उनकी गतिविधियों से परेशान
होकर भीलों ने इनमें से कुछ साहूकारों की हत्या करके विद्रोह कर दिया।
ईसाई मिशनरियों
के बढ़ते प्रभाव और सामाजिक बदलावों ने भी असंतोष बढ़ाया। आरक्षित वन सृजित करने
और लकड़ी तथा पशु चराने की सुविधाओं पर भी प्रतिबन्ध लगाए जाने के कारण
आदिवासी जीवन-शैली प्रभावित हुई क्योंकि आदिवासियों का जीवन सबसे अधिक वनों पर ही
निर्भर था। 19वीं सदी में झूम कृषि पर प्रतिबन्ध लगा दिया
गया। नए वन कानून बनाए गये। इसके अलावा, देश में ब्रिटिश
सरकार बम्बई और सूरत बंदरगाहों तक व्यापार का सुचारू
मार्ग सुनिश्चित करने तथा भील जनजातियों के निवास वाले
क्षेत्रों से सैनिकों की शीघ्र आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए उत्सुक थी। इस
उद्देश्य से, सड़क निर्माण के लिए पेड़ों को काटने का ठेका
जनजाति से बाहर के लोगों को दिया गया। इससे जनजाति की भावनाएं आहत हुईं। अपने अधिकारों को छोड़ने से
इनकार करना और ब्रिटिश
प्रशासन के खिलाफ खड़े होने का उत्साह भील विद्रोह का तात्कालिक कारण बन गया।
इन सब कारणों ने
देश के विभिन्न भागों में जनजातीय विद्रोहों को जन्म दिया। इन्हीं विद्रोहों में
से एक भीषण विद्रोह था भील विद्रोह। भील जनजाति का नाम "भिल्लू" शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है धनुष। पेशे से शिकारी और संग्राहक, इस
जनजाति के मूल निवासियों को तीरंदाजी में विशेषज्ञता के साथ-साथ धनुष बनाने की कला का व्यावहारिक अनुभव भी था। उन्होंने कला के इन
स्व-निर्मित साधनों का उपयोग युद्ध और व्यापार उद्देश्यों के लिए किया। ऐसा माना
जाता है कि प्रसिद्ध धनुर्धर एकलव्य का जन्म भील दम्पति
के घर हुआ था। मेवाड़ के एक भाग में भील बहुत संख्या में रहते हैं। यह भाग 'भोमर' के नाम से प्रसिद्ध है। भील स्वभाव से साहसी एवं स्वतंत्रता प्रिय जाति
है। ये जाति अपनी परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों में क़ानूनी हस्तक्षेप पसन्द नहीं
करती।
सामाजिक और
धार्मिक नेता गोविंद गुरु ने भीलों को एकजुट करने और नैतिक जीवन जीने का उपदेश
दिया। उन्होंने 1913 में मानगढ़ पहाड़ी पर एक सभा बुलाई,
जिसे ब्रिटिश सैनिकों ने बेरहमी से दबा दिया, जिसमें
कई भील मारे गए थे। मोतीलाल तेजावत ने भीलों के लिए एक
अलग राज्य की मांग की और भीलों के साथ-साथ अन्य समुदायों को भी संगठित किया। मोतीलाल
तेजावत के नेतृत्व में यह आंदोलन राजनीतिक रूप ले लिया। 1929 में उनकी गिरफ्तारी के साथ ही यह आंदोलन समाप्त हो गया।
इस आंदोलन का
उद्देश्य भीलों का रियासती व जागीरदारी शोषण के खिलाफ एकजुट होकर विरोध करना था। यह
विद्रोह, देश में जनजातीय समूह द्वारा किए गए पहले विद्रोहों में से एक था। मोतीलाल
तेजावत को 'आदिवासियों के
मसीहा' के रूप में जाना
जाता था। वर्ष 1921-1922 में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में ईडर, डूंगरपुर, सिरोही एवं
दाता आदि स्थानों में भील आन्दोलन पुन: प्रारम्भ हो गया। यह आंदोलन भीलों के शोषण
के विरुद्ध राजनीतिक चेतना जगाने और रियासती व जागीरदारी प्रथाओं का विरोध करने के
लिए शुरू किया गया था। भीलों ने सम्पूर्ण भील क्षेत्र में एक ही पद्धति से भू-राज
एकत्रित करने की माँग की। मोतीलाल तेजावत ने पहली बार मेवाड़,
सिरोही, डूंगरपुर एवं ईडर के भीलों को संगठित
किया। इस भील आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार ने अपनी सत्ता को चुनौती समझा।
इस आंदोलन का
मुख्य कार्यक्षेत्र भोमट क्षेत्र था, इसलिए इसे 'भोमट का भील आंदोलन' भी कहते हैं। यह सिरोही व
गुजरात के कुछ हिस्सों में भी फैला था। तेजावत ने चित्तौड़गढ़ के मातृकुंडिया से
लगान-मुक्ति अभियान के साथ भीलों से असहयोग आंदोलन का आह्वान किया था। मोतीलाल
तेजावत ने मेवाड़ के महाराणा के समक्ष 'मेवाड़ की पुकार'
नाम से 21 सूत्रीय मांग पत्र प्रस्तुत किया था,
जिसमें वन अधिकार, बेगार प्रथा की समाप्ति आदि
शामिल थे। मोतीलाल तेजावत ने भीलों के लिए एक अलग राज्य की मांग की और भीलों के
साथ-साथ अन्य समुदायों को भी संगठित किया।
ईडर के महाराणा
ने मोतीलाल तेजावत के ईडर राज्य की सीमा में प्रवेश करने पर क़ानूनी प्रतिबन्ध लगा
दिया। राजा ने भीलों के आन्दोलन को शक्ति से कुचलने का निश्चय किया। दो भील गाँवों को आग लगा दी गई, जिससे उन ग़रीबों का हज़ारों रुपयों का नुकसान हुआ और कई जानवर भी जलकर
भस्म हो गये। इतना ही नहीं, शान्त भीलों पर गोलियों की बौछार
की गयी। सरकार के इन अत्याचारों के कारण आन्दोलन पहले से और भी अधिक तेज हो गया। ईडर
की पुलिस ने भीलों के नेता तेजावत को गिरफ़्तार कर मेवाड़
राज्य को सौंप दिया। मेवाड़ सरकार ने एक वर्ष तेजावत को जेल में बन्द रखा। मणीलाल
कोठारी ने तेजावत को जेल से रिहा करवाने के प्रयास किये। जब मेवाड़ सरकार ने यह
घोषणा कर दी कि तेजावत ने कोई अपराध नहीं किया है, तो तेजावत
ने मेवाड़ सरकार राज्य विरोधी कार्य न करने तथा मेवाड़ राज्य के बाहर न जाने का
वचन दिया। वर्ष 1942 में जब 'भारत छोड़ो आन्दोलन' आरम्भ हुआ, तो तेजावत को पुन: गिरफ्तार कर लिया गया और फ़रवरी, 1947 को रिहा कर दिया गया।
भीलों ने एक साथ
विद्रोह नहीं किया था। उनके पास योग्य नेता का अभाव था। अतः सरकार ने सैनिक शक्ति
से विद्रोह का पूर्णतः दमन कर दिया। अंग्रेजों ने शुरुआती विद्रोह को तो दबा दिया, लेकिन बाद में उन्हें भीलों के कुछ करों में रियायतें देनी पड़ीं और वन
अधिकार वापस करने पड़े। अंग्रेजों ने विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजी और वे
इसमें कामयाब भी हुए। लेकिन यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया, क्योंकि
अंग्रेजों ने विभिन्न करों में रियायतें दीं और शांति समझौते के तहत वन अधिकार
वापस कर दिए। इस आंदोलन ने भीलों में आत्म-चेतना और अपने अधिकारों के प्रति
जागरूकता बढ़ाई। बाद में, इस आंदोलन ने राजनीतिक स्वरूप ले
लिया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में भी अपना योगदान दिया। भील
विद्रोह भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसने आदिवासियों के शोषण और मूल निवासियों को नियंत्रित करने के बाहरी
ताकतों के प्रयासों को उजागर किया। अंग्रेजों के विरुद्ध भील समुदाय की राजनीतिक
चेतना ने औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत के अन्य आम
नागरिकों में भी जागरूकता पैदा की।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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