राष्ट्रीय आन्दोलन
370. कोल विद्रोह
1832
कोल विद्रोह भारतीय इतिहास की एक
महत्वपूर्ण घटना थी। छोटानागपुर पठार क्षेत्र में केंद्रित यह विद्रोह भारत की
जनजातीय आबादी की अपनी पहचान और स्वायत्तता को बनाए रखने के चल रहे संघर्ष का एक
महत्वपूर्ण क्षण था। इलाके के आदिवासी समुदाय कोल ने बगावत का नेतृत्व किया, जो ब्रिटिश नीतियाँ और स्थानीय ज़मींदारों के ज़ुल्म से
जुड़ी शिकायतों की वजह से भड़का था। यह विद्रोह छोटा नागपुर क्षेत्र में अंग्रेजों
द्वारा लगाए गए सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों में निहित था। नई भूमि कर
प्रणालियों और प्रशासनिक नीतियों की शुरूआत ने उनकी पारंपरिक जीवनशैली को बाधित कर
दिया, जिससे व्यापक असंतोष फैल गया।
भारत
में अंग्रेजी सत्ता के प्रादुर्भाव के साथ ही कंपनी के शासन का विस्तार बंगाल, बिहार उडीसा के जनजातीय प्रदेशों तक फैला। अंग्रेजों का इस जनजातीय
प्रदेशों में प्रवेश 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ। यह
प्रदेश छोटानागपुर (रांची, गुमला, लोहरदग्गा,
खूंटी, सिमडेगा कोलेबिरा जिला का क्षेत्र),
संथाल परगना (गोड्डा देवघर, साहेबगंज, राजमहल, दुमका जिला तथा मुंगेर भागलपुर के कुछ
क्षेत्र), रामगढ़ राज्य (रामगढ़, हजारीबाग़,
कोल्हान (पश्चिमी सिंहभूम), पोडाहार
(चक्रधरपुर), सरायकेला - खरसावां राज्य, धालमूगढ़ राज्य के
अधीन आता था। भौगोलिक रूप से यह प्रदेश सघन वन का क्षेत्र था जहाँ की भूमि पठारी सह
अल्प पहाड़ी प्रवृत्ति की होने के कारण दुर्गम और दुरूह मानी जाती थी। यह प्रदेश
अनेक खनिज संपदाओं से समृद्ध थी। यह वही काल था जब ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति
प्रारंभ हुई थी। वहाँ के कल कारखानों के लिए कच्चे माल के निर्यातक के रूप में इस क्षेत्र
की भूमिका महत्वपूर्ण थी। यहाँ, कोयला, लौह - अयस्क, मैंगनीज, चूना
पत्थर, अभ्रक जैसे महत्वपूर्ण खनिज के महत्वपूर्ण भंडार
विद्यमान थे।
19वीं
शताब्दी में सरकारी नीतियों के विरुद्ध विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों ने भी
विद्रोह किया। जनजातीय क्षेत्र के लोगों का विद्रोह कई कारणों एवं कई समूहों के
विरुद्ध थी। ये विद्रोह मुख्यता ब्रिटिश सत्ता, स्थानीय शासकों, जमींदारों
तथा शोषक दीकुओं (साहूकार, महाजन,
ठेकेदार व अन्य बाहरी लोग) के विरुद्ध थी। इनका विरोध मुख्यतः भूमि
से बेदखल किए जाने, सामंतों, महाजनों
और सरकारी कर्मचारियों के अत्याचार और अपनी सांस्कृतिक परंपराओं पर हुए आघात से
उत्पन्न परिस्थितियों के कारण हुआ। कोलों का विद्रोह आदिवासियों विद्रोहों में से
एक प्रमुख जन विद्रोह था, जिसका उद्देश्य एक ऐसे आदर्श
व्यवस्था की स्थापना था जो शोषण और अत्याचारों से मुक्त हो। कोल विद्रोह मुख्यतः
छोटानागपुर के जनजातीय निवासियों का गैर-जनजातीय अधिवासियों एवं सेवारत-व्यक्तियों
विरुद्ध युद्ध था।
कोल
विद्रोह को हम दो हिस्सों में बांटकर अध्ययन करते हैं। पहला कोल विद्रोह
1820-1821 ई का था जिसे लड़ाका या लरका कोल विद्रोह कहा जाता है।
दूसरा कोल विद्रोह 1831-1832 ई ये हुआ।
वर्तमान में हम 1820-21 ई के लड़ाका कोल
विद्रोह की चर्चा करते हैं।
कोल्हान
का प्रदेश जिसे दक्षिण-पश्चिम सीमांत प्रदेश (South - West frontice stat) कहा जाता है, यहाँ हो-जनजाति के आदिवासी का बाहुल्य
है। हो जनजाति काफी शांत-चित एवं साधारण जीवनशैली के लोग होते हैं, किंतु किसी भी
प्रकार के शोषण एवं दमन का कडा प्रतिरोध करनेवाले होते हैं। एक बार क्रोधित होने
पर ये करो या मरो की तर्ज पर विद्रोही रूप अपना लेते हैं। इसी गुण के कारण इन्हें
इन्हें लरका कोल या लड़ाका कोल कहा जाता है।
कोल जनजाति, जिसमें मुंडा, ओरांव, हो और भूमिज शामिल हैं, छोटा नागपुर इलाके में रहने वाले
मूल निवासी थे। उनकी एक अलग सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान थी और वे मुख्य रूप से
खेती-बाड़ी करते थे, और
अपनी रोज़ी-रोटी के लिए ज़मीन पर निर्भर थे। कोल जनजातियों की अपनी पारंपरिक शासन
प्रणाली थी, जिसमें मुंडा-मानकी प्रणाली सबसे प्रमुख थी। इस प्रणाली के
तहत, मुंडा गांव का मुखिया होता था, और मानकी 15 से 20 गांवों का मुखिया होता था। कोल लोगों का
एक अलग सामाजिक ढांचा और शासन व्यवस्था थी और अपनी पवित्र भूमि से उनका गहरा
जुड़ाव था। ब्रिटिश शासन के आने और विदेशी कानूनों और प्रथाओं के लागू होने से
उनके पारंपरिक जीवन जीने के तरीके में रुकावट आई।
कंपनी
की सरकार ने झारखंड के जनजातीय बहुल क्षेत्र में स्थानीय शासकों तथा जमींदारों के
द्वारा अपनी सत्ता का संचालन का निर्णय लिया था। उन्होंने पोड़ाहाट, सरायकेला तथा खरसावाँ के राजाओं के द्वारा स्थानीय जनजातियों पर अपना
नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। बसने वालों ने आदिवासी ज़मीनों पर
कब्ज़ा कर लिया, जिसे
पारंपरिक रूप से परिवार और सभाएं मैनेज करती थीं। बाहरी लोगों ने कोल लोगों का
शोषण किया, खेती, व्यापार के नए तरीके और ज़मीन के नए
नियम लाए, जिससे उनकी ज़िंदगी और बिगड़ गई। कंपनी
शासन के आगमन से ही हो जनजाति के लोगों में असंतोष का प्रसार हो रहा था। इसी बीच 1818
ई में तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध ने लड़ाका – हो जनजाति में असंतोष को
और बढ़ा दिया। अंग्रेजी शासन के अधीन होने के कारण मराठा कोल्हान क्षेत्र में भी
आक्रमण करते रहते थे। 1819 में दक्षिण बिहार में एक राजनीतिक एजेंट की नियुक्ति के बाद
विद्रोह शुरू हो गया। इस आक्रमण का कारण अंग्रेज को मानकर लड़ाका हो
आदिवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वयं को एकजुट किया। कोल्हान के हो जनजाति
पोड़ाहाट (चक्रधर पुर) के राजा के अधीन थे। परंतु विगत लगभग 50
वर्षों से हो स्वयं को पोड़ाहाट राजा को अपना राजा मानने से इनकार
करते आ रहे थे। इसी बीच वर्ष 1920 ई0 में
कंपनी शासन एवं पोड़ाहाट राजा के मध्य संधि हुई। यह संधि हो-जनजाति के खिलाफ थी। अतः
लड़ाका कोलों ने कंपनी शासन के अतिरिक्त, पोड़ाहाट राजा एवं
सरायकेला-खरसावाँ के सिंह राजाओं सहित सिंहभूम के अन्य सभी राजाओं के खिलाफ
विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।
कोल्हान
क्षेत्र में कंपनी शासन को हो-जाति के लड़ाका कोलों के विद्रोह का सामना लंबे समय तक
करना पड़ा। कंपनी शासन ने इस विद्रोह को सख्ती से कुचलने का निर्णय लिया। इस कार्य
में पौडाहाट, सरायकेला, खरसावां, छोटानागपुर खास के नागवंशी राजा
सहित सिंहभूम के जमींदारों ने भी अपना सहयोग तथा समर्थन कंपनी शासन, को प्रदान किया। समस्त शासन तंत्र ने लड़ाका कोलों को बलपूर्वक दबाना
प्रारंभ किया। कोलों ने भी ब्रिटिश कंपनी शासन एवं अन्य राजाओं जमींदारों के सहायक
गांवों को जलाना प्रारंभ किया। इन गाँवों के दीकुओं व निवासियों को मारना प्रारंभ
किया। आदिवासी बाहरी शोषक जातियों के लिए ‘दीकू’ शब्द का प्रयोग करते थे जिसका
शाब्दिक अर्थ खून चूसने वाला अथवा खटमल होता था। विद्रोह के आरंभिक चरण में लड़ाका
कोलों ने मयूर भंज, क्योंझर (दोनों वर्तमान उडीसा में) तथा
बंसिया (वर्तमान गुमला जिला का क्षेत्र) के गाँवों पर आक्रमण किया। माना ज्ञाता है
कि सिर्फ क्योंझर जिले के सौ गाँवों को आग के हवाले कर दिए गया था।
विद्रोही
आदिवासी अपने प्रदेश से पार होने वाले गैर-आदिवासियों पर भी आक्रमण कर उन्हें अपना
शिकार बनाने लगे। जैक्सन रोड (बंगाल-मद्रास चेन्नई को जोड़ने
वाली सड़क) पर काम करने वाले एक श्रमिक की हत्या, मेजर रफसेज के शिविर के निकट कर
दी गई। मेजर रफसेज ने अपने सैन्य बटालियन के साथ हो-आदिवासियों के दमन के लिए कोल्हान
क्षेत्र में प्रवेश किया। उसके बटालियन में तोपखाने, घुड़सवार
बरकंदाज (तीरंदाज) व पैदल सेना शामिल थे। लड़ाका हो आदिवासियों की युद्ध शैली काफी
बेहतर थी। वे अचानक शत्रु पर धावा बोलकर अदृश्य हो जाते थे।
मेजर
रफसेज ने लड़ाको हो-आदिवासियों की एकता पर प्रहार करने के उद्देश्य से दो मुण्डाओं
( हो-ग्राम प्रधान) को अपनी ओर मिला लिया। अर्जुनदीहा राजावास होते हुए कंपनी की
सेना 25 मार्च 1820 ई० को कोल्हान मुख्यालय चाईबासा पहुँचा। लड़ाका
कोलों ने एक योजना के तहत ब्रिटिश सेना को आसानी से चाईबासा पहुँचने दिया। मेजर रफसेज
को जल्द ही इसका आभास हो गया। लडाका कोलो ने उसके शिविर पर आक्रमण कर दिया। इस हमले
में एक व्यक्ति मारा गया। कंपनी सेना को भारी नुकसान पहुंचाने के बाद हो-आदिवासियों
का दल जंगल-पहाड़ों की ओर कूच कर गया। इनका पीछा करने के लिए लेफ्टिनेंट मेलाई के
नेतृत्व में एक सेना दल जंगलों की ओर भेजा गया। लड़ाका हो-कोल आदिवासियो ने कंपनी
सेना को कड़ी टक्कर दी। परंतु कोलों के सीमित संसाधनों के विपरीत कंपनी सेना के
पास अत्याधुनिक हथियार और प्रशिक्षित सैन्य दल था। कोलों को पीछे हटना पड़ा। कंपनी
सेना ने कोलों के गाँवों पर आक्रमण कर गाँव को आग लगा दी। निरीह हो-आदिवासी जिसमें
बच्चे, बूढे व महिलाएँ भी थी, मारे जाने लगे। अंततः गुमला
पीड के 24 गाँवो के मुंडाओं (ग्राम प्रधान) ने विवश होकर
आत्मसमर्पण कर दिया। हो ग्राम मुण्डाओं के आत्मसमर्पण की घटना ने लड़ाका कोलों को
हतोत्साहित कर दिया। 1 अप्रैल 1820 ई०
को मेजर रफसेज जगन्नाथपुर पहुँचा। उसने आत्म समर्पण करनेवाले कोलों को सुरक्षा का आश्वासन
देकर क्षेत्र में शांति स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार गुमला पीड़ में
शांति स्थापित हो गई।
6 अप्रैल
1820
ई० को गम्हरिया पीड़ में गड़बड़ी प्रारंभ हो गई। आदिवासी लड़का कोलों
ने मेजर रफसेज के सैन्य शिविर पर हमला कर उसके दो सैनिक मार डाले और कइयों को घायल
कर दिया। रफसेज अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ बुरी तरह से घिर गया। स्थानीय शासक बाबू
अजम्बर सिंह ने उन्हें सैन्य सहायता प्रदान कर लड़ाका कोलों की घेराबन्दी से सुरक्षित
बाहर निकाला। मेजर रफसेज सिंहभूम से बाहर निकलने में सफल रहा। सिंहभूम से उसके
निकलते ही बरांडा पीड़, जगन्नाथपुर, जैतगढ़, बरकेला आदि स्थानों पर पुन कोलों का विद्रोह प्रारंभ हो गया। अंग्रेजों ने
सौ सैनिकों का एक दल उसके नियंत्रण के लिए भेजा। इस सैन्य बल ने स्थिति को
नियंत्रित कर लिया। परंतु यह शांति क्षणिक थी। अंदर ही अंदर विद्रोह की भावना अब
भी प्रज्वलित थी। सेना के हटते ही बरंडा पीड़ के कोल विद्रोही पुनः सक्रिय हो उठे।
विद्रोहियों ने कई गाँवों को जला दिया। उधर गुमला पीड़ के कोलों ने फिर से विद्रोह
प्रारंभ कर दिया। गुमला पीड़ के कुंडू पातर की पुत्री के साथ कंपनी सरकार के
सैनिकों ने अशिष्ट व्यवहार कर गुमला पीड़ के आदिवासियों को आंदोलित कर दिया था। इस
विद्रोह का नेतृत्व घासी सिंह कर रहा था। इस बार कोलों का आक्रमण पहले से अधिक घातक
था। कोलों ने सिंहभूम से अंग्रेजों को बाहर निकाल का निर्णय ले लिया था। जनवरी 1821
ई. में लड़ाका कोलों ने पोखरिया नामक स्थान पर तैनात ब्रिटिश कंपनी के सैन्य शिविर
पर घातक आक्रमण कर संपूर्ण टुकड़ी को संपूर्ण नष्ट कर दिया। कंपनी के सूबेदार सहित
15 सैनिक मारे गए। इस हमला में पोडाहाट के राजा के दो
मुख्तार सहित 20 घोडे भी मार डाले गए। सूबेदार की टुकड़ी का साजो-सामान लड़का कोलों
द्वारा लूट लिया गया। कहा जाता है कि इस आक्रमण में सिर्फ 4 घुड़सवार भागने में सफल
रहे। इन छुड़सवारों ने सरायकेला राजा कुंवर विक्रम सिंह को घटना की सारी जानकारी
दी। उधर लड़का हो-कोलों ने कोलहान में प्रदेश के सारे मार्गो को अवरुद्ध कर दिया।
घाटों को भी बंद कर दिया गया। 6 फरवरी 1821 ई. में हो-कोलों ने चैनपुर पर आक्रमण कर चैनपुर की गद्दी पर अधिकार कर
लिया। इस हमले में एक हवलदार 10 सिपाही एवं 3 घोड़े मारे गए। चैनपुर राज की ओर से लड़ने वाले जमादार रतन सिंह अपने
सहयोगियो साथ सरायकेला भाग गया। संपूर्ण नगदी हथियार एवं गोला बारूद विद्रोही
कोलों के हाथ लग गए। कोलों ने चैनपुर और पोड़ाहाट (चक्रधरपुर)
को लूटकर पूरी तरह उजाड़ कर दिया। इन क्षेत्रों के रैयत जगलों पहाड़ों में छिपकर अपना
जान बचा पाए। पोड़ाहार का राजा भी जान बचाकर आनन्दपुर में शरण प्राप्त किया। लड़ाका
कोलों ने ब्रिटिश सरकार के कार्यालय को भी निशाना बनाना प्रारंभ किया। डाक चौकियों
पर उसने विशेषकर आक्रमण किया खासतौर पर जैक्सन रोड के डाक चौकियों को निशाना बनाया
गया। संपूर्ण कोलहान क्षेत्र पर लड़ाका कोलों का नियंत्रण स्थापित हो गया। अब लड़का
कोल तमाङ तथा पाटकोम परगना को लूटने की तैयारी में थे।
मेजर
रफसेज समस्त गतिविधियों पर नजर बनाये था। उसने पोड़ाहाट राजा की सहायता के लिए
सैनिकों की दो कंपनियों भेजी। मेजर रफसेज इस समय स्वयं अपने सैन्य दल के साथ गुमला
परगना में डटा था। रफसेज लड़ाका कोलों के विद्रोह को अपने सैन्य दल की सहायता से
नियंत्रित करने में असफल महसूस कर रहा था। उसने अपने वरीय अधिकारियों से सहायता की
अपील की। उसकी सहायता तथा लड़ाका कोलों पर नियंत्रण के लिए भारत के विभिन्न हिस्से
से सैन्य दल कोलहन की ओर भेजे गए। मेजर रफसेज की सहायता के लिए रामगढ़, मिदनापुर, बाँकुड़ा, कटक,
संभलपुर आदि से सैन्य दल भेजा गया। कटक से कप्तान मैकलियोड के
नेतृत्व में पैदल सेना की दो कंपनी सहायता को पहुँची। इस संपूर्ण सेना के साथ
लेफ्टिनेट कर्नल रिचर्ड को लड़ाका कोलों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही के लिए भेजा
गया।
इस
समय तक लड़का कोलों की स्थिति काफी शक्तिशाली हो चुकी थी। संपूर्ण कोलहान पर कोलों
का नियंत्रण था। ब्रिटिश सैन्यदल तथा स्थानीय शासकों जमीदारों से लूटी गई रकम एवं
हथियार के कारण वे और भी शक्तिशाली हो चुके थे। परंतु कोलों की यह स्थिति लंबे समय
तक बनी नहीं रह पाई। कोलहान को सहायक सैन्य दलों द्वारा चारों ओर से घेर लिया गया।
अपने जंगली व पहाड़ी परिवेश से परिचित होने के कारण हो लड़ाका कोलों की स्थिति
काफी सुदृढ थी। परंतु कंपनी सेना के सैनिक अधिक दक्ष एवं प्रशिक्षित थे। साथ ही
उनके पास अत्याधुनिक हथियार और परिष्कृत युद्ध योजना थी। ब्रिटिश सेना के सेना-नायक
जो रण कौशल में प्रशिक्षित थे, को ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों
में शामिल किया गया और उसने लड़ाका हो-आदिवासी विद्रोदियों को चारों ओर से घेरना
प्रारंभ किया। कप्तान फोरिशर के नेतृत्व वाली रामगढ़ की सेना में गुमला पीड़ को
उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम से घर लिया। कप्तान रेबन के नेतृत्व में बाँकुडा के सैन्य
दल ने पूर्व से हमला बोला। दक्षिण-पूर्व दिशा से लेफ्टिनेंट कर्नल रिचार्ड के नेतृत्व
में मिदनापुर की सैनिक टूकड़ी ने आक्रमण किया। स्वयं मेजर रफसेज संभलपुर से लड़ाका
कोलों पर आक्रमण किया। अंग्रेजी सेना के सुनियोजित एवं शक्तिशाली हमले से लड़ाके
कोल चारों ओर से घिर गए। वे वीरता से आक्रमण का सामना करते रहे परंतु अंततः उनकी
हार हुई । गुमला पीड के हो (लड़ाका कोल) लोगों पर कठोर कार्यवाही की गई। उन्हें
कठोर दंड दिया गया। लालगढ़, रंडा जैलगढ़,जगन्नाथपुर गदरिया सहित संपूर्ण कोलहान के हो लड़ाका कोलों का दमन कर
दंडित किया गया। वर्ष 1821 ई. के अंत तक लडाका कोलों के विद्रोह को पूर्णतः दबा
दिया गया। हो लड़कों को कंपनी सरकार के साथ समझौता के लिए विवश किया गया। परंतु कंपनी
शासन में समझौते के अनुबंधों को लागू करने में तत्परता नहीं दिखाई। कोल समाज का शोषण
जारी रहा। उसके असंतोष दबने के स्थान पर बढते चले गए। अंततः वर्ष 1831-32 में कोलों में पुन विद्रोह किया।
इस
प्रकार 1820-21
ई में लड़का कोलों (हो आदिवासी) का विद्रोह अपनी असफलता के बावजूद
ब्रिटिश सत्ता को चुनौती प्रस्तुत करने में सफल रहा साथ ही इसमें भविष्य में 1831-32
कोल विद्रोह की पृष्ठभूमि भी तैयार किया। यह गैर-आदिवासियों से
संघर्ष था। कोल
विद्रोह मुख्य रूप से ब्रिटिश और गैर-आदिवासी ज़मींदारों द्वारा आदिवासी समुदायों
के आर्थिक शोषण के कारण हुआ था। ब्रिटिश ने नए ज़मीन सिस्टम शुरू किए, जिससे कोल लोगों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया। ज़्यादा
किराए, टैक्स और ज़बरदस्ती मज़दूरी ने उनकी हालत और खराब कर दी, जिससे कई लोग बंधुआ मज़दूरी करने लगे। ज़्यादा टैक्स और
उनकी पुरानी रोज़ी-रोटी के खत्म होने से उनकी तकलीफ़ और बढ़ गई। कोल लोगों को
अंग्रेज़ों और गैर-आदिवासी बसने वालों से कठोर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। उनके
साथ हीन व्यवहार किया जाने लगा। अंग्रेज अक्सर उनकी समस्याओं को नज़रअंदाज़ करते
थे और गैर-आदिवासी ज़मींदारों का साथ देते थे, जिससे कोल लोगों में नाराज़गी और
बगावत पैदा होती थी। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने कोलों की पारंपरिक राजनीतिक
प्रणाली को कमजोर कर दिया। उन्होंने मुंडा-मानकी नेताओं को भ्रष्ट अधिकारियों और
राजनीतिक एजेंटों से बदल दिया, जिससे उनकी भूमि पर शासन करने में
कोलों की भूमिका छीन ली गई। इस राजनीतिक दबाव की वजह से गुस्सा और अकेलेपन की
भावना पैदा हुई, जिससे कोल विद्रोह करने पर मजबूर हो
गए।
छोटानागपुर
के कोलों ने 1831-32 ई. में अत्याचार और शोषण से पीड़ित होकर, अपनी ज़मीन को गैर-आदिवासियों को दिए जाने के विरुद्ध में सशस्त्र विद्रोह
कर दिया। कोल
विद्रोह शुरू में कोल लोगों के आर्थिक और सामाजिक शोषण के खिलाफ़ लोकल विरोध
प्रदर्शनों की एक सीरीज़ के तौर पर शुरू हुआ था। लेकिन, यह जल्द ही एक बड़े विद्रोह में बदल
गया। इस विद्रोह का आरंभ सिंहभूम के निकट सोनपुर
परगना से हुआ। शुरू में कोलों ने गैर-आदिवासियों के विरुद्ध छोटे पैमाने पर अभियान
आरंभ किया। उनके पशु चुराए और उन्हें तंग किया, लेकिन जब देखा की
उनकी कार्रवाइयों का सशक्त विरोध नहीं हो रहा है तो उनके हौसले बढ़ गए। उन लोगों ने
लूट-मार की गतिविधियां तेज़ कर गैर-आदिवासियों को अपने इलाके से निकाल दिया। रांची, सिंहभूम, मानभूम, हजारीबाग और
पलामू तक के क्षेत्र इनके विद्रोह से प्रभावित हो गए।
गैर-आदिवासी
उन्हें ज़मीन से बेदखल कर उनका शोषण करते थे। उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को बर्बाद
कर रहे थे। शुरू में कोलों का विरोध गैर-आदिवासियों के विरुद्ध ही था। उन्होंने भूस्वामियों और ज़मींदारों
पर हमला किया, उनकी संपत्ति लूट ली और घरों को जला
दिया। उन्होंने उन गैर-आदिवासियों को भी निशाना बनाया, जिन्हें वे ब्रिटिश सहयोगी मानते थे। बाद
में उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध भी क्रोध भड़क उठा। कोलों ने सामाजिक-आर्थिक
असमानता के विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया था। वे सरकारी शासनतन्त्र, जो इस असमानता को
बढ़ावा देता था, को नष्ट करने का प्रयास किया।
कोलों ने सरकारी खजाने को लूटा। थाने एवं कचहरियों पर आक्रमण कर कागजात नष्ट किए। चौकीदारों
की ह्त्या की। पुलिस कर्मचारियों को भागने पर मज़बूर किया। स्थानीय हिन्दू राजा के
कर्मचारियों की भी ह्त्या कर उनकी संपत्ति लूटी।
कोलों
ने गैर-आदिवासियों से बदला लेने के उद्देश्य से उनपर आक्रमण किया। सिखों और
मुसलमानों के कृषि बागों को और दुकानों को नष्ट किया। हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों
को तोड़कर उनका धन लूट लिया। बनियों और महाजनों को अपार क्षति उठानी पडी। कोल अपने
दुश्मनों की ह्त्या क्रूरतापूर्वक करते थे। शवों को अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं
देते थे। उनकी क्रूरता का शिकार महिलाएं भी हुईं। गैर-आदिवासियों ने धन देकर अपने
प्राण बचाने की चेष्टा की। परन्तु वे सफल नहीं हो सके। ब्राह्मण, राजपूत जैसे उच्च वर्गीय हिन्दू, जुलाहे, बनिए, कुर्मी, दुसाध, तेली
जैसे व्यवसायी कोलों के सबसे बड़े शिकार बने। कोलों ने वैसे लोगों को छोड़ दिया जो
उनकी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था और विद्रोह में उनको सहायता देते थे। जैसे लोहार, बढ़ाई, ग्वाला आदि।
कोलों
को अपने विद्रोह में चेरों, ओराँव,
मुंडा से भी सहयोग मिला। कोल विद्रोह के नेताओं में प्रमुख थे बुद्धू भगत, जोआ भगत, केशो भगत, नरेंद्र
शाह मानकी और मदरा महतो। विद्रोह आम तौर पर उस समय शुरू होते थे जब आदिवासी इतने दबे
हुए महसूस करते थे कि उन्हें लगता था कि उनके पास लड़ने के अलावा कोई दूसरा रास्ता
नहीं है।
अंग्रेजों ने शुरू में विद्रोह को
कम करके आंका लेकिन जल्द ही इसके बढ़ने पर उन्होंने सेना को जुटाया। बैरकपुर
और दानापुर छावनी से इनके दमन के लिए सेना भेजी गयी। कोलों ने ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ
धनुष और तीर जैसे पारंपरिक हथियारों के साथ गुरिल्ला युद्ध का इस्तेमाल किया।
लेकिन अंत में उनका प्रतिरोध शांत हो गया। 1832 की शुरुआत में, कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में
ब्रिटिश सेना ने बुधु भगत और झिंद्राई मानकी जैसे प्रमुख नेताओं को पकड़ लिया, जिससे विद्रोह कमजोर हो गया। 1832
के मध्य तक, विद्रोह को काफी हद
तक कुचल दिया गया था।
आखिरकार, विद्रोह अपने मकसद में कामयाब नहीं
हो पाया, जिससे कोल लोगों की ज़मीन और कम हो
गई और उनकी संस्कृति में गिरावट आई, क्योंकि ब्रिटिश नीतियां आदिवासी ज़मीनों पर कब्ज़ा करती
रहीं और विदेशी संस्कृति के नियम थोपती रहीं।
आदिवासी बागियों और ब्रिटिश सेना के
बीच लड़ाई बिल्कुल बराबर नहीं थी। एक तरफ नए हथियारों से लैस और युद्ध में
प्रशिक्षित रेजिमेंट थीं और दूसरी तरफ पत्थर, कुल्हाड़ी, भाले
और तीर-कमान जैसे पुराने हथियारों से लैस घूमते-फिरते ग्रुप में लड़ रहे आदमी और
औरतें थीं, जिन्हें अपने कमांडरों की जादुई
ताकत पर भरोसा था। इस असमान लड़ाकों की लड़ाई में बड़ी
संख्या में कोल मारे गए। अनेकों को गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चलाया गया। कोल विद्रोह का ऐतिहासिक महत्व है, खासकर भारत में औपनिवेशिक शोषण के
खिलाफ आदिवासी प्रतिरोध के संदर्भ में। कोल विद्रोह
असफल हो गया। इसके बावजूद कोलों की स्वतंत्रता और शोषण के विरुद्ध लड़ने की भावना
समाप्त नहीं हुई। कोल
विद्रोह ने विदेशी शासन और ज़मीन के सिस्टम के खिलाफ़ आदिवासी समुदायों की निराशा
को दिखाया। इसमें इन जनजातियों के सामने आने वाले खास सामाजिक और आर्थिक मुद्दों
को पहचानने और उन्हें सुलझाने में ब्रिटिश सरकार की नाकामी को दिखाया गया। इसने
भविष्य के आदिवासी विद्रोहों के लिए एक मिसाल कायम की और आने वाली पीढ़ियों के
आदिवासी नेताओं को औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित किया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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