फ़ुरसत में …
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ
मनोज कुमार, करण समस्तीपुरी
दूसरा भाग : कुत्तों के साथ रहते हैं जानकीवल्लभ शास्त्री!
पहला भाग-अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं!
तीसरा भाग :: निराला निकेतन और निराला ही जीवन
आचार्य शास्त्री कहते हैं, "विचित्र जीवन मैंने जिया। कोई समझ नहीं सकता। भाग गया था, गया से। मां नहीं थी। कुछ पढ़ा लिखा नहीं। बी.एच.यू गया पढ़ने! .. बिहार में रहने का सौभाग्य नहीं मिला। भागा तो बनारस चला गया। फिर वहां से रायगढ। किसी ने ललकार दिया। पहुंच गया रायगढ। १९-२० साल की उम्र में। सारे हमसे बड़ी उम्र के थे। वहां मैं ही चुन लिया गया। रायगढ़ के राजा प्रभावित थे। उन्होंने राजकवि का सम्मान दिया। राजकवि बन गया। पर वहां के लोगों में सबसे बड़ा अवगुण था कि वे सब मांसाहारी थे। मैं गंध भी नहीं सह सकता। वहां के वातावरण में मांस की गंध। गंध भी नहीं सह सकता। खाने की बात कहां से! कमरा जो मुझे मिला था उसमें चारो ओर से गंध ही गंध। मैंने बहुत हिम्मत करके वहां की, राजकवि की, नौकरी छोड़ दी। नहीं तो उस तरह की नौकरी कोई छोड़ नहीं न सकता था। राजकवि के पद पर था। छोड़कर बनारस आ गया। ईश्वर की कृपा हुई। दो मिनट के अंदर हमको दूसरी नौकरी मिल गई। Never stood second, even in the first class! ये है न बात! फ़र्स्ट क्लास में भी फ़र्स्ट। कभी सेकेंड हुआ ही नहीं। ये कोई साधारण कैरियर नहीं है। इसीलिए नौकरी मिलने में मुझे एक मिनट का समय लगा ही नहीं। मैंने चाहा और हो गया। ये ही ईश्वरीय कृपा थी। कोई अपना नहीं था। मां नहीं थी। कोई नहीं था। तो भगवान खड़े हो गए।’’
महामना : महामानव के निर्माता
कुछ देर बाद बोले, “मेरी सारी पढाई काशी में हुई। लोग नौकरी के लिए कोशिश करते हैं। मालवीय महाराज ने हमारे लिए रिकोमेंड किया। कहा कि ऐसा लड़का तुमको मिलेगा कहां। ले जाओ। ये बहुत बड़ी बात है। इसको आज के आदमी को कहिएगा तो हंसेगा। कहेगा सब पागल है। आपने मालवीय जी का नाम भी नहीं सुना होगा। मालवीय जी के कृपापात्र बनकर वहां, ८ साल उनके साथ रहा हूं। बहुत मानते थे मुझे। जब तक वो जीवित रहे, उनके साथ ही रहा। मालवीय जी के साथ गुज़ारे समय, मेरा सौभाग्य, 8 वर्ष रहा उनके साथ। जब उनकी मृत्यु हुई उनके पास बैठा था। उनकी बगल में बैठकर पाठ कर रहा था, जब वो दिवंगत हुए! उसके बाद छोड़ दिया मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सब।। वहां से छूटा तो मुज़फ़्फ़रपुर आ गया। उसके बाद यहीं का होकर रह गया! बनारस में मुझे प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, नंददुलारे वाजपेयी का स्नेह मिला। बनारस में काकली की रचना की। “बंदी मंदिरम” की भी।’’
कुछ याद करते हुए कुछ देर चुप रहे, फिर बोले ... “I never stod second in my life, even in the first class! इस कारण से नौकरी मिलने में कोई कठिनाई, कभी नहीं हुई। जो चाहा वही मिल गया। सब ईश्वरीय कृपा है। जहां भी परीक्षा दी हमेशा फर्स्ट आया। नौकरी के लिए हाथ पांव नहीं मारना पड़ा। ईश्वर की कृपा रही मुझ पर।”
ऐसे आये मुज़फ़्फ़रपुर
“सन 1939 में मुजफ्फरपुर पहली बार आया। गंगा कभी देखा नहीं था! गलती से नदी पार कर गया फिर यहीं का होकर रह गया। तब यहां रमना में उमाशंकर प्रसाद सिंह हुआ करते थे। 1939 से 48 तक उन्हीं के यहां रहा। “राधा” की पांडुलिपि उनकी बेटी और मेरी शिष्या चंदा ने तैयार की। घूमता हुआ आ गया मुज़फ़्फ़रपुर। इंटर्व्यू चल रही थी यहां। ठहरने की व्यवस्था नहीं थी। मुझे ठहराने की जगह नहीं मिली, तो संस्कृत कॉलेज में ठहराया गया मैं। वह, अनुग्रह नारायण सिंह का जमाना था। परीक्षा होने लगी। लोगों ने कहा आप भी जाइए ना। दूर-दूर से लोग आए थे। उन सब के बीच .. जहां ठहरने की जगह नहीं थी, वहां प्रोफ़ेसर हो गया। बच्चा बाबू ने अपने यहां रखा। छह वर्ष तक रहा उनके साथ। फिर जब पटना में सर्विस हो गई तो वहां गया। वहां कई वर्षों तक प्रोफ़ेसर रहा।”
उनके यहां इतनी गउएं हैं। और घर में प्राणी मात्र दो। इसका भी अलग किस्सा है। बताने लगे, “गाए पहले एक खरीदी थी। पिताजी के लिए। जब मुज़फ़्फ़रपुर आया तो पिता को अपने साथ ले आया। पिताजी को रात में दूध दिया गया खाने को। पूछा कैसा दूध है? खरीदकर मंगाया गया है, यह बताने पर उन्होंने कहा कि मैं तो खरीदकर दूध खाने का पक्षधर नहीं हूं। अगले रोज मैंने दरवाजे पर गाय बांध दी। उससे ही इतनी हुईं। पहली गाय का नाम कृष्णा रखा। वो काली थी, इसलिए। ये देख रहे हैं न सामने ... कृष्णायतन है, उसके नाम पर। यह घर कृष्णा के रहने के लिए बनवाया था। कृष्णा तो रही नहीं पर उसकी संतानें पीढियों से यहां रह रही हैं।
जो गाय पहली बार पिताजी के लिए मैंने ली उसी की संतानें चल रही हैं। कितनी पीढियां आ गईं। कितने बच्चे पैदा हुए।” सामने नाद के दोनों और कड़ी से बंधे -बछड़ों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, '' ये सब तीसरी-चौथी पीढ़ी वाले हैं!”
“सबने कहा कि किसी को बेच दें। किसी को दे दें। दे देना भी तो बचाव है। न हमको गाय बेचना है, न दूध बेचना है। न तो एक बूंद दूध बाहर गया और न कृष्णा की कोई संतान कभी बिकी। यहां के कुत्ते बिल्लियों से लेकर इंसानों तक, सब दूध खाते हैं, दूध पीते हैं, और सब यहीं आनंद से रहते हैं। खाते हैं-पीते हैं। सारे पशु-पक्षी, कुत्ते-बिल्ली।”
करण ने पूछा, ‘गाएं जो दूध देती है उसका क्या करते है?’
तो हंसते हुए बोले, “आइए, बैठिए, खिलाएंगे। बेचना छोड़कर और जो काम हो सकता है वो सब होता है। बेच नहीं सकते हैं।” अहहहा.... कितना प्रगाढ़ दर्शन है... ? कवि कभी व्यापारी नहीं हो सकता । वह (भावनाएं) बांटना जानता है, बेचना नहीं।
सूर्या-क्षश्थी व्रत के प्रथम नैवेद्य की संध्या दस्तक दे रही है किन्तु हमें आचार्यजी की वात्सल्यमयी वाणी से तृप्ति नहीं मिली है। नाद की दोनों तरफ बंधी गायों को स्नेहपूर्वक निहारते हैं। फिर हाथ से इशारा कर बोलते हैं, “... और कृष्णा और उसके मरी हुई संतानों की समाधियां भी इसी हाते के अंदर है। सबकी पक्की समाधियां बनी हुई हैं। निराला निकेतन में जो गायें मरतीं हैं, उन्हें यहीं समाधिस्थ कर दिया जाता है। चाहते हैं तो घूम आइए। देख आइए आंखों से! सामने ही तो है। जाकर देखो उनकी समाधि बनी हुईं हैं। हम उनको मां मानते हैं .... तो .... मानते हैं। गायों की कितनी पीढियां यहां आ गई हैं। लोग कहते हैं ... अब ... कि किसी को बेच दें ... या दे-दें .... नहीं! न इनका दूध बेचना है ... न किसी को देना है। दूध भी नहीं बेचता। बेचना छोड़कर सब करता हूं। इतनी कुत्ते-बिल्लियां हैं यहां ... सब पीते हैं। और मैं गाता हूं किसने बांसूरी बजाई। सब अकेले कर रहा हूं। ईश्वर की मर्जी।”
लेखनी-लेखन
अपनी लेखनी के बारे में भी कुछ बताइए। जब हमने यह पूछा, तो बोले, “जितनी पुस्तकें मैंने लिखी है, .. आप उठा भी नहीं सकते।” फिर हाथ फैला कर बताते हैं, “इतनी किताबें लिखी है! बहुत किताबें लिखी। इतना काम किया। पढता था। ... लिखता था। मैंने जीवन भर सरस्वती की साधना की है। इसके अलावा दूसरा कोई काम ही नहीं किया।...
“अभी एक पुस्तक आई है – राधा। सात खंडों के इस एकाकार महाकाव्य का मूल्य एक हजार रुपये है। मेरी इस किताब का दाम है एक हज़ार! लोग सुन कर घबरा जाते हैं। क्या नहीं लिखा, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक ... सब। इतनी छोटी उम्र में इतनी किताबें लिख गए ... आज सोचता हूं तो विश्वास ही नहीं होता। मैंने अपना प्रचार नहीं किया कभी। दिनकर जी ने अपना प्रचार किया। राजनीति के लोग थे वो। मैं तो कविता करने वाला आदमी था। रजनीतिज्ञ नहीं। कविता और इन चीज़ों में अंतर हो जाता है। किसी को प्यार करना अलग चीज़ है, उस पर भाषण करना अलग हो जाता है। मैं कविता से प्यार करता हूं। विचित्र जीवन है मेरा। समझा नहीं सकता।”
अद्भुत ,एक जीवित विश्रुति आचार्य जी!
जवाब देंहटाएंऐसा और इस दुनिया में -अकल्पनीय !
ऐसे महान पुरुष को नमन दूसरा ढूंढने की गलती भी नहीं करनी चाहिए . सार्थक पोस्ट .बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण! अच्छा लिखा बधाई!
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंयह सीरीज अपने आप में एक साहित्यिक दस्तावेज है। जानकीवल्लभ शास्त्री जी जैसे लोग पुरानी माटी के निर्मल जीवन जीने वाले लोग हैं, जो कि दिखावों और आडंबरों से कोसों दूर रहते हैं।
उन्होंने सही कहा कि राजनीतिक लोग प्रचार करते हैं कवि लोग नहीं।
कुछ कुछ यही बात मुझे गाजीपुर के विवेकी राय जी में दिखती है। ग्राम्य जीवन के इस चितेरे ने वो सब लिख दिया है जो कि बडे बड़े अलां फलां पुरस्कार प्राप्त लोग क्या लिखेंगें। सौंधी माटी की सुगंध को सब के बीच बांटने वाले, हृदय के लिये, हृदय से लिखने वाले लोग हैं ये।
ऐसे लोग प्रचार प्रसार से कोसों दूर रहते हैं इसलिये सामने नहीं आ पाते। आप ने और करण जी ने जानकीवल्लभ जी को हम सब से परिचय कराया उसके लिये आभार।
गैयों के समाधि चित्र बहुत अनोखे लगे, अपने आप में एक अलग ही किस्म का एहसास।
गायों के प्रति ऐसा अद्भुत प्रेम पहले कभी नहीं देखा ....बहुत प्रेरक है ये प्रेम !
जवाब देंहटाएंवाकई वे हमेशा प्रथम आने के काबिल ही रहे ...
ऐसे महान व्यक्तित्व से मुलाकात करवाने के लिए बहुत आभार !
आचार्य जी के बारे में सिलसिलेवार विस्तृत जानकारी आपके माध्यम से पढ़ने को मिल रही है.बहुत अच्छा लग रहा है.आज की पीढ़ी अच्छाई के मार्ग से भटकी हुई पीढ़ी है.
जवाब देंहटाएंइन्सान अगर इन्सान कहलाना चाहता है तो उसे शास्त्री जी को पढ़ना होगा,समझना होगा,और उनसे प्रेरणा लेना होगा.
किवदंती.....
जवाब देंहटाएंयह संस्मरण मन को झंकृत करता है।
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी के निजी व्यक्तित्व को जानकर उनके प्रति आदर और बढ़ गया।
आभार,
मनोज जी ऐसे महान कवि और चितेरे व्यक्तित्व से रूबरू करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद... साहित्य की इस अमूल्य निधि को संस्मरण रूप में लिपिबद्ध करके आपने इस धरोहर को अमर कर दिया
जवाब देंहटाएंआचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी के विलक्षण व्यकित्व का दर्शन कर के मन तृप्त हो गया !
जवाब देंहटाएंउनकी साहित्य साधना स्तुत्य है !
गायों की समाधि पहली बार देखी ,उनका जीवों के प्रति प्रेम उनके कोमल हृदय का परिचायक है !
आचार्य जी जैसे मनीषी कभी कभी पैदा होते हैं !
मनोज जी और केशव जी आप दोनों का आभार ,ब्लॉग जगत आपका यह उपकार कभी नहीं भूलेगा !
@ अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा, ऐसा और इस दुनियां में अकल्पनीय! ज्यों-ज्यों परत-दर-परत उनका व्यक्तित्व खुलता गया हमें भी सब अकल्पनीय ही लग रहा था।
@ सुनील जी,
जवाब देंहटाएंक्या खूब कहा - दूसरा ढूढने की ग़लती भी नहीं करनी चाहिए।
@ अनूप जी,
जवाब देंहटाएंआपका आभार!
@ सतीश जी,
जवाब देंहटाएंबिल्कुल ही माटी से जुड़े व्यक्तित्व से साक्षात्कार था हमारा। और गायों की समाधियां तो हमारे लिए भी एक अलग अहसास दिला रहा था। जब उस समाधि पर अपना सिर झुका रहा था तो एक स्वार्गिक अनुभूति हो रही थी।
@ वाणी जी,
जवाब देंहटाएंगायों के प्रति उनका प्रेम अनुकरणीय और प्रेरक है, यह तो हमें भी महसूस हो रहा था।
@ कुंवर जी,
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने। उनसे प्रेरणा ग्रहण करने लायक़ बहुत कुछ है। इस सीरिज में अभी और भी बहुत कुछ आना बाक़ी है।
@ good_done जी
जवाब देंहटाएंसच में किवदंती ही है यह व्यक्तित्व।
@ हरीश जी,
जवाब देंहटाएंआभार आपका। आपकी बातों से मनोबल बढता है।
@ manukavya जी,
जवाब देंहटाएंबस ये प्रयास है कि जो मन से निकाल दिए गए हैं, उनको लोगों के मन में बसाया जाय। आभार आपका।
@ ज्ञानचंद्र जी,
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने उनकी साहित्य साधना स्तुत्य है।
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी के विलक्षण व्यकित्व के दर्शन हमे घर बैठे ही करवा दिये। नमन है इस महान विभूति को सादर नमन। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअविश्वसनीय जीवन कथा। गायें का प्रेम दृष्टव्य है। आभार आपका इस परिचय का।
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंआत्मप्रचार से दूर ,इतने सरल -सहज ढंग से ज़िन्दगी बिताने वाले महाकवि के विचारों से हमारा साक्षात्कार करवाने के लिए कोटिशः धन्यवाद.
उनका गौ-प्रेम तो नमन योग्य है...लोग अपने गौ-प्रेम का ढिंढोरा पीटते हैं...पर उनकी समाधि बनवा सकने जितना प्यार उनसे सिर्फ इस महाकवि ने ही किया होगा.
हमेशा याद रखा जानेवाला अनोखा संस्मरण है यह.
जानकी वल्ल्भ शास्त्री जी के संबंध में आपका पहला और दूसरा भाग भी पढृ चुका हूँ। तीसरा भाग उनके विगत जीवन के संबंध में अच्छी जानकारी से परिचित करा गया। अपने प्रकाशस्तंभों के बारे में जानना एवं दूसरों को भी उससे परिचित कराना ही वास्तव में सच्ची साहित्य सेवा है। प्रस्तुति अच्छी लगी। सादर।
जवाब देंहटाएंआचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी की बात कितनी महान है कि,बेचते नहीं हैं.आज तो लोग देश और ईमान बेचने में भी कसर नहीं छोड़ रहे हैं. यदि नमन -नमन का राग अलापने की बजाये लोग उनके जीवन -चरित्र को अपने जीवन में ढालने का प्रयास करें तो देश-समाज का बहुत कल्याण हो सकता है
जवाब देंहटाएंसच में कवी का दर्शन अनूठा है ... गाय का दूध नहीं बेचना .... जीवन भर सरस्वती की साधना करना ही जीवन का ध्येय ...
जवाब देंहटाएंमैं चलता चलूँ निरंतर
अंतर में विश्वास भरे .....
अधबुध आचार्य से मिलना सौभाग्य की बात है .... नमन है हमारा शब्दों के मनीषी को ....
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंपहले तो इस संस्मरण को यहाँ साझा करने के लिए आपका आभारी हूँ.. शास्त्री जी का जीवन अपने आप में एक दर्शन है.. किसी की नक़ल नहीं अपना दर्शन.. निश्छलता छलकती है वाणी से ही और आप उन भावों को ज्यों का त्यों रखने में सफल रहे हैं... बधाई..
बहुत ही प्रेरक व्यक्तित्व से परिचय करवाया आपने। उनके कहे एक-एक शब्द रोमांचित करते हैं।
जवाब देंहटाएंआभार
मनोज जी ,
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा शास्त्री जी के बारे में और उनके विचारों के बारे में जानने का अवसर मिला ...अद्भुत जीवन रहा उनका ...
पशु पक्षियों से उनका प्रेम अनुकरणीय है ...असल में कवि और साहित्यकार तो जानकी जी जैसे लोग ही होते हैं ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
मनोज जी!
जवाब देंहटाएंआपने राजभाषा की सेवा ही नहीं, साहित्य जगत की सेवा की है... जितना पढ़ता हूँ उअने ही श्रद्धा भावसे भर जाता हूँ. इस पूरे संस्मरण औरशास्त्री जी के जीवन वृत्त को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित करने का प्रयास करें तो यह एक शुभ कार्य होगा.
सही है कि बच्चन और दिनकर जी चोटी के कवि साहित्यकर थे, किंतु सत्ता के आशीष ने उन्हें स्थापित किया, जो काम शायद शास्त्री जी न कर पाए! और अंत में उनका धेनु प्रेम देखकर तो आँखों में आँसू आ गए.. न दूध बिकेगा, न गऊ किसी को दी जाएगी... महान हैं ऐसे लोग! आज जब कलम गिरवी रके जाने से लेकर रखैल बनने तक को तैयार है, वहाँ ऐसे भी लोग हैं, अविश्वसनीय!!अचिंत्य!!
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के के बारे पढ कर बहुत अनंद आया जी, सच मे वह एक महान पुरुष हे आज के समय मे धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकिवदन्तीनुमा विलक्षण जीवन-दर्शन आचार्य़ श्री शास्त्रीजी का.
जवाब देंहटाएंआचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी के विलक्षण व्यकित्व से परिचित होना काफी सुखद लगा. जहाँ आजकल लोग आदमियों से इनती नफ़रत कर लेते है वहीं इनका पशु प्रेम मन को एक सुकून देता है............ आप की प्रस्तुती आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी के ऊपर बहुत ही सराहनीय है.
जवाब देंहटाएं...एक घंटे पहले कोई मुझसे पूछता कि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्रि जी के बारे में जानते हो तो उत्तर होता नहीं...नाम सुना है। अब कह सकता हूँ कि हाँ थोड़ा बहुत जानता हूँ। पढ़ा है उनके पिता के प्रति असीम श्रद्धा को, उनके पशु प्रेम को और जाना है उसके निराला सदन को। आज भी जीवित हैं महामानव।
जवाब देंहटाएं...तीनो भाग पढ़ा। आपने अद्भुत दस्तावेज तैयार किया है। शुक्रगुजार हूँ आपका कि आपने इसे पढ़वाया।
..धन्यवाद।
आचार्यजी को नमन ...और इस अतुलनीय संस्मरण के लिए आपका आभार ...
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंव्यावसायिक मानसिकता वाले कवियों के लिये बेहद प्रेरक. यदि वे इसे मन से पढ़े तो अवश्य सोच में कुछ बदलाव आवे...
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जवाब देंहटाएंमेरे सपनों का 'आदर्श चरित्र ऐसा ही है. .. आज इसे पढ़कर लगा वास्तव में मैंने उसे पा लिया.
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बहुत देर हो गई आने में ..बीच में सप्ताहांत पड़ गया और मैं इसे बहुत इत्मीनान से पढ़ना चाहती थी.
जवाब देंहटाएंएक एक पंक्ति जैसे रूह तक जाती हुई.
भावुक, दिल को छू लेने वाला संस्मरण
कवि कभी व्यापारी नहीं हो सकता । वह (भावनाएं) बांटना जानता है, बेचना नहीं
उफ़....क्या बात कही है.
आभार मनोज जी ! एक बेहतरीन कवि और इंसान से इतने खूबसूरत ढंग से मिलाने का.
हमारा भी सौभाग्य है कि मैं महाकवि शाश्त्री जी को अपने समीप महसूस कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंये दस्तावेज अनमोल है.
भारत रत्न मिले न मिले वे हमारे लिए सर्वकालिक रत्न हैं.
मनोज जी आपके साहित्य सेवा से गदगद हूँ.
karan samastipuri jee ka bhee abhaar
जवाब देंहटाएंजानकी बल्लभ शास्त्री जी के जीवन को जितने करीब से आपने दिखाया है, उनके जीवन के जिन आयामों से आपने साक्षात्कार करवाया है वह साहित्य में अद्वितीय है.. विश्वास नहीं होता कि ऐसा कोई व्यक्तित्व हमारे बीच है.. इस बाज़ार के दुनिया में जब शब्द बिक रहे हैं.. गीत बिक रहे हैं.. अखबारों का इंच इंच बिक रहा है.. चैनलों के सेकेण्ड सेकेण्ड बिके हुए हैं.. कोई इतना प्रतिरोध कर रहा है.. और देश का दुर्भाग्य देखिये कि उनके जीवन से प्रेरणा लेने की बजाय उन्हें हाशिये पर गुमनाम रखा जा रहा है सत्ता और साहित्य दोनों के द्वारा.. शाश्त्री जी ने इशारे में सब कुछ कह दिया कि 'दिनकर राजनीतिज्ञ थे' .. इस से पूरा साहित्य परिदृश्य स्पष्ट हो जाता है.. आप इस दस्तावेज को संभल कर रखें.. कल साहित्य के विद्याथियों को विश्वास नहीं होगी कि कोई महँ कवि ऐसे भी रहता होगा.. मनोज जी और करन आप द्वय ने हिंदी साहित्य पर बड़ा उपकार किया है.. सादर
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंअरुण चन्द्र राय जी टिप्पणी पर हमारी भी सहमती.
बेहद अच्छी टिप्पणी के लिये साधुवाद.
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