आंच-52 ::
ग़ज़ल - बड़ा ही जानलेवा है...
करण समस्तीपुरी
'दर्द को दिल में जगह दे अकबर ! इल्म से शायरी नहीं आती !!'
आंच के एक अंक में कहा था कि फारसी के शब्द 'गजाला' (हिरन को मारने का एक नुकीला हथियार) से विकसित 'ग़ज़ल' शब्द में वही दर्द होता है, जो गजाला लगने पर हिरन के चीत्कार में।
दर्द की कोख से ही 'ख़ुशी' का जन्म होता है। दौर-ए-वक़्त में मोहब्बत की आरजू के लिए या दर्द को भुलाने के लिए कहे गए 'ग़ज़ल'।
'हुस्न को चांद जवानी को कमल कहते हैं !
तेरी सूरत जो नजर आए तो ग़ज़ल कहते हैं !!'
मगर एक मुकम्मल ग़ज़ल के नक्स देखिये,
'लफ्जों के तरन्नुम से जरा देर को सही,
हो फिर से मुलाक़ात कोई छेड़िए ग़ज़ल !
ख्वाइश हो, खामोशी हो, ख्यालात का ख़म हो,
खुशियों की हो बरसात कोई छेड़िए ग़ज़ल !!'
ग़ज़ल के उत्पत्ति और विकास के बारे में पहले कहा था। फिर कह दूँ कि छठी सदी से शुरू हुई इस विधा को परवान मिला बारहवीं सदी में जब सूफी गीत लोगों के सर चढ़ कर बोलने लगा था। सूफी के बोल मिज़ाज-ए-ग़ज़ल के माकूल थे।
मित्रों !
'कवि न होऊं न त चतुर कहाबऊं......!' ग़ज़ल के बारे में मेरी जानकारी भी आप की तरह ही है, किन्तु यह विधा दिल में इस तरह चुभ जाती है कि क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाए, बिन कहे भी रहा नहीं जाए ! अल्ला जाने क्या होगा आगे..... ! सच में अल्लाह ही जाने कि अब मैं क्या लिखने जा रहा हूँ। लिखना क्या है... इस ग़ज़ल को पढ़ते हुए दिल में जो एक तस्वीर उभरी है उस पर इसके अशआर चिपका रहा हूँ।
'ग़ज़ल' दरअसल पांच या उस से अधिक अशआर वाले गीत को कहते हैं जिस में 'मतला' अर्थात पहला शे'र से लेकर 'मक़ता' माने कि आखिरी शे'र तक एक समान स्केल का पालन किया जाता है। इसी स्केल को ग़ज़ल का बहर कहते हैं।
उर्दू अदीबों ने कुल उन्नीस बहर बताये हैं जिन्हें उनकी लम्बाई के आधार पर मुख्यतः तीन श्रेणी में बाँट सकते हैं, छोटी, दरमयाना और बड़ी बहर - शार्ट, मिडिअम और लांग। छोटी बहर में तीन रुकन (चरण), दरमयाना बहर चार रुकन वाली होती है तो बड़ी बहर में प्रायः छः रुकन होते हैं। हालांकि आधुनिक उर्दू अदब में बहर के बाहर भी ग़ज़लों की रचना संजीदगी से की जा रही है।
यह ग़ज़ल (लिंक यहां है) 'बहर-ए-हज' में है, जिसमे चार रुकन आते हैं - 'मफाई लुन - मफाई लुन- मफाई लुन - मफाईलुन'। 'तुम्हारा रूठ - कर जाना - बड़ा ही जान - लेवा है'। मतले के 'मिसरा-ए-ऊला' (शे'र की पहली पंक्ति) से लेकर मकते के 'मिसरा-ए-सानी' (शे'र की दूसरी पंक्ति) तक ग़ज़लकार ने इस बहर का निर्वाह किया है। बहर-ए-हज पर मुकम्मल ग़ज़ल फिट बैठती है।
'तुम्हारा रूठ कर जाना बड़ा ही जानलेवा है ...... बिना माफी दीये जाना बड़ा ही जानलेवा है।'
बहर के बाद आते हैं रदीफ़ पर। रदीफ़ कहते हैं शायरी के अंतिम (चौथे) चरण में होने वाले शब्द अथवा पदों की आवृति को। यह संस्कृत/हिंदी काव्य-शास्त्र के 'अन्त्यानुप्रास' अलंकार से काफी साम्य रखता है। ध्यान रहे कि ग़ज़ल के मतले में रदीफ़ दोनों मिसरे में होता है बांकी शे'र में यह दूसरे मिसरे में।
'तुम्हारा रूठ कर जाना, बड़ा ही जानलेवा है !
हुई गलती चलो माना, बड़ा ही जानलेवा है !!'
रदीफ़ से ग़ज़ल में एक चमत्कार आता है और एक कशिश बनी रहती है। मिसरा-ए-सानी का काफिया आते ही श्रोता-पाठक अमूमन रदीफ़ बोल पड़ते हैं। पेश-ए-खिदमत है एक नजीर,
'कभी हंस कर कभी यूं ही, ठिठोली साथ की हम ने !
ठिठोली का सिला ऐसा........
अब यहाँ तक आते-आते श्रोता खुद ही बोल बैठता है 'बड़ा ही जानलेवा है।'' ग़ज़ल के तमाम अशआर 'हम रदीफ़' हैं। हर इक शे'र के बाद श्रोता-पाठकों में उत्सुकता रहती है कि अब क्या जानलेवा होने वाला है।
रदीफ़ का कमाल शे'र के साथ रहने में है। प्रस्तुत ग़ज़ल में कहीं-कहीं रदीफ़ शायरी के मूल भाव से कट-सा गया है। हाज़िर ग़ज़ल का रदीफ़ 'जानलेवा है' महबूबा की आदाओं की तारीफ़ में कहा गया है। पहले मिसरे में 'तुम्हारा रूठ कर जाना, बड़ा ही जानलेवा है' तो अपना कमाल दिखा रहा है लेकिन दूसरे मिसरे में 'हुई गलति चलो माना, बड़ा ही जानलेवा है।' -- शायर को अपनी भूल-कबूल में भी जानलेवा अदा दिखना 'दोष'तो नहीं किन्तु 'कमी' कही जायेगी।
ग़ज़ल बिना बहर बिना रदीफ़ हो सकती है किन्तु काफिया के बगैर ग़ज़ल का वजूद नहीं है। काफिया कहते हैं रदीफ़ से ठीक पहले आने वाली ध्वनी की मात्रा को। इस ग़ज़ल में 'जाना', 'खोना', 'ऐसा', 'करना' वगैरह बतौर काफिया शामिल हैं। यद्यपि इनमें मात्राएँ समान हैं किन्तु मतले के काफिया में 'आना' ध्वनि है। अगर बांकी में भी इसी ध्वनि की आवृति होती तो ग़ज़ल के वक़ार में और निखार आ जाता।
ग़ज़ल के शिल्प के बाद आते हैं अब इसके भाव पर। ग़ज़ल और कविता में एक फर्क यह है कि एक कविता में आद्योपांत एक ही भाव का संपोषण होता है जब कि ग़ज़ल के अशआर एक-दूसरे से स्वतंत्र भी हो सकते हैं। जिन ग़ज़लों में मतले से मक़ता तक समान भाव का सम्प्रेषण होता है उसे 'मुसालसा ग़ज़ल' कहते हैं।
यह भी एक मुसलसा ग़ज़ल का उदाहरण है। इस में महबूबा के रूठने और महबूब के मनुहार की अदा रवानगी पर है। लेकिन बीच में एक शेर 'जरा धीमी जुबाँ से ही जो तुम इज़हार कर देते....' अलग मिज़ाज का लग रहा है। रूठने-मनाने के बीच 'इज़हार' की आरजू थोड़ा बेतरतीब सी प्रतीत होती है।
अगर सौंदर्य की बात करें तो इसे 'हुस्न-ए-ग़ज़ल' (ग़ज़ल का सबसे अच्छा शे'र) कह सकते हैं। मगर जहां पहले मिसरा में ग़ज़ब की नफासत झलकती है वहीं सानी में 'ऐंठ कर जाना' कुछ कठोर हो गया है। 'रूठकर जाना' में 'विप्रलंभ श्रृंगार - संयोग में भी मान की अवस्था' है लेकिन 'ऐंठ कर जाना' में अश्रृंगारिक व्यंग्य है। इस मिसरे के बदले 'तेरा छुप-छुप के शरमाना या तेरा चुप-चाप रह जाना' जैसी कोई पंक्ति कर देते तो पहले मिसरे के अनुरूप हो जाता।
हमने ऊपर कहा है, 'ख्वाइश हो, खामोशी हो, ख्यालात का ख़म हो'। मगर इस ग़ज़ल में ख्यालात का ख़म नजर नहीं आ रहा। ग़ज़ल सुनने और गाने में तो बहुत ही सरस है किन्तु 'फिक्र की गहराई' जो इस रचनाकार की अन्य विधाओं में मिलती है वह यहाँ हासिल नहीं हो रही है। ग़ज़ल के हर शेर से रूमानियत छलक रही है मगर बात वही पुरानी सी है।
ख्यालात का ख़म होने से शे'र का वजन निहायत ही बढ़ जाता है। एक नजीर देखिये मोहब्बत के शायर बशीर बद्र किस तरह रूमानी ग़ज़लों में भी फिक्र की गहराई भरते हैं।
'मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा,
परिंदा आसमान छूने में जो नाकाम हो जाए !
उजाले अपने यादों की हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए !!'
ग़ज़ल के मक़ते में तखल्लुस (शायर के नाम का खुलासा) नहीं है मगर इससे शायरी के हुस्न पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। कुल मिला कर ग़ज़ल के संरचना विज्ञान पर यह रचना सोलह आने खरी उतर रही है। शिल्प की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट ग़ज़ल है मगर नजर-ए-जज़्बात से औसत। उम्मीद है आपकी अगली ग़ज़लों में ख्यालात का ख़म भी देखने को मिलेगा।
आखिर में ये मेरे निहायती जानी ख्यालात हैं। कहीं कोई बड़बोलापन या नादानी हो गयी हो तो माफ़ करेंगे। शुक्रिया !!
दर्द को दिल में जगह दे अकबर।इल्म से शायरी नही आती।।
जवाब देंहटाएंआज लोगों के पास दिल कहां है।लोग तो दूसरों के दिल के कारण ही जी रहे हैं। यह सोचकर कि कहीं उनका दिल ना दुख जाए,अपने दिल को निकाल कर दे देते हैं।
करण भाई,आपका पोस्ट इतना अच्छा लगा कि उस पर कुछ कहना भी जानलेवा है।आप तो कुछ कह लेते हैं लेकिन आज तक मुझे वह मुकाम और मंजिल हासिल न हो सका जिसका दंश अहर्निश मन मे एक टीस पैदा करते रहता है।ख्वाहिश है-
दुनियां से हट के इक नई दुनिया बना सकें,
कुछ अहले-आरजू इसी हसरत में मर गए। बहुत सुंदर।
सादर।
बहुत बहुत आभार ..अब तो कुछ कहना सच में " जानलेवा है" बहुत सुंदर लेकिन सूक्षम तरीके से समझाया है ..शुक्रिया
जवाब देंहटाएंगजल अब सजल हो गई है!
जवाब देंहटाएं--
सुन्दर समीक्षा प्रस्तुत की है आपने!
गजल पर आए आँच के पिछले अंक के क्रम को आगे बढ़ाते हुए आंच का यह अंक विषय पर अध्याय की तरह है। गजल विधा की बारीकियों के साथ प्रस्तुत गजल की निरपेक्ष और सम्यक विश्लषण किया गया है।
जवाब देंहटाएंआभार
जबर्दस्त और जानलेवा विवेचन है! ग़ज़ाला लफ्ज़ के मानी हैं मृगनयनी, हिरणी के समान आँखों वाली और आपने आँच पर इस गज़ल को और भी निखार दिया है..
जवाब देंहटाएंआशीर्वाद करण जी! धन्यवाद मनोज भाई!
गजल की सूक्ष्म विवेतना के साथ मनोज जी की गजल के तटस्थ विश्लेषण के लिए करण जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंगजल के बारे में काफी अच्छा विवेचन ...और समीक्षा बहुत संतुलित
जवाब देंहटाएंgajal ko bakhubi kaha hai aapne
जवाब देंहटाएंkya bat hai
bahut khub
.....
kabhi yaha bhi aaye
www.deepti09sharma.blogspot.com
करन जी,
जवाब देंहटाएंग़ज़ल विधा पर भरपूर रोशनी डालते हुए आपने बड़ी सूक्ष्मता से तटस्थ समीक्षा प्रस्तुत की है !
साधुवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सुन्दर समीक्षा प्रस्तुत की है| आभार|
जवाब देंहटाएंगजल की जीवनगाथा बेहद रोचक है . शुभकामना .
जवाब देंहटाएंवाह! क्या खूब समीक्षा की है ……………छोटी से छोटी जानकारी बहुत ही खूबसूरती से दी है।
जवाब देंहटाएंरचना,रचियता, समीक्षा सब कुछ जानलेवा है,अब क्या कहें.
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति.
सभी पाठकों का हृदय से आभार ! कुछ भूल-चुक हो गयी थो तो जरूर बताएँगे !! धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंसुन्दर विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंबधाई।
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बोलने वाले पत्थर।
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
sundar samiksha.
जवाब देंहटाएंगज़ल का बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक विश्लेषण..आभार
जवाब देंहटाएंgazal ke bare me bahut acchhi jankari di. gazel ke kayde ko aaj tak padhne se jijhakte rahe kyuki iske kafiye,matle,beher,radeef hame uljha dete the...aaj kuchh kuchh samajh aaya..ummeed hai aisi vistrit jankaari aage bhi milti rahegi.
जवाब देंहटाएंaabhar.
धन्यवाद करण जी। बहुत कुछ समझने और सीखने को मिला। पहली बार जब आपकी आंच पर मेरी ग़ज़ल चढी थी तब से अब में आपके मार्गदर्शन के फलस्वरूप काफ़ी परिवर्तन आया है। आशा है अगली बार आपके बताए और सुझाए तकनीकी विशेषताओं से लैस होकर आपको निराश नहीं करूंगा।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल विधा की बारीकियों को इतने विस्तार से प्रस्तुत करने और इस विषय पर इतनी तथ्य परक जानकारी के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमंजु
मेल से प्राप्त टिप्पणी, कुंवर जी की
जवाब देंहटाएंमनोज जी.
आपकी 03.01.2011 की पोस्ट "बड़ा ही जानलेवा है" पर सम्मान्य श्री करण समस्तीपुरी जी द्वारा तफ़्सील से की गई चर्चा पढ़ी.ऐसी चर्चाएँ वाक़ई बड़े काम की होती हैं. मैं उसे थोड़ा देर से यानी आज पड़ पाया जब पोस्ट बदल चुकी है.मुझे सिर्फ निम्न दो बाते कहनी हैं:-
१-करण जी द्वारा कहे गए निम्न वाक्य में बदलाव की ज़रुरत है. करण जी का कहना है कि:-
"यह ग़ज़ल (लिंक यहां है) 'बहर-ए-हज' में है, जिसमे चार रुकन आते हैं - 'मफाई लुन - मफाई लुन- मफाई लुन - मफाईलुन'। 'तुम्हारा रूठ - कर जाना - बड़ा ही जान - लेवा है'।"
*कृपया 'बहर-ए-हज' की जगह बहरे-हज़ज कर दें. वैसे ये मुफ़रद बहर है और इसका पूरा नाम "बहरे-हज़ज सालिम" है.
२-ग़ज़ल कि उत्पत्ति के बारे में गजाला शब्द पर प्रकाश डाला गया.ये शब्द वास्तव में ग़ज़ालः है . कुछ लोग ऐसा मानते है कि ग़ज़ल कि उत्पत्ति ग़ज़ालः से हुई है मगर ज़ियादातर लोग ये नहीं मानते.उनका कहना है कि ग़ज़ल अरबी का शब्द है और ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ महबूब से बात करना है यानी ये रूमानियत से वाबस्तः है.
यदि ग़ज़ल के नाम की उत्पत्ति में दूसरे बिंदु का ज़िक्र भी होता तो सम्प्रेषण संभवतः पूरा हो जाता.
कुँवर कुसुमेश
शुक्रिया .. ग़ज़ल की बारीकियों से रूबरू करवाने का .....
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