आँच-53
हरीश प्रकाश गुप्त
कहते हैं जो दूसरों से संघर्ष करता है वह रेहाटरिक लिखता है अर्थात उसकी भाषा अलंकारिक और कृत्रिम हो जाती है तथा जो स्वयं से संघर्ष करता है वह कविता लिखता है। आत्म संघर्ष को अभिव्यक्त करने वाली कविता में सहज आकर्षण होता है। बिना किसी आडम्बर के सरल से सरल शब्दों से युक्त भाषा और खाँटी देशज प्रतीक पाठक की संवेदना को स्पर्श करते हैं और पाठक रचना के भाव सागर में डूबता उतराता स्वयं को कविता से इतना निकट अनुभव करता है कि कविता की भाषा और शिल्प गौण होकर रह जाते हैं। रचना दीक्षित ऐसी ही कवयित्री हैं जिनकी कविताएं सामाजिक सरोकारों से सम्पन्न आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति हैं। रचना की कविताएं पाठक को भावों से आच्छादित कर लेती है और आत्मानुभूति की प्रतीति कराती हैं। उनकी कविताएं ‘रचना रवीन्द्र’ ब्लाग पर प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी कविता ‘धागे’ इसी माह के दूसरे सप्ताह में ‘रचना रवीन्द्र’ ब्लाग पर प्रकाशित हुई थी। उनकी यह कविता आँच के आज के अंक की विषय वस्तु है।
वास्तव में स्त्री का जीवन संघर्षों की व्यथा कथा है जिसमें सुख कम, खुशियों को समेटने सहेजने के उपक्रम अधिक रहते हैं। उसके सरोकारों में उत्तरदायित्व अधिक हैं। वह संस्कारों का निर्वाह करती है, मर्यादा का पालन करती है और इज्जत का पर्याय बनती है तो साथ ही वह सामाजिक रिश्तों नातों के बीच योजक कड़ी की भूमिका भी निभाती है। दिनानुदिन की जीवन चर्या में जब व्यावहारिक जीवन की तपिश रिश्तों और संबंधों की टूटन का कारण बनती है तो वह स्त्री ही है जिसके हिस्से में ‘पैचअप’ की जिम्मेदारी भी आती है। इस जीवन संघर्ष के दौरान अनेक नाजुक पल भी आते हैं जिन्हें वह अपनी स्मृति में सहेज कर रखती है। अपने भीतर हंसी, खुशी, दुख, दर्द का समन्दर छुपाए जब भी उसने वर्तमान से स्मृतियों में प्रवेश किया तब उसे कहीं न कहीं अपने प्रयासों में ही कारण और सम्भावनाएं दिखाई पड़ीं। जोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद उसे टूटन भी ऐसे दिखाई पड़ी जैसे सिलाई करके जोड़ने के बाद भी सीवन स्पष्ट दिखती है। कभी कभी उलझनें मनोदशा को इस कदर उलझाती हैं कि उपयुक्तानुपयुक्त का अन्तर कर पाना दुरूह हो जाता है और परिणामों का दर्द घुटन बनकर भीतर ही भीतर पलता रहता है। वर्तमान में हमेशा उत्तरदायित्वबोध को जिम्मेदारियों से जोड़ने पर प्रत्युत्तर में निराशा, प्रतिकार और दर्द ही मिलते हैं जो हमेशा टीस बनकर चुभते रहते हैं। एक बार जीवन-सागर में उतर आने के बाद सुख दुख की स्मृतियों और दायित्वों को छोड़ कर निकल पाना आसान नहीं होता। प्रस्तुत कविता ‘धागे’ कुछ इसी तरह के भावों को अभिव्यक्त करती है।
रचना जी की यह कविता अत्यंत भावना प्रधान है, मर्मस्पर्शी है। इसीलिए यह पाठक के हृदय में सीधी उतरती है। यह व्यक्तिनिष्ठता से ऊपर उठकर पाठक को स्वानुभूति की प्रतीति कराती है, तथापि कविता में अत्यधिक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। प्रतीक विधान एकदम देशी है एवं एकवर्गीय है। इसीलिए कविता पढ़ते समय ऐसा लगता है कि समस्त प्रतीक एक ही पिटारी से खोल कर रख दिये गए हैं। कविता में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति है जो इसे व्याख्यात्मक बना देती है। यह गुण कविता में काव्यत्व को तनिक न्यून करता है।
यद्यपि प्रस्तुत कविता को गीत में पिरोने का प्रयास किया गया है, तथापि शब्दाधिक्य, मात्राओं की असमानता, आरोह-अवरोह के प्रति असजगता तथा अनेक पदों (शब्दों) का अनावश्यक प्रयोग शिल्प के प्रति कवयित्री की उपेक्षा को प्रतिबिम्बित करता है। उदाहरण स्वरूप कविता की पंक्तियों में 15 से लेकर 24 मात्राएं तक हैं । यदि दो-दो पंक्तियों को चरण के रूप में लें तो 36 मात्राओं में इसे सीमित किया जा सकता है। कुछ पंक्तियों में प्रवाह बाधित है अथवा शब्दों का अनावश्यक प्रयोग हुआ है जैसे –
रातों को उठकर ( ) जाने क्यों
रिक्त स्थान की पूर्ति आवश्यक लगती है।
मैं अपनी ही चादर सीती रही
मैं का प्रयोग अनावश्यक है और मात्रा भी बढ़ाता है।
संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं
मात्राएं अधिक हैं और थीं की आवश्यकता नहीं थी।
फिर भी सीवन ( ) दिखती रही
रिक्त स्थान पर सी जोड़ने पर पंक्ति उपयुक्त लगती है क्योंकि सीवन तो स्वयमेव दिखती है अतएव सीवन-सी होना चाहिए।
जाने किसमें तुरपती रही
यहां प्रवाह रुकता है।
बातें चुन्नटों में बांधी बहुत थी
थी का प्रयोग अनावश्यक है और मात्रा भी बढ़ाता है।
खुशी औ गम के सलमें सितारों में
औ और में बाधक हैं
मैं ही जब तब ( ) टंकती रही
रिक्त स्थान पर थी जोड़ने पर पंक्ति उपयुक्त लगती है और मात्राएं भी समान हो जाती हैं।
पर अंगुश्तानों में सिसकी निकलती रही
पर का प्रयोग अनावश्यक है और मात्राएं भी बढ़ाता है।
शिल्प में उपर्युक्त दोषों के बावजूद यद्यपि कविता में प्रतीक पारम्परिक अर्थों से ही भरे हैं तथापि कुछ प्रयोग आकर्षक लगते हैं। जैसे - संस्कारों की कतरनें जोड़ी बहुत थीं में कमजोर होते संस्कारों का चित्र उभरता है। बेखबर से बाखबर और बाखबर से बेखबर दोनों प्रयोग बड़े ही आकर्षक लगते हैं जो वर्तमान से अतीत में जाने और अतीत से वर्तमान में वापस आने का अर्थ देते हैं। यह कविता कवयित्री की शिल्प के प्रति भले ही शिथिलता दर्शाती हो, लेकिन भावों में कृत्रिमता नहीं दर्शाती। कवयित्री का संघर्ष स्वयं का संघर्ष है और कविता उसकी परिणति इसीलिए उनकी कविता रेहाटरिक न बनकर पाठकों की संवेदना से सहज जुड़ जाती है।
*****
रचना जी की कविताओं का मैं नियमित पाठक हूँ... उनकी कविता में जहाँ विम्ब नवीन होते हैं.. वे शब्दों और प्रतीकों में नए प्रयोग करती रहती हैं... उनकी कविता पर समग्र दृष्टि डालने पर उनकी विविधता से परिचय होता है.. वर्तमान कविता भी उनके ब्लॉग पर पढ़ लिया था.. आज गुप्त जी की समीक्षा के माध्यम से कविता के भीतर के तकनीक से भी परिचय हुआ.. गुप्त जी की विशेषता है कि वे कवि/कवियत्री के दोष-दर्शन इतनी सहजता से करते हैं कि वह मार्गदर्शन सा लगने लगता है.. यही बात इस समीक्षा में भी है... गुप्त जी से आग्रह है कि वे मात्रा से सम्बंधित एक कक्षा शुरू करें... इस से जो कवि/कवियत्री साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे हैं उन्हें कविता की तकनीक के बारे में ज्ञान मिल सकेगा.. इस से ब्लॉग जगत और भी समृद्ध होगा.. रचना जी एवं गुप्त जी को शुभकामना... आंच की आंच और प्रखर हो...
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जवाब देंहटाएंbahut hi achhi vyakhyaa rachna kee aur rachna ji kee
जवाब देंहटाएंयह समीक्षा कविता के गुण दोषों का सम्यक विवेचन प्रस्तुत करती है। समीक्षक की जितनी पैनी नजर कविता के भाव पक्ष पर पड़ी है उतनी ही गहन दृष्टि से उन्होंने कविता के शिल्प को भी निष्पक्षता के साथ परखा है।
जवाब देंहटाएंआभार।
कविता में उत्कीर्ण भारतीय नारी के संघर्ष की भूमिका का समीक्षक ने बहुत ही संतुलित ढंग से आकलन किया है। आभार,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा । बहुत कुछ सीखा आपसे।
जवाब देंहटाएंआभार
आदरणीय मनोज जी, मेरी कविता को समीक्षा योग्य समझने के लए आभार. हरीश जी का जितना भी आभार मानूं कम है. हिंदी मेरा विषय नहीं रहा है सो अपने मन के भावों को उजागर करने के लिए लिखती हूँ .गलत सही का मुझे कुछ पता नहीं होता है अन्यथा मैं खुद ही सुधार लूँ. अच्छा लगा इतनी नयी बातें सीखने को मिली. कविता में जो सुधार आपने बताये हैं उन्हें करके अपने पास सहेज रही हूँ.मैंने तो एक बार भाषा के किसी ब्लॉग पर पूंछा भी था की चन्द्र बिंदु कहाँ लगता है और कहाँ नहीं. अरुण राय जी की बातों का अनुमोदन करुँगी . "गुप्त जी की विशेषता है कि वे कवि/कवियत्री के दोष-दर्शन इतनी सहजता से करते हैं कि वह मार्गदर्शन सा लगने लगता है.. यही बात इस समीक्षा में भी है... गुप्त जी से आग्रह है कि वे मात्रा से सम्बंधित एक कक्षा शुरू करें... इस से जो कवि/कवियत्री साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे हैं उन्हें कविता की तकनीक के बारे में ज्ञान मिल सकेगा.. इस से ब्लॉग जगत और भी समृद्ध होगा."
जवाब देंहटाएंभाषा से सम्बंधित ज्ञान खासतौर पर कविता और शायरी लेखन कहाँ से प्राप्त करूँ जरुर बताएं मार्ग दर्शन के लिए एक बार फिर से आभार
सुन्दर, शानदार, और सीख देती समीक्षा. कविता के भाव भी अच्छे बन पड़े हैं. कवयित्री और समीक्षक दोनों को कोटिशः बढाई ! धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा , इसी बहाने कविता भी पढने को मिली ...., ये बहुत बढ़िया कहा
जवाब देंहटाएंकहते हैं जो दूसरों से संघर्ष करता है वह रेहाटरिक लिखता है अर्थात उसकी भाषा अलंकारिक और कृत्रिम हो जाती है तथा जो स्वयं से संघर्ष करता है वह कविता लिखता है।
जब भी किसी कविता की समीक्षा होती है काफ़ी कुछ सीखने और समझने को मिलता है …………कविता भाव की दृष्टि से तो शानदार है ही सीधे दिल को छूती है पहले भी पढी थी और आज भी मगर समीक्षा के बाद तो इसका सौन्दर्य और निखर आया है।
जवाब देंहटाएंरचना दीक्षित जी की प्रस्तुत कविता तथा उनके ब्लॉग पर पढ़ी गई उनकी अन्य कविताओं के आधार पर एक बात तो मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि रचना जी मन से कवितायें लिखती हैं.
जवाब देंहटाएंउनकी कवितायें बनावटीपन और दिखावे से दूर होती हैं ये बहुत अच्छी और बड़ी बात है.
रचना जी की कवितायें उनके ब्लॉग पर पढ़ता रहता हूँ..उनकी कविताओं का बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है..बहुत अच्छा लिखती हैं..
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी
जवाब देंहटाएंआपकी भावनाओं का मैं सम्मान करता हूँ। प्रयास करूँगा कि आपकी अपेक्षा के अनुरूप योगदान कर सकूँ।
मनोज जी, आपका यह कार्य ब्लॉग जगत में सक्रिय लेखकों के लिए एक नई आशा की किरण बने, यही कामना है।
जवाब देंहटाएं---------
ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेख,टोना-टोटका।
सांपों को दूध पिलाना पुण्य का काम है ?
@ रश्मि प्रभा जी
जवाब देंहटाएं@ good_done जी
प्रोत्साहन के लिए आभार,
रचना जी की कविता के भाव बहुत ही अच्छे लगे उसपर आपकी समीक्षा ने चार चाँद लगा दिए.रचनाकार और समीक्षक को ढेरों बधाई..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ आचार्य परशुराम राय जी
जवाब देंहटाएंआपके मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपका सदैव ऋणी रहूँगा।
@ डॉ दिव्या जी,
जवाब देंहटाएंआपका प्रतिक्रिया स्वरूप दो शब्द कह जाना भी उत्साहवर्धक होता है।
आपका आभार,
@ रचना जी,
जवाब देंहटाएंआपने इस समीक्षा को इतने सहज और सकारात्मक भाव से लिया यही मेरे लिए प्रसन्नता की बात है। वैसे यह आपकी कविता ही है जिसने मुझे कुछ कहने का अवसर प्रदान किया। अन्यथा लोगो के इतने भावपूर्ण विचार मुझे प्राप्त न होते। इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
आद.हरीश जी,
जवाब देंहटाएंरचना जी की कविताओं का मै नियमित पाठक हूँ !
उनकी कवितायें गहरे भावों को संप्रेषित करती हैं !
आपने उनकी कविता की समीक्षा बड़ी ही सूक्ष्मता से किया है जिसे पढ़ कर न केवल लेखिका बल्कि पाठकों को भी कई नई जानकारी प्राप्त होगी !
इस सुन्दर पोस्ट के लिए कवयित्री,समीक्षक और प्रकाशक सभी बधाई के पात्र हैं !
@ शारदा जी
जवाब देंहटाएंआपका आना बहुत सुखद लगा और आपके शब्द उत्साहजनक।
आपका आभार,
@ करण जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहित करने के लिए
आपको कोटिशः आभार,
@ वन्दना जी
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए
आपका आभार,
@ कुँवर कुसुमेश जी
जवाब देंहटाएंआपकी गारन्टी में मेरी भी सहमति है। वैसे, आप भी गजल और दोहे बहुत सुन्दर लिखते हैं।
आपका आभार,
@ कैलाश जी
जवाब देंहटाएंआपका आभार,
@ जाकिर अली रजनीश जी
जवाब देंहटाएंआप लोगो की प्रेरणा और प्रोत्साहन से ही हमको कार्य करने की ऊर्जा मिल रही है।
आपका आभार,
@ शिखा जी
जवाब देंहटाएं@ ज्ञान चन्द मर्मज्ञ जी
गहन दृष्टि के लिए
आप दोनो का आभार,
इस बार आंच पर एक और बेहतरीन कविता लि गयी ...कविता पढते हुए भवनकी इतनी प्रधानता थी की कमियों की ओर ध्यान भी नहीं गया ...पर यहाँ समीक्षा पढ़ कर बहुत कुछ सीखने को मिला ...रचना जी का कहना सही है की कोई ऐसी कक्षा चलाई जाये जिससे हम अपने लेखन में अधिक से अधिक सुधार कर सकें ...
जवाब देंहटाएंसबसे बड़ी बात की समीक्षा त्रुटि दोष न लग कर मार्गदर्शन लगी ....आभार
प्रभावी समीक्षा ....उनके ब्लॉग पर भी उनकी रचनाएँ पढ़ी हैं...... बहुत अच्छा लिखती रचना जी....
जवाब देंहटाएंरचना जी की कविता ओर आप आप दुवारा की समीक्षा बहुत अच्छी लगी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंयह एक अच्छी कविता है। प्रतीकात्मकता से अभिव्यक्त की अनुभूति तीव्र हो जाती है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा भी बहुत अच्छी है- शायद समीक्षक भी पढ़ना चाहें।
रचनाओं पर बहुत ही उपयुक्त आँच लग रही है। ब्लाग जगत के लिए यह उल्लेखनीय कार्य है। इसके लिए सभी सम्बद्ध जनों के प्रति आभार,
जवाब देंहटाएं@ मोनिका जी, संगीता जी, राज भाटिया जी, कुमार राधारमण जी सहित समस्त पाठकों को प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया के लिए आभार,
जवाब देंहटाएंकथ्य की प्रखरता के आगे शिल्प की शिथिलता मैटर नहीं करती .नारी जीवन की पूरी गाथा इन कुछ पंक्तियों में पिरो कर कवयित्री ने अपनी क्षमता प्रमाणित कर दी है .
जवाब देंहटाएंइस समीक्षा की जितनी तारीफ़ करूं कम है! आपको धन्यवाद कहने के लिए शब्द नहीं है, लेकिन भावनाएं आपके आभार से सरोबार है।
जवाब देंहटाएंजो स्वयं से संघर्ष करता है वह कविता लिखता है। आत्म संघर्ष को अभिव्यक्त करने वाली कविता में सहज आकर्षण होता है।
जवाब देंहटाएंयह सोचने का मसाला देता है बन्धुवर! मैं तो सोचता था कि व्यक्ति बहुत वेदना या बहुत तुष्टि/प्रसन्नता में कविता लिखता है। कविता लिखने पर जब वह उफान बैठता है, तब आत्मसंघर्ष उठता है।
गलत भी हो सकता हूं मैं!