रविवार, 30 जनवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र :: हास्य और करुण रस

भारतीय काव्यशास्त्र :: हास्य और करुण रस

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में विप्रलम्भ शृंगार पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में हास्य और करुण रसों पर चर्चा की जायगी। शृंगार रस के बाद हास्य रस आता है।

विभावों, अनुभावों एवं संचारिभावों के संयोग से हास स्थायिभाव सक्रिय होकर जिस रस का आस्वादन होता है, उसे हास्य रस कहा जाता है। विकृत आकार, वाणी, वेश, चेष्टा आदि के अभिनय से हास्य रस आविर्भूत होता है। हँसानेवाली विकृत आकृति, वाणी, वेश-भूषा आदि इसके आलम्बन विभाव, विभिन्न विकृत चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव, नेत्रों का मुकुलित होना, चेहरे का विकसित होना आदि अनुभाव और निद्रा, आलस्य, अवहित्था (आंतरिक भावों को छिपाने का अभिनय) आदि संचारिभाव हैं।

आचार्य मम्मट हास्य, करुण आदि रसों के लक्षण नहीं दिए हैं। काव्यप्रकाश में हास्य रस के उदाहरण के रूप में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है -

आकुञ्च्य पाणिमशुचिं मूर्ध्नि वेश्या मंत्राम्भसां प्रतिपदं पृषतैः पवित्रे।

तारस्वनं प्रथितथूत्कमदात् प्रहारं हा हा हतोSस्मि रोदिति विष्णुशर्मा।।

अर्थात कदम-कदम पर अभिमंत्रित जल से पवित्र किए हुए मेरे सिर पर वेश्या ने थूत्कार करते हुए अपने अपवित्र हाथों से मुट्ठी बाँधकर मारा, हाय-हाय मार डाला, यह कहकर विष्णुशर्मा रो रहा है।

यहाँ विष्णुशर्मा आलम्बन विभाव, उसका रोना उद्दीपन विभाव, स्मित आदि अनुभाव एवं हास स्थायिभाव हैं।

पद्माकर जी निम्नलिखित कवित्त हास्य रस का एक अच्छा उदाहरण है –

हँसि हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,

पाहुनो जे आवै हिमाचल के उछाह मैं।

कहैं पद्माकर सू काहूको कहै को कहा,

जोई जहाँ देखै सो हँसोई तहाँ राह मैं।

मगन भएई हँसै नगन महेस ठाढ़े,

और हँसे वेऊ हँसि हँसि के उमाह मैं।

सीस पर गंगा हँसे, भुजनि भुजंगा हँसैं,

हास ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में।

यह भगवान शिव के विवाह का प्रसंग है। बारात में साँप लपेटे भगवान शिव के नग्न रूप को देखकर पर्वताधिराज हिमाचल की नगरी में लोग जहाँ जगह मिली वहीं से भाग निकले। इसी दृश्य का यहाँ वर्णन है। इसमें महादेव आलम्बन विभाव, उनका नंगा रूप उद्दीपन विभाव, गंगा और नागों का हँसना अनुभाव, वर को देखने को उत्सुक भीड़ का दृश्य देखकर भयभीत होना और भागना आदि संचारिभाव हैं और हास स्थायिभाव।

आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में हास्य रस के छः भेद बताए हैं-

ज्येष्ठानां स्मितहसिते मध्यानां विहसितावहसिते च।

नीचानामपहसितं तथातिहसितं तदेष षड्भेदः।। (साहित्यदर्पण)

अर्थात् ज्येष्ठ व्यक्तियों में स्मित और हसित, मध्यम श्रेणी के विहसित और अवहसिततथा नीच (अधम) लोगों में अपहसित और अतिहसित होते हैं। इस प्रकार स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित और अतिहसित ये छः भेद हैं। ये भेद हँसने के छः रूपों के आधार पर किया गया है। इन सभी का स्थायिभाव हास ही है।

नेत्रों का थोड़ा विकसित होना और ओष्ठों का थोड़ा-थोड़ा फड़कना स्मित है, इस क्रिया में कुछ-कुछ दाँत दिखने लगें तो उसे हसित नाम दिया गया है, इन सबके साथ मधुर ध्वनि का योग विहसित, साथ में कंधे, सिर आदि हिलें तो अवहसित, ऐसी हँसी जिससे आँखों में पानी आ जाय तो अपहसित तथा हँसते-हँसते व्यक्ति लोट-पोट होने लगे तो उसे अतिहसितकहते हैं-

ईषद्विकासिनयनं स्मितं स्यात्स्पन्दिताधरम्।

किञ्चिल्लक्ष्यद्विजं तत्र हसितं कथितं बुधैः।।

मधुरस्वरं विहसितं सांसशिरःकम्पमवहसितम्।

अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यतिहसितम्।। (साहित्यदर्पण)

अब विचार के लिए करुण रस को लेते हैं। इष्ट के नाश और अनिष्ट के प्राप्त होने के कारण करुण रस का उद्भव बताया गया है। इसका अस्थायिभाव शोक है, मृत बंधु-बान्धव आदि शोचनीय व्यक्ति आलम्बन विभाव, दाहकर्म आदि उद्दीपन विभाव, प्रारब्ध को कोसना, भूमि पर गिरना, रोना, उच्छ्वास, निःश्वास, स्तम्भ, प्रलाप आदि अनुभाव एवं मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, उन्माद, चिन्ता आदि व्यभिचारिभाव हैं।

इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-

हा मातस्त्वरिताSसि कुत्र किमिदं हा देवताः क्वाSशिषः

धिक् प्राणान् पतितोSशनिहुतवहस्तेSङ्गेषु दग्धे दृशौ।

इत्थं घर्घरमध्यरुद्धकरुणाः पौराङ्गनानां गिर-

श्चित्रस्थानपि रोदयन्ति शतधा कुर्वन्ति भित्तिरपि।।

जयन्तभट्ट के अनुसार इस श्लोक में कश्मीर की राजमाता की मृत्यु के उपरान्त भट्टनारायण के विलाप का वर्णन किया गया है, जबकि महेश्वर के अनुसार मदालसा (चन्द्रवंशी राजा प्रतर्दन की विदुषी एवं ब्रह्मवादिनी पत्नी जिनकी कथा मार्कण्डेय पुराण में मिलती है) के जलकर मरने के बाद पुरवासी स्त्रियों के विलाप का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है- हे माँ, इतनी जल्दी हमें छोड़कर कहाँ चली गयी? यह क्या हो गया? हा देवगण, हे ब्राह्मणों, आपके वे आशीर्वाद (चिरंजीवी होने के) कहाँ चले गये? प्राणों को धिक्कार है, अग्नि वज्र बनकर तुम्हारे शरीर पर गिरा और तुम्हारे स्नेह और दया से पूर्ण नेत्र भी भस्म हो गये। उच्च स्वर में रोने के कारण भर्राती हुई पुरवासी स्त्रियों की करुण ध्वनि चित्र में अंकित लोगों को भी रुला रही है तथा दीवारों को टुकड़े-टुकड़े किये जा रही है।

श्रीपति कवि का यह सवैया करुण रस का अच्छा उदाहरण है। इसमें भाई लक्ष्मण को शक्ति लगने पर भगवान राम के विलाप का वर्णन है-

मातु को मोह, न द्रोह विमातु को, सोच न तात के गात दहे को।

प्रान को छोभ न, बन्धु विछोह न, राज को लोभ न, मोद रहे को।

एते तै नेक न मानत ‘श्रीपति’, एते मैं सीय वियोग सहेको।

ता रनभूमि मैं राम कह्यो, मोहि सोच विभीषण भूप कहेको।।

अगले अंक में रौद्र और वीर रस का वर्णन किया जाएगा।

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12 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीय काव्यशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न रसों के संबंध में जानकारी प्रदान करता यह पोस्ट अपनी सार्थकता को सिद्ध करता है।बहुत ही ज्ञानपरक पोस्ट। अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा। सादर।

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  2. जो पोस्ट मैं लगाने वाला था उस पर तो आपने बहुत ही उम्दा पोस्ट प्रकाशित कर दी!
    कफी कुछ जानने को मिला हास्य और करुण रस के बारे में ।
    कल मैं शृंगार पर ही कुछ लिखने का मन बनाऊँगा!

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  3. उत्तम जानकारी लिए उम्दा पोस्ट.

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  4. हास्य और करुण रस पर उत्तम आलेख.

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  5. बहुत अच्छी जानकारी !


    -----------
    बस एक और हो जाये ....

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  6. एक उम्दा पोस्ट. आप का धन्यवाद

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  7. हम जिन रचनाओं को आसानी से पढकर उसके अर्थ समझने की चेष्टा करते हैं, उसके पीछे छिपे रसों का वर्णन आचार्य जी के माध्यम से सुनकर वही कविता नवीन प्रतीत होने लगती है!

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  8. भारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।

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  9. शास्त्र का रोचक प्रस्तुतीरण।
    शृंखला ज्ञानवर्धक है।
    आपका यह प्रयास हिन्दी साहित्य के लिए उपलब्धि है।

    आभार,

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  10. हास्य रस एवं करुण रस के बारे में जानकारी देनेवाला लेख
    प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद !

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  11. वह टूटे तरू की छूटी लता सी दलित भारत की विधवा है ....................................

    धन्यवाद श्रीमान जी .....

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