भारतीय काव्यशास्त्र :: रस सिद्धांत
आचार्य परशुराम राय
पिछले कई अंकों में रस सिद्धांत से सम्बन्धित आयामों की चर्चा की जा चुकी है। इस अंक में रसों के क्रम पर आचार्य अभिनवगुप्त के विचार और रसों का वर्णन किया जा रहा है।
आचार्य भरत ने एक कारिका में रसों क्रम इस प्रकार दिया है:- 1.शृंगार, 2. हास्य, 3. करुण, 4. रौद्र, 5. वीर, 6. भयानक, 7. वीभत्स और 8. अद्भुत। कारिका को आचार्य मम्मट ने भी काव्य-प्रकाश में यथावत उद्धृत किया है:-
शृंङ्गारहास्य करुण रौद्रवीरभयानका:।
वीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाटये रसा: स्मृता:॥
अर्थात् नाटक में शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत - आठ रस होते हैं।
काव्यशास्त्र ने नौवाँ शान्त रस अपने पूर्ववर्ती आचार्य उद्भट,आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त आदि आचार्यों की मान्यता के अनुसार माना है। इन रसों का क्रम उक्त ढंग से करने का औचित्य आचार्य अभिनवगुप्त ने आचार्य भरत द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र पर लिखी अपनी टीका अभिनवभारती में इस प्रकार दिया है:-
तत्र कामस्य सकलजातिसुलभतयात्यन्तपरिचितत्वेन सर्वान् प्रति हृद्यतेति पूर्वं शृंङ्गारः। तदनुगामी च हास्यः। निरपेक्षभावत्वात् तद्विपरीतस्ततःकरुणः। ततस्तन्निमित्तं रौद्रःष स चार्थप्रधानः। ततः कामार्थयोर्धर्ममूलत्वाद्वीरः। स हि धर्मप्रधानः। तस्य च भीताभयप्रदानसारत्वात्। तदनन्तरं भयानकः। तद्विभावसाधारण्यसम्भावनात्ततो बीभत्सः। वीरस्यपर्यन्तेऽद्भुतः। यद्वीरेण आक्षिप्तं फलमित्यनन्तरं तदुपादानम्। तथा च वक्ष्यते – ‘पर्यन्ते कर्त्तव्यो नित्यं रसोऽद्भुतः’ इति। ततस्त्रिवर्गात्मकप्रवृत्तिधर्मविपरीतनिवृत्तिधर्मात्मको मोक्षफलः शान्तः। तत्र स्वात्मावेशेन रसचर्वणा।
अर्थात् रति या काम की मूल (मुख्य) प्रवृत्ति सभी जातियों में अर्थात मनुष्य के अतिरिक्त वनस्पति सहित अन्य प्राणियों में भी पायी जाती है। अतएव सर्वप्रथम शृंगार रस का नाम लिया जाता है। इसका अनुगामी होने का कारण इसके बाद हास्य रस आता है। हास्य के विपरीत स्थिति में उपस्थित निरपेक्ष भाव के कारण इसके बाद करुण रस का स्थान आता है और इसका निमित्त रूप होने के कारण करुण के बाद रौद्र को रखा गया है। रौद्र रस अर्थ प्रधान है। इसके बाद काम और अर्थ का धर्ममूलक होने के कारण वीर रस को स्थान दिया गया है। इसमें भयाक्रान्त लोगों को अभय देना उद्दिष्ट है। इसलिए इसे धर्म प्रधान माना जाता है। इसके बाद इसका विरोधी होने के कारण भयानक रस आता है तथा भयानक रस के विभावों की समानता के कारण इसके बाद वीभत्स रस को रखा गया है। वीर के बाद अद्भुत रस आता है अर्थात् वीरता, शौर्य आदि अद्भुत रस के कारक होते हैं। किन्तु वीर रस के विरोधी रस भयानक और उससे सम्बन्धित वीभत्स के बाद अद्भुत रस को रखा गया है। तत्पश्चात् त्रिवर्ग - धर्म, अर्थ और काम की प्रवृत्तिधर्मिता के विपरीत,अर्थात् उक्त आठ रसों में तीनों वर्गों या पुरुषार्थों में प्रवृत्ति का भाव देखा जाता है। उसके विपरीत निवृत्तिधर्मी और मोक्षदायक शान्तरस आता है क्योंकि काव्य में इसका भी आस्वादन होता है (भले ही नाटक में न होता हो।
अब एक-एक करके सभी रसों का प्रतिपादन किया जा रहा है। उक्त क्रम में सर्वप्रथम शृंगार रस को लेते हैं।
जब नायक-नायिका आलम्बन व उद्दीपन विभाव, सम्बन्धित अनुभावों और संचारीभावों से परिपुष्ट होकर स्थायीभाव रति सक्रिय होता है, तो वह शृंगार रस होता है। शृंगार रस के दो भेद होते हैं - संयोग (संभोग) और विप्रलम्भ (वियोग)।
सर्वप्रथम संयोग शृंगार के लिए उदाहरण स्वरूप, निम्नलिखित श्लोक लेते हैं। इसे प्राय: अधिकांश आचार्यों ने अपने ग्रंथों में संभोग शृंगार के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है:-
शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किञ्चिच्छनै
र्निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निरवण्य पत्युर्मुखम्।
विस्रब्धं परिचुब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थलीं
लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता।।
यह श्लोक अमरुशतक का है। एक ही कमरे में पति-पत्नी एक-दूसरे के बगल में पड़ी चारपाई पर लेटे हैं। पत्नी घर को सूना देख बगल की चारपाई पर लेटे पति की चारपाई के पास जाती है। पति सोने का बहाना कर लेटा है। पत्नी अपने पति के मुख का चुम्बन करती है, जिसके कारण पति के कपोल पर रोमांच हो जाता है। क्योंकि वह सोया नहीं है, केवल सोने का बहाना कर रहा है। उसके रोमांच को देखकर नायिका समझ जाती है कि वे जग रहे हैं। इसलिए लज्जा से उसका मुख झुक जाता है और पति हँसते हुए उसे पकड़कर बहुत देर तक उसका चुम्बन करता है। यही इस श्लोक का भाव है।
इस श्लोक का बहुत सटीक पद्यानुवाद महाकवि बिहारी लाल ने अपने एक दोहे में किया है:-
हौं मिसहा सोयो समुझि, मुख चूम्यो ढिग जाय।
हँस्यो, खिसानी, गर गह्यो, रही गले लपटाय॥
इसमें नायक आलम्बन विभाव है, सूना घर उद्दीपन विभाव है। मुख देखना, चुम्बन आदि अनुभाव हैं और लज्जा-हास, हर्ष आदि व्यभिचारी भाव हैं। यहाँ नायिका की प्रथम अनुरक्ति नायक के प्रति दिखायी गयी है।
नीचे के श्लोक में नायिका के प्रति नायक की अनुरक्ति दिखायी गई हैं:-
त्वं मुग्धाक्षि विनैव कञ्चुलिकया धत्से मनोहारिणीं
लक्ष्मीमित्याभिधायिनि प्रियतमे तद्वीटिकासंस्पृशि
शय्योपान्तनिविष्टसस्मितसखीनेत्रोत्सवानन्दितो
निर्यातः शनकैरलीकवचनोपन्यासमालीजन:।
यह श्लोक भी आचार्य मम्मट ने अमरुशतक से उद्धृत किया है। इसमें नायक नायिका से कहता है - हे मोहित कर देने वाले नेत्रों वाली ! तुम तो बिना कंचुकी पहने ही सुन्दर लगती हो। ऐसा कहते हुए पास में बैठी नायिका को कंचुकी की गाँठ खोलने के लिए छूते देखकर वहाँ उपस्थित अन्य सखियाँ बहाना करके धीरे-धीरे कमरे से बाहर चली गयीं।
महाकवि बिहारी लाल ने इस श्लोक का हिन्दी पद्यानुवाद निम्नलिखित दोहे में इस प्रकार किया है:-
पति रति की बतिया करीं सखी लखी मुसुकाय।
कै कै सबै टला टली, अली चली सुख पाय॥
यहाँ (श्लोक में) मुग्धाक्षी नायिका आलम्बन विभाव है, नेत्रों का सौन्दर्य, अंग शोभा आदि उद्दीपन विभाव है। आभूषण, बीटिका - संस्पर्श अनुभाव है और उत्कंठा आदि व्यभिचारी भाव है।
अगले अंक में विप्रलम्भ शृंगार और उसके भेदों का वर्णन किया जायेगा।
रस सिद्धांत पर चर्चा के अंतर्गत आचार्य अभिनवगुप्त के विचार और रसों का वर्णन ज्ञानार्जन की दृष्टिकोण से अपने आप में पूर्ण है।सुझाव है -जिन लोगों ने इसका अध्ययन नही किया है,इसे नोट कर लें।
जवाब देंहटाएंविप्रल्ल्भ श्रृंगार संबंधी पोस्ट का इंतजार रहेगा।आपका यह पोस्ट सराहनीय है।धन्यवाद। सादर।
शृंङ्गारहास्य करुण रौद्रवीरभयानका:।
जवाब देंहटाएंवीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाटये रसा: स्मृता:॥
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बहुत ही उपयोगी रही यह पोस्ट!
आपने हिन्दी भाषा के संवर्धन में आपका योगदान सराहनीय है!
शृंङ्गारहास्य करुण रौद्रवीरभयानका:।
जवाब देंहटाएंवीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाटये रसा: स्मृता:॥
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बहुत ही उपयोगी रही यह पोस्ट!
हिन्दी भाषा के संवर्धन में आपका योगदान सराहनीय है!
बहुत उपयोगी और ग्यानवर्द्धक पोस्ट। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंjaankari achi lagi.
जवाब देंहटाएंप्रेम जी की बात उचित है और मुझपर यह सर्वथा लागू होती है.. एक बिल्कुल वैज्ञानिक एक साहित्यिक विषय पर!!
जवाब देंहटाएंजानकारीपरक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबेहद उपयोगी पोस्ट्……………आभार्।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
भारतीय काव्यशास्त्र में आचार्य भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित रस सिद्धांत .....में वर्णित रसों की संख्या और उनका विश्लेषण बहुत ज्ञानवर्धक रहा ....रस को काव्य की आत्मा मानने वाले आचार्यों में भरत का स्थान पहले आता है ..उसके बाद बाकी आचार्यों ने इसकी व्याख्या अपने अपने तरीके से की ...सारगर्भित पोस्ट के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक और जानकारी युक्त पोस्ट............ सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंभारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आपका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार
जानकारीपरक और दुर्लभ पोस्ट....... आभार
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों का प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएं@ वंदना जी,
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच में सम्मान देने के लिए आपका आभारी हूँ।
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जवाब देंहटाएंमनोज जी,
त्रुटि सुधार करें :
— स्थायिभाव को स्थायीभाव करें.
— अधिकाँश को बिना चन्द्र के लिखें, केवल अनुस्वार के साथ.
— लज्जा और हास के मध्य अर्ध-विराम लगाएँ.
रुचि से पढ़ा और आगे के भाग की प्रतीक्षा भी है.
आचार्य परशुराम जी को मेरा 'नमन' .... कहें.
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@ प्रतुल जी
जवाब देंहटाएंस्थायिभाव यदि एक शब्द के रूप में लिखा जाता है तो य पर हृस्व इ की मात्रा (यि) होनी चाहिए और यदि अलग-अलग लिखा जाए तो य पर दीर्घ ई की मात्रा (यी) लगेगी। वैसे आपका कहना सही है प्रायः हिंदी भाषी आजकल स्थाय़ीभाव ही लिखते है।
शेष टंकण संबन्धी त्रुटियाँ आपके सुझाव के अनुसार ठीक कर दी जाएंगी।
आपका आभार,
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जवाब देंहटाएंआचार्य जी, धन्यवाद जानकारी के लिये.
फिर भी मुझे कुछ शंका है उसका युक्तियुक्त समाधान करें :
मैं अब तक जानता था कि
— ईकारांत शब्द बहुवचन में इकारांत हो जाते हैं. यथा : भाई का भाइयों/ भाइयो. दवाई का दवाईयाँ संबंधी का सम्बन्धियों आदि.
इसी प्रकार ऊकारांत शब्द बहुवचन में उकारांत हो जाते हैं. यथा : झाडू का झाडुओं आदि .
— कई बार ईकारांत शब्द प्रत्यय के साथ मिलकर भी इकारांत होते देखे जाते हैं. यथा : स्थायी से स्थायित्व.
आचार्य जी, अति विनम्रता से एक प्रश्न कर रहा हूँ :
— क्या 'अव्ययी' शब्द को 'भाव' शब्द के साथ लिखते हुए भी अव्ययिभाव लिखा जाना चाहिए?
कृपया व्याकरण सम्मत समझायें.
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जवाब देंहटाएंजल्दबाजी में त्रुटि हो गयी :
दवाई का दवाइयाँ .......... समझें.
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@ प्रतुल जी,
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया है। इसे इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है - अव्ययीभाव में अव्यय संज्ञा है, जबकि स्थायिभाव में 'स्थायिन्' (पूर्व पद) विशेषण है। अव्ययीभाव का अर्थ - 'अव्यय सा हो जाना' है, जबकि स्थायिभाव का अर्थ - 'स्थायीरूप से रहने वाले भाव' है या वे भाव जो मानव प्रकृति में ही नहीं अन्य प्राणियों में भी स्थायी रूप में पाए जाते हैं। समस्त पद में 'स्थायिन्' शब्द में 'हस्तिन्' या 'करिन्' की तरह 'न्' हट जाता है। यदि 'हस्तिन्' और 'नक्षत्र' को समास रूप में लिखना होगा तो 'हस्तीनक्षत्र' नहीं 'हस्तिनक्षत्र' बनेगा। वैसे ही यहाँ 'स्थायिन्'और 'भाव' मिलकर समस्त रूप में 'स्थायिभाव' ही बनेगा।
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जवाब देंहटाएंआचार्य जी,
मुझे एक-एक क्षण भारी पड़ रहा था. आपने प्रतिटिप्पणी देकर न केवल मेरी शंका का समाधान किया अपितु भविष्य में मुझसे सीखने वाले विद्यार्थियों और साथियों को भी सही दिशा दे दी. मैं उपकृत हुआ.
वर्तमान के 'हिन्दी मानक ब्यूरो' द्वारा निर्धारित 'हिन्दी मानक व्याकरण' पर आपकी क्या राय है?
भविष्य में यदि कहीं उलझा तो अवश्य आपसे ही समाधान लूँगा.
एक निजी समस्या का निराकरण करें :
आचार्य जी, मैं रस-छंद-अलंकारों में रुचि रखता हूँ और अब वह रुचि अर्थोपार्जन और पारिवारिक उलझनों के चलते घटने की ओर है, मैं उसे जीवित रखना चाहता हूँ. साथ ही कुछ नवीन अध्याय भी जोड़ना चाहता हूँ.
क्या ब्लॉग-लेखन के ज़रिये ही अपनी दबी महत्वाकांक्षा को पूरा कर पाऊँगा.
— आपका स्मृति उपासक एक बलात शिष्य.
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जवाब देंहटाएं________ अभ्यास _____
— अव्ययीभाव में अव्यय संज्ञा है,
जबकि स्थायिभाव में 'स्थायिन्' (पूर्व पद) विशेषण है।
— अव्ययीभाव का अर्थ - 'अव्यय सा हो जाना' है. अव्ययी अर्थात नित्य या अक्षय रहने वाला. घट-बढ़ से रहित और आदि-अंत से रहित, सदा-सर्वदा रहने वाला, अविनाशी, विकारशून्य ['शिव', 'विष्णु' और 'परब्रह्म' वत] भाव.
— स्थायिभाव का अर्थ - 'स्थायी रूप से रहने वाले भाव' है या वे भाव जो मानव प्रकृति में ही नहीं अन्य प्राणियों में भी स्थायी रूप में पाए जाते हैं।
— समस्त पद में 'स्थायिन्' शब्द में 'हस्तिन्' या 'करिन्' की तरह 'न्' हट जाता है।
यदि 'हस्तिन्' और 'नक्षत्र' को समास रूप में लिखना होगा तो 'हस्तीनक्षत्र' नहीं 'हस्तिनक्षत्र' बनेगा।
— 'स्थायिन्' और 'भाव' मिलकर समस्त रूप में 'स्थायिभाव' ही बनता है।
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