सोमवार, 10 जनवरी 2011

इन दिनों …

इन दिनों …

IMG_0568मनोज कुमार

खुले मैदान में

जीभ लप-लपाते हुए

या बगल से सरककर जाते हुए

साँप नहीं दिखते

न ही फूल पर

बैठी या इठलाती

तितली

और न ही सुनाई पड़ती

बाग में

भौरों की गुनगुन

इन दिनों।

घरों की मुंडेरें क्या गायब हुईं

गौरैयों ने आना ही छोड़ दिया

बची है बारिश भी

केवल अहसास के लिए,

क्या करते मेढक

वे भी भूल गए टर्राना

जलहीन पोखर और ताल

निगल गए जोंकों को।

रोशनदानों पर

पक्षियों के घोंसले

नहीं मिलते अब,

टिड्डियाँ तो दिखती ही नहीं

गाय होकर रह गई है

मात्र एक पशु,

भूख से तड़पता आदमी

कबूतर के लिए दाना

कहाँ से लाए।

परम्पराएं

अंधविश्वास में

कैद होकर रह गईं,

संयुक्त परिवार

अभिशाप से लगने लगे

देने लगा सुकून

इकाई परिवार के दायरे में,

घर बनाने का शौक

बढ़ती आबादी

पेड़ों, तालाबों और झीलों की

हत्याकर।

घरों में मकड़ियाँ तो नहीं अब

पर मकड़जाल बहुत हैं,

नेवत नहीं पाते

मधुमक्खियों,

भौरों और तितलियों को।

किस्से और कहानियों में होगी

हरी-भरी धरती,

रंग बिरंगे पक्षी,

आदमी के चेहरे पर

नैसर्गिक हँसी-खुशी

और मेल-मिलाप ।

कट गए जंगल

चारो ओर बस कोलाहल

हवा में है धूल और धुआँ

सुनाई नहीं पड़ता

कलरव

नदी नाले क्या

बस जहर के दरिया हैं।

न हम आदिम रहे

न जंगली

बस आधुनिक हैं,

सभ्य हैं!

सभ्यता प्रगति पर है

इन दिनों!!

*****

43 टिप्‍पणियां:

  1. और उसका मूल्य चुका रहे हैं, प्रतिदिन।

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  2. हम सब इन समस्त परिवर्तित परिस्थितियों के लिए आंशिक या पूर्ण रूप से जिम्मेवार हैं। कालांतर में ये सारी बातें महज एक प्रश्न चिह्न बनकर ही रह जाएंगी । परिणामस्वरूप, लोगों को अपने घर में ही घर का निशां नही मिलेगा। अभिव्यक्ति का स्वरूप कुच सोचने के लिए हम सब को बरबस ही मजबूर करने मे सार्थक सिद्ध हुआ है। विचारणीय पोस्ट। इस नाचीज पर भी अपनी नजरें इनायत करें। सादर।

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  3. ... bahut sundar ... ek se badhakar ek ... behatreen / prasanshaneey rachanaayen !!

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  4. मनोज जी,
    सभ्यता के विकास की कहानी का दर्द आपने बड़ी ही संजीदगी से इस कविता में उकेरा है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  5. सभ्‍यता प्रगति पर है इन दिनों
    पर संस्‍कृति बिसर गयी।
    आदमी मैं बन कर रह गया
    हम न जाने कहाँ खो गया।
    खुबूरत संगमरमरी दीवार के मध्‍य
    आदमी एकांत में कम्‍प्‍यूटर के सहारे
    ढूंढ रहा है सकून और खोज रहा है
    मानवीय तन।

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  6. अभी भुगतना बाकी है ....शायद अति से कुछ सीख लें
    हार्दिक शुभकामनायें !

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  7. @ ajit gupta जी

    धन्यवाद मैम!
    कविता का ही पूरक है आपका काव्यात्मक विचार।

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  8. झकझोरती हुई कविता! सब कुछ अस्वाभाविक होता जा रहा है .जीवन की सहजता ग़ायब है ,आखिर यह अंधी दौड़ कब समाप्त होगी .इसका परिणाम क्या होगा यह सोचकर ही मन काँप उठता है .

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  9. अगर सभ्यता इसी तरह प्रगति पर रही तो हम फिर रहेंगे ही कहाँ ?????. लाजवाब लेखन कला का परिचय दे रही है आपकी ये प्रस्तुति.

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  10. सभ्यता की कितनी बड़ी कीमत चुकाई जा रही है इन दिनों .....आज की वीभत्स परिस्थितियों को बताती सुन्दर अभिव्यक्ति

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  11. sunder abhivaykti
    bahut sunder

    kabhi yha bhi aaye
    www.deepti09sharma.blogspot.com

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  12. आधुनिक विकृतियों के प्रति क्षोभ मुखरित है. सुन्दर कविता. धन्यवाद !

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  13. पूरा वर्तमान सामने ला खड़ा किया आपने .अपनी करनी का फल दिन प्रतिदिन भोग रहे हैं हम.
    बेहद प्रभावशाली रचना.

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  14. "घरों की मुंडेरें क्या गायब हुईं गौरैयों ने आना ही छोड़ दिया बची है बारिश भी केवल अहसास के लिए" . प्रकृति में भी आयें हैं ढेरों बदलाव और उसके कारणों को रेखांकित करती रचना.आजकल बच्चों को तस्वीरों से जानवरों,फूल और फलों की जानकारी मिलती है.परिवार के नम पर मम्मी-पापा से आगे फुलस्टाप.इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी ? समाज एक अराजक स्थिति की ओर बढ़ रहा है,पर उन कालिदासों का क्या करें जो उसी डाल को काटने पर आमादा हैं जिसपर वह बैठें हैं.सही कहा है "भूख से तड़पता आदमी कबूतर के लिए दाना कहाँ से लाए।"

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  15. बची है बारिश भी
    केवल अहसास के लिए,......
    ......और हम तरस रहे है
    पहली बारिश से उठे सौंधी खुशबु के लिए ।

    वर्तमान परिस्थितियों का आईना है आपकी कविता । आधुनिकता की दौड़ में आज-कल मनुष्य अपनी सभ्यता संस्कृति को भूलता जा रहा है या फिर परिस्थितियां उन्हें भूलने पर मजबूर कर रही है ।

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  16. अभी हमारी आने वाली पीढी भुगतेगी....
    बहुत सुंदर लिख धन्यवाद

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  17. मनोज जी, समाज की हर हलचल की आपने तस्‍वीर सी उकेर दी है। हार्दिक बधाई।

    ---------
    पति को वश में करने का उपाय।
    मासिक धर्म और उससे जुड़ी अवधारणाएं।

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  18. प्रकृति से जितना दूर होते जा रहे है उतना ही विनाश के नजदीक . अब भी समय है पर शायद हम पीछे मुड़ना नहीं चाहते . बेहतरीन प्रस्तुति . चित्रों ने भावों को और भी उकेरा है .

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  19. विकास की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है.... इसे साबित करती हुई सुंदर प्रस्तुति.

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  20. बहुत सुन्दर , पर करें क्या...कौन करे....कैसे करे..????

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  21. इन दिनों गिद्ध भी नहीं दीखते .शायद वो डर कर छुप गए इन्सान में छुपे गिद्धों से .

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  22. पूस का जाड़ा है जी, सभी बिलाये हुये हैँ!

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  23. प्राचीन समृद्ध सभ्यताएँ कहते हैं नदियों के किनारे पनपी थीं, नील नदी और सिंधु घाटी की सभ्यता.. जब नदियाँ नाले में तब्दील हो जाएँ और वो सब लुप्त हो जाएँ जिनका वर्णन आपने किया है तो बस एक काली सभ्यता जन्मेगी, जो दिख रही है!!
    बहुतही सम्वेदनशील कविता!!

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  24. sach is aadhunik hone ki bahut badi keemat chuka rahe hai ham....bahut sunder rachana...

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  25. बहुत मर्मस्पर्शी कविता लिखी है. किन्तु जानते हैं यह आने वाली पीढ़ियों का शायद मर्मस्पर्श न कर पाए. वे जानते ही न होंगे की उन्होंने क्या खोया है.
    घुघूती बासूती

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  26. प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों और बदलते जीवन मूल्यों के प्रति गंभीरता से सोचने को प्रेरित करती कविता.. यह आपके व्यापक सोच का द्योतक भी है..

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  27. विकास की अंधी दौड़ में हम प्राकृतिक संतुलन भूल चुके हैं। परिणाम स्वरुप प्रकृति का असंतुलित रुप मानव सभ्यता के लिए बड़ा ही भयावह होगा, इसमें संदेह नहीं। साधुवाद,

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  28. विकास के विद्रूप चेहरे को दर्शाती उत्तम रचना।
    बेहतरीन कविता के लिए मनोज जी को आभार

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  29. ye hamara vartman hai ,future me kya hoga pata nahi .jo bhi hoga hamari bhog lipsa ka parinam honga .

    shakun trivedi

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  30. @ आपने उस पीड़ा को व्यक्त कर दिया जो हर प्रकृतिप्रेमी की पीड़ा है.... इस कदर बदलाव का हामी कोई बनावटी जीवन जीने वाला ही होगा.
    सच में आपने अपने तमाम बिम्बों से हमारी संवेदना को झकझोर कर रख दिया... अब वह भी आक्रोश में विपरीत लक्षणा में प्रतिउत्तर देने का अभ्यास करना चाहती है..
    ______________

    खुले मैदान में
    जीभ लपलपाते हुए
    या बगल से सरककर जाते हुए
    साँप नहीं दिखते
    तो न दिखें
    पर उस जैसे स्वभाव के लोग
    नज़र आने लगे हैं.... सर. क़. कार में
    क्या आपको नहीं दिखता
    फन फैलाये अनियंत्रित महंगाई का जीभ लपलपाना
    तमाम करों से निर्धन कमज़ोर का निगल जाना.
    क्या ज़रूरत है आज
    बनावटी साँपों की
    जो अपनी सालाना केंचुल तक कंटीली झाड़ियों में छोड़ आते हैं..
    ओरिजनल साँप तो कम-स-कम पाँच वर्ष तक अपनी पहचान बरकरार रखते हैं..
    बिना भूख के भी डसते हैं, निगलते हैं. और स्विस खातों में उनका हिसाब रखते हैं...

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  31. @
    फूल पर बैठी तितली
    बाग़ में गुनगुन करते भौंरे
    नहीं दिखते ... तो न दिखें...
    अब देखने की फुरसत है किसे ?
    वैसे भी 'तितलियों के जन्म स्थान'
    सिमेंटिड बंगलों में नहीं होते..
    वे तो पनपते हैं...
    पेड़ के सड़े-गले तनों के बीच.
    जिन्हें सुन्दर शहरी बगीचों में मौजूद रहने का हक़ नहीं.
    आज सेंट परफ्यूम की गंध से कमतर लगती है फूलों की गंध...
    बची-खुची तितलियाँ भी फूलों का मोह छोड़ अब पीछा करने लगी हैं..
    निरावृत सौन्दर्य का .... पुरुषों की दृष्टि रूप में.
    भौंरों ने गुनगुनाना छोड़ दिया है बेवजह ...
    युवाओं के कानों पर हेडफोन लगा देखकर.

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  32. सही कहा सभ्यता प्रगति पर है जो लील रही है संस्कृति के मायने…………यथार्थपरक रचना।

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  33. @ जब से गायब हुई हैं मुंडेरें
    घरों की...
    न कौवे आते हैं न भिखारी.
    और न ही चहकती है आने से पहले गौरैया
    या कहूँ ... मनमौजी वाले जीव द्वार पर नहीं दिखते.
    वे घबराते हैं... एक्सिस लेने से घर के भीतर.
    एक अनजान अपमान उन्हें रोक देता है.
    कहीं कोई द्वार-छिद्र से देखकर
    द्वार ही न खोले और कह दे... आगे बढ़ो बाबा.
    मुंडेरों का न होना ... एक सुरक्षा कवच है/ सेक्योरिटी है.
    जिसमें कोई हमसे जबरन नहीं मिल सकता...
    हमारे प्री-प्लांड अपोइन्टमेंट वाले शेड्यूल को बिगाड़ नहीं सकता.
    गौरैया न सही ... भंवरिया (भंवरी) ही सही...
    हमारे भीतर छिपे मदेरणा को गुपचुप लोकगीत सुनाने
    मुंडेर रहित आचरण को देखकर ही आया करती हैं.
    आदर्शों की बारिश
    केवल दिखावे भर को है.
    व्यवहार के मेंढक
    आदर्शों को (के बादल) देखकर नहीं टर्राते
    मोर्डन एजुकेशन ने ऐसा करना
    बेकवर्ड दिखने की निशानी माना है.
    संवेदन-शून्य हृदयों से
    गायब हो चुकी है
    प्राकृतिक मानवीय ममता.

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  34. न हम आदिम रहे
    न जंगली
    बस आधुनिक हैं,
    सभ्य हैं!
    सभ्यता प्रगति पर है
    इन दिनों!!


    @ अंत भी इतना जबरदस्त है कि बिना वाह किये रह नहीं पा रहा हूँ.. मनोज जी आपकी यह रचना कालजयी है... पूरी-की-पूरी dil में utar gayii.
    smay milte ही lautoongaa.

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  35. वर्तमान की तमाम विसंगतियाँ कितने प्रभावशाली तरीके से चित्रित हुई हैं आदरणीय मनोज भईया आपकी इस उम्दा रचना में....
    सभ्यता प्रगति पर है.... वाह !
    बहुत सुन्दर रचना... सादर.

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  36. आज के जीवन का यही सच है जिसका दिन प्रतिदिन फल भोग रहे हैं और मूल्य चुका रहे हैं हम॥न जाने कहाँ जा रहे हैं हम ....

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  37. "सभ्यता प्रगति पर है

    इन दिनों!!"

    बहुत करारा कटाक्ष है। स्वयं अपने विनाश की कहानी रचता मनुष्य अपनी मेधा पर इतराता नहीं अघाता !

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  38. अति उत्तम मार्मिक प्रस्तुति है आपकी.
    यथार्थ का कटु चित्रण करती हुई.
    आभार.

    आनेवाले नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार है.
    आपके ईष्ट वीर हनुमान हैं.
    उन्ही का बुलावा है.

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  39. sab kuch chin gaya aur ham sabhy ho gaye...bahut saargarbhit rachna

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।