नवगीत
हरीश प्रकाश गुप्त
ठिठुर रही धूप।
सुविधा के मद में
नैतिकता
होम हुई,
अनाचारों के अवर्त्त
आयाम
निगल गए,
झूठ हुए सब सच
चारो ओर मची
सत्ता की लूट।
आशाएं बोझ हुईं
अबला सा दर्द -
थकन,
आँचल की आस में
अस्मत
लिए शेष,
छुपी खड़ी कोने में
लुटी पिटी
बेचारी सी धूप।
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टुकड़े-टुकड़े से शब्द, सघन भाव.
जवाब देंहटाएंआशाएं बोझ हुईं
जवाब देंहटाएंअबला सा दर्द -
थकन,
आँचल की आस में
अस्मत
लिए शेष,
छुपी खड़ी कोने में
लुटी पिटी
बेचारी सी धूप।
जीवन की गहरी अभिव्यक्ति की संवाहक हैं ये पंक्तियाँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सुविधा के मद में
जवाब देंहटाएंनैतिकता
होम हुई,
वर्तमान हालत का सटीक चित्रण ...सुबिधाओं ने हमें इस कदर गुलाम बना दिया है कि हम अनैतिक आचरण करने से भी नहीं कतराते .....बहुत सुंदर
जाड़े की धूप के माध्यम से सरकारी तंत्र पर करारा व्यंग्य चमत्कृत कर देता है। प्रथम दो पंक्तियाँ निम्निखित पंक्ति की याद दिला गया-
जवाब देंहटाएंदेखि दुपहरी जेठ की, छाँहो चाहत छाँह।
ठिठुर रही धूप - बहुत आकर्षक विम्ब का प्रयोग।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
आभार,
नैतिकता में कुछ कैलोरी होती हैं; लगता है उन्ही को तापना है।
जवाब देंहटाएंशेष तो बस शब्द हैं। अभ्यास कर उनको साधना है!
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बहुत सुन्दर कविता।
आशाएं बोझ हुईं अबला सा दर्द - थकन, आँचल की आस में अस्मत लिए शेष, छुपी खड़ी कोने में लुटी पिटी बेचारी सी धूप।
जवाब देंहटाएंएक बेहद गहन और उम्दा अभिव्यक्ति। ज़िन्दगी का यथार्थ प्रस्तुत करती हुई।
bahut accha laga rachna padhkar !
जवाब देंहटाएं• बिल्कुल नए सोच और नए सवालों के साथ सरकारी तंत्र की मौजूदा जटिलताओं को उजागर किया है
जवाब देंहटाएं• कोरे काग़ज़ सा बदन, हाथ लगाए कौन,
मन में बातें सैंकड़ों, पर होंठों पर मौन।
बहुत सुन्दर बिम्ब ..उम्दा कविता.
जवाब देंहटाएंआशाएं बोझ हुईं
जवाब देंहटाएंअबला सा दर्द -
थकन,
आँचल की आस में
अस्मत
लिए शेष,
छुपी खड़ी कोने में
लुटी पिटी
बेचारी सी धूप।
aah..... क्या यही है आम आदमी की tasweer. bahut sundar rachna harishjee........ ! ek-ek shabd bol rahe hain !! kuchh takniki asuvidha ke kaaran roman me tippani deni pad rahee hai, maaf karenge.
धूप का यह भी एक पक्ष!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं'ठिठुर रही धूप' से लेकर 'छुपी खड़ी कोने में लुटी पिटी बेचारी सी धूप' तक बिम्ब का बिलकुल अलग अर्थों में नया सा प्रयोग हुआ है नवगीत में। बहुत कम शब्दों में अपरिमित अर्थ भरे हैं हरीश जी ने इस नवगीत में और यही उनके गीतों की विशेषता भी है।
गहन अर्थ वाले इस नवगीत के लिए मनोज जी और हरीश जी, आप दोनो का आभारी हूँ।
बहुत सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंekdam thitoor rahi dhoop.naye bhaw ki kavita achchi lagi.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंआज प्रकृति भी अबला हो रही है तो फिर अबलाओं की क्या बिसात होगी ?
तार-तार होती अबला , छुप-छुप के रोती होगी।
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यथार्थ पर चोट करते तिक्त भाव।
जवाब देंहटाएंसुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली ।
जवाब देंहटाएंभावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज ।
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर सम्मान प्रदान करने के लिए आपका आभारी हूँ।
अपने समस्त पाठकों की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंवाह! क्या बात है! बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंसुन्दर ...
जवाब देंहटाएंसक्षम ....
भावपूर्ण ........नवगीत |
बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंशब्दों और भावनाओं को बहुत खूबसूरती से पिरोया है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता, साथ ही अदभुत तस्वीर वृक्ष में स्थापित/प्रतिबिम्बित स्त्री....सुन्दर
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