-- करण समस्तीपुरी
हमारे ब्लॉग के पांच सौवीं पोस्ट के उपलक्ष्य में आपका अभिनन्दन है। यह सफ़र इतना आसां न होता गर आप न होते। आज का देसिल बयना आपके प्यार और स्नेह के नाम !!
आह.... ई सर्दी तो बड़ा बेदर्दी है मगर लगता है कि रेवाखंड का यौवन लौट आया है। बीघा के बीघा गदराये सरसों के पौधों ने धरती को कुसुम रंग चादर ओढा दिया है। देर सुबह तक कुहासा का आवरण कनिया (नव-वधु) के घूँघट की तरह पृथ्वी के चेहरे पर झुका रहता है। धुन्ध को चीर कर सुरुजदेव ऐसे झाँकते हैं जैसे दुल्हन के घूँघट के नीचे से बिंदी चमक रही हो।
दोपहर पता नहीं.... आज सांझ पहले आ गयी है। गाँव के छप्परों से धुंआ उठने लगा है। मवेशियों की पीठ पर जूट की चटाइयां बंध गयी हैं। टुन ... टुन.... टुनुन.... टुन.... ! बछिया को चाट रही कबरी गाय के गले की घंटी रह-रह कर सांझ की निःशब्दता तोड़ देते हैं। दोनों माँ-बेटी रह-रह कर पूँछ पटक देती है। कूँ.... कूँ.... घूड़े की की गर्म राख पर दूम दबा कर बैठा झबरा कुत्ता खुले बदन माघ से लड़ रहा है। धुक्कन मामू ने बड़े सिनेह से घूरन काका को बुलाया, "आओ भैय्या ! बड़ी ठंडी है। हाथ-पैर सेद लो.... !"
धुक्कन मामू के घूड़ा तर घूरन काका बीड़ी सुलगा रहे हैं। धुक्कन मामू सोंट लगाते-लगाते खांस भी पड़ते हैं। धीरे-धीरे बातो हो रही, "ससुर कमाल शीतलहरी है.... तम्बाकू झरक गया.... आलू में भी पाला मारेगा।" घूरन काका भी दही में सही लगाते हैं, "अरे घास-पात तक ही रहे तो कौनो बात नहीं... इहाँ तो गाय-गोरु और आदमी के जान तक बन आयी है।"
घूरन काका और धुक्कन मामू की हंसी-ठिठोली टोला-फेमस है। दुन्नु हैं एका पर एक। क्षणै मुस्की... क्षणै कुश्ती। टोला-टप्पर के बाल-बुदरुक (बच्चा) सब को उ दोनों का संवाद सुनते नहीं अघाता है। हालांकि बड़े-बुजरुग भी इनके हंसी में मश्खरी का रस-चुटकी लेने से बाज नहीं आते हैं।
बात आगे बढ़ती है। धुक्कन मामू कहते हैं, "घूरन बाबू ! कैसे कटेगा ई शीतलहरी.... ? ससुर रात भर हाड़ कंपकंपाते रहता है।" बीड़ी का धुंआ उगलते हुए काका बोले, "कटेगा कैसे.... ? पछिला साल जैसे फिर से बादामी लाल की मुर्गी और जट्टा झा का खस्सी उड़ा लो... ससुर उसी के गर्मी पर पखवारा तो कट ही जाए... ! फिर मकर संक्रांति का चिउरा-दही खा के टनटना जाना।"
धुक्कन मामू तनिक शरमा के बोले, "का घूरन बाबू ! आप भी ऐसन छिछोला मजाक करते हैं.... ससुर दीवारो के कान होता है। कोई सुन-उन लिया तो खा-म-खा में पंचायत बैठ जाए... हरि बोल।" घूरन काका थोड़ा और लहरा दिए थे, "मार साले.... ई मजाक कर रहे हैं.... चिकनपुर वाली तोहे ना धरी थी बदमिया की मुर्गी उड़ाए में ?"
धुक्कन मामू तिलमिलाए, "हमें काहे कोई धरेगी.... ?" घूरन काका भी तरके नमक मसाला मार दिए, "अच्छा तोहे रंगे हाथ न धरी रही तो उसे पचटकिया काहे पकराय रहे थे....?" धुक्कन मामू बिदक के इधर-उधर देखे फिर बोले, "चुप करौ भैय्या... कहीं हमरा मुँह खुल गया तो.... तोहरी करनी सगर उजागर हो जायेगी।"
"हमरी का करनी.... ? हम कौन चोरी किये....?" घूरन काका तमक के बोले थे। धुक्कन मामू भी छकाने के मूड में आ गए थे, "अच्छा चोरी नहीं किये थे मगर उ मुसम्मात रजिया के अंगिया-झुल्ला काहे दिलवाए रहे.... ? सुना था खादी भण्डार वाले भी उ जोड़ी के तलाश में थे.... !"
तभी से मामू को छेड़ रहे थे तो बड़ा मजा आ रहा था। अपनी बरी में घूरन काका तुरत बमक गए, "देख धुकना... ! ज्यादा आग उगलेगा न तो लोल (होंठ) दाग (जला) देंगे।" मामू भी कहाँ चूकने वाले, "कौनो झूठ बोलें तब तो लोल दागोगे.... मगर ई बताओ भैय्या कि मजूरनी को मन भर बाजरा काहे दे दिए रहे गए साल... ?"
घूरन काका तो जत्थे से उखर गए, "मार खच्चर.... अपने खानदान के तरह छिनाल समझ रखा है का.... ?" धुक्कन मामू तली दिए जा रहे थे, "हाँ-हाँ भैय्या... हम भी देखे हैं... तोहरे खानदान में कैसन-कैसन सूरमा पैदा हुए रहे.... ! तोहरे काका न मोगलिया को सबा बीघा चास लिख दिए रहे....?"
बाप रे बाप... ! धुक्कन मामू तो बस मजाक का जवाब दे रहे थे मगर घूरन काका तो आग-बबूला हो गए, "मुँह संभाल धुकना वरना सच में लोल दाग देंगे....!" धुक्कन मामू भी जरा ताव दिए, "अच्छा.... ! जरा आजमा ही लो। तोहरे से कम खाए-पीये हैं का.... ?"
पता नहीं घूरन काका को कौन सुर चढ़ा.... ! आव देखे न ताव.... झट से घूड़ा से एगो लुकाठी (अंगारा) निकाले और चट से सटा दिए धुक्कन मामू के होंठ में.... "ले... स्स्स्सा..... ला....... !"
"अरे बाप रे... दौड़ो हो... सुखाई, लंगरु.... चम्पा लाल..... जन्झा..... अरे मार दिया रे.... अरे जलाय दिया रे.... !" मिनिट भर में पूरा टोला इकठ्ठा होय गया। आहि तोरी के धुक्कन मामू छटपटा रहे हैं और घूरन काका बगल में खड़े रौब से कलमा पढ़ रहे हैं, "आजी पाजी... पितिया से ..... ! हमरे आगे का पैदाइश हमरे बाबा-पुरखा को बोलेगा.... लो बोलो ..... !"
घुघुनी लाल तड़प कर बोले, "अरे ई सब का हुआ... ? इसे जला कैसे....?" फिर बेचारे धुक्कन मामू सारा हाल सुनाये। घुघनी लाल की भौंहे फड़कने लगी, "मार दगाबाज कहीं के.... ! इसी को कहते हैं, 'जिसकी आग तापे उसी का होंठ दागे..... !' बताओ तो ! बेचारा धुक्कन इनने आदर से बोला के आग तपाया, बीड़ी पिलाया और ई घूरना उसी का होंठ दाग दिया.... ! राम कहो... ! अब किसी का भला नहीं करना चाहिए..... !!"
"ही...हे....हे...हे.... ! का कहे घुघुनी ताऊ.... जिसके आग तापे उसी के होंठ दागे.... !" चौबन्नी लाल मचल के बोला था। घुघुनी लाल बोले, "और नहीं तो का... ? देखो.... ! इहाँ यही हुआ न.... घुरना शीत से काँप रहा था धुक्कन लाल बुलाया और ई उसी को सबक सिखा गया.... ! मतलब जो तुम्हारा भला किया तुम उसी को नुकशान पहुंचा दिए.... !"
"हाँ सो तो है..... !" घूरन काका को छोड़ कर सब एक्कहि साथ बोल पड़े थे, "जिसकी आग तापे उसी की होंठ दागे !"
शतकीय बधाई ,रचना सौवे स्कोर लायक है !
जवाब देंहटाएं500वीं पोस्ट के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंपोस्ट स्तरीय है!
कन भाई,
जवाब देंहटाएंतोहार देशिल बयना के वारे में कुछ कहे में सकुचात बानी। गांव,नाद पर दू बैलन के जोड़ी और आग के दृश्य देखकर मन में अचछा भाव आवत बा। एकरा पर तो सहस्त्रो महाकाव्य के रचना हो सकेला। नया साल मुबारक।लगे रहो करन भाई।
... badhaai va shubhakaamanaayen !!
जवाब देंहटाएंवाह! करन जी,
जवाब देंहटाएंइस बार के देसिल बयना में इतनी आग नहीं होती तो पता नहीं क्या होता !
आपने तो सर्दी का इतना जीवंत चित्र उकेरा है कि बस पढने भर से ही ठण्ड का अहसास होने लग रहा है !
और जहाँ तक रही बात कहावत की, "'जिसकी आग तापे उसी का होंठ दागे..... !"
तो आज के ज़माने का यही तो सच है ..
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सही बात है जिस थाली मे खाये उसमे ही छेद करे--- इस कहावत से मिलता है अर्थ। 500वीं पोस्ट और 9000 से ऊपर टिप्पणिओं के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों को हृदय से धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंपहिने त पाँच सौवां पोस्ट के लिए बधाई स्वीकारी।
जवाब देंहटाएंदिल्ली मे जो हाड़ कपाने वाला सर्दी है उसके हिसाब से जरूरी पोस्ट के लिए आभार।
एहि बेर का देसिल बयना पढि़ के त हमको जैनेेंद्र कुमार स्मरण हो आए। हिंदी में जो कथा शिल्प उनकी थी, वैेसा ही ठेठ देशज भाषा मे करण जी देसिल बयान मे परोसते हैं। लिखता त बहुतो लोक है, लेकिन अइसन कहाँ हो पाता है? का तरीका ह ै इसका करण बाबू....देसिल बयना पढि़ क त अइसन लगता है कि सब किछु आँखि कें सोझाँ में हो रहा है। सर्दी में गप्प सरका, आग, सब किछु का समीचीन प्रयोग....
हमरा मन त गदगद हो गया।
सुभाष चंद्र , नई दिल्ली
पाँचसौवीं पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार कर माँ लोक-भारती का भंडार इसी प्रकार भरते रहें !
जवाब देंहटाएंFith century k liye apsabi ko bahot sari subhkamnayen..
जवाब देंहटाएंKaran Ji..Bahot acha likha hai humesa ki tarah...thanks..
जाड़े के मौसम का और उसका मज़ा लेते लोगों का स्वाभाविक चित्रण पढ़कर वाक़ई मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंcongrats...
जवाब देंहटाएंअभी आये पाठकों को भी हृदय से धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंकरन जे सौवी पोस्ट पर हार्दिक शुभकामना.. इस मील के पत्थर को याद रखियेगा आगे निकल जाने के बाद... बहुत दिन से हमको गाँव का घूड याद आ रहा था.. वैसे गर्मी और कहाँ साथ में पांच लोगों के साथ बैठना और बगल में रेडियो पर लोक संगीत का चलना... सुन्दर पोस्ट !
जवाब देंहटाएं500वीं पोस्ट के लिए बधाई...
जवाब देंहटाएं500 वीं पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई। बहुत अच्छा लग रहा है। यह यात्रा ऐसे ही चलती रहे।
जवाब देंहटाएंबाप रे!पाँच सेंचुरी!! बधाई हो... ब्ळॉग जगत के ब्रैडमैन कहें कि सचिन.. जो हो बधाई!!
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना अपना रंग में है.. लेकिन कहीं कुछ न कुछ खटक रहा है करन बाबू!! चलिये बधाई सुईकारिये और जारी रखिये!!
करण भइया ये 500वीं पोस्ट आपके हाथ लगी. क्या बात है. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना करण जी। 500वीं पोस्ट के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएं५००वीं पोस्ट की बधाई , एकदम मस्त पोस्ट है ।
जवाब देंहटाएंsachin ka rekard tod rahal ba----
जवाब देंहटाएंbadhai ho---
ठंड और घूर के ईर्द-गिर्द वार्तालाप का दृश्य तो आपने अच्छा खींचा है, पर इसमें करण छाप बुनावट का अभाव दिखा।
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