रविवार, 9 जनवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र :: रस-सिद्धांत

भारतीय काव्यशास्त्र - रस-सिद्धांत

-आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में रस सिद्धांत पर चर्चा हुई थी। इस अंक में भी रस-सिद्धांत पर कुछ विशेष चर्चा ही अभीष्ट है।

मूल रसों के सिद्धांत से सम्बन्धित कुछ अन्य आचार्यों के मत यहाँ चर्चा हेतु लिए जा रहे हैं। आचार्य धनंजय और धनिक आदि आचार्यों द्वारा मुख्य चार रसों का सिद्धांत रस-सम्प्रदाय के आदि आचार्य भरत के मत के ही आधार पर प्रतिपादित किया गया है। क्योंकि आचार्य धनंजय ने आचार्य भरत की एक कारिका अपने ग्रंथ दशरूपक में यथावत ले ली है। आचार्य भरत भी शृंगार, रौद्र, वीर और वीभत्स चार रसों को ही प्रधान मानते हैं और शेष चार रसों की उत्पत्ति इन्हीं से मानते हैं -

शृङ्गाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो रस:।

वीराच्चैवाद्भुतोपत्ति बीभत्साच्च भयानक:॥

शृङ्गारानुकृतिर्या तु स हास्यस्तु प्रकीर्तित:।

रौद्रस्यैव च यत्कर्म स ज्ञेयो करुणो रस:।

वीरस्यापि च यत्कर्म सोऽद्भुतः परिकीर्तित:।

बीभत्सदर्शनं ज्ञेय: स तु भयानक:॥

यहाँ द्रष्टव्य है कि नाट्यशास्त्र के सभी प्रणेता या आचार्य प्राय: आठ रसों को ही मानते हैं। आचार्य मम्मट भी नाटक में आठ रस ही मानते हैं। (वैसे यह कारिका भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से आचार्य मम्मट ने यथावत ले लिया है)

शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानका:।

बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसा: स्मृता:॥

नौवाँ शान्त रस नाटक में स्वीकृत नहीं है। इसकी स्थिति काव्य में ही मानी गयी है। प्राचीन आचार्य नाटक में आठ रसों की स्थिति ही स्वीकार करते हैं। शान्त रस को रस न मानने के पीछे निम्नलिखित मत या तर्क दिए जाते हैं:-

1. शान्तरस को अभिनय द्वारा प्रदर्शित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका स्यायिभाव 'शम' या 'निर्वेद' पूर्णतया निवृत्तिरूप है, जबकि नाटक में प्रवृत्तियों का अभिनय किया जाता है। निवृत्तिरूप शम या निर्वेद अभिनेय नहीं हैं।

2. यद्यपि कि आचार्य भरत ने शान्त रस की चर्चा की है, लेकिन इसका लक्षण नहीं दिया है और न ही इसके अनुभाव आदि का विवरण दिया है।

3. अनादिकाल से चल रहे राग-द्वेष आदि के संस्कारों का सर्वथा रूप से विनाश नहीं हो सकता, अतएव शान्त रस की स्थिति असम्भव है।

4. कुछ विचारक वीर, बीभत्स आदि रसों में ही इसका अन्तर्भाव कर लेने की बात करते हैं।

अभिनवभारती टीका सहित भरत नाट्यशास्त्र के दूसरे संस्करण के सम्पादक श्री रामस्वामी शास्त्री महोदय लिखते हैं कि शान्त रस की सर्वप्रथम स्थापना नाट्यशास्त्र के टीकाकार आचार्य उद्भट ने अपने ग्रंथ 'काव्यलंकार-संग्रह' में की है। तत्पश्चात् आचार्य आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त आदि आचार्यों ने बड़े ही विस्तार से शांतरस की चर्चा करते हुए इसकी स्थापना की है। आचार्य अभिनवगुप्त ने तो शांत रस की लगभग सौ पृष्ठों में चर्चा की है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि नाटक में अभिनय की अक्षमता को ध्यान में रखते हुए शांत रस को रस न मानकर केवल आठ रसों की स्थिति बतायी गई है। जबकि काव्य में उन आठ रसों के अतिरिक्त शांत रस को नौवाँ रस माना गया है।

उपर्युक्त नौ रसों के बाद दसवें रस के रूप में भक्ति रस माना गया है। वैसे इसकी स्थिति काव्यशास्त्री आध्यात्मिक क्षेत्र में या धर्म के क्षेत्र में ही मानते हैं, साहित्य में नहीं। काव्यशास्त्र में इसकी गणना देव विषयक रति के भाव-रूप में की गई है। इस रस के अधिष्ठाता आचार्य रूपगोस्वामी हैं। अपने ग्रंथ 'भक्तिरसामृतसिन्धु' एवं 'उज्जवल नीलमणि' में इन्होंने भक्तिरस का विवेचन बड़े ही विस्तार से किया है। ये भी काव्यशास्त्रियों की तरह इसे भाव तो मानते हैं लेकिन इसका स्थायिभाव मात्र कृष्ण विषयक रति ही मानते हैं क्योंकि वे कृष्ण को साक्षात् भगवान मानते हैं। इसीलिए वे इसे देव विषयक रति भाव से अलग मानते हैं, अतएव भक्तिरस को एक स्वतंत्र रस मानते हैं। वे कृष्ण को आलम्बन विभाव, भक्त समागम, तीर्थयात्रा, नदी या एकान्त पवित्र स्थल को उद्दीपन विभाव तथा भगवन्नाम कीर्तन, गद्गद होना, अश्रुप्रवाह, नाचना, गाना, कभी हँसना - कभी रोना, रोमांच आदि अनुभाव को मानते हैं तथा मति, ईर्ष्या, वितर्क आदि व्यभिचारी भाव।

कुछ आचार्य भक्ति रस के अतिरिक्त वात्सल्य को भी एक अलग रस मानते हैं। आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ ‘साहित्यदर्पण में इसे एक स्वतंत्र रस के रूप में प्रतिष्ठित किया है। छोटों के प्रति 'स्नेह' इसका स्थायिभाव माना गया है। छोटे बच्चे या व्यक्ति जिनके प्रति स्नेह दिखता है, वे आलम्बन विभाव होते हैं। बच्चों की तोतली बोली, सुन्दरता, शरारतें, क्रीड़ा, जिद आदि उद्दीपन विभाव हैं। स्नेह से बच्चों को गोद में उठा लेना, आलिंगन, चुम्बन, उन्हें मनाना आदि व्यभिचारी भाव हैं।

किन्तु अधिकतर काव्यशास्त्री 'भक्ति' और 'वात्सल्य' को स्वतंत्र रस नहीं मानते। क्योंकि इन रसों के कोई मूल स्थायिभाव नहीं हैं, बल्कि स्नेह या रति के ही रूपान्तर मात्र हैं। बड़ों का छोटे लोगों के प्रति स्नेह वात्सल्य कहलाता है, वहीं छोटे लोगों का बड़े लोगों के प्रति स्नेह 'भक्ति' या 'श्रद्धा' के नाम से जाना जाता है। वैसे ही समवयस्क लोगों का आपसी प्रेम या स्नेह 'मैत्री' कहलाता है। इस प्रकार ये सब 'रति' के ही रूपान्तर मात्र हैं। इसलिए काव्यशास्त्र के अनुसार 'भक्ति' और 'वात्सल्य' दोनों को भाव माना जाता है, स्वतंत्र रस नहीं।

इसके अतिरिक्त कुछ आचार्य एक ही रस-विशेष को मूल रस मानते हैं। इस सम्बन्ध में चार आचार्यों के विचार महत्वपूर्ण हैं। सर्वप्रथम लेते हैं महाकवि भवभूति को उन्होंने अपने नाटक 'उत्तररामचरितम्' में करुण रस को ही मूल रस माना है और शेष रसों को जल में उठती तरंगों के सदृश कहा है अर्थात् तरंगे अलग-अलग दिखती हैं लेकिन उनमें जैसे मूल रूप से जल ही रहता है वैसे ही सभी रसों के मूल में करुण रस ही है।

एको रस: करुण एवं निमित्तभेदाद्

भिन्न: पृथगिवाश्रयते विवर्तान्।

आवर्त बुद्बुदतरङगमयान् विकारान्

अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम्।

इसी प्रकार भोजराज अपने ग्रंथ 'शृङ्गारप्रकाश' में शृंगार रस को ही मूल रस मानते हैं।

शृङ्गारवीरकरुणाद्भुतरौद्रहास्यबीभत्सवत्सलभयानकशान्तनाम्न:।

आम्नासिषुर्दश रसान् सुधियो वयं तु शृङ्गारमेव रसनाद् रसमामनाम:॥

जबकि आचार्य विश्वनाथ अद्भुत रस को मूल रस और शेष रसों को उससे उत्पन्न मानते हैं। ये अपने पूर्वज आचार्य नारायण पंडित के सिद्धांत को पुष्ट करते हुए लिखते हैं:-

रसे सारश्चमत्कार: सर्वत्राप्यनुभूयते।

तच्चमत्कारसारत्वात् सर्वत्राप्यद्भुतो रसः॥

तस्मादद्भुतमेवाह कृति नारायणो रस:।

आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार शांत रस ही मूल रस है। भरतनाट्यसूत्र पर अपनी टीका 'अभिनवभारती' में इसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं:-

स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद् भाव: प्रवर्तते।

पुनर्निमित्तापाये च शान्त एवोपलीयते॥

अगले अंक में रसों के क्रम के विषय में आचार्यों के मत और रसों के उदाहरण सहित लक्षण दिए जाएंगे।

16 टिप्‍पणियां:

  1. रस सिद्धांत पर संक्षिप्त चर्चा अच्छी लगी।मेरे लिए यह पोस्ट पुनरावृति का कार्य कर रहा है। आचार्य परशुराम जी, आपकी यह साहित्यिक सेवा वास्तव में प्रशंसनीय है।मनोज कुमार जी भी इसके लिए बधाई के पात्र हैं। सादर।

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  2. मनोज जी आप हिंदी साहित्य की जो सेवा कर रहे है वह बहुत ही सुंदर और महान कार्य है और अंतरजाल पर अनुपलब्ध भी. इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें धन्यबाद.

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  3. भाई मनोज जी इस अनुपम साहित्य सेवा के लिए आप को और आचार्य परशुराम राय जी को सादर अभिवादन|

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  4. रस सिद्धांत पर रोचक विश्लेषण ... बहुत बहुत धन्यवाद ....

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  5. प्रतिक्रिया तो बस संकेत मात्र है. दरअसल इस पोस्ट को पढ़कर आने वाला आनंद तो गूंगे के गुड़ की तरह है. रसास्वादन कर सकते हैं बयाँ नहीं.... !

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  6. मनोज जी, मुझे एम0ए0 की कक्षाएं याद आ गयीं। शुक्रिया, उस जानकारी को रिवाईज कराने का।

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    पति को वश में करने का उपाय।

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  7. बहुत गहरी बाते आप के लेखो से मिलती हे, आप का ओर आचार्य परशुराम जी का धन्यवा्द

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  8. ज्ञानवर्धक उल्लेख.पढ़कर अच्छा लगा.

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  9. हिन्दी साहित्य के लिए आपका योगदान सराहनीय है. इस महती कार्य के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

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  10. आपकी यह साहित्यिक सेवा प्रशंसनीय है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। सादर।

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  11. प्रोत्साहित करने के लिए अपने सभी पाठकों को आभार।

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  12. हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आपका योगदान हमेशा स्मरण किया जाएगा। आभार।

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  13. बहुत सुन्दर !
    एक निवेदन है कि आप काव्यशास्त्रीय लेखों की एक अनुक्रमणिका बना देवें , उसमें नया 'एड' करते जाएँ , ताकि उसपर क्लिक करके पहुँच जाया करें और छक के पढ़ें-बिहरें ! इन विषयों के प्रेमी अल्पसंख्यक हो सकते हैं पर तलबगार उतने ही ज्यादा होते हैं ! आभार !

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  14. @ अमरेन्द्र जी
    ये काम कल तक हो जाएगा।
    अच्छा सुझाव है।

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