राष्ट्रीय आन्दोलन
395. राष्ट्रवाद एवं श्रमिक वर्ग
आंदोलन
प्रवेश
‘एडमिनिस्ट्रेशन
ऑफ बंगाल अंडर एंड्रयू फ्रेज़र’, शीर्षक
सरकारी सर्वेक्षण में 1903 से 08 के दौरान ‘औद्योगिक असंतोष’ को इन पांच
वर्षों का महत्त्वपूर्ण लक्षण बताया गया था। 19वीं और 20वीं शताब्दी में भारत
में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप ‘पूंजीपति वर्ग’ और ‘श्रमिक वर्ग’
का उदय हुआ। पूंजीपति
वर्ग तो श्रमिकों का शोषण करते ही थे, सरकारी नीतियाँ भी श्रमिक वर्ग के हितों के
अनुकूल नहीं थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा में समाहित होने के साथ-साथ श्रमिकों
ने अपने हितों की रक्षा के लिए संगठित होना शुरू किया। उनमें जब चेतना जगी और एकता
बढ़ी तो उन्होंने संघर्ष करना भी आरंभ कर दिया। हालाकि इनका प्रमुख विरोध मिल
मालिकों के खिलाफ हुआ करता था लेकिन कई बार इनका संघर्ष सरकारी नीतियों के विरुद्ध
भी होता था। उनके संघर्ष में राष्ट्रवादी कभी-कभी इन्हें वित्तीय सहायता देते थे।
श्रमिक वर्ग का उदय
1853
में भारत में रेलों का निर्माण शुरू हुआ। उसमें काम करने के लिए बहुत से मज़दूरों की
भर्ती की गई। भारत की पहली जूट मिल 1855 में कोलकाता के पास रिशरा में
ब्रिटिश उद्यमी जॉर्ज एकलैंड और बंगाली फाइनेंसर बाबू ब्यसुम्बर सेन द्वारा
स्थापित की गई थी। कपास मिलों का मालिकाना भारतीय
उद्योगपतियों के पास था, जबकि जूट मिलों का मालिकाना
लंबे समय तक विदेशियों के पास रहा। कोयला खानों और बागानों में भी मज़दूर कार्यरत थे। मिल मालिक और उद्योगपति इनसे भरपूर
काम लेते थे, लेकिन सुविधा के
नाम पर उन्हें कुछ नहीं मिलता। उन्हें कम मजदूरी दी जाती। काम करने का वातावरण
काफी अस्वास्थ्यकर होता था। बाल-मज़दूरी आम बात थी।
भारत में सस्ते मज़दूरों की उपलब्धि
से लंकाशायर के वस्त्र उत्पादकों को यह भय सताने लगा कि कहीं भारतीय वस्त्र उद्योग
उनके व्यापार पर क़ब्ज़ा न जमा ले। इसलिए अंग्रेजों ने श्रमिकों पर नियंत्रण करने का
प्रयास शुरू कर दिया। 1870-80 के दशक में कानून द्वारा श्रमिकों के काम करने की दशाओं को बेहतर बनाने का
प्रयास किया गया। 1881 में फैक्टरी एक्ट लाया गया। 1881 का कारखाना अधिनियम भारत का पहला कानून था
जिसने कारखानों में श्रमिक स्थितियों को विनियमित किया, मुख्य
रूप से बाल श्रम पर ध्यान केंद्रित किया, जिसमें 7 साल से कम उम्र के बच्चों के काम पर प्रतिबंध लगाया गया और 7-12 साल के बच्चों के लिए काम के घंटे (9 घंटे/दिन) और
छुट्टियों (4/माह) को सीमित किया गया।
दूसरा फैक्टरी एक्ट 1891 में आया।
इसमें महिलाओं के काम करने के घंटों को 11 घंटा तय किया गया। बच्चों के काम करने
की उम्र को बढ़ा कर 9-14 कर दिया गया। तीसरा फैक्टरी एक्ट 1911 में आया। इसमें
निश्चित किया गया कि मज़दूरों से 12 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाएगा। इन सब
सुधारों से मज़दूरों की स्थिति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। उनका शोषण ज़ारी रहा।
ट्रेड यूनियनों का उदय और विकास
स्वदेशी आंदोलन तक मज़दूरों की काम
करने की स्थिति को बेहतर बनाने के लिये कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया था। बढ़ते
शोषण के विरुद्ध श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जगी। उन्होंने भारतीय
पूंजीपतियों और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से संघर्ष करना शुरू कर दिया। सितंबर
1905 में हावड़ा में बर्न कंपनी के 247 कर्मचारियों ने कार्य संबंधी एक अधिनियम के
विरोध में अपने कार्य-स्थल को छोड़ कर चले गए, तो जनता ने इसका स्वागत किया। अगले ही महीने कलकत्ता में ट्रामों की हड़ताल
हुई। बंग-भंग आन्दोलन के दौरान श्रमिकों ने छापाखाने, रेल, ट्राम और कॉरपोरेशन में हड़ताल किया। 1905-07 के
दौरान हड़ताल में शरीक मज़दूर ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगाने लगे थे। इन
हड़तालों से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ, बल्कि उलटे अंग्रेज़ों
ने भारतीय मज़दूरों को उनका दुश्मन करार किया था। सरकार की कठोरता से मज़दूरों में
संघर्ष की भावना और ज़्यादा प्रबल हुई। पहले विश्व युद्ध तक कई श्रमिक हड़तालें हुईं।
इस बीच होमरूल आंदोलन और असहयोग आंदोलन के प्रभाव से श्रमिक आंदोलन में
तेज़ी से उछाल आया। ‘होम रूल’ आंदोलन ने मज़दूर आंदोलन को बहुत प्रभावित किया
था। लोकमान्य तिलक को जेल दिए जाने के विरोध में बंबई के मज़दूरों की हड़ताल काफी
प्रसिद्ध हुई।
इन हड़तालों के साथ-साथ मज़दूरों को
संगठित करने का प्रयास भी शुरू हुआ। सबसे पहला प्रयास बंगाल के ब्रह्म समाजी नेता
शशिपाद बनर्जी ने 1866 में बरानगर में किया था। उनके प्रयासों से भारत का पहला
श्रमिक संघ 'वर्किंग मेन्स क्लब' की स्थापना हुई। प्रथम विश्व युद्ध तक भारत
में कई मज़दूर संगठनों का उदय हो चुका था। इनमें से प्रमुख थे कलकत्ता का
वार्किन्गमेंस इंस्टीट्यूशन, प्रिंटर्स एंड कन्पोजीटर्स लीग, चटकल यूनियन, ईस्ट इंडिया रेलवे ईम्प्लाइज़ यूनियन,
बंबई पोस्टल यूनियन, बंबई कामगार हितवर्धिनी सभा, सर्विस अंजुमन आदि। 1874 में बांग्ला में 'भारत श्रमजीवी' नामक एक मासिक पत्रिका प्रकाशित
करना शुरू किया गया। एन.एम. लोखंडे ने 1898 में मराठी में 'दीनबंधु' नामक पत्रिका प्रकाशित करना शुरू किया।
प्रथम विश्वयुद्ध का भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसका असर मज़दूरों
पर भी पड़ा। कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या में तो काफी वृद्धि हुई
लेकिन उनकी दयनीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। मज़दूरों ने शोषण और उत्पीड़न के
विरुद्ध आवाज़ उठाना शुरू कर दिया। इसी बीच 1917 में रूस में महान क्रांति हुई।
परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी संगठन का उदय हुआ। इसका प्रभाव भारतीय
मज़दूर वर्ग पर भी पडा। भारत में मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास तेज़ हुआ।
7 नवंबर 1917 को, वी.आई. लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक (कम्युनिस्ट) पार्टी
ने निरंकुश ज़ारवादी शासन को उखाड़ फेंका और पहले समाजवादी राज्य के गठन की घोषणा
की। इस क्रान्ति से यह सबक मिला: अगर आम लोग - मज़दूर, किसान और बुद्धिजीवी - एकजुट होकर शक्तिशाली ज़ारवादी
साम्राज्य को उखाड़ फेंक सकते हैं और एक ऐसा सामाजिक व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं
जहाँ एक इंसान दूसरे इंसान का शोषण न करे, तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ रहे भारतीय लोग भी ऐसा कर
सकते हैं।
ठीक इसी समय अपने सत्याग्रह, सत्य और अहिंसा के
शस्त्रों के साथ गांधीजी का देश के राजनीतिक परिदृश्य पर पदार्पण हो चुका था।
उन्होंने श्रमिकों और किसानों को अपने आन्दोलनों में शामिल किया। उनके अधिकारों के
लिए संघर्ष किया। 1918 में अहमदाबाद के मिल मज़दूरों की मिल मालिकों के खिलाफ हड़ताल
का नेतृत्व उन्होंने किया था। इससे मज़दूरों का मनोबल जाग उठा। उनके उपवास ने सारे देश का ध्यान आकर्षित
किया। अहमदाबाद के मज़दूर संगठित हो गए। घबरा कर मिल मालिकों ने उपवास के चौथे दिन
मांगे मान ली और मज़दूरी में 35 प्रतिशत की वृद्धि करने को राज़ी हो गए। इस घटना ने
मज़दूरों को गांधीजी के काफी क़रीब ला दिया। भारतीय
श्रमिकों में जुझारू प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। अब हड़तालें पहले से ज़्यादा संगठित और
अधिक समय के लिए होने लगीं।
1925 तक भारत में 125 मज़दूर संगठन
सक्रिय थे। इनके सदस्यों की संख्या ढाई लाख थी। अनेक राष्ट्रवादी आंदोलनकारी
नेताओं ने असहयोग आंदोलन के दौरान मज़दूरों को संगठित किया और उनके संघर्ष का
नेतृत्व भी किया। मदुरै के डॉ. पी.ए. नायडू, कोयंबटूर के एम.एस. रामास्वामी
आयंगार, बंबई के जोसेफ बैपटिस्ट और एन.एम. जोशी, लाहौर के दीवान चमनलाल, एम.ए. खां,
बंगाल में स्वामी विश्वानंद और सी.एफ़. एन्ड्र्यूज़ बिहार में, के अलावा आर.एस.
निंबकार, एस.ए. डांगे, एस.एस. मिरजकर, के.एन. जोगलेकर आदि मज़दूर नेता उन दिनों
असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय थे। इस तरह हम कह सकते हैं कि असहयोग आंदोलन के दौरान
ही मज़दूर संगठन मज़बूत हुए। नागपुर अधिवेशन में मज़दूरों की दशा सुधारने का प्रस्ताव
पारित कर उनकी दशा सुधारने के लिए कार्यक्रम बनाने का निर्णय लिया गया।
ट्रेड यूनियनों और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन
बकिंघम और कर्नाटक मिल्स के श्रमिकों द्वारा बी.पी. वाडिया और वी. कल्याणसुंदरम मुदलियार जैसे नेताओं के
नेतृत्व में अप्रैल 1918 में ‘मद्रास
श्रमिक संघ’ की स्थापना हुई जिसे भारत का पहला ट्रेड यूनियन माना जाता है। इसने श्रमिकों के बेहतर वेतन और कामकाजी
परिस्थितियों के लिए आवाज़ उठाई। टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की स्थापना वर्ष 1920 में अहमदाबाद में हुई थी। ये श्रमिक संगठन अलग-अलग
क्षेत्रों में अलग-अलग दिशा में काम कर रहे थे। ऐसा महसूस किया जाने लगा कि पूरे भारत
में ट्रेड यूनियनों के कार्यों के समन्वय के लिये श्रमिकों के एक केंद्रीय संगठन
की आवश्यकता है। 31 अक्तूबर, 1920 को बंबई में लाला लाजपतराय की
अध्यक्षता में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक)
का गठन किया गया। तिलक, एनी बेसंट और ऐंड्र्यूज इसके उपाध्यक्ष थे।
बाद में अनेक राष्ट्रीय नेताओं चितरंजन दास, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस आदि ने इसके
कार्यों में रुचि ली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनेक नेता ‘एटक’ में विभिन्न
पदों को सुशोभित करते रहे। नेहरू और लाजपत राय एक ही समय में ‘एटक’ और कांग्रेस के
अध्यक्ष थे। 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO)
का गठन हुआ। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की ओर से एन.एम. जोशी ने आई.एल.ओ. के सम्मलेन में भाग लिया।
श्रमिक
वर्ग का आंदोलन
1920 में शुरू हुए असहयोग
आंदोलन के कारण जनआंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा। 1921 में
जनआंदोलनों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक मज़दूर आंदोलन छिड़ा। 1921 में 376 हड़तालें हुईं जिनमें 70 लाख कार्य दिवस की हानि हुई। प्रिंस
ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के दौरान मज़दूरों की साम्राज्यवादी भावना ज़ोरदार ढंग
से प्रदर्शित हुई। बंबई, कलकत्ता और मद्रास में मज़दूरों ने हड़ताल मनाई। असहयोग
आंदोलन के अंतिम दिनों में दर्शनानंद और विश्वानंद ने ईस्ट इंडियन रेलवे में एक
सशक्त हड़ताल का नेतृत्व किया था। ईस्ट
इंडिया और नार्थ वेस्टर्न रेलवे के मज़दूरों की आम हड़ताल को तोड़ने के लिए प्रबंधकों
ने ऐसी-ऐसी रियायतें दीं जिसकी मज़दूरों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
1922 तक बड़े-बड़े सैकड़ों मज़दूर
संगठन बन चुके थे। मज़दूर आंदोलन राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की मुख्य-धारा से जुड़ा
हुआ था। उनकी सभाओं में ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता, खादी का प्रयोग होता।
टाटा उद्योग में सितंबर 1922 में कामगार वर्ग द्वारा एक स्वतः
स्फूर्त हड़ताल हुई। जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन ने मान्यता प्राप्त करने के लिए
इस अवसर का लाभ उठाया और इसका नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। फलस्वरूप
स्वराजियों के समर्थन से सी.आर. दास और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ के नेतृत्व में एक ‘कंशीलिएशन
बोर्ड’ की स्थापना हुई। बाद में 1925 में इस यूनियन को
मान्यता मिल गई और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ इसके अध्यक्ष बने। उस समय गांधीजी जमशेदपुर
आए थे। उन्होंने कहा था, “पूंजी और श्रम के बीच सामंजस्य होना चाहिए।” कामगारों को समझाते हुए उन्होंने यह भी कहा
था, “व्यापार में मंदी के समय वे अपने मालिकों की जान सांसत में न डालें।”
गांधीजी के दिए गए इन मूल मन्त्रों से अनेक बाधाओं के बावज़ूद श्रमिक आंदोलन चलता रहा। कर्नाटक मिल्स में हड़तालें हुईं। मद्रास के समुद्र तट पर सिंगारवेलु द्वारा आयोजित सभा में 1923 में
पहला मई दिवस मनाया गया था। 1925 में नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे की हड़ताल में लाहौर में एक जुलूस
निकाली गई थी, जिसमें कामगार अपने ही ख़ून से लाल किए गए झंडे लेकर निकल पड़े थे। 1925 में बंबई की कपड़ा मिलों में बोनस को लेकर हुई हड़ताल के कारण उत्पादन ठप्प पड़ गया
था। सरकार द्वारा बिठाए गए जांच आयोग ने श्रमिक विरोधी फैसला दिया था। एन.एम. जोशी
ने श्रमिकों को हड़ताल बंद करने की सलाह दी थी। पुलिस के दमन और गोलियों की बौछाड़ के
बावज़ूद भी श्रमिकों ने हड़ताल ज़ारी रखी। बाद में भुखमरी से विवश हो वे काम पर लौटे।
बंबई के कपड़ा उद्योग क्षेत्र में ही श्रमिकों के सतत संघर्ष और हड़ताल के कारण
सरकार को साढ़े तीन प्रतिशत का उत्पादन शुल्क हटाने का फैसला लेने पर विवश होना
पड़ा।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में आर्थिक
मंदी का दौर था। इसलिए 1923 के बाद
से मज़दूरों के आंदोलन का आक्रामक रुख नरम पड़ने लगा। सरकार ने मज़दूर आंदोलन को
कमज़ोर करने के लिए सुधारवादी और अलगाववादी नीति अपनाई। इस तरह उन्हें राष्ट्रीय
आंदोलन से अलग करने की कोशिश की गई। रेल औपनिवेशिक सत्ता के लिए बहुत बड़ी ज़रूरत
थी। अंग्रेज़ शासक इस पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखना चाहते थे। रेल सेवाएं सरकारी
नियंत्रण में रहे इसकी हर संभव कोशिश की जाती थी। इससे ब्रिटिश हुक़ूमत को शोषण की
गति तेज़ करने में मदद मिलती थी। भारतीय रेल के मज़दूरों ने औपनिवेशिक सत्ता के दमन
और शोषण के खेल को बख़ूबी पहचाना। उन्हें एहसास हो गया कि उन्हें सताया जा रहा है,
अपमानित किया जा रहा है, वेतन और काम के घंटे के मामले में उनके साथ भेद-भाव किया
जा रहा है। उन्होंने शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू कर दी। देश भर में जगह-जगह
हड़तालें हुईं। रेल मज़दूर के नेता विवादों के निपटारे के लिए गांधीजी से भी मदद
मांगते थे। गांधीजी उस समय साम्राज्यवादी सत्ता के विरोध के प्रतीक बन चुके थे।
1922 से एन.एम. जोशी के नेतृत्व
में संविधानिक मज़दूरवाद ने मज़दूरों के आंदोलन के बीच अपनी जगह बनानी शुरू कर दी।
ज़्यादातर हड़तालें आर्थिक मांग को लेकर होती थी, लेकिन सारे मुद्दे ‘राष्ट्रीय
सम्मान’ के मुद्दे से जुड़ जाते थे। इस तरह आर्थिक और राष्ट्रीय संघर्ष में
समन्वय बढ़ता गया। इससे ब्रिटिश हुक़ूमत का चिंतित होना लाजिमी था। उन्हें मज़दूरों
के संघर्ष में ‘बोल्शेविक क्रांति’ की झलक दिखने लगी। मज़दूर आंदोलनों को राष्ट्रीय राजनीति से
अलग-थलग करने की रणनीति बनाई जाने लगी। विवादों के निपटारे के लिए समझौता मंडल,
पंचाट आदि गठित किए गए।
1926 में ट्रेड यूनियन अधिनियम
आया। इस अधिनियम ने ट्रेड यूनियनों को कानूनी संघों के रूप में मान्यता दी। इसके
द्वारा ट्रेड यूनियन गतिविधियों के पंजीकरण और संचालन के लिये शर्तें निर्धारित की
गयी। इसने ट्रेड यूनियनों की वैध गतिविधियों के लिए नागरिक और आपराधिक प्रतिरक्षा
हासिल की। इस तरह 1926 तक मज़दूर आंदोलनकारियों ने कुछ
रियायतें ज़रूर हासिल कर ली, लेकिन मज़दूर आंदोलन सत्ता के नियंत्रण में चला गया।
विदेशी हुक़ूमत मज़दूर आंदोलन को राष्ट्रवादी राजनीतिक आंदोलन से अलग करने की कोशिश
में कामयाब हो गई। 1928 तक मज़दूर आंदोलन निष्क्रिय रहा। वह
समाज में किसी तरह की हलचल पैदा करने में नाक़ामयाब रहा। भारत के विभिन्न भागों में
मज़दूर वर्ग उन्नत और पिछड़े हुए गुटों में बंट गया।
1927-28 से साम्यवादी मज़दूर
नेताओं ने वामपंथी कांग्रेसी नेताओं के सहयोग से राष्ट्रवादी मज़दूर आंदोलन को
मज़बूत बनाना शुरू कर दिया था। उस दौरान बड़ी-बड़ी रेल हड़तालें हुईं। बंगाल में, 1927 की खड़गपुर हड़ताल के
बाद लिलूआ रेल वर्कशॉप (जनवरी-जुलाई 1928) में एक लंबा और कड़ा संघर्ष हुआ, जिसे गोपेन चक्रवर्ती, धरणी गोस्वामी (दोनों कम्युनिस्ट), किरण मित्रा और सिबनाथ बनर्जी ने लीड किया। इस वर्ष 202 लाख कार्य दिवस की हानि हुई। सत्याग्रह
भी उनके संघर्ष के हथियार थे। आम सभाओं में वे कहते उनका संघर्ष स्वराज के लिए जंग
है। 1927 में बंगाल-नागपुर रेलवे कंपनी (मुख्यालय लन्दन) के खड़गपुर लोकोमोटिव
कारखाने में कम मज़दूरी और कंपनी के अधिकारियों के अनुचित आदेशों के खिलाफ मज़दूरों
ने जो आन्दोलन किया वह आम हड़ताल में बदल गया। हड़ताल को नेहरू और वी.वी. गिरी जैसे
नेताओं का समर्थन प्राप्त था।
उन दिनों एन.एम. जोशी के नेतृत्व वाली ‘बंबे
टेक्स्टाइल लेबर यूनियन, गिरणी कामगार महामंडल और शेतकारी कामगार पार्टी काफी
सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। इन्हीं दिनों एशिया की सबसे बड़ी यूनियन ‘गिरणी
कामगार यूनियन’ का जन्म हुआ। इसके नेतृत्व में एक बहुत बड़ी हड़ताल हुई थी जिसका
नेतृत्व एस.ए. डांगे और एस.एच. झाबवाला ने किया था। उन्होंने मज़दूरों से अपील की
कि वे गांधीजी द्वारा सुझाए हुए अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता अपनाएं और औपनिवेशिक
सत्ता के काले क़ानून को मानने से इंकार कर दें। दिसंबर 1928 में, कलकत्ता के वर्किंग-क्लास
ने अपनी बढ़ती पॉलिटिकल भागीदारी और समझदारी का ज़बरदस्त प्रदर्शन किया, जब वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी के नेतृत्व में, हज़ारों श्रमिक कांग्रेस सेशन में मार्च करते हुए गए, दो घंटे तक पंडाल पर कब्ज़ा किया, और पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए प्रस्ताव पास किए। इस तरह हम देखते हैं कि भारत में ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने महत्त्वपूर्ण पडावों पर न
केवल राष्ट्रीय संघर्ष के आह्वान का समर्थ किया वरन अनेक मार्गों से इसके विषय तथा
स्वरुप को भी प्रभावित किया। लेकिन समय के साथ मज़दूरों के बीच वामपंथी व लड़ाकू ताकतों का प्रभाव बढ़ता गया
और सांविधानिक मज़दूर संघवादियों का प्रभाव ख़त्म होता गया। 1929 में एटक अधिवेशन के समय
दोनों खेमों के बीच की दूरी स्पष्ट दिखी। नेहरूजी के समर्थन से वामपंथी खेमे की
जीत हुई। संविधानवादी खेमा एटक से अलग हो गया।
कम्युनिस्टों
का उदय
भारत में मज़दूरों को क्रांतिकारी मार्ग पर ले
जाने का प्रयास साम्यवादियों ने किया। 1920 के दशक के
आखिर और 1930 के दशक में भारत में एक मज़बूत वामपंथी समूह उभरा, जिसने राष्ट्रीय आंदोलन को
और ज़्यादा क्रांतिकारी बनाने में योगदान दिया। राजनीतिक आज़ादी के लक्ष्य में
सामाजिक और आर्थिक पहलू जुड़ गया। आज़ादी के लिए राष्ट्रीय संघर्ष की धारा और
दबे-कुचले और शोषित लोगों की सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के संघर्ष की धारा एक साथ
आने लगीं। साम्यवादियों का मानना था
कि महज़ राजनीतिक आज़ादी से आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। परिवर्तन का
संघर्ष औपनिवेशिक सत्ता के चंगुल से मुक्त होने के लिए ही नहीं है, वरन उन तमाम
शोषणकारी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश
जनता ग़ुलाम और ग़रीब है।
मज़दूरों को उस समय के विख्यात क्रांतिकारी नेता
नरेन भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेन्द्र राय ने नई राह दिखाई। अक्तूबर 1920 में एम.एन. राय ने अवनी
मुखर्जी, मुहम्मद अली और मुहम्मद शफ़ीक़ के साथ मिलकर ताशकंद (मॉस्को) में ‘कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ इंडिया’ की स्थापना की। 20 के दशक में भारतीय
कम्युनिस्ट मुख्य राष्ट्रवादी धारा के भीतर रहकर ही काम करने की चेष्टा करते रहे।
दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का एक खुला
सम्मेलन हुआ। इसमें ’भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ के औपचारिक गठन की घोषणा कर
दी गई। कम्युनिस्ट अब कामगार वर्ग के साथ संबंध स्थापित करने लगे और कुछ ही वर्षों
में कामगारों के बीच उनका प्रभाव काफ़ी बढ़ा। इंग्लैंड की पार्लियामेंट में
कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में शापुरजी सकलतवाला को प्रवेश मिला। वे जब भारत दौरे पर
आए तो अपने विचारों से लोगों में कम्युनिज़्म के प्रति रुचि जागृत की। कम्युनिस्टों
ने कई ट्रेड यूनियन के जुझारू संघर्षों का नेतृत्व किया जिनमें प्रमुख हैं बंबई की सूती मिलों और कलकत्ता की जूट मिलों के
मज़दूरों का संघर्ष। समय के साथ मज़दूरों के बीच वामपंथी व लड़ाकू ताकतों का प्रभाव
बढ़ता गया और संविधानिक मज़दूर संघवादियों का प्रभाव ख़त्म होता गया। और इस तरह 1920 के दशक में भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उदय ने
ट्रेड यूनियन आन्दोलन को एक उग्रवादी तथा क्रांतिकारी सामग्री प्रदान की।
श्रमिक
आन्दोलन
कम्युनिस्टों के प्रभाव में आकर 1928 में व्यापक
श्रमिक आन्दोलन देखने को मिलते हैं। एक वर्ष की अवधि में 203 हड़तालें हुईं, जिनमें
पांच लाख से भी अधिक मज़दूरों ने भाग लिया। बंगाल में लिलुआ
रेल कार्यशाला में एक लंबा और कड़ा संघर्ष चला। हड़ताल को तोड़ने के लिए पुलिस द्वारा
गोलीबारी भी हुई। मज़दूर किसान पार्टी के नेतृत्व में जूट मिलों में हड़तालें हुईं।
श्रमिकों को राष्ट्रवादी समर्थन भी मिलता था। बंबई और दक्षिण महाराष्ट्र की कपड़ा मिलों
के क्रांतिकारी गिरनी कामगार संघों की सदस्यता में काफी वृद्धि हुई। गिरनी कामगार में अपने पीक पर लगभग 60,000 सदस्य थे। मद्रास और मराठा
क्षेत्रों के रेलवे के मज़दूरों ने मज़दूर संघों की स्थापना की। दिसंबर 1928 में जिस समय कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ
उसी समय कम्युनिस्टों ने मज़दूर दलों के पहले अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन किया। कलकत्ता के कामगार वर्ग ने राजनीति में अपनी भागीदारी और
राजनीतिक प्रौढ़ता का प्रदर्शन किया जब मज़दूर किसान पार्टी के नेतृत्व में हज़ारों
की संख्या में कामगार कांग्रेस अधिवेशन के स्थान तक जुलूस बनाकर पहुंचे और न सिर्फ़
अपनी मांगे रखीं बल्कि पूर्ण स्वराज की मांग करने वाले प्रस्ताव को भी स्वीकार
किया। बंगाल के श्रमिक आन्दोलन में सुभाष चन्द्र बोस ने गहरी रुचि दिखाई।
जुलाई में साउथ इंडियन रेलवे में
उग्र हड़ताल हुई, जिसे सरकार के कड़े दमन ने कुचल दिया। इसके नेता सिंगारवेलु और मुकुंदलाल
सरकार को जेल की सज़ा हुई। एक मज़दूर
नेता, पेरुमल को
ज़िंदगी भर के लिए अंडमान भेज दिया गया। 1929 में गिरनी कामगार संघ और रेल मज़दूरों के
संयुक्त आह्वान पर एक आम हड़ताल हुई। यह हड़ताल हड़तालों में भाग लेने वाले मज़दूरों की बर्खास्तगी के विरुद्ध में
हुई थी। हड़ताल कानपुर और कलकत्ता में भी फैली। सबसे
प्रसिद्ध हड़ताल कपड़ा मिल मज़दूरों की थी। बड़े कपड़ा उद्योगपतियों का यही प्रयत्न
रहता था कि सरकार द्वारा लंकाशायर और जापान के विरुद्ध चुंगी को संरक्षण देना
अस्वीकार कर देने पर जो भार पड़ा था, उसे मज़दूरों के सिर पर थोप दें। इससे मज़दूरों
के पारिश्रमिक में कटौती होती थी। इसके विरोध में ज़बरदस्त हड़ताल हुई और हड़ताल तभी
समाप्त हुई जब मिल मालिकों ने 1927 की मज़दूरी बहाल कर दी। इसकी प्रतिक्रिया
में पूंजीपतियों और सरकार, दोनों की तरफ़ से प्रत्याक्रमण हुआ। परिणामस्वरूप अगले
वर्ष एक बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ। सरकार की दमनात्मक कार्रवाई हुई और अधिकांश
मज़दूर नेता गिरफ़्तार कर लिए गए। गिरफ्तार किए गए नेताओं में मुज़फ्फर अहमद, डांगे, पी.सी. जोशी भी शामिल थे। मेरठ में एक लंबा मेरठ
षडयंत्र केस के नाम पर मुक़दमा चला जो चार साल तक चला। 1933 में अभियुक्तों
को कड़ी सज़ाएं हुईं।
मज़दूरों के बढ़ते रोष को देखकर अखिल
भारतीय कांग्रेस ने एक श्रमिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की। सुभाष चन्द्र
बोस कुछ कांग्रेसी नेता ट्रेड यूनियनों के नेताओं के जेल में रहने के कारण
अनुपस्थिति को देखकर श्रमिकों पर अपना प्रभाव जमाने लगे। 1928 के अंत तक मज़दूर
नेता कांग्रेस के प्रति एकता और संघर्ष की नीति अपनाए हुए थे। वे कांग्रेस की
आलोचना भी करते थे और उसके साथ एक साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे के निर्माण
का प्रयास भी करते थे। दिसंबर 1928 से भारतीय कम्युनिस्ट
राष्ट्रवादी मुख्यधारा से अलग-थलग रहने लगे। वे नेहरू और सुभाष पर वैचारिक आक्रमण
भी करने लगे। श्रमिकों में कांग्रेस की रुचि सीमित ही रही थी। सविनय अवज्ञा
आन्दोलन के दौरान गांधीजी शीर्ष भूमिका निभा रहे थे। उनका आम हड़ताल जैसे हथियार का
प्रयोग करने का इरादा नहीं था। इसे वह अत्यंत विभाजक और खतरनाक मानते थे। इधर
आर्थिक परिस्थिति भी श्रमिक आन्दोलन के प्रतिकूल होती जा रही थी। परिणामस्वरूप
कामगारों की मालिकों के साथ सौदेबाज़ी की क्षमता कमज़ोर पड़ती गई।
मज़दूर समस्या को लेकर ब्रिटिश सरकार
ने ह्विटले आयोग के नाम से शासकीय आयोग की नियुक्ति कर दी। आयोग को मालिक-मज़दूर रिश्तों में सुधार और
मज़दूर कल्याण के कामों को बेहतर बनाने के उपायों का सुझाव देना था। मज़दूर इस झांसे
में नहीं पड़े। जब आयोग भारत पहुंचा तो अधिकांश मज़दूर संगठनों ने उसका बहिष्कार
किया। साम्यवादियों का प्रभाव कम करने और हड़तालों एवं
श्रमिकों के राजनीतिक कार्यों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने अप्रैल 1929 में श्रमिक
विवाद अधिनियम बनाया। इसके तहत सार्वजनिक उपयोगी सेवाओं में हड़ताल करने
के एक माह पहले नोटिस देना अनिवार्य बना दिया गया। शहीद भगत सिंह ने इसका विरोध
किया और देश के लिए अपनी कुर्बानी दी। 1929 में सरकार ने कम्युनिस्ट नेताओं, और ट्रेड यूनियन के नेताओं की
बड़ी संख्या में गिरफ्तारी की और उन्हें कड़ी सजाएं दी। 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी
को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। इससे श्रमिक आन्दोलन को आघात पहुंचा। साम्यवादी
विचारधारा के विकास का प्रभाव ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर भी पडा।
1928-29 तक कम्युनिस्टों ने एटक
में मामूली बहुमत प्राप्त किया। जिसके कारण यह दो गुटों सुधारवादी (जेनेवा गुट) और
क्रांतिकारी (मास्को गुट) में बंट गया। नागपुर में आयोजित एटक के दसवें सत्र में
कम्युनिस्टों ने ILO से अलग होने और साम्राज्यवाद के खिलाफ
लीग के साथ जुड़ने का आह्वान किया। उदारवादी और सुधारवादी समूह इस विचार के खिलाफ
थे। इस कारण से एन.एम. जोशी इससे अलग होकर ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन फेडरेशन
की स्थापना की। ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर वामपंथियों का प्रभाव बना रहा। राष्ट्रवादी
और साम्यवादी विचारों के बीच मतभेद के कारण 1931 में
ट्रेड यूनियन में एक और फूट हुई और रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना
हुई। कम्युनिस्टों ने गांधीजी की कड़ी आलोचना की और राष्ट्रवादियों
से अलग हो गए। इस तरह 1931 तक ट्रेड यूनियनों के तीन
राष्ट्रीय संघ थे - AITUC, IFTU और RTUC। इन फूट से ट्रेड यूनियन गतिविधियों को झटका लगा। फिर से एकता के प्रयास
किए गए। 1935 में यह प्रयास रंग लाया और तीनों श्रमिक संघों को मिलाकर एकीकृत
संगठन की स्थापना हुई जिसका नाम ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) ही रखा गया।
श्रमिक वर्ग और
कांग्रेस
भारत में ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने महत्त्वपूर्ण
पडावों पर न केवल राष्ट्रीय संघर्ष के आह्वान का समर्थ किया वरन अनेक मार्गों से
इसके विषय तथा स्वरुप को भी प्रभावित किया। 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में श्रमिकों के संबंध में
प्रस्ताव पारित कर उनकी दशा सुधारने का कार्यक्रम बनाने का निर्णय लिया गया। 1922
में भी गया कांग्रेस में मज़दूरों को कांग्रेस के प्रभाव में लाने आवश्यकता पर बल
दिया गया। 1925 के कानपुर अधिवेशन में रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा मज़दूरों को
संगठित करने का कार्यक्रम स्वीकार किया गया। लोकप्रिय सरकारों के गठन से श्रमिकों
के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया और उनके संगठनों की संघर्षशीलता को बढ़ावा मिला।
कामगार वर्ग को एकजुट रखने के कांग्रेसी प्रयासों में तेज़ी आई और पटेल,
राजेन्द्रप्रसाद और कृपलानी जैसे नेताओं ने हिन्दुस्तान मज़दूर सभा की
स्थापना की।
इसके
बावज़ूद भी अधिकांश ट्रेड यूनियन आंदोलन वामपंथियों के हाथ में ही रहा। पूंजीपतियों
को ख़ुश रखने के लिए और श्रमिक असंतोष को नियंत्रित करने के लिए कांग्रेस ने बाम्बे
ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट (नवंबर 1938) पास किया। इस क़ानून के तहत
ग़ैरक़ानूनी हड़तालों के लिए 6 महीने की जेल की सज़ा का प्रावधान
था। साथ ही ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण के लिए नए नियमों की व्यवस्था की गई थी।
गांधीवादी श्रमिक नेता गुलज़ारीलाल नंदा ने इस क़ानून का विरोध किया था। विरोध सभा
को उनके अलावा डांगे, इंदुलाल याज्ञिक और अंबेडकर ने भी संबोधित किया था। ध्यान
देने की बात है कि नेहरूजी को बाम्बे एक्ट “कुल मिलाकर अच्छा ही लगा”। और सुभाष चन्द्र बोस ने सिर्फ़ निजी तौर पर पटेल से इस संबंध में विरोध प्रकट किया था, सार्वजनिक तौर
पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।
श्रमिक वर्ग और
पूंजीपति
श्रमिकों की बढती गतिविधियों ऐसे हालात ने
ज़रूरी तौर पर एक बड़े कैपिटलिस्ट और सरकारी जवाबी हमले को बढ़ावा दिया। बॉम्बे
में पठानों को जानबूझकर हड़ताल तोड़ने वालों के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जिससे फरवरी 1929 में एक बड़ा
सांप्रदायिक दंगा हुआ। ब्राह्मण-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देने की कोशिश की गई। इस
प्रोपेगैंडा के लिए पैसे का कुछ हिस्सा बॉम्बे मिलओनर्स एसोसिएशन के बॉस होमी मोदी
से आया था। 1928-29 के दौरान बंगाल के गवर्नर जैक्सन और बॉम्बे के गवर्नर विल्सन
और साइक्स के बीच हुई बातचीत के बाद भारतीय कैपिटलिस्टों के लिए समर्थन दिया गया। सरकार
ने एक पब्लिक सेफ्टी बिल के लिए दबाव डाला, जिससे उसे बंगाल
और बॉम्बे के मज़दूरों को संगठित करने में मदद करने वाले ब्रिटिश कम्युनिस्टों
फिलिप स्प्रैट और बेन ब्रैडली को तुरंत देश निकाला देने का अधिकार मिल जाता। अप्रैल
1929 के ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट ने ट्रिब्यूनल का एक सिस्टम लागू किया, और उन हड़तालों पर रोक लगाने की कोशिश की जो ‘ट्रेड विवाद को आगे बढ़ाने
के अलावा किसी और मकसद से या सरकार पर दबाव डालने और/या समुदाय को मुश्किल में
डालने के लिए की गई हों। कांग्रेस ने ऑफिशियली दोनों बिलों का विरोध किया।
उपसंहार
सुमित सरकार ने सही ही कहा है कि ‘श्रमिकों में
कांग्रेस की रुचि सदैव ढुलमुल और सीमित रही थी और उसका आम हड़ताल जैसे हथियार का
प्रयोग करने का कोई इरादा नहीं था।’ दूसरी तरफ मज़दूर संघ हिंसात्मक तरीके से अपना विरोध प्रकट करते थे और
कार्य दिवस की हानि को अपनी उपलब्धि मानते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चन्द्र
यह मानते हैं, “यह एक असलियत है कि भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा संगठित राष्ट्रीय आन्दोलन में मज़दूर वर्ग के अपेक्षाकृत
अधिक क्रान्ति प्रिय गुट तक ने हिस्सा नहीं लिया।” नेहरू जी ने भी लिखा है, “मज़दूरों के
उन्नत वर्ग में राष्ट्रीय कांग्रेस को लेकर झिझक थी। उन्होंने कांग्रेस के नेताओं
पर विश्वास नहीं किया। उसकी विचारधारा को बुर्जुआ और प्रतिक्रियावादी माना। मज़दूर
दृष्टिकोण से ऐसा मानना सही था।” बिपन चन्द्र के शब्दों में कहें तो, “असहमति की अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों और सरकारी दमन ने राष्ट्रीय
आन्दोलन में मज़दूरों की हिस्सेदारी को दुर्बल बनाया।”
भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन ने राष्ट्रीय
संघर्षों का समर्थन कर, मज़दूरों के अधिकारों और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों के लिए आवाज़
उठाई, जिससे न
केवल स्वतंत्रता संग्राम को मज़बूती मिली बल्कि इसने राष्ट्रीय नीतियों और श्रम
कानूनों को भी प्रभावित किया। इन
तथ्यों के साथ ही यह भी सही था कि ट्रेड यूनियन कांग्रेस मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास
कर रही थी। 1926 तक 57 श्रमिक संगठन इसके साथ
संबद्ध हो चुके थे। इसकी सदस्य संख्या सवा लाख से अधिक थी। प्रथम विश्वयुद्ध के
बाद मज़दूरों में नई चेतना का तेज़ी से विकास हुआ। श्रमिक आन्दोलन में वृद्धि हुई। कम्युनिस्ट
प्रभाव से आंदोलन में उग्रता आई, लेकिन इससे औपनिवेशिक सरकार की दमनकारी कार्रवाइयों का
सामना करना पड़ा, जिससे यह आंदोलन श्रमिक वर्ग की आवाज़ बनकर उभरा और देश
के आर्थिक व सामाजिक विकास में अहम भूमिका निभाई। लेकिन ट्रेड यूनियन कांग्रेस का रुख सुधारवादी था,
क्रांतिकारी नहीं। समाजवादी झुकाव होते हुए भी इस पर एन.एम. जोशी जैसे नरमपंथी
लोगों का ही प्रभाव बना रहा। ये नेता श्रमिक संगठनों की राजनीतिक गतिविधियाँ केवल
श्रमिकों की आर्थिक अवस्था सुधारने तक ही सीमित रखना चाहते थे। चुनाव जीतने के बाद
कांग्रेस मंत्रिमंडल ने मज़दूरों की हालत सुधारने की कोशिश की। मज़दूर संघों ने काम करने की बेहतर हालात और अधिक मज़दूरी के लिए
बातचीत चलाने में अपने को अधिक स्वतंत्र महसूस किया।
30 के दशक में मंदी के कारण आर्थिक परिस्थिति
श्रमिक आन्दोलन के प्रतिकूल होती जा रही थी। 1930 तक इस बात के
काफी संकेत थे कि कुल मिलाकर लेबर मूवमेंट तेजी से कमजोर हो रहा था। कम्युनिस्ट
सिर्फ़ दबाव की वजह से कमज़ोर नहीं हुए बल्कि उनकी स्ट्रैटेजी में एक बड़े बदलाव
की वजह से भी। भारतीय कम्युनिस्टों ने बहुत ज़्यादा सांप्रदायिक तरीके से
नेशनलिस्ट मेनस्ट्रीम से दूरी बनानी शुरू कर दी, और स्टालिन की
अजीब पॉलिसी को फॉलो किया, जिसमें 'बीच के रास्ते की
ताकतों पर निशाना साधना' शामिल था, जिसमें सबसे
ज़्यादा नेहरू जैसे कांग्रेस के तुलनात्मक रूप से लेफ्ट एलिमेंट्स पर हमला किया
गया। लेबर में कांग्रेस की दिलचस्पी हमेशा रुक-रुक कर और सीमित रही थी, और गांधीवादी
लीडरशिप,
जो सिविल
डिसओबिडिएंस की शुरुआत के साथ मज़बूती से वापस आ गई थी, का आम हड़तालों के
उस हथियार का इस्तेमाल करने का कोई इरादा नहीं था जिसे वह बहुत ज़्यादा बांटने
वाला और खतरनाक हथियार मानता था।
सबसे
बढ़कर, आर्थिक हालात लेबर मूवमेंट के लिए खराब होते जा
रहे थे। बेरोज़गारी बढ़ी और कीमतें घटी, जिसके कारण कामगारों की मालिक के साथ सौदेबाजी
की क्षमता कमजोर हुई। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने
मज़दूरों की बढ़ती एकता की शक्ति को पहचाना। वे इसे अपने लिए खतरनाक मानते थे।
उन्होंने श्रमिकों को अपने प्रभाव में लाने का प्रयास शुरू कर दिया। मद्रास और
बंबई में श्रम विभाग की स्थापना की गयी। औद्योगिक अशांति की जांच करने के लिए
बंगाल कमिटी और बंबई इंडस्ट्रियल कमिटी गठित की गई। 1926 में व्यापार संघ अधिनियम
लाया गया। इस अधिनियम के द्वारा हड़ताल को मज़दूरों का वैधानिक अधिकार माना गया।
लेकिन इस सब के बावजूद उनका दमन नहीं रुका। दमन के कारण मज़दूर संघ का आन्दोलन कमजोर हुआ। श्रमिकों के आन्दोलन की कमियों की
चर्चा करें तो हम पाते हैं कि मज़दूरों के सभी वर्ग इसमें शामिल नहीं हुए। असंगठित
क्षेत्र के मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा ट्रेड यूनियनों के दायरे से बाहर रह गया
था। यूनियनों ने उन लोगों की मांगों को आगे नहीं बढाया। संगठित क्षेत्र में भी ट्रेड
यूनियनों ने सामाजिक रूप से उत्पीड़ित समूहों से संबंधित महिला श्रमिकों और अन्य
श्रमिकों की समस्याओं की अनदेखी की।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।