गुरुवार, 19 सितंबर 2024

80. सफाई अभियान और अकाल कोष

 गांधी और गांधीवाद

80. सफाई अभियान और अकाल कोष


1897

प्रवेश

गांधीजी अन्य कार्यों में व्यस्त रहने के बावज़ूद भी प्रवासी भारतीयों की स्थिति किस तरह सुधरे इस पर लगातार चिन्तन-मनन करते रहते थे। उनका मानना था कि स्वयं का दोष दूर किए बिना अधिकार की मांग उचित नहीं है। गोरों द्वारा भारतीयों पर जब-तब यह आरोप लगाया जाता था कि वे गंदगी पसंद हैं और अक्सर अधिकारों की माँग करते रहते हैं। किसी हद तक यह सही भी था। वे अपने घर-बार साफ़ नहीं रखते और बहुत गंदे रहते थे। समाज के एक भी अंग का निरुपयोगी रहना गांधीजी को हमेशा अखरता था। जनता के दोष छिपाकर उसका बचाव करना अथवा दोष दूर किए बिना अधिकार प्राप्त करना उन्हें हमेशा अरुचिकर लगता था। इसलिए गांधीजी को लगा कि यदि प्रवासी भारतीयों के रहन-सहन में सुधार आ जाए तो गोरों और उनके बीच की कुछ दूरी पट जाएगी। 

सफाई अभियान

नेटाल में प्लेग के फैलने की आशंका बनी हुई थी। इस समस्या के प्रति गांधीजी की प्रतिक्रिया फिर से उनकी शैली के अनुरूप थी। सरकार की सख्ती हो, उसके पहले सफाई अभियान ज़रूरी हो गया था। महामारी के प्रकोप को रोकने के लिए अधिकारियों द्वारा सक्रिय रूप से कार्य करने से पहले ही, उन्होंने भारतीय समुदाय के सदस्यों के बीच स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देने का प्रयास किया। वह जानते थे कि यूरोपीय लोग भारतीयों द्वारा स्वच्छता मानकों के प्रति असावधानी से नाराज़ थे। गांधीजी ने सरकारी सहायता से प्रवासी भारतीयों की बस्तिओं में सफाई का काम शुरु किया। हालाकि यह काम उतना सरल नहीं था। कुछ लोगों ने तो गांधीजी का अपमान तक किया। कई जगहों पर उनकी उपेक्षा की गई। गांधीजी को यह देख कर दुख हुआ कि भारतीय अपने अधिकारों के प्रति जितने सजग दिखाई देते हैं, उतने अपने कर्तव्यों के प्रति नहीं। गन्दगी साफ़ करने के लिए किया जाने वाला कष्ट उन्हें अखरता था। घर-आंगन और बस्तियों की सफाई के पीछे अपने धन का खर्च करना उन्हें अपव्यय प्रतीत होता था। हाथ से काम करने में उन्हें शर्म आती थी। इन प्रयासों से गांधीजी को सबक मिली कि लोगों से कुछ भी काम कराना हो तो धीरज रखना चाहिए। सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती है। जिस समाज में वह सुधार कराना चाहता है, उससे तो उसे विरोध, तिरस्कार और प्राणों के संकट की भी आशा रखनी चाहिए। अन्य कार्यों के अलावा अपने कर्तव्यों के प्रति उन्हें जागरूक रखना भी गांधीजी का नियमित काम हो गया। उन दिनों गाांधीजी ने सफाई अधिकारियों की सहायता के लिए हिंदुस्तानी लोगों को अपनी बस्तियों को साफ रखने के लिए समझाने के लिए घर-घर दौरे का अभियान चलाया। बहुत से लोगों को यह ठीक नहीं लगा। कुछ ने इस अभियान की उपेक्षा की और कुछ ने तो उन्हें अपमानित भी किया लेकिन गांधीजी इस सेवा कार्य को अपना पावन कर्तव्य समझकर करते रहे। इस विशेष सफ़ाई अभियान से फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय समाज ने घर-आंगन साफ़ करने के महत्व को कमोबेश स्वीकार कर लिया। अधिकारियों की नज़र में गांधीजी की साख बढ़ी। वे समझ गये कि उनका मकसद केवल शिकायत करना या अधिकार मांगना ही नहीं है, बल्कि शिकायत करने या अधिकार मांगने में जितने वे तत्पर रहते हैं, उतने ही उत्साहित सुधार के लिए भी।

अकाल से तबाही

उसी बीच भारत के लिए अशुभ घड़ी आ गई थी। भारत में भयंकर अकाल पड़ा था। लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर रहे थे। अब तक के इतिहास में ऐसा दुर्भिक्ष कभी नहीं पड़ा था। 1877-78 के अकाल में जो तबाही हुई थी उसकी तुलना में इस बार लगभग दुगुनी वृद्धि हुई थी। करोड़ों लोग इसका शिकार हुए थे। सर फ़्रान्सिस मैकलीन, मुख्य न्यायाधीश, बंगाल, की अध्यक्षता में अकाल राहत समिति गठित की गई। वहां से तार द्वारा दक्षिण अफ़्रीकी सरकार और भारतीय नेटाल कांग्रेस से सहायता की अपील की गई थी। डरबन के मेयर जॉर्ज पेन ने भारतीय अकाल राहत कोष गठित किया। उस कोष में मेयर ने खुद पचास पौंड की राशि दान दिया। दुर्भाग्य से इस साल दक्षिण अफ़्रीका में खुद अकाल-सी स्थिति बनी हुई थी। भयंकर सूखे का सामना कर रहा था। गांधीजी की अन्य व्यस्तताओं के बीच, 1897 की शुरुआत में भारत में भूख से पीड़ित लोगों की मदद के लिए आह्वान किया गया। उन्होंने अकाल राहत के लिए कुछ धन जुटाने के लिए तुरंत एक अभियान शुरू किया और दक्षिण अफ्रीका में अपने देशवासियों को भारत में लाखों लोगों के सामने मौजूद स्थिति की गंभीरता से अवगत कराया। इस कार्य में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने के लिए, उन्होंने बैठकें आयोजित कर समुदाय के सदस्यों से न केवल उदार योगदान देने का आग्रह किया, बल्कि दान एकत्र करने का कार्य भी करने को कहा। सेंट ऐडन स्कूल में आयोजित औपनिवेशिक मूल के भारतीयों की एक बैठक में गांधीजी द्वारा अपने परिपत्र में उल्लिखित प्रस्तावों को अपनाया गया, सभी उपस्थित लोगों ने न केवल धन योगदान के साथ मदद करने बल्कि दान प्राप्त करने में भी काम करने का संकल्प लिया।

राहत कोष के लिए सहयोग

2,3, और 4 फरवरी को नेटाल मरकरी व अन्य समाचारपत्रों को पत्र लिखकर गांधीजी ने यह अपील की कि भारतीय अकाल राहत कोष में सहायता करें। 6 फरवरी 1897 को डरबन के पादरी से भी अपील किया कि अकाल राहत कोष के लिए सहयोग प्रदान करें। उनके कहने पर, नेटाल के बिशप ने उपनिवेशवासियों से अपील की कि वे भारत के प्रति अपने दायित्व को पूरा करने के लिए आगे आएं - एक ऐसा देश जिसने अपने कई बेटों को गिरमिटिया मजदूर के रूप में उपनिवेश में आर्थिक विकास में मदद करने के लिए भेजा था। इस बाबत उन्होंने मेसर्स दादा अब्दुल्ला एण्ड कंपनी के परिसर में एक बैठक आयोजित किया ताकि भारतीय नेटाल कांग्रेस के सदस्यों से खुल कर दान देने का अनुरोध किया जा सके। इस बैठक में भाग लेते हुए सेठ अब्दुल्ला ने 101 पौंड, का दान देकर शुरुआत की। यह भी निर्णय लिया गया कि एक ऐसी समिति का गठन किया जाए जिसमें सभी वर्ग, जाति और सम्प्रदाय के लोग शामिल हों। हिन्दी, अंग्रेज़ी, गुजराती, तमिल और उर्दू में परिपत्र ज़ारी किए गए। सावधानी पूर्वक चन्दा उगाहा गया। दो दिनों में ही 1150 पौंड इकट्ठा हो गया। एक पखवाड़े के भीतर 1535 पौंड से अधिक की राशि इकट्ठे हुई जिसमें भारतीयों के अलावे गोरों का भी योगदान था। यहां तक कि गिरमिटिया मज़दूरों ने भी इस कोष में सहायता राशि का अंशदान किया। अध्यक्ष, केन्द्रीय अकाल राहत समिति कलकत्ता को सूचित किया गया कि नेटाल के भारतीयों द्वारा 1540 पौंड की राशि एकत्रित की गई है। जिसमें यूरोपीय और भारतीय दोनों ने योगदान दिया था। गिरमिटिया मजदूरों ने भी अपनी अल्प आय में से जो कुछ भी दे सकते थे, दिया था।

1899 में भी भारत को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा था। भारतीय नेटाल कांग्रेस के प्रयासों से तब भी इसी तरह का प्रयास किया गया। इस बार चंदा बहुत ज़्यादा था, खास तौर पर गोरे उपनिवेशवादियों की ओर से, जिनका एंग्लो-बोअर युद्ध छिड़ने के बाद भारतीय समुदाय के प्रति रवैया बदल गया था। उन्होंने £5,000 की कुल राशि में से £3,300 का योगदान दिया था।

उपसंहार

लोगों के कल्याण के कार्य गांधीजी को सबसे प्रिय था। इसके द्वारा उन्हें परम सत्ता की खोज का मार्ग प्रशस्त होता प्रतीत होता था। विभिन्न विचार और अवधारणाएं, अनुभव आदि से उन्हें अंतिम लक्ष्य सत्य, की ओर क़दम बढ़ाने में मदद मिल रही थी। हालाकि भगवद्‌ गीता उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत थी। वे गीता के कर्मयोग से खासे प्रभावित दिख रहे थे। वे गीता के परम उपासक थे। उनका मानना था कि मनुष्य के जीवन में जब चारों ओर से संकट आ जाता है और उसे रास्ता दिखाई नहीं देता तो वह हताश हो जाता है। ऐसी दशा में यदि वह गीता की शरण जाए तो उसे न केवल रास्ता मिल जाता है, बल्कि उसमें नया पुरुषार्थ भी पैदा हो जाता है। उनका मानना था कि सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उस पर नए-नए फल आते हैं। सत्य एक ऐसी खान के समान है कि उसमें जितना ही गहरा पैठा जाए, उतने ही रत्न गहराई में दिखाई देते हैं, जिनके आलोक में सेवा के नए-नए मार्ग सूझते जाते हैं।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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