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शनिवार, 28 सितंबर 2024

89. बोअर-युद्ध-6 “कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि

 गांधी और गांधीवाद

89. बोअर-युद्ध-6

कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि



फरवरी 1900

असिस्टैंट सुपरिन्टेन्डेन्ट

बोअर युद्ध के दौरान जनरल बुलर ने उन्हें असिस्टैंट सुपरिन्टेन्डेन्ट कहना शुरु कर दिया था। प्रिटोरिया न्यूज के सम्पादक विअर स्टेंट ने रणक्षेत्र में सेवा-कार्य में लगे गांधीजी का यह स्फूर्तिदायक शब्दचित्र अपने अखबार में छापा था,

सारी रात की कड़ी मेहनत के बादजिसने तगड़े जवानों को भी ढीला कर दिया थाबड़े सवेरे मेरी भेंट श्री गांधी से हुई। वह सड़क के किनारे बैठे हुए फौजी राशन में दिए गए बिस्कुट का कलेवा कर रहे थे। उस दिन जनरल बुलर की फौज का हर आदमी थका-मांदासुस्त और उदास था और सारी दुनिया को कोस रहा था। अकेले गांधीजी ही प्रस़न्नअविचलित और संतुलित थे। उनकी वाणी में आत्मविश्वास की झलक और नेत्रों में करुणा की ज्योति जगमगा रही थी।

अंततोगत्वा 28 फरवरी 1900 को जनरल बुलर की फ़ौज़ चार महीने की घेराबन्दी तोड़ लेडी स्मिथ में प्रवेश पाने में सफल हुई। शहर में चारों तरफ़ गन्दगी फैली थी। महामारी का खतरा उत्पन्न हो गया था। उसकी तुरत साफ़-सफ़ाई की ज़रूरत थी। गांधीजी से 200 लोगों की सहायता की मांग की गई। इस काम को भी भारतीय दस्ते ने पूरी दक्षता से अंजाम दिया। छह सप्ताह के बाद गांधीजी की टुकड़ी वापस लौट आई। गोरों के दस्ते को भी घर जाने की इजाज़त दे दी गई थी। लड़ाई तो इसके बाद भी बहुत दिनों तक चलती रही, पर दस्ते के विघटन के आदेश दे दिए गए। साथ ही यह भी कहा गया कि अगर फिर ऐसी जबर्दस्त जंगी कार्रवाई करनी पड़ी तो सरकार आपकी सेवा का उपयोग अवश्य करेगी।

चतुर्दिक प्रशंसा

भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ लड़ाई लड़ी थी, विनम्र भारतीयों ने लेडीस्मिथ की रक्षा में खुद को प्रतिष्ठित किया था, अमीर व्यापारियों ने युद्ध के संचालन के लिए धन के उपहार दिए थे और एक हजार स्वयंसेवकों ने स्ट्रेचर-वाहक के रूप में काम किया था। गांधीजी और उनके दस्ते के इस प्रयास की चतुर्दिक प्रशंसा हुई। इस काम से भारत की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जनरल बुलर ने भी गांधीजी के काम की काफ़ी तारीफ़ की। उनकी सेवाओं के लिए गांधीजी और सैंतीस अन्य भारतीय स्वयंसेवकों को युद्ध पदक से सम्मानित किया गया। गांधीजी की सेवाओं से प्रभावित होकर सरकार ने उन्हें कैसर-ए-हिन्दकी उपाधि से सम्मानित किया। जनरल बुलर ने इस टुकड़ी के सैंतीस मुखियों को तमगे दिए। गोरे अखबारों ने भारतीयों की प्रशंसा करते हुए उन्हें साम्राज्य सुपुत्र तक कहा। गांधीजी को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने वाले गोरों में तो जनवरी 1897 में डरबन में उनपर घातक हमला करनेवाले भारतीय-विरोधी प्रदर्शन के कई सरगना भी थे। उन भारतीयों की स्मृति में, जिन्होंने युद्ध के दौरान अपने प्राण गंवाए थे, जोहन्सबर्ग में एक भव्य स्मारक बनवाया गया। इस पर अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी में लिखा है “Sacred to the memory of British Officers, Waaraant Officers, Native N.C.O’s and Men, Veterinary Assistants, Nalbands and Followers of the Indian Army, who died in South Africa. 1899-1902.’’

क़ुर्बानी में भी किसी से पीछे नहीं

सबसे बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि गोरी सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय लोग क़ुर्बानी में भी किसी से पीछे नहीं हैं। इस प्रयास का एक और फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय अब अधिक संगठित हुए। भारतीय अनुशासन और एकता के सूत्र में बंध गए। उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ। उनकी प्रतिष्ठा और गोरों के साथ मैत्री भी बढ़ी। गांधीजी स्वयं गिरमिटिया आन्दोलनकारियों के काफ़ी निकट सम्पर्क में आए। हिन्दुस्तानियों में अधिक जागृति आई। हिन्द, मुसलमान, ईसाई, मद्रासी, गुजराती, सिन्धी सब हिन्दुस्तानी है, इस भावना का विकास हुआ। सबने माना कि भारतीयों का दुख दूर होना चाहिए। गोरों से भी मित्रता बढ़ी। वे भी भारतीयों के साथ मित्रता का व्यवहार करने लगे। दुख के समय सब एक दूसरे का प्यार और मैत्री से साथ दे रहे थे। इन स्वयं-सेवकों के प्रभाव से गोरे सैनिकों के दिल से रंगभेद और काले लोगों के प्रति घृणा भाव मिट-सा गया। गोरे सैनिकों ने देखा कि डरपोक कहे जाने वाले भारतीयों ने अपनी जान का खतरा उठा कर भी सैनिकों की जान बचाई। वे गांधीजी के प्रति उपकृत थे। लड़ाई के मैदान में सब लोगों का साथ-साथ खाना-पीना, उठना-बैठना बिना भेदभाव के बढ़ने लगा था।

सैन्य अनुशासन और वीरता

गांधीजी अंग्रेजों की ओर से मोर्चे पर गए थे। लेकिन वे उस दृढ़ संकल्प और साहस को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे जिसके साथ बोअर्स ने खुद को एक ऐसी शक्ति के खिलाफ़ लड़ा था जिसके पास बहुत ज़्यादा संसाधन थे। जिस चीज़ ने उन्हें ब्रिटिश चुनौती स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया था, वह था उनका स्वतंत्रता के प्रति प्रेम। साथ ही, वे इस बात से भी उतने ही प्रभावित थे कि पहले चरण में बहादुर बोअर्स से कुछ ज़बरदस्त प्रहार झेलने के बाद अंग्रेज़ों ने किस दृढ़ता के साथ युद्ध लड़ा। दोनों पक्षों की सेनाओं द्वारा प्रदर्शित वीरता को ध्यान से देखने के बाद, वे सैनिकों के मानसिक दृष्टिकोण को एक अलग नज़रिए से देखने लगे थे। वे देख सकते थे कि यह धैर्य, इच्छा शक्ति, सहनशक्ति, दृढ़ता, समय की पाबंदी और सटीकता के गुण थे जो अच्छे योद्धा बनाते हैं। सैन्य अनुशासन और वीरता को नज़दीक से देखने पर उनमें आत्म-संयम और दृढ़ता के विचार भर गए। वे यह देखकर चकित थे कि संकट के समय इंसान किस तरह खुद को बदल लेते हैं। भाईचारे की भावना युद्ध के मैदान में कहीं और की तुलना में ज़्यादा आम थी। दुःख के समय मनुष्य का स्वभाव किस तरह पिघलता है, इसका एक संस्मरण गांधीजी ने दिया है। वे चीवली छावनी की तरफ जा रहे थे। यह वही क्षेत्र था, जहाँ लॉर्ड रॉबर्ट्स के पुत्र को प्राण घातक चोट लगी थी। लेफ्टिनेंट रॉबर्ट्स के शव को ले जाने का सम्मान उनकी टुकड़ी को मिला था। अगले दिन धूप-ताप में कूच करते-करते गोरे सिपाही और भारतीय टुकड़ी के सदस्य दोनों समान रूप से प्यासे थे। रास्ते में एक छोटा-सा झरना दिखाई दिया। गोरो ने कहा, पहले भारतीय लोग पानी पीएंगे और भारतीय आग्रह करते थे कि पहले गोरे अपनी प्यास बुझाएंगे। सेवा और सहयोग से परस्पर शंका और वैमनस्य रखने वालों के बीच भी प्रीति पैदा हो जाती है।

गांधीजी पर गहरा असर

युद्ध का मुख्य भाग 1900 में पूरा हो गया। इंगलैण्ड से प्रशिक्षित यूनिट पहुंच गई। ब्रिटिश की क़िस्मत चमक गई। लेडीस्मिथ, किंबरली और मेफ़ेकिंग का छुटकारा हो गया। जनरल क्रोन्जे पारडीबर्ग में हार चुके थे। बोअरों ने ब्रिटिश उपनिवेशों का जितना भाग जीत लिया था वह सब ब्रिटिश सल्तनत को वापस मिल चुका था। लार्ड किचनर ने ट्रांसवाल और ऑरेंज फ़्री स्टेट को भी जीत लिया था। अब कुछ बाक़ी था तो केवल गुरीला युद्ध! बोअर्स, हालांकि पूरी तरह से पराजित हो चुके थे, लेकिन हार स्वीकार करना पसंद नहीं करते थे। मार्टिनस स्टेन (फ्री स्टेट के राष्ट्रपति) द्वारा उकसाए जाने पर, लुइस बोथा, डे वेट और डे ला रे ने गुरिल्ला दल का गठन किया और लड़ाई जारी रखी। जान स्मट्स भी उनके साथ शामिल हो गए और जल्द ही 'हिट एंड रन' रणनीति में माहिर हो गए। गुरिल्ला लड़ाई डेढ़ साल तक चली और अंग्रेजों ने इसे युद्ध का एक बेहद कठिन दौर माना। अंततोगत्वा अंग्रेजों ने विजय हासिल की विजयी अंग्रेजों ने जित हासिल करने के लिए पूरी तरह से क्रूर तरीके अपनाए।

युद्ध के मैदान में गांधीजी के अनुभव ने उनके व्यक्तित्व पर अपनी छाप छोड़ी। बन्दूकें, हिंसा, माराकाटी, जख़्मों से बहते ख़ून, ख़ाली मैदान, आकाश और वहां चमकते सितारे, हर चीज़ ने गांधीजी पर गहरा असर डाला। हजारों विचार उनके दिमाग को मथने लगे। कई बार उन्हें लगता कि ‘सत्य’ के ऊपर जो आवरण-सा पड़ा था, यह सब देखकर कुछ-कुछ हटने लगा था। उन्होंने देखा कि ज़िन्दगी और मौत का अटूट साथ है। ‘मौत’ नए जीवन की शुरुआत है। युद्ध का असली कारण मनुष्य की लालसा है। यदि मनुष्य की आत्मा को मुक्ति दिलानी है तो इस लालसा पर विजय प्राप्त करनी होगी। उन्होंने यह विचार करना शुरु किया कि वे अपने स्वयं की लालसा से कैसे मुक्ति पाएं जिससे वे निर्द्वन्द्व होकर मानव सेवा कर सकें।

बोअर युद्ध भारतीयों के लिए एक नया अनुभव था, उनके अन्दर यह भावना मजबूत हुई कि उन्होंने अपने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। लेकिन जो खास बात थी वह यह कि बोअर, जो अंग्रेजों की तुलना में मुट्ठी भर लोग थे, ने एक बड़े साम्राज्य की ताकत को चुनौती दी थी और बहादुरी, दृढ़ संकल्प और आत्म-बलिदान का परिचय दिया था। इसके अलावा, यह भावना केवल पुरुषों द्वारा ही नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चों द्वारा भी प्रदर्शित की गई थी। बहादुर बोअर महिलाओं ने लड़ाई में भी हिस्सा लिया और जब वे ऐसा नहीं कर सकीं तो उन्होंने अपने पतियों और बेटों को अपने देश और अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने और मरने के लिए प्रोत्साहित किया। महिलाओं और बच्चों ने कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन अपने पुरुषों से संघर्ष बंद करने के लिए नहीं कहा। गांधीजी ब्रिटिश यातना शिविरों में बोअर स्त्रियों की सहनशक्ति से अन्दर तक हिल गए और ब्रिटिश जनता की प्रतिक्रिया से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने लिखा था, जब यह करूँ पुकार इंग्लैण्ड पहुंची तो अँग्रेज़ जनता को गहरा कष्ट हुआ। वह बोअरों की बहादुरी की सराहना कर रही थी। श्री स्टीड ने सार्वजनिक रूप से प्रार्थना की और दूसरों को भी ऐसी प्रार्थना करने के निमंत्रण दिया की ईश्वर युद्ध में अंग्रेजों को शिकस्त दे। यह एक अद्भुत दृश्य था। बहादुरी से सहे गए वास्तविक कष्ट पत्थर का दिल भी पिघला देते हैं। कष्ट या ताप में ऐसी ही शक्ति होती है। और यही सत्याग्रह का मूल मन्त्र है।

उपसंहार

बोअर युद्ध गांधीजी के लिए एक महान अनुभव था जिसने उन पर अपनी छाप छोड़ी और उनके चरित्र को आकार दिया। गांधीजी को उम्मीद थी कि युद्ध में भारतीयों की दृढ़ता दक्षिण अफ्रीका की निष्पक्षता की भावना को आकर्षित करेगी और रंगीन एशियाई लोगों के प्रति श्वेत शत्रुता को कम करने में मदद करेगी। शायद दोनों समुदाय धीरे-धीरे एक-दूसरे के करीब आ जाएंगे। गांधीजी के पास खुद कोई आक्रामकता नहीं थी और दक्षिण अफ्रीका में आगे न कोई योजना थी, न ही महत्वाकांक्षा। लेकिन फिर भी नेतृत्व और संघर्ष वहां उनका इंतजार कर रहा था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

81. व्यापार और रंगभेद

 गांधी और गांधीवाद

81. व्यापार और रंगभेद



1897

प्रवेश

अपने हमलावरों को सजा दिलाने से इनकार करने की गांधीजी की घोषणा के बाद नेटाल में भारतीय प्रवासियों और श्वेत उपनिवेशवादियों के बीच सौहार्द का युग शुरू हो सकता था, अगर उपनिवेशवादी ऐसा चाहते। वास्तव में यूरोपीय समुदाय के नेताओं में से कोई भी ऐसा नहीं था जो शांति और सद्भाव के लिए व्यापक अभियान चला सके। इसके विपरीत, बहुत से ऐसे थे जिनके प्रभाव में एशिया विरोधी उपायों के लिए शोर बढ़ता जा रहा था। जल्द ही गुस्से से भरी आवाजें गूंजने लगी। 1897 में दक्षिण अफ़्रीका की राजनीतिक स्थिति में कई परिवर्तन हुए। 14 फरवरी 1897 को सर जौन रौबिन्सन ने नेटाल के प्रमुख के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। वे 1893 से, जब वे 34 वर्ष के थे, इस पद को सुशोभित कर रहे थे। उनकी जगह हैरी एस्कॉम्ब ने प्रधान मंत्री का पदभार ग्रहण किया। उसके कुछ ही दिनों बाद, 23 फरवरी 1897 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया। इस सत्र में तीन प्रमुख बिल पारित किए गए और तीनों ही प्रवासी भारतीयों के विरुद्ध थे।

क्वारंटीन संशोधन अधिनियम  (Quarantine Amendment Act)

1897 में नेटाल विधानमंडल द्वारा पारित पहला कानून क्वारंटीन संशोधन अधिनियम था, जिसका उद्देश्य नियमों को कड़ा करना था, न कि प्लेग के जीवाणुओं के प्रवेश को रोकना, बल्कि अवांछित भारतीयों को दूर रखना। इस अधिनियम के तहत यह प्रावधान था कि जो जहाज प्लेग आदि संक्रामक बीमारी ग्रसित क्षेत्र की तरफ़ से आता है उसे यात्रियों को बिना उतारे, वापस वहीं भेजा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने खुले तौर पर कहा भी था कि इससे सरकार को उपनिवेश में स्वतंत्र भारतीयों के आव्रजन को रोकने में मदद मिलेगी।

इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन अधिनियम (Immigration Restriction Act)

दूसरा इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन अधिनियम था जिसके तहत ऐसा व्यक्ति जो अंग्रेज़ी नहीं लिख सकता था, को वहां जाने से निषेध किया गया था। इसलिए, कोई भी भारतीय, चाहे वह अपने देश की किसी भी भाषा में पारंगत क्यों न हो, यदि वह यूरोपीय भाषा नहीं जानता तो अस्थायी रूप से भी नेटाल नहीं आ सकता था, जब तक कि उसे विशेष अनुमति न दी जाए। यदि वह सौ पाउंड जमा करता तो उसे अनुमति दी जा सकती थी। यह प्रमाण-पत्र नेटाल में प्रवेश के एक सप्ताह के भीतर हासिल करना ज़रूरी था। इसका सीधा सा असर यह था कि अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए मुसलमान किसी मौलवी को और हिन्दू किसी शास्त्री को दक्षिण अफ़्रीका नहीं भेज सकता था, क्योंकि अमूमन इन्हें अंग्रेज़ी लिखना नहीं आता था।

डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम (Dealers’ Licensing Act)

तीसरा था डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियमइसने खुदरा और थोक व्यापारियों के लिए अपने बही-खाते अंग्रेजी में रखना अनिवार्य कर दिया और स्थानीय निकायों द्वारा व्यापार लाइसेंस जारी करने और नवीनीकरण के लिए नियुक्त किए जाने वाले अधिकारियों को पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिए, तथा पीड़ित पक्ष को न्यायालय में अपील करने का कोई अधिकार नहीं दिया। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य भारतीय व्यापारियों के आप्रवासन को हतोत्साहित करना तथा नगरपालिकाओं को नेटाल में पहले से ही अपना व्यवसाय स्थापित कर चुके व्यापारियों से छुटकारा दिलाना था। दक्षिण अफ़्रीका के गोरे व्यापारी खुले बाज़ार में माल बेचकर भारतीय व्यापारियों का मुक़ाबला नहीं कर पा रहे थे। इसलिए राजनीतिक सत्ता से लाभ उठाकर वे रंग-भेद के अनुसार क़ानून बनाते थे और भारतीय व्यापारियों के ख़िलाफ़ तरह-तरह का दुष्प्रचार करते थे। भारतीय व्यापारियों के जीविका उपार्जन के रास्ते में हर प्रकार की बाधा डालने का सबसे प्रमुख कारण व्यापारिक ईर्ष्या ही था। भारतीय व्यापारी अपनी होड़ से और कम ख़र्च करने की आदतों के कारण वस्तुओं के दाम घटाने में समर्थ हुए। वे अपनी सीधी-सादी आदतों के कारण थोड़े-से लाभ से ही संतुष्ट रहते थे। जबकि दूसरी तरफ़ गोरे व्यापारी अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना चाहते थे।

गोरे व्यापारियों का भय

भारतीयों के प्रति दक्षिण अफ़्रीकी लोगों में बड़ा तीव्र द्वेष था। वे उन्हें कोसते थे। रंगभेद की नीति का मूल कारण गोरे व्यापारियों का यह भय था कि बाहर से व्यापारी आ गए तो उनका कारोबार चौपट हो जाएगा। भारतीय व्यापारियों को किसी तरह की सुविधा न मिले, इसके लिए संगठित प्रयास किए जा रहे थे। 1897 में नेटाल की विधान सभा ने एक क़ानून बनाया जिसके अनुसार लोगों को व्यापार करने से पहले सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना ज़रूरी था। जो अधिकारी परवाना बनाता था, वह जिसे चाहे परवाना दे सकता था, जिसे न चाहे, परवाना देने से इंकार कर सकता था। उसे पूरा अधिकार था कि वह थोक या फुटकर व्यापार का परवाना अपनी मरज़ी के अनुसार दे या देने से इनकार कर दे। उसके निर्णय पर वही नगर-परिषद या नगर-निकाय पुनर्विचार कर सकता था जिसे उसकी नियुक्ति करने का अधिकार था। परवानों के ऐसे मामलों में इन संस्थाओं के निर्णय के ख़िलाफ़ अदालत में अपील करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया था। परवाने के बिना व्यापार करने का दण्ड 20 पाउंड था। दंड न देने पर मजिस्ट्रेट को अधिकार था कि वह अपराधी को जेल भेज दे।

राशनिंग म्युनिसिपल संस्थाओं पर गोरे व्यापारी हावी थे। परवाना अधिकारी किसी भारतीय को परवाना न दे तो इन्हीं संस्थाओं से अपील की जा सकती थी। उनसे न्याय की आशा करना ही बेमानी था। ये संस्थाएं गोरों के साथ ही पक्षपात करती थी। इस डीलर्स लाइसेंसिंग एक्ट के तहत भारतीय व्यापारियों को परवानों से वंचित करने का प्रयत्न तेज़ हो गया। परवाना केवल साल भर के लिए मिलता था, इसलिए नया साल शुरु होते ही भारतीय व्यापारी डर और चिंता में डूब जाते थे। भारतीय व्यापारियों को परवाना नहीं दिए जाने के जो कारण बताए जाते थे वे भी बड़े बेतुके होते थे, जैसे उनकी दुकानें गंदी हैं, उनके घर गंदे हैं।

इसी तरह के आधार पर जब कुछ भारतीय व्यापारी को परवाना दिए जाने से मना कर दिया गया, तो गांधीजी ने ज़िला सर्जन को बुलाकर उनके घर दिखाए, दुकानें दिखाईं और उसका बयान प्रकाशित किया। उस बयान में कहा गया था, “मैंने जो कुछ देखा, उसमें मैं कोई दोष नहीं बता सकता। जहां तक सोने के स्थान की बात है, मुझे कोई भीड़-भाड़ नहीं दिखाई पड़ती। प्रत्येक व्यापार स्थान के पीछे उससे अलग, मैंने एक प्रकार का भोजन गृह देखा जिसमें 5 से 8 आदमियों तक बैठने का स्थान है और हरेक में उसका रसोई घर है। ये सब भी साफ़-सुथरे रखे जाते हैं। इससे पता चलता है कि प्रवासी भारतीयों को किन विपरीत परिस्थितियों में जीवन-यापन करना पड़ रहा था। यहां तक कि कुछ गोरों की दुकानें व्यापार की मंदी के कारण बंद हो गए, पर उसके लिए उन्होंने दोष एशियाइयों को दिया।

पहले से ही कई ऐसे क़ानून थे जिनके कारण एशियाई मूल के लोगों का जीना मुहाल था। 1885 का ट्रांसवाल में एशियाइयों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाला क़ानून जिसके तहत एशियाइयों को अलग बस्तियों में रखा जाए। भारतीय व्यापारियों को अफ़्रीकी आदिवासियों के वर्ग में रखा गया और रंगभेद के आधार पर उन पर प्रतिबंध लगाए गए। 1888 में उन्हें रात के 9 बजे के बाद सड़कों पर चलने-फिरने पर पाबंदी लगाने वाला नियम लाया गया। 1894 के अधिनियम के तहत भारतीयों को शहर की पैदल-पटरियों (फ़ुटपाथ) पर चलने के अधिकार से वंचित किया गया। 1897 के अधिनियम के तहत गोरों और ग़ैर गोरों के बीच विवाह वर्जित किया गया।

सोमनाथ महाराज का मामला

सोमनाथ महाराज नामक एक भारतीय व्यापारी का मामला, इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि क्या हो रहा था। उसने 1898 के आरंभ में डरबन में खुदरा दुकान के लिए लाइसेंस के लिए आवेदन किया था। वह एक बंधुआ मजदूर के रूप में नेटाल आया था। अनुबंध पर पाँच वर्ष की सेवा पूरी करने के बाद, वह एक स्वतंत्र भारतीय के रूप में तेरह वर्षों तक कॉलोनी में रहा था। बड़ी मेहनत से उसने एक दूरदराज के शहर में एक छोटा सा व्यवसाय खड़ा किया था। उसके पास लगभग छह वर्षों के लिए वैध लाइसेंस था। जिस दुकान के लिए उसने आवेदन किया था, उसे खोलने के लिए उसके पास पर्याप्त पूंजी थी। उसके पास अपना घर था और नगर में एक स्वतंत्र भूमि का टुकड़ा था। उसने कानून की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक यूरोपीय मुनीम की सेवाएँ ली थीं। उसकी दुकान एक ऐसे क्षेत्र में स्थित होनी थी जहाँ अधिकांश भारतीय रहते हों। सैनिटरी इंस्पेक्टर इस बात से संतुष्ट था कि परिसर उस तरह की दुकान के लिए उपयुक्त है जिसे सोमनाथ महाराज ने देखा था। तीन प्रसिद्ध यूरोपीय व्यापारियों ने उसके सम्मान और ईमानदारी के बारे में प्रमाणित किया था।

लाइसेंसिंग अधिकारी ने कोई कारण बताए बिना उसे लाइसेंस देने से इनकार कर दिया। उसने नगर परिषद में अपील दायर की, तो लाइसेंसिंग अधिकारी के दृष्टिकोण को बरकरार रखा गया। सोमनाथ महाराज की ओर से पेश हुए गांधीजी ने न्यायिक न्यायाधिकरण की हैसियत से बैठी परिषद के समक्ष जोरदार ढंग से तर्क दिया कि लाइसेंस देने से इनकार करना उनकी ओर से कितना अन्यायपूर्ण था। उन्होंने यह भी मुद्दा उठाया कि नगर क्लर्क ने इस निर्णय के कारणों को बताने और केस रिकॉर्ड की एक प्रति प्रदान करने से इनकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही यह मान लिया था कि डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम के अनुसार, किसी मामले के गुण-दोष के आधार पर अपील सुनना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इस मामले में दायर अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रक्रियागत अनियमितताओं पर विचार किया, जैसे कि लाइसेंस देने से इनकार करने के कारणों का खुलासा न करना, केस रिकॉर्ड की एक प्रति न देना, और यह तथ्य कि जब अपील पर सुनवाई हो रही थी, तो पार्षद टाउन सॉलिसिटर, टाउन क्लर्क और लाइसेंसिंग अधिकारी के साथ एक निजी कमरे में गुप्त विचार-विमर्श के लिए चले गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के पक्ष में लागत के साथ नगर परिषद की कार्यवाही को रद्द कर दिया और फिर से सुनवाई का आदेश दिया। निर्णय सुनाते हुए, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने परिषद की कार्रवाई को दमनकारी बताया था।

नगर परिषद ने अपील पर पुनः सुनवाई की। देश के सर्वोच्च न्यायिक न्यायाधिकरण द्वारा पारित सख्त आदेशों के पीछे की भावना पर ध्यान न देते हुए, उसने सोमनाथ महाराज को लाइसेंस देने से फिर इनकार कर दिया। लाइसेंस देने से इनकार करने का एकमात्र कारण यह बताया गया था: आवेदक का डरबन पर कोई दावा नहीं था, क्योंकि वह जिस प्रकार का व्यापार कर रहा था, उसके लिए शहर में पर्याप्त व्यवस्था थी। इस तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया गया कि जिस परिसर में दुकान खोली जानी थी, वहां पहले भी एक स्टोर कीपर था और वह कुछ महीने पहले ही डरबन से चला गया था। इसलिए, लाइसेंसों की संख्या बढ़ाने का कोई सवाल ही नहीं था। किसी भी मामले में परिसर केवल एक स्टोर के लिए उपयुक्त था।

लगभग हर जगह हालात मुश्किल होते जा रहे थे। आव्रजन प्रतिबंध और डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम दोनों ही सिद्धांत रूप में सभी पर लागू थे, लेकिन व्यवहार में ज़्यादातर भारत से आने वाले अप्रवासियों के खिलाफ़ लागू किए गए। गांधीजी ने लाइसेंसिंग मुद्दे को दो कारणों से विशेष महत्व दिया। वे इससे सीधे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की पीड़ा को गहराई से महसूस करते थे। वे इस बात से भी अवगत थे कि भारतीय व्यापारियों को व्यापार में हिस्सा लेने से वंचित करने से कॉलोनी में रहने वाले पूरे भारतीय समुदाय के भविष्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा। अप्रैल 1899 में भारतीय व्यापारियों के पास 683 लाइसेंस थे, जबकि 1897 के लाइसेंसिंग अधिनियम के पारित होने से पहले इनकी संख्या 844 थी; भारतीयों के पास फेरीवालों के लाइसेंस 465 से घटकर 191 रह गए; अन्य कानून द्वारा शासित भोजनालयों के लाइसेंस 49 से घटकर 28 रह गए।

दुकान में आग

मार्च 1897 के दूसरे सप्ताह में गोरों के एक गिरोह ने मज़ा लूटने के लिए वेस्ट स्ट्रीट की एक भारतीय वस्तु-भंडार में आग लगा दी। आग लगाने का उद्देश्य स्पष्ट था, वे भारतीय व्यापारियों को वहां से भगा देना चाहते थे। गोरों की भीड़ खड़ी तमाशा देख रही थी। जब तक पुलिस अपने दस्ते के साथ वहां पहुंची, तब तक कई भारतीय दुकानें आग की भयंकर लपटों से घिर चुकी थीं। उसी से सटा एक प्रवासी भारतीय के दो मंजिले मकान को भी आग लगने का खतरा मंडराने लगा। वहां खड़ी गोरों की भीड़ इस नज़ारा को देख कर आनन्द और हर्ष का अनुभव कर रही थी। कई ने तो इसे ‘A fine Saturday evening’ तक कह डाला। आग की लपटें जब तेज़ होतीं भीड़ में हर्ष का स्वर गूंज उठता, पर कोई भी आग बुझाने का ज़रा भी प्रयास करता न दिखा। दुकानों के समूह में तिल्लोक सिंह की ज्वेलरी की दुकान थी। जब उस दुकान में आग लगी तो भीड़ कूद-कूद कर मज़ा ले रही थी।

गांधीजी ने परिस्थिति के ख़तरे को भांपते हुए 26 मार्च 1897 को नेटाल विधान सभा के पास पेंडिंग भारतीय विरोधी बिल के खिलाफ़ याचिका दायर की। सर विलियम हंटर, सर मनचुरजी भावनगरी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति को सूचित करते हुए स्थिति पर हस्तक्षेप की मांग की। गांधीजी प्रवासी भारतीय की समस्या को कभी भी नेटाल कांग्रेस का प्रश्न नहीं बनाया, बल्कि इसकी ब्रिटिश उपनिवेश की समस्या के रूप में वकालत की। ब्रिटिश महारानी ने अपनी 1858 की घोषणा के द्वारा भारतीय साम्राज्य के निवासियों को उन्हीं अधिकारों का आश्वासन दिया जो अन्य सब प्रजा जनों को प्राप्त हैं। गांधीजी ने बताया कि कहने को तो ब्रिटिश साम्राज्य के सभी नागरिकों के अधिकार समान थे परंतु यहां उपनिवेशों में भेद किया गया। गांधीजी के सहयोगी मनसुखलाल नज़र ने लंदन में जहां एक तरफ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लोगों से संपर्क बनाए रखा वही दूसरी तरफ़ उस समूह के लोगों के संपर्क में भी रहे जिनकी कांग्रेस से उतनी सहानुभूति नहीं थी। सर मनचुरजी भावनगरी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। पर उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों को खुले दिल से समर्थन प्रदान किया। यही स्थिति सर विलियम हंटर के साथ भी थी। इस प्रकार विभिन्न समूहों का समर्थन प्रवासी भारतीयों को मिलने लगा। इस सब के बावज़ूद मई-जून 1897 में तीनों बिल पर सरकारी मुहर लग गई।

उपसंहार

नेटाल सरकार को तुरंत कार्रवाई के लिए मजबूर करना आसान नहीं था। स्थानीय बोर्डों और नगर परिषदों को भारतीयों को लाइसेंस देने से मना करने में सावधानी बरतने के लिए कहा गया ताकि स्थापित हितों में हस्तक्षेप न हो, ऐसा न करने पर सरकार को स्थानीय निकायों के निर्णयों के खिलाफ अपील करने का अधिकार देने वाला कानून पेश करना पड़ता। यह भारतीय समुदाय के लिए लंबे समय के बाद उम्मीद की पहली किरण थी, लेकिन गांधीजी इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें पता था कि इस चेतावनी से नगरपालिकाएं कुछ समय बाद फिर से वही पुराना खेल शुरू करने के लिए राजी हो सकती हैं। इसलिए उन्होंने कानून में संशोधन के लिए दबाव बनाए रखा। मामला अभी भी लटका हुआ था कि बोअर युद्ध छिड़ गया और जब तक यह चला, लाइसेंस देने से इनकार करने के बारे में किसी ने कुछ करने के बारे में सोचा भी नहीं।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

80. सफाई अभियान और अकाल कोष

 गांधी और गांधीवाद

80. सफाई अभियान और अकाल कोष


1897

प्रवेश

गांधीजी अन्य कार्यों में व्यस्त रहने के बावज़ूद भी प्रवासी भारतीयों की स्थिति किस तरह सुधरे इस पर लगातार चिन्तन-मनन करते रहते थे। उनका मानना था कि स्वयं का दोष दूर किए बिना अधिकार की मांग उचित नहीं है। गोरों द्वारा भारतीयों पर जब-तब यह आरोप लगाया जाता था कि वे गंदगी पसंद हैं और अक्सर अधिकारों की माँग करते रहते हैं। किसी हद तक यह सही भी था। वे अपने घर-बार साफ़ नहीं रखते और बहुत गंदे रहते थे। समाज के एक भी अंग का निरुपयोगी रहना गांधीजी को हमेशा अखरता था। जनता के दोष छिपाकर उसका बचाव करना अथवा दोष दूर किए बिना अधिकार प्राप्त करना उन्हें हमेशा अरुचिकर लगता था। इसलिए गांधीजी को लगा कि यदि प्रवासी भारतीयों के रहन-सहन में सुधार आ जाए तो गोरों और उनके बीच की कुछ दूरी पट जाएगी। 

सफाई अभियान

नेटाल में प्लेग के फैलने की आशंका बनी हुई थी। इस समस्या के प्रति गांधीजी की प्रतिक्रिया फिर से उनकी शैली के अनुरूप थी। सरकार की सख्ती हो, उसके पहले सफाई अभियान ज़रूरी हो गया था। महामारी के प्रकोप को रोकने के लिए अधिकारियों द्वारा सक्रिय रूप से कार्य करने से पहले ही, उन्होंने भारतीय समुदाय के सदस्यों के बीच स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देने का प्रयास किया। वह जानते थे कि यूरोपीय लोग भारतीयों द्वारा स्वच्छता मानकों के प्रति असावधानी से नाराज़ थे। गांधीजी ने सरकारी सहायता से प्रवासी भारतीयों की बस्तिओं में सफाई का काम शुरु किया। हालाकि यह काम उतना सरल नहीं था। कुछ लोगों ने तो गांधीजी का अपमान तक किया। कई जगहों पर उनकी उपेक्षा की गई। गांधीजी को यह देख कर दुख हुआ कि भारतीय अपने अधिकारों के प्रति जितने सजग दिखाई देते हैं, उतने अपने कर्तव्यों के प्रति नहीं। गन्दगी साफ़ करने के लिए किया जाने वाला कष्ट उन्हें अखरता था। घर-आंगन और बस्तियों की सफाई के पीछे अपने धन का खर्च करना उन्हें अपव्यय प्रतीत होता था। हाथ से काम करने में उन्हें शर्म आती थी। इन प्रयासों से गांधीजी को सबक मिली कि लोगों से कुछ भी काम कराना हो तो धीरज रखना चाहिए। सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती है। जिस समाज में वह सुधार कराना चाहता है, उससे तो उसे विरोध, तिरस्कार और प्राणों के संकट की भी आशा रखनी चाहिए। अन्य कार्यों के अलावा अपने कर्तव्यों के प्रति उन्हें जागरूक रखना भी गांधीजी का नियमित काम हो गया। उन दिनों गाांधीजी ने सफाई अधिकारियों की सहायता के लिए हिंदुस्तानी लोगों को अपनी बस्तियों को साफ रखने के लिए समझाने के लिए घर-घर दौरे का अभियान चलाया। बहुत से लोगों को यह ठीक नहीं लगा। कुछ ने इस अभियान की उपेक्षा की और कुछ ने तो उन्हें अपमानित भी किया लेकिन गांधीजी इस सेवा कार्य को अपना पावन कर्तव्य समझकर करते रहे। इस विशेष सफ़ाई अभियान से फ़ायदा यह हुआ कि भारतीय समाज ने घर-आंगन साफ़ करने के महत्व को कमोबेश स्वीकार कर लिया। अधिकारियों की नज़र में गांधीजी की साख बढ़ी। वे समझ गये कि उनका मकसद केवल शिकायत करना या अधिकार मांगना ही नहीं है, बल्कि शिकायत करने या अधिकार मांगने में जितने वे तत्पर रहते हैं, उतने ही उत्साहित सुधार के लिए भी।

अकाल से तबाही

उसी बीच भारत के लिए अशुभ घड़ी आ गई थी। भारत में भयंकर अकाल पड़ा था। लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर रहे थे। अब तक के इतिहास में ऐसा दुर्भिक्ष कभी नहीं पड़ा था। 1877-78 के अकाल में जो तबाही हुई थी उसकी तुलना में इस बार लगभग दुगुनी वृद्धि हुई थी। करोड़ों लोग इसका शिकार हुए थे। सर फ़्रान्सिस मैकलीन, मुख्य न्यायाधीश, बंगाल, की अध्यक्षता में अकाल राहत समिति गठित की गई। वहां से तार द्वारा दक्षिण अफ़्रीकी सरकार और भारतीय नेटाल कांग्रेस से सहायता की अपील की गई थी। डरबन के मेयर जॉर्ज पेन ने भारतीय अकाल राहत कोष गठित किया। उस कोष में मेयर ने खुद पचास पौंड की राशि दान दिया। दुर्भाग्य से इस साल दक्षिण अफ़्रीका में खुद अकाल-सी स्थिति बनी हुई थी। भयंकर सूखे का सामना कर रहा था। गांधीजी की अन्य व्यस्तताओं के बीच, 1897 की शुरुआत में भारत में भूख से पीड़ित लोगों की मदद के लिए आह्वान किया गया। उन्होंने अकाल राहत के लिए कुछ धन जुटाने के लिए तुरंत एक अभियान शुरू किया और दक्षिण अफ्रीका में अपने देशवासियों को भारत में लाखों लोगों के सामने मौजूद स्थिति की गंभीरता से अवगत कराया। इस कार्य में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने के लिए, उन्होंने बैठकें आयोजित कर समुदाय के सदस्यों से न केवल उदार योगदान देने का आग्रह किया, बल्कि दान एकत्र करने का कार्य भी करने को कहा। सेंट ऐडन स्कूल में आयोजित औपनिवेशिक मूल के भारतीयों की एक बैठक में गांधीजी द्वारा अपने परिपत्र में उल्लिखित प्रस्तावों को अपनाया गया, सभी उपस्थित लोगों ने न केवल धन योगदान के साथ मदद करने बल्कि दान प्राप्त करने में भी काम करने का संकल्प लिया।

राहत कोष के लिए सहयोग

2,3, और 4 फरवरी को नेटाल मरकरी व अन्य समाचारपत्रों को पत्र लिखकर गांधीजी ने यह अपील की कि भारतीय अकाल राहत कोष में सहायता करें। 6 फरवरी 1897 को डरबन के पादरी से भी अपील किया कि अकाल राहत कोष के लिए सहयोग प्रदान करें। उनके कहने पर, नेटाल के बिशप ने उपनिवेशवासियों से अपील की कि वे भारत के प्रति अपने दायित्व को पूरा करने के लिए आगे आएं - एक ऐसा देश जिसने अपने कई बेटों को गिरमिटिया मजदूर के रूप में उपनिवेश में आर्थिक विकास में मदद करने के लिए भेजा था। इस बाबत उन्होंने मेसर्स दादा अब्दुल्ला एण्ड कंपनी के परिसर में एक बैठक आयोजित किया ताकि भारतीय नेटाल कांग्रेस के सदस्यों से खुल कर दान देने का अनुरोध किया जा सके। इस बैठक में भाग लेते हुए सेठ अब्दुल्ला ने 101 पौंड, का दान देकर शुरुआत की। यह भी निर्णय लिया गया कि एक ऐसी समिति का गठन किया जाए जिसमें सभी वर्ग, जाति और सम्प्रदाय के लोग शामिल हों। हिन्दी, अंग्रेज़ी, गुजराती, तमिल और उर्दू में परिपत्र ज़ारी किए गए। सावधानी पूर्वक चन्दा उगाहा गया। दो दिनों में ही 1150 पौंड इकट्ठा हो गया। एक पखवाड़े के भीतर 1535 पौंड से अधिक की राशि इकट्ठे हुई जिसमें भारतीयों के अलावे गोरों का भी योगदान था। यहां तक कि गिरमिटिया मज़दूरों ने भी इस कोष में सहायता राशि का अंशदान किया। अध्यक्ष, केन्द्रीय अकाल राहत समिति कलकत्ता को सूचित किया गया कि नेटाल के भारतीयों द्वारा 1540 पौंड की राशि एकत्रित की गई है। जिसमें यूरोपीय और भारतीय दोनों ने योगदान दिया था। गिरमिटिया मजदूरों ने भी अपनी अल्प आय में से जो कुछ भी दे सकते थे, दिया था।

1899 में भी भारत को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा था। भारतीय नेटाल कांग्रेस के प्रयासों से तब भी इसी तरह का प्रयास किया गया। इस बार चंदा बहुत ज़्यादा था, खास तौर पर गोरे उपनिवेशवादियों की ओर से, जिनका एंग्लो-बोअर युद्ध छिड़ने के बाद भारतीय समुदाय के प्रति रवैया बदल गया था। उन्होंने £5,000 की कुल राशि में से £3,300 का योगदान दिया था।

उपसंहार

लोगों के कल्याण के कार्य गांधीजी को सबसे प्रिय था। इसके द्वारा उन्हें परम सत्ता की खोज का मार्ग प्रशस्त होता प्रतीत होता था। विभिन्न विचार और अवधारणाएं, अनुभव आदि से उन्हें अंतिम लक्ष्य सत्य, की ओर क़दम बढ़ाने में मदद मिल रही थी। हालाकि भगवद्‌ गीता उनकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत थी। वे गीता के कर्मयोग से खासे प्रभावित दिख रहे थे। वे गीता के परम उपासक थे। उनका मानना था कि मनुष्य के जीवन में जब चारों ओर से संकट आ जाता है और उसे रास्ता दिखाई नहीं देता तो वह हताश हो जाता है। ऐसी दशा में यदि वह गीता की शरण जाए तो उसे न केवल रास्ता मिल जाता है, बल्कि उसमें नया पुरुषार्थ भी पैदा हो जाता है। उनका मानना था कि सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उस पर नए-नए फल आते हैं। सत्य एक ऐसी खान के समान है कि उसमें जितना ही गहरा पैठा जाए, उतने ही रत्न गहराई में दिखाई देते हैं, जिनके आलोक में सेवा के नए-नए मार्ग सूझते जाते हैं।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

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