राष्ट्रीय आन्दोलन
319. नमक
सत्याग्रह, दांडी मार्च-1
1930
प्रवेश :
जनवरी के आरंभ में पंजाब सरकार ने भारत सरकार
से सिफ़ारिश की कि डॉ. सैफ़ुद्दीन किचलू को उनके भाषणों के लिए गिरफ़्तार कर लेना
चाहिए। भारत सरकार ने सिफ़ारिश को मानने से इंकार कर दिया। इसका कारण था कि
कांग्रेस इस समय काफी संगठित थी। कोई फूट की संभावना सरकार को नज़र नहीं आ रही थी।
नए और पुराने नेतृत्व में गांधीजी के कुशल मार्ग दर्शन के कारण एकता दृढ़ हो चुकी
थी। गांधीजी ने स्पष्ट शब्दों में अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था कि अन्यायी सकार को
बदलने या मिटाने का जनता को अधिकार है।
लाहौर कांग्रेस में ही यह
प्रस्ताव पारित हो गया था कि कांग्रेसी विधायक 6 जनवरी को त्यागपत्र दे देंगे। इस निर्देश का सामान्य रूप
से पालन भी हुआ। लेकिन एन.सी. केलकर, सत्यमूर्ति और अंसारी ने इस्तीफ़ा नहीं दिया।
नेहरू रिपोर्ट संबंधी वार्ता भंग हो जाए के बाद अंसारी राष्ट्रीय आंदोलन का दूसरा
दौर आरंभ करने के पक्ष में नहीं थे।
1930 का साल स्वतंत्रता संग्राम
के इतिहास में काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। दिसम्बर 1929, लाहौर
कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सम्पूर्ण स्वराज्य को अपना प्राथमिक
लक्ष्य घोषित किया था। स्वराज्य की घोषणा तो हो गई लेकिन फ़िरंगियों को देश और
सत्ता से निकालना अभी बाक़ी था। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद यह तय हुआ कि आगे उठाए जाने
वाले क़दमों के कार्यक्रम की योजना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी बनाएगी। मतलब साफ़ था कि स्वाधीनता संग्राम की अगली रणनीति
और उसे नए सिरे से शुरू करने के समय का फैसला अब गांधीजी को लेना था। गांधीजी ने
स्पष्ट शब्दों में अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया कि अन्यायी सकार को बदलने या मिटाने
का जनता को अधिकार है। अगर वातावरण अहिंसात्मक रहा, तो सविनय अवज्ञा आंदोलन को
शुरू करने को मैं तैयार हूं। 1920 का संघर्ष देश की तैयारियों के लिए था, इस बार का संघर्ष अंतिम मुठभेड़ के
लिए होगा। गांधीजी ने पूर्ण स्वराज्य की प्रतिज्ञा लिख डाली। यह निर्णय हुआ कि भारत
को राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से नष्ट
करने वाले अंग्रेजी शासन को अधिक सहा जाना ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है और किसी
सुनिश्चित दिन इस प्रतिज्ञा को सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाएगा। पंडित मोतीलाल नेहरू
ने सुझाया कि वसंत पंचमी के दिन सुबह दस बजे का मुहूर्त बड़ा ही शुभ है। साल 1930 में वसंत पंचमी का दिन 26 जनवरी को पड़ता था।
26 जनवरी को पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा
अब राजनीति की गति एक बार फ़िर बढ़ गई थी। 26 जनवरी 1930 को देश को स्वतंत्र कराने के लिए पूरे देश में प्रतिज्ञा ली गई। गाँधी जी ने स्वयं सुस्पष्ट निर्देश देकर बताया
कि इस दिन को कैसे मनाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि स्वतंत्रता की उद्घोषणा
सभी गाँवों और सभी शहरों यहाँ तक कि अगर सभी जगहों पर एक ही समय में संगोष्ठियाँ हों तो अच्छा होगा।
गाँधी जी ने सुझाव दिया कि नगाड़े पीटकर पारंपरिक तीरके से संगोष्ठी के समय की
घोषणा की जाए। राष्ट्रीय ध्वज को फ़हराए जाने से समारोहों की शुरुआत होगी। दिन का
बाकी हिस्सा किसी रचनात्मक कार्य में चाहे वह सूत कताई हो अथवा ‘अछूतों’ की सेवा अथवा हिंदुओं व मुसलमानों का पुनर्मिलन अथवा निषिद्ध कार्य
अथवा ये सभी एक साथ करने में व्यतीत होगा और यह असंभव नहीं है। विभिन्न स्थानों पर
राष्ट्रीय ध्वज फ़हराकर और देशभक्ति के गीत गाकर ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया
गया। तब से 26 जनवरी हमारे देश
के इतिहास की महत्वपूर्ण तारीख़ बन गई। यह दिन स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया
जाने लगा। यह प्रतिज्ञा ली गई, “ग़ुलामी सहन करना ईश्वर और देश के प्रति द्रोह है। सल्तनत के
मातहत, देश का
राजनीतिक-आर्थिक शोषण हुआ है। सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक
पतन हुआ है, इसलिए हम प्रण करते हैं कि जब तक पूर्ण स्वराज्य
नहीं मिलेगा, तब तक हम इस अधम सत्ता का अहिंसक असहयोग करेंगे
और क़ानून का सविनय भंग करेंगे।”
उस दिन पूरे देश में एक नई आशा और
उत्तेजना जगी। पूरे
देश में प्रभात फेरी निकाली गई। सभाएं की गईं। प्रतिज्ञा ली गईं। दिल्ली में इस समारोह में 50 हज़ार के आसपास लोग
शामिल हुए। बंबई में शाम को जुलूस निकाली गई जिसमें दस हज़ार लोग थे। चौपाटी की
जनसभा में 30 हज़ार लोग आए। आगरा और कानपुर जैसे छोटे शहरों
में भी आठ-दस हज़ार लोग शामिल हुए। कलकत्ता के प्रत्येक मोड़ पर झंडा फहराया गया।
कांग्रेस देशव्यापी स्तर पर अभियान छेड़ने के लिए तैयार थी। सबकी आंखें गांधी जी पर
टिक गईं।
देश जन आन्दोलन के लिए तैयार
साल 1930 के पहले दो महीने
तनावपूर्ण और आशंका भरे थे। सरकार और देश सबरमती से आने वाले संदेश का इंतज़ार कर
रहे थे। गांधीजी ने खुद को आश्रम में सीमित कर लिया था। लेकिन जब स्वाधीनता-दिवस
के समारोहों में जनता की उमंग उभर कर सामने आई तो गांधीजी को विश्वास हो गया कि
देश जन-आन्दोलन के लिए तैयार है। उन्हें लगने लगा कि देशवासी अब पहले से अधिक
अनुशासन सीख गए हैं। देश के लोग गांधीजी के संघर्ष की रूपरेखा को अधिक स्पष्ट रूप
से समझने लगे हैं। स्वतंत्रता की घोषणा होते ही सारा विश्व जान गया था कि शीघ्र ही
गांधी जी, सरकार के ख़िलाफ़ एक नया अभियान चलाने वाले हैं।
साल के पहले दो महींने तनावपूर्ण और आशंका भरे
थे। सरकार और देश, दोनों ही पूर्ण स्वराज्य के अहिंसक संघर्ष के लिए सबरमती से आने
वाले संदेश का इंतज़ार कर रहे थे। अहमदाबाद से लौटने के बाद गंधी जी ने खुद को
आश्रम में सीमित कर लिया था। दिन बीतते गए। उनकी चुप्पी के कारण अफ़वाहों का बाज़ार
गरम होने लगा। कुछ लोगों ने तो यहां तक कह डाला कि गांधी जी संघर्ष से अलग हो रहे
हैं। कोई यह कहता कि महात्मा गांधी अब संतों के काम में खुद को सीमित करने जा रहे
हैं। लखनऊ में यह अफ़वाह उड़ी कि अंगरेज़ों को भगाने के लिए वे हिंसक संघर्ष का समर्थन
करने जा रहे हैं। अहिंसा से कोई लाभ नहीं हुआ इसलिए उनकी अहिंसा में अब आस्था नहीं
रही और वे युवकों को क्रांतिकारियों के मार्ग का अनुसरण करने की सलाह देने वाले
हैं।
संघर्ष के अगले स्वरूप के बारे में फैसला लेने
में बापू को कई सप्ताह लगे। विश्व
कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर साबरमती आश्रम में गांधीजी से मिलने आए। उन्होंने गांधीजी से पूछा, वह देश के लिए क्या
योजना बना रहे हैं? गांधीजी ने कहा कि मैं आन्दोलन शुरू करने के बारे में रात-दिन
प्रचण्ड रूप से विचारमग्न रहता हूं। लेकिन गहन अन्धकार में प्रकाश की कोई किरण
फूटती नहीं दिखाई दे रही। गांधीजी को किसी ऐसे मुद्दे की खोज थी जिससे विदेशी सरकार
की बुराइयां और अन्याय स्पष्ट हो जायें और पूरा देश जाग उठे। यह सामूहिक भागीदारी का
ऐसा कार्यक्रम हो जो देश की ग़रीब-से-ग़रीब जनता में भी उत्साह का संचार कर दे। अहिंसा के लिए गांधीजी के हृदय में एक
जबर्दस्त सच्चाई और लगन थी। देश की स्थिति सुधारने के लिए गांधी
जी अहिंसा को एकमात्र ठीक तरीक़ा मानते थे। वे मानते थे कि इसका उचित रूप से पालन किया
जाए तो यह अचूक तरीक़ा साबित होगा। हिंसा को किसी भी रूप में आंदोलन का अंग बनने देना
उन्हें पसंद नहीं था। सबसे बड़ा सवाल था कि आंदोलन क्या होगा, कैसे
होगा और इसकी शुरुआत कैसे होगी? कई लोग उम्मीद कर रहे थे कि उनका प्रस्तावित
आंदोलन सिविल नाफ़रमानी के पुराने रास्ते पर चलेगा। जैसे सरकार को कर देने से इंकार
किया जाएगा। अदालतों का वहिष्कार किया जाएगा। लकिन गांधीजी तो ऐसा कार्यक्रम हाथ
में लेना चाहते थे जो हरेक ग्रामीणों को छू ले। ... और उन्होंने नमक को चुना !!
नमक??
वह छह सप्ताह तक सोचते रहे। तब उन्हें अपनी
अन्तरात्मा की आवाज़ सुनाई दी जिसने उनसे नमक क़ानून तोड़ने के लिए कहा। गांधीजी ने कुछ वर्ष पहले नमक खाना
छोड़ दिया था। इसलिए यह चीज़ उनके ख़ुद के लिए कोई महत्व नहीं रखती थी। लेकिन इसे
स्वतंत्रता संग्राम का आधार बनाकर उन्होंने नमक-क़ानून तोड़कर आन्दोलन शुरु करने का
प्रस्ताव रखा। वैसे तो नमक-कर अन्य करों की तुलना में कम ही था, परन्तु उसका बोझ
देश के सबसे गरीब लोगों पर पड़ता था। अंग्रेज़ सरकार के नमक पर लगाए गए कर को
गांधीजी ने दुनिया का सबसे अमानवीय कर करार दिया। उस समय भारत में एक मन यानी 38
किलो नमक की क़ीमत 10 पैसे हुआ करती थी। उस पर
सरकार ने बीस आने यानी 2400 प्रतिशत का कर लगा दिया। इसीलिए
नमक-कर पर आघात करने और नमक-क़ानून तोड़ने का निश्चय किया गया।
कांग्रेस की बैठक साबरमती में
फरवरी के अंत में आश्रम में अचानक
एक बैठक बुलाई गई। उस बैठक में गांधी जी ने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष नमक-कानून
तोड़ कर आन्दोलन शुरू करने का प्रस्ताव रखा। लोग गांधीजी का ऐलान सुन चकित रह गए।
उन्होंने जब नमक सत्याग्रह की बात की तो कांग्रेस के नेताओं की अविश्वास भरी
प्रतिक्रिया हुई। कई नेता पूछ बैठे, “क्या आप गंभीरता से यह बात कह रहे
हैं? आप चाहते हैं कि हम लोग नमक बनाएं?! घर-घर नमक बनाकर हमें स्वराज्य कैसे मिल
जाएगा?”
देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम की योजना में नमक
आन्दोलन का महत्व लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। वह उससे मेल खाता नहीं दिखता
था। अधिकांश लोग इस बात का उपहास करने लगे कि नमक भी कोई सत्याग्रह की चीज़ है!
गांधीजी ने विस्तार से नमक क़ानून
तोड़ने का महत्त्व और तरीक़ा उपस्थित लोगों को समझाया। नमक जीवन की बुनियादी ज़रूरत
है। उसे आसानी से बनाया जा सकता है। औपनिवेशिक हुक़ूमत के तहत भारतीय न तो ख़ुद नमक
बना सकते थे और न ही बेच सकते थे। उसपर से अंग्रेज़ सरकार ने उस पर 2400 प्रतिशत कर लगा
दिया था। उन्हें ब्रिटेन में बना और वहां से आयात किया गया महंगा नमक ख़रीदना पड़ता
था। गांधी जी ने बताया कि आज़ादी की लड़ाई देश भर में नमक क़ानून को तोड़ कर शुरू की
जाएगी। उन्होंने लोगों को समझाया कि सरकार सारी निष्ठुरता का उपयोग करेगी। वह हमें
कुचल देना चाहेगी। लेकिन हमें अहिंसा और विनय का मार्ग नहीं छोड़ना है। उन्होंने यह
भी ऐलान किया कि सबसे पहले वे खुद ही इस क़ानून को तोड़ेंगे। मोतीलाल जी ने कहा, “गांधीजी सचमुच जादूगर हैं! हमारी
समझ में नहीं आ रहा था, मगर उन्होंने हमारे सब के दिमागों पर क़ब्ज़ा कर लिया!!”
गांधीजी की घोषणा की खिल्ली उड़ाई गई
गांधीजी ने घोषणा की कि वह अहमदाबाद
में अपने आश्रम से 241 मील पैदल चल कर, अरब समुद्र तट पर दांडी में नमक बना
कर कानून तोड़ेंगे। नमक राष्ट्रव्यापी संघर्ष का रूप ले सकेगा या नहीं, इसमें
गांधीजी के निकटतम सहयोगियों को भी भारी संदेह था। जब गांधी जी ने इसकी घोषणा की
तो उस समय के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ सरकार ने भी इसे “बचकानी राजनैतिक क्रान्ति” कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई और इस विचार
का मजाक बनाया कि कड़ाही में समुद्र का पानी उबाल कर वह सम्राट से मुल्क और
हुकूमत छीन लेंगे! केन्द्रीय रेवेन्यू बोर्ड के सदस्य टाटेनहेम ने (नमक-कर की
वसूली का काम उसके ही जिम्मे था) नमक सत्याग्रह को “मि. गांधी का शेखचिल्लीपन” बताया था। इरविन ने बड़े
आत्मविश्वास के साथ भरत-सचिव वेजवुड बेन को लिखा था, “फिलहाल तो नमक सत्याग्रह की भावी
योजना ने मेरी रातों की नींद नहीं उड़ाई है।” लेकिन आने वाली घटनाओं ने दिखा दिया कि नमक और
स्वराज्य के पारस्परिक सम्बन्ध को ठीक से न समझ सकने के कारण जिन लोगों ने
नमक-सत्याग्रह का उपहास किया था, उन्हें भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए
संगठित करने की गांधी जी की कुशलता का सही ज्ञान नहीं था।
ग्यारह सूत्रों की घोषणा
फरवरी, 1930 में कांग्रेस वर्किंग
कमिटी ने गांधीजी को उचित समय पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने का अधिकार दे
दिया था। गांधीजी यह आन्दोलन
शुरू करने के पहले सरकार को एक मौक़ा देना चाहते थे। 2 मार्च, 1930 को गांधीजी ने इरविन को पत्र लिखकर नमक कर तोड़ने की घोषणा के
साथ-साथ ग्यारह सूत्रों की चेतावनी भी दी।
वे ग्यारह सूत्र निम्नलिखित थे -
1. सेना के व्यय
में 50% की कटौती,
2. सिविल सेवा के
वेतनों में 50% की कटौती,
3. पूर्ण
शराबबंदी,
4. राजनीतिक
बंदियों की रिहाई,
5. आपराधिक
गुप्तचर विभाग में सुधार,
6. हथियार क़ानून
में सुधार,
7. रुपए-स्टर्लिंग
के विनिमय अनुपात को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेंस करना,
8. कपड़ा उद्योग को
संरक्षण प्रदान करना,
9. तटीय नौवहन को
भारतीयों के लिए आरक्षित करना,
10.
भू-राजस्व में 50% की कटौती, और
11. नमक कर की एवं
नमक पर सरकारी एकाधिकार की समाप्ति।
इस मांग-पात्र में पूर्ण स्वराज का
कोई ज़िक्र नहीं था। लोगों को लगा ग्यारह सूत्री मांगपत्र पूर्ण स्वराज की मांग से एक प्रकार से पीछे हटना था। यह बात लोगों की समझ से परे थी कि जब लोग पूर्ण स्वतंत्रता की बातें कर रहे
थे, तो थोड़े-से राजनीतिक और सामाजिक सुधारों की सूची बनाने का क्या मतलब था, चाहे सुधार
अच्छे ही क्यों न हों। लेकिन ग्यारह सूत्री मांगपत्र से यह तो
स्पष्ट था कि इसने राष्ट्रीय मांगों को मूर्त रूप दिया। इस मांग-पत्र में सभी
वर्गों के हितों का ध्यान रखा गया था। जब सरकार ने इस मांग-पत्र को अस्वीकार कर
दिया, तो गांधीजी को सत्याग्रह छेड़ने का औचित्य मिल गया।
लॉर्ड इरविन को पत्र
भारत में नमक पर ब्रिटिश सरकार का
एकाधिकार था। कोई भी न तो इसे बना सकता था और न ही सरकार के अलावा किसी और से ख़रीद
सकता था। ब्रिटिश सरकार ने नमक पर जो कर लगाया था उसे नमक क़ानून (साल्ट एक्ट) कहा
गया था। इसमें कहा गया था, “बिना लाइसेंस नमक बनाना ग़ैर क़ानूनी
है।” गांधीजी इस क़ानून को तानाशाही के
एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे।
2 मार्च 1930 को गांधी जी ने सत्याग्रह आश्रम, साबरमती से भारत के वायसराय लॉर्ड इर्विन
को एक ऐतिहासिक पत्र लिखा, “प्रिय मित्र, मैं जान-बूझ कर किसी
जीव का अहित नहीं कर सकता, मनुष्यों का तो नहीं ही, भले ही वे मुझे या मेरे काम को
सबसे ज़्यादा चोट पहुंचाएं। इसलिए जबकि मैं ब्रिटिश शासन को एक अभिशाप मानता हूं,
मैं किसी भी अंगरेज़ को या भारत में उसके उचित हित को चोट पहुंचाने का इरादा नहीं
रखता।” इसके बाद गांधी जी ने उस पत्र में
ब्रिटिश शासन की बुराइयों और विषमताओं को गिनाया। भारत स्थित ब्रिटिश सरकार दुनिया
की सबसे खर्चीली सरकार थी। वायसराय की मासिक तनख्वाह 21,000 रुपये थी,
जबकि इंगलैण्ड के प्रधानमंत्री को सिर्फ़ 5,400 रुपये मिलते
थे। भारत में हर आदमी की औसत रोज़ाना आमदनी दो आने से कम थी और वायसराय को रोज़ाना 700 रुपये दिए जाते थे। इंगलैण्ड के प्रधानमंत्री को रोज़ाना 180 रुपए मिलते थे जबकि एक ब्रिटेनवासी की प्रतिदिन की औसत आय दो रुपये थे।
अकेला वायसराय पांच हज़ार भारतीयों की औसत कमाई का हिस्सा खा जाता था, जबकि
इंगलैण्ड का प्रधानमंत्री सिर्फ़ नब्बे अंग्रेज़ों की कमाई लेता था। अंग्रेज़ों के इस
तरह से लूट के खिलाफ़ गांधीजी ने पत्र में लिखा कि वे ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़
सत्याग्रह करेंगे, पर अहिंसक ढंग से। उन्होंने आज़ादी के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन
शुरू करने का इरादा ज़ाहिर किया। उन्होंने लिखा, “मैं (नमक पर) इस क़ानून को ग़रीबों के
लिहाज से सबसे ज़्यादा अनुचित मानता हूं। नमक पर कर लगाने से ग़रीबों पर और भी बोझ
बढा गया है। सभी
लोगों को मालूम है कि अमीरों की तुलना में ग़रीब मनुष्य को नमक की अधिक आवश्यकता है
.... केवल सुव्यवस्थित अहिंसा ही हिंसा को रोक सकती है। .... मैं आपसे सम्मानपूर्वक निवेदन करता
हूं कि इस बुराई को ख़त्म करें। लेकिन यदि
मेरे इस पत्र से आप पर कोई असर नहीं पड़ा तो इस महीने की 12 तारीख को मैं अधिक
से अधिक संख्या में अपने आश्रम वासियों के साथ मिलकर आपके नमक क़ानून का विरोध
करूंगा। ...”
अंग्रेज़ी जाति के प्रति अपने प्रेम
और विश्वास को प्रकट करने के लिए गांधी जी ने वह पत्र लेकर सफ़ेद खादी वेशधारी
अंग्रेज़ युवक रेजिनल्ड रेनल्ड्स, के हाथों नई दिल्ली स्थित वायसराय आवास भेजा।
उसने पत्र वायसराय को दिया। वायसराय ने बिना कुछ कहे उसे विदा कर दिया। गांधीजी नौ दिन तक वायसराय के उत्तर की
प्रतीक्षा करते रहे। वायसराय ने आंखें मूंद लेने का फैसला किया। उसके निजी सचिव
जी. कनिंघम ने उत्तर लिखा, जिसमें केवल यही कहा गया था कि “वायसराय महोदय को गांधी जी महाशय के
इरादे के बारे में जानकर खेद हुआ क्योंकि उनकी कार्यवाही से एक तरह से स्पष्ट रूप
से क़ानून का उल्लंघन होगा और सार्वजनिक शांति को खतरा होगा।” गांधी जी ने इसका जवाब दिया, “दुनिया में भारत के अलावा कौन-सा देश है जिसमें सालाना
आमदनी 360 रुपये हो और उसमें से 3
रुपये देने पड़ते हों, सिर्फ़ नमक कर के। ब्रिटिश शासक केवल एक ही तरह की शांति
चाहता है और वह है सार्वजनिक कारागार की शांति। भारत एक विशाल कारागार ही तो है।”
उर्दू कवि ब्रजनारायण ने उन दिनों लिखा था, “एक लाश बेकफ़न है, हिंदोस्तां हमारा”। दसवें दिन गांधी जी ने अपने अनुयायियों की एक सभा बुलाई।
उन्होंने मज़बूत इरादों के साथ कहा, “भाइयों! झुके घुटनों पर मैंने रोटी
की मांग की और इसके बदले मुझे पत्थर मिला है। मैं इसी आश्रम से सागर तट स्थित दांडी
तक जुलूस का नेतृत्व करूंगा। वहां पहुंच कर हम क़ानून तोड़कर नमक बनाएंगे।” गांधी जी के ओज भरे आह्वान सुनकर
श्रोताओं में बिजली-सी लहर दौड़ गई। “नमक क़ानून तोड़ो” अभियान का समाचार चारो ओर फैल गया।
उधर सरकार ने घोषणा कर दी, “इस तरह से नमक बनाना ग़ैर क़ानूनी
माना जाएगा।” किन्तु गांधी जी अपने इरादे पर दृढ़ थे। अब वे नमक
सत्याग्रह शुरू करने जा रहे थे। नमक सत्याग्रह सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। उन्होंने
लोगों को यह भी समझाया कि सत्याग्रह का जो तरीका अपनाया सकता था, वह था उपवास,
अहिंसा, धरना, असहयोग, सविनय अवज्ञा और क़ानूनी दण्ड।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर