आँच -55
आचार्य परशुराम राय
आज की आँच पर मृदुला प्रधान जी की कविता “नींद थी एक रोज जल्दी खुल गयी”' समीक्षा के लिए चुना गया है। मृदुला प्रधान जी के पाँच कविता संग्रह – “फुरसत के छाँव में”, “गुलमोहर से रजनीगंधा तक”, “ये रहा गुलाब”, “पीली सरसों” और “चलो कुछ बात करें” प्रकाशित हो चुके हैं। आज की विवेच्य रचना इनके अपने 'मृदुला'ज ब्लाग' पर 30 जनवरी, 2011 को प्रकाशित हुई थी।
इस कविता में पास के निर्माणाधीन पार्क में हो रही गतिविधियों के स्वाभाविक चित्रण के माध्यम से कवयित्री ने सन्देश दिया है कि औपचारिक और सुविधा का आदी मानव स्वाभाविक जीवन से दूर होकर जीवन का रस और स्वाद खो देता है, उनसे वंचित हो जाता है। इसका आभास भी हम तभी कर पाते हैं, जब सुविधाजन्य सम्मोहन या नींद से जागते हैं। हममें प्रकृति-प्रदत्त सुविधाओं और कृत्रिम सुविधाओं के बीच की दूरी के प्रति जागरूकता का अभाव ही हमारी सोच को स्तम्भित कर देता है, सम्मोहित कर देता है और हम प्राकृतिक वरदान से वंचित रह जाते हैं। इसी भाव भूमि पर 'नींद थी एक रोज जल्दी खुल गयी' कविता लिखी गयी है।
प्रकृति का सबेरा हमारे सबेरे से अलग होता है। सूर्योदय के पहले ही प्राकृतिक पर्यावरण जागने लगता है - पक्षी सूर्योदय की सूचना देने लगते हैं। पेड़-पौधों में जैविक परिवर्तन होने लगते हैं। उत्फुल्लता नजर आने लगती है। लेकिन हमारा सबेरा तो तब होता है जब हम सोकर उठते हैं। सूर्योदय से कभी मुलाकात नहीं होती, तो उस समय होने वाली प्राकृतिक हलचल भी हमें नहीं दिखाई देती और न ही सुनाई देती है। लेकिन आज जल्दी नींद खुलने पर भी सूर्योदय से मुलाकात नहीं हुई। बल्कि निर्माणाधीन पार्क में कार्यरत कुछ मजबूर भोजन की पूरी तैयारी कर चुके हैं, तो कुछ इतना काम कर चुके हैं कि बिना कुछ खाए आगे काम करने की क्षमता नहीं बची है। उस समय हम चाय पीते हैं और लगता है कि आज हम कुछ जल्दी उठ गए हैं कुछ ऐसी ही भाव-भूमि है इस विवेच्य कविता की।
हमारी स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो कहीं न कहीं हमारी परतंत्रता या मजबूरी या विवशता की सीमा हमें धक्का देती है, किन्तु स्वतंत्रता की नींद में हम उसका झटका करवट बदलकर भुलाने के आदी हो गए हैं। इसलिए प्रकृति-प्रदत्त वरदान का नैसर्गिक सुख हमें नहीं मिलता है। दोनों ही तत्व अनन्य रूप से ऐसे संगुम्फित हैं कि उनका भेद करना उद्बुद्ध विवेक द्वारा ही ज्ञात हो सकता है। जब नींद आती है, हम उसके अधीन हैं। लेकिन यह अधीनता हमें बहुत कुछ देती है और वह है ताजगी भरे जागरण की स्वाधीनता, काम करने की ऊर्जा पर अधिकार शरीर के अवयवों को स्वस्थ होने का अधिकार। कुछ ऐसे ही तथ्यों की ओर संकेत करती है यह कविता।
इस कविता के मूल रूप से 3 बिन्दु हैं जहाँ पर हलचल दिखाई पड़ रही है अर्थात जीवन के चिह्न दिखाई दे रहे हैं। इन सबके मूल में हैं भूख जिसे शान्त करने के लिए आहुतियों की तैयारी की जा रही है। एक-एक बिन्दु पर दो व्यक्ति हैं। एक बिन्दु वह है जहाँ दो मजदूर भोजन तैयार करने में लगे हैं - आलू की फाँके कट रही हैं, रोटियाँ सेंकी जा रही हैं, सेंकी गयी रोटियां थाक बनाकर कपड़े में सुरक्षित रखी जा रही हैं, सब्जी कड़ाही में छौंकी जा रही है आदि-आदि। दूसरा बिन्दु है दो मजदूर लकड़ी का गट्ठर सिर पर लादे आते हैं, उन्हें जमीन पर पटककर राहत की साँस लेते हैं, थकान मिटाने के लिए थोड़ा लेटते हैं, फिर बैठते हैं, वे भूख के बिल्कुल अधीन है। तीसरा बिन्दु है - दो मजदूरों का निर्माणाधीन पार्क में खड़े टेंट से बाहर निकलना, पास में स्थित नीम के पेड़ से दातौन तोड़कर दाँत साफ करना, लम्बे कनस्तर को चाँपाकल के नीचे रख पानी भरना आदि।
इस त्रिकोणात्मक श्रम से उत्पन्न जो फल सम्मुख है वह है सोंधी रोटियाँ, फाँकों वाली कटी आलू की मसालेदार सब्जी और चाँपाकल (Handpump) का ताजा पानी और इन सबका आस्वादन कराने वाले दो-दो हाथ। ये त्रिकोणात्मक संतुलित श्रम के फल हमें जीवन का जो नैसर्गिक स्वाद या रस प्रदान करते हैं, वह न तो हमें गैस के चूल्हे पर बने भोजन में और न ही तीन दिन से फ्रिज में रखे पानी में मिलता है। उनका बना भोजन भले ही हमें देखने में स्वास्थ्यकर (Hygienic) न लगता हो पर उसकी सुगंध से हमारे मुँह में पानी जरूर भर आता है। उनके लिए कीटाणु उतने घातक नहीं हैं, जितना कि जठराग्नि में आहुति का अभाव। उनकी प्रकृति इतनी सशक्त है कि उन्हें पेटभर भोजन मिले तो कीटाणुओं का शमन वह खुद कर लेती है। उनमें केवल क्षुधा-बोध है जो स्वास्थ्य-बोध को उनसे दूर रखता है और हमारा स्वास्थ्य-बोध हमें क्षुधा-बोध से। यही कारण है कि हमें अपने घर में बने भोजन में वह स्वाद-बोध नहीं पनप पाता। ऐसा नहीं कि गैस के चूल्हे पर बने खाने में स्वाद नहीं रहता या पानी में स्वाद नहीं है, सब है, नहीं है तो मजदूरों का क्षुधाबोध। क्योंकि एक कहावत है- नींद न देखे टूटी खाट, भूख न देखे रूखा भात। क्षुधा और नींद दोनों के बोध से जब हम वंचित होने पर हम अपने भोजन का स्वाद नहीं ले पाते। कविता यह सबकुछ व्यंजित करने में सक्षम है।
प्रायः हमारे पास जिसका अभाव होता है, हमारी नजर उसी पर पड़ती है। कवयित्री बहुत सजग है। इसलिए वह खिड़की से बाहर हमें पुलिन, कमल, कुसुम या कली नहीं दिखा रही है। बल्कि अपने काम में रत मजदूरों के दैनिक जीवन के प्रति उद्भूत अपनी अनुभूति से परिचित कराना चाहती है। पक रही थीं रोटियाँ/ सिंक रही थीं रोटियाँ/ फुल रही थीं रोटियाँ/ और/ रह-रहकर/ वहाँ से/ उठ रहा था/ कुछ धुआँ। ये पंक्तियाँ कहती हैं कि थोड़ा सा उठता धुआँ उनकी जठराग्नि की आहुति में कड़वाहट नहीं पैदा कर सकता है और भोजन की ऊर्जस्विता में कमी नहीं आ सकती। इसी प्रकार मसालों की पड़ी पुड़िया, तेल की अकड़ी खड़ी शीशी आदि उनके अपने जीवन को जीने के सभी तरीके उन्हें ज्ञात है, अर्थात अपने जीवन में रस भरना आता है। ‘अकड़ी खड़ी शीशी’ जैसा प्रयोग उनका अपने स्वाभिमान के प्रति सजग प्रवृत्ति का परिचायक है। तीनों ध्रुवों पर कार्यरत मजदूरों में एक-दूसरे को बिना देखे या उनसे बात किए अपने काम में निरति उनकी आपसी समझ को, उनकी एकता को द्योतित करती है।...... बैठकर एक झुंड में/ सब खा रहे थे/… कविता की इन पंक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें मालूम है कि जीवन की उपलब्धियों का उपभोग साथ-साथ करना चाहिए। अपने हाथों का दोना बनाकर पानी पीना यह संकेत करता है कि क्रिया सिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे, अर्थात् कार्य की सिद्धि सामर्थ्य से होती है, न कि महान उपकरणों से। उपकरणों के अभाव में भी उन्हें अपना काम पूरा करना आता है।
यद्यपि कि शिल्प की दृष्टि से भी कविता काफी सुसंगत है, इसमें प्रांजलता लगभग आद्योपान्त बनी हुई है। फिर भी, कहीं-कहीं कुछ ऐसी कमियाँ हैं, जो अनायास पाठक का ध्यान आकर्षित कर लेती हैं। यथा-
कट रहे थे फाँक, आलू
टोकरी भर
के स्थान पर
कट रहे थे फाँक आलू के
टोकरी भर
अच्छा रहता। प्रांजलता भी अबाध बनी रहती। इसी प्रकार कई जगहों पर अल्प विराम (,) अनावश्यक रूप से लगे हैं, यथा- पाचवीं पंक्ति में जो के बाद, तेरहवीं और चौदहवीं पंक्तियों के अन्त में, बाइसवीं पंक्ति के अन्त में। अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। निम्नलिखित शब्दों का क्रम बदल देने से प्रांजलता में और निखार आ जाता-
नींद थी
एक रोज़ जल्दी
खुल गयी
के स्थान पर
एक रोज़
नींद जल्दी खुल गयी थी
कर देने से।
इसके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर शब्द-संयम में चूक हुई है, यथा- चौथी, सातवीं पंक्तियों में था का प्रयोग अनावश्यक लगता है। इसी प्रकार पैंतालीसवीं पंक्ति में कड़ाही को चढ़ाकर के स्थान पर कड़ाही को चढ़ा और सैंतालीसवीं पंक्ति में छन्न से है के स्थान पर छन्न से (सी) प्रयोग करने से कुछ शब्दों का भार भी कम होता और प्रांजलता भी बढ़ जाती। ऐसा करने से कविता में उत्पन्न कालदोष दूर हो जाएगा।
उपर्युक्त थोड़ी-बहुत कमियों के बावजूद कविता का भावपक्ष और कलापक्ष बहुत सशक्त है। इस समीक्षा में दिए गए गुण-दोषों के विवरण कविता के प्रति मेरी अपनी समझ और दृष्टि है। कवयित्री या पाठकों का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। सादर।
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