12 नवम्बर राष्ट्रीय पक्षी दिवस
मनोज कुमार
प्रत्येक वर्ष 12 नवम्बर को भारत के मशहूर
पक्षी विज्ञानी और प्रकृतिवादी डॉ. सालिम अली के
जन्मदिवस के अवसर पर ‘राष्ट्रीय पक्षी दिवस’ मनाया जाता है।
डॉ. सालीम अली का पूरा नाम डॉ. सलीम
मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली है। वे एक भारतीय पक्षी विज्ञानी, वन्यजीव संरक्षणवादी और
प्रकृतिवादी थे, जिन्हें “बर्ड मैन ऑफ़ इंडिया” के रूप में भी जाना जाता है। वह भारत और विदेशों में व्यवस्थित पक्षी
सर्वेक्षण करने वाले पहले वैज्ञानिकों में से एक थे। डॉ.सलिम अली का जन्म 12
नवम्बर 1896 में बॉम्बे के एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ था। वे अपने
माता-पिता के सबसे छोटे और नौंवे बच्चे थे। जब वे एक
साल के थे तब उनके पिता मोइज़ुद्दीन चल बसे और जब वे तीन साल के हुए तब उनकी माता
ज़ीनत-उन-निशा की भी मृत्यु हो गई। सालीम और उनके भाई-बहनों की देख-रेख उनके मामा
अमिरुद्दीन तैयाबजी और चाची हमिदा द्वारा मुंबई की खेतवाड़ी इलाके में हुआ।
सालीम की प्राथमिक शिक्षा गिरगाम स्थित ज़ेनाना
बाइबल और मेडिकल मिशन गर्ल्स हाई स्कूल में हुई। बाद में उन्होंने सेंट जेवियर्स
कॉलेज, बॉम्बे से आगे की शिक्षा
ग्रहण की। बचपन मे वे गंभीर सिरदर्द की बीमारी से
पीड़ित हुए, जिसके कारण उन्हें उन्हें अक्सर कक्षा छोड़ना
पड़ता था। किसी ने सुझाव दिया कि सिंध की शुष्क हवा से शायद उन्हें ठीक होने में
मदद मिले इसलिए उन्हें अपने एक चाचा के साथ रहने के लिए सिंध भेज दिया गया। वे
लंबे समय के बाद सिंध से वापस लौटे और वर्ष 1913 में उन्होंने
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
इसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और परिवार के
वोलफ्रेम (टंग्सटेन) माइनिंग और इमारती लकड़ियों के व्यवसाय की देख-रेख के लिए
टेवोय, बर्मा (टेनासेरिम) चले गए।
यह स्थान सालीम की अभिरुचि में सहायक सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ पर घने जंगले थे जहाँ
इनका मन तरह-तरह के परिन्दों को देखने में लगता।
लगभग 7 साल बाद सलीम अली मुंबई वापस लौट गए और बंबई
से उन्होंने जंतु विज्ञान में पक्षी शास्त्री विषय में प्रशिक्षण का एक कोर्स किया
और फिर बंबई के ‘नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के म्यूज़ियम में गाइड के पद पर नियुक्त हो गये। गाइड के रूप में वह मरे
हुए सुरक्षित पक्षियों को दर्शकों को दिखाते और उनके विषय में बताते। इस कार्य के
दौरान उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि पक्षियों के विषय में पूरी जानकारी तभी प्राप्त की
जा सकती है जब उनके रहन-सहन को नजदीक से देखा जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए
वह जर्मनी गए और विश्वविख्यात पक्षी विज्ञानी डॉक्टर इर्विन स्ट्रॉसमैन के संपर्क
में आएँ। जर्मनी में उन्होंने उच्च प्रशिक्षण प्राप्त किया। सलीम अली ने बर्लिन
में कई प्रमुख जर्मन ऑर्निथोलॉजिस्टों से परिचय किया और उनसे साथ बर्ड वेधशाला में
कार्य किया। जब एक साल बाद भारत लौटे तब
पता चला कि उनकी गैरहाजिरी में संग्रहालय के गाइड की नौकरी समाप्त हो गई थी। सौभाग्यवश
माहिम मे उनकी पत्नी तहमीना अली का एक छोटा-सा मकान था। वह उसी में जाकर रहने लगे।
उनके घर के अहाते में एक पेड़ था, जिस पर बया ने एक घोंसला
बनाया था। सारे दिन वे पेड़ के नीचे बैठे रहते और बया के क्रिया-कलापों को एक नोट
बुक में लिखते रहते थे। बया के क्रिया-कलापो और व्यवहार को उन्होंने एक शोध निबंध
के रूप में प्रकाशित कराया। सन 1930 में छपा यह निबंध पक्षी
विज्ञान में उनकी प्रसिद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इसके बाद वे
जगह-जगह जाकर पक्षियों के विषय में जानकारी प्राप्त करने लगे। इन जानकारियों के
आधार पर उन्होने ‘द बुक ऑफ इंडियन बर्डस’ लिखी जो सन 1941
में प्रकाशित हुई। यह आम आदमी के बीच एक
लोकप्रिय पुस्तक के रूप में स्थापित हो गई और इस पुस्तक ने रिकॉर्ड बिक्री की। इस
पुस्तक में पक्षियों के विषय में अनेक नई जानकारियां प्रस्तुत की गई थी। इसमें
पक्षियों की उपस्थिति, आवास, प्रजनन
आदतों, प्रवासन आदि शामिल हैं। इस पुस्तक से उन्हें एक ‘पक्षी शास्त्री’ के रूप में पहचाना मिली। इसके बाद
उन्होंने एक दूसरी पुस्तक ‘हैण्डबुक ऑफ़ द बर्ड्स ऑफ़ इंडिया
एण्ड पाकिस्तान’ भी लिखी। डॉ सालीम अली ने एक और पुस्तक ‘द फाल ऑफ़ ए स्पैरो’ भी लिखी, जिसमें
उन्होंने अपने जीवन से जुड़ी कई घटनाओं का ज़िक्र किया है।
10 साल की उम्र में एक चिड़िया
को मार गिराने पर पक्षियों को लेकर सालिम अली के मन में दिलचस्पी जागी और आगे चलकर
वे एक पक्षी विज्ञानी बने। उन्होंने पेड़ पर बैठे एक पक्षी को नकली पिस्टॉल
से मार गिराया था। वह उस पक्षी को उठाकर अपने चाचा के पास पहुंचे। पक्षी के गले पर
पीला धब्बा देखकर वे चौंक पड़े। चाचा अमीरुद्दीन भी पक्षी को पहचान न सके। तो उसे
वे ‘नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के ऑफिस
ले गए जहां उनके जानकार डब्ल्यू.एस मिलार्ड थे जो पक्षी विशेषज्ञ थे। मिलार्ड ने
बालक को कुछ नहीं बताया और उसे उस कमरे में ले गए जहां मृत पक्षियों का भूसा भर कर
रखा गया था। उन्होंने उसे सभी पक्षियों को दिखाया, किंतु उन
में उस जैसा एक भी पक्षी नहीं था, फिर मिलार्ड ने वैसा ही एक
पक्षी दिखाया जैसा सालिम अली के हाथ में था। यह पक्षी नर बया था जिसके गले पर
वर्षा ऋतु मे ही पीला धब्बा बनता है। अली को विभिन्न पक्षी देख कर आश्चर्य भी हुआ
और उनके प्रति जिज्ञासा भी। वे उस विभाग पर पक्षियों के बारे में ज्ञान बढ़ाने आने
लगे तथा उनकी रक्षा व अन्य जानकारियां के बारे में सोचने लगे।
बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी
(बी.एन.एच.एस) के सचिव डबल्यू.एस मिलार्ड की देख-रेख में सालिम ने पक्षियों पर
गंभीर अध्ययन करना शुरू किया, जिन्होंने असामान्य रंग की गौरैया की पहचान की थी। उन्होंने सालीम
को कुछ किताबें भी दी जिसमें ‘कॉमन बर्ड्स ऑफ मुंबई’ भी शामिल थी। मिल्लार्ड ने सालीम को पक्षियों के छाल निकालने और संरक्षण
में प्रशिक्षित करने की पेशकश भी की। उन्होंने ने ही युवा सालीम की मुलाकात नोर्मन
बॉयड किनियर से करवाई, जो कि बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी
में प्रथम पेड क्यूरेटर थे। सलीम की प्रारंभिक रूचि शिकार से संबंधित किताबों पर
थी जो बाद में स्पोर्ट-शूटिंग की दिशा में आ गई जिसमें उनके पालक-पिता अमिरुद्दीन
ने उन्हें काफी प्रोत्साहित भी किया। उनके आस-पड़ोस में अक्सर शूटिंग प्रतियोगिता
का आयोजन होता था।
डॉ सालीम अली ने अपना पूरा जीवन पक्षियों के
लिए समर्पित कर दिया। ऐसा माना जाता है कि सालीम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली परिंदों
की ज़ुबान समझते थे। उन्होंने पक्षियों के अध्ययन को आम जनमानस से जोड़ा और कई
पक्षी विहारों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने पक्षियों की अलग-अलग
प्रजातियों के बारे में अध्ययन के लिए देश के कई भागों और जंगलों में भ्रमण किया।
कुमाऊँ के तराई क्षेत्र से डॉ अली ने बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो
लुप्त घोषित हो चुकी थी। साइबेरियाई सारसों की एक-एक आदत की उनको अच्छी तरह पहचान
थी। उन्होंने ही अपने अध्ययन के माध्यम से बताया था कि साइबेरियन सारस मांसाहारी
नहीं होते, बल्कि वे पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं। वे पक्षियों के साथ
दोस्ताना व्यवहार करते थे और उन्हें बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ने के 100 से भी ज़्यादा तरीक़े उनके पास थे। पक्षियों को पकड़ने के लिए डॉ सलीम अली
ने प्रसिद्ध ‘गोंग एंड फायर’ व ‘डेक्कन विधि’ की खोज की जिन्हें आज भी पक्षी
विज्ञानियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। ‘भरतपुर पक्षी
अभयारण्य’ (केओलदेव राष्ट्रिय उद्यान) के गठन में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। उन्होंने ‘साइलेंट वैली नेशनल पार्क’ को बर्बादी से बचाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सालिम अली हमारे देश के ही नहीं बल्कि दुनिया
भर के पक्षी वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। पक्षियों के लिए सर्वे करने वाले
वो हिंदुस्तान के शुरुआती लोगों में हैं। सालिम अली ने पक्षियों के सर्वेक्षण के
लिए 65 वर्ष से भी अधिक समय तक
समस्त भारत देश का भ्रमण किया। उन्होंने अपने जीवन के लगभग 60 वर्ष भारतीय पक्षियों के साथ बिताए। परिंदों के विषय में इनका ज्ञान इतना
अधिक था कि लोग उन्हें परिंदों का चलता-फिरता विश्वकोश कहने लगे थे। उन्होंने
पक्षियों का अध्ययन ही नहीं किया बल्कि प्रकृति संरक्षण की दिशा में भी बहुत काम
किया। उन्हें 5 लाख रुपया का अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था,
जिसे उन्होंने मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी को समर्पित कर दिया। उन्हें
सन 1958 में पद्म भूषण व 1976 में पद्म
विभूषण जैसे महत्वपूर्ण नागरिक सम्मानों से अलंकृत किया गया था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट
की मानद उपाधि दी। सलीम अली 1967 में ब्रिटिश
ऑर्निथोलॉजिस्ट यूनियन के स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले पहले गैर-ब्रिटिश नागरिक
थे। उन्हें 1969 में नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेज के संरक्षण
के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ के जॉन सी फिलिप्स स्मारक पदक प्रदान किया था। 1973
में, यू.एस.एस.आर. एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज
ने उन्हें पावलोवस्की शताब्दी मेमोरियल पदक प्रदान किया गया।
डॉ. सालिम अली प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित थे।
उनका निधन 91 साल की उम्र में 27 जून 1987 को
91 साल की उम्र में हुआ। 1990 में इनके
नाम पर ‘बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ और ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ द्वारा कोयम्बटूर के निकट ‘अनाइकट्टी’ नामक स्थान पर सलिम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केन्द्र
स्थापित किया गया।