सुमित्रानंदन पंत की पुण्यतिथि पर ...
मनोज कुमार
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में हुई। 1911 से
आठ वर्षों तक अल्मोड़ा के राजकीय हाई स्कूल में नवीं कक्षा तक की पढ़ाई की। 1918 में काशी आ गए। वहां क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। हाई स्कूल की परीक्षा 1920 में पास की। मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद वे इलाहाबाद चले गए और म्योर
कॉलेज में दाखिला लिया। 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग
आन्दोलन के आह्वान पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी का अध्ययन करने लगे।
वृत्ति :: पिता
के असामयिक निधन से उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। पहले कंवर नरेश सिंह के साथ कालाकांकर
में रहकर कई वर्षों तक काव्य-रचना में लीन रहे। फिर 1934 में फ़िल्म
जगत के प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर भट्ट ने उन्हें अपने चित्र ‘कल्पना’ के गीत
लिखने के लिए मद्रास आमंत्रित किया। 1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। कई वर्षों
तक भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए 1950 में
इलाहाबाद में स्थायी बस गए। उन्होंने इलाहाबाद आकाशवाणी के शुरुआती दिनों में प्रोड्यूसर
और फिर हिन्दी सलाहकार के रूप में भी कार्य किया।
पुरस्कार : 1961 में इन्हें भारत सरकार की ओर से ‘पद्मभूषण’ की
उपाधि से सम्मानित किया गया। 1961 में ही ‘कला और बूढ़ा चांद’
पर इन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। ‘चिदम्बरा’ पर 1969 में इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मनित किया गया। भारत सरकार की
हिन्दी-विरोधी नीति और अपने हिन्दी प्रेम के कारण अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए
इन्होंने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि लौटा दी।
मृत्यु : 28 दिसम्बर 1977 को इनका निधन हो गया।
मृत्यु : 28 दिसम्बर 1977 को इनका निधन हो गया।
:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य
रचनाएँ :: कविता-संग्रह : वीणा(1927), ग्रंथी (1919), उच्छवास(1920), पल्लव(1928), गुंजन (1932),
युगांत, युगांतर, युगवाणी,
ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्णधूलि,
उत्तरा, कला और बूढा चाँद, चिदंबरा, लोकायतन, सत्यकाम, मुक्तियज्ञ,
तारापथ, मानसी, रजतशिखर,
शिल्पी, सौवर्ण, अतिमा,
वाणी, रश्मिबंध, समाधिता, किरण वीणा, गीत हंस, गंध वीथी, पतझड़,
अवगुंठित, ज्योत्सना, मेघनाद
वध।
:: उपन्यास :: हार (15 वर्ष की अवस्था में ही लिख
डाला था)
:: निबंध संग्रह :: आधुनिक कवि
:: रेडियो रुपक :: ज्योत्सना
:: साहित्यिक
योगदान ::
पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में
से एक हैं। हिंदी साहित्य
के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन
पंत जी बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी थे और 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का
घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे। अपनी
काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि प्रकृति और प्रेम
के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करता है। किंतु
उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से
संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली,
कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव
भी है।
कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं
प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात
कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया
है। पंतजी ने जीवन में कहीं भी दुराव, छिपाव नहीं था। उनका
स्वाभाव सरल और मन निश्छल था। मन में प्रकृति के प्रति असीम आकर्षण था। प्रकृति से
परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः-
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ
लोचन॥ ”
पंत काव्य में प्रकृति के अनेक मनोरम रूपों का मधुर और सरस
चित्रण का अनूठा उदाहरण “आँसू की बालिका”, “पर्वत प्रदेश में पावस” आदि कविताओं में होता है
जिनमें कवि की जन्मभूमि के प्राकृतिक सौन्दर्य का वैभव विद्यमान है। प्रेम और
आत्म-उद्बोधन के सम्मिलन से प्रकृति-चित्रों का ऐसा अद्भुत आकर्षण अन्य कहीं नहीं
मिलता।
“धँस गए धरा में समय शाल
उठ रहा धु्आँ, जल गया ताल
यों जलद यान में विचर-विचर
था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल ”
और
“इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी
सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही
बलिका मेरी मनोरम मित्र थी ”
(पर्वत प्रदेश में पावस)
अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर
आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो
प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले
बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर
गंभीर प्रभाव पड़ा
“मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के
उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही
मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। ”
कौसानी की उस घाटी का वर्णन पंत जी ने इन पंक्तियों में किया है
“उस फैली हरियाली में
कौन अकेली खेल रही माँ
वह अपने वय वाली में ”
“हिम प्रदेश” एवं “हिमाद्री” आदि रचनाओं में भी कौसानी के प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक
रूपों का चित्रण मिलता है। कविवर पंत यह स्वीकार करते हैं कि जब उनका काव्य कण्ठ
भी नहीं फूटा था तभी से अल्मोड़ा की प्रकृति उस मातृहीन बालक को कवि-जीवन के लिए
तैयार करने लगी थी। पेड़, पहाड़, फुल,
भौंरे, गुंजन, पर्वत-प्रदेश,
बरु की चोटियां, इन्द्रधनुष आदि ने उनकी रचना
यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। अपनी इन अनुभूतियों को कवि “हिमाद्री”
शीर्षक रचना में प्रस्तुत करता हैः
“मुझ अंचलवासी को तुमने
शैशव में आशा दी पावन
नभ में नयनों को खो, तब से
स्वपनों का अभिलाषी जीवन
कब से शब्दों के शिखरों में
तुम्हें चाहता करता चित्रित”
“सोच रहा, किसके गौरव से मेरा यह अन्तर्जग
निर्मित
लगता तब , हे प्रिय हिमाद्री
तुम मेरे शिक्षक रहे अपरिचित ”
मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का
सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते
थेः
“मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत,
स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत
प्रकृति गोद में छिप, क्रीड़ा प्रिय, तृण तरू की बातें सुनता मन,
विहगों के पंखों पर करता, पार नीलिमा के छाया वन
रंगो के छींटों से नव दल गिरि क्षितिजों को रखते चित्रित,
नव मधु की फूलों कल वे ही मुझे गोद भरती सुख विस्मृत
कोयल आ गाती , मेरा मन जाने कब उड़ जता वन में,
षड्ऋतुओं की सुषमा अपलक तिरती रहती उर दर्पण में”
ऐसा प्रतीत होता है कि उनके लिए रमणी के सौंदर्य की अपेक्षा
प्रकृति के सौंदर्य में अधिक आकर्षण था। कवि अपनी दुर्बलताओं को खोल
कर सामने रखता है तथा अपने प्रेम की पावनता को दृढ़ता के साथ प्रमाणित करता है। पुराने कवि अपने निजि प्रणय संबंध को सीधे ढ़ंग से व्यक्त करने में असमर्थ
थे। सामाजिक नैतिकता के बंधन को अस्वीकार करते हुए पंत ने उच्छ्वास और आंसू की
बालिका के प्रति सीधे शब्दों में अपना प्रणय प्रकट किया है – बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।
कवि अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए ईश्वर से “याचना” भी करता है तो प्राकृतिक उपादानों
के माध्यम सेः
“बना मधुर मेरा जीवन
नव-नव सुमनों से चुन-चुन कर
धूलि, सुरभि, मधुरस
हिमकण,
मेरे उर की मृदु कलिका में
भर दे, कर दे, विकसित
मन ”
“बादल” और “छाया” कविताओं में अद्भूत एवं विलक्षण कल्पना के दर्शन होते हैं
जिससे हृदय चमत्कृत हो उठता है। उनकी प्रकृति संवेदना एवं कल्पना का अपूर्व मिश्रण
देखने को मिलता है।
“बुद्बुद-द्युति तारक दल तरलित
तम के यमुना जल में श्याम
हम विशाल जम्बाल जाल से
बहते हैं, अमूल, अविराम।
”
(बादल)
उनकी कविताएँ संबोधनात्मक हैं। कवि प्रकृति के उपादानों को
संबोधित कर उनसे बात-चीत करता रहता है। इसमें एक आत्मीयता झलकती है। संबोधनों से
कवि सौंदर्य सृष्टि करता है जिससे उनकी रचनाओं का कलात्मक धरातल काफी विशाल हो
जाता है। कुछ उदाहरण देखें “कहाँ कहाँ हे बसल विहंगिनि ”
“ऐ अवाक् निर्ज की भारति”, “अहे निष्टुर
परिवर्तन ” “कौन तुम अतुल, अरूप,
अनाम ” आदि।
उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है।
जैसे
“पौ फटते, सीपियाँ नील से
गलित मोतियां कान्ति निखरती”
या
“गंध गुँथी रेशमी वायु”
या
“संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात”
इसी तरह उन्होंने छाया को, “परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय
रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी ” कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार
दिया।
कवि पंत की संवेदनशील भावनाओं को प्रकृति का स्पर्श उनके
हृदय में मंथन कर उन्हें जीवन के सत्य की खोज करने के लिए प्रेरित करता है।
प्रकृति के परिवर्तनशील स्वाभाव में कवि अपनी “परिवर्तन” कविता में शास्वत जीवन की खोज करता जान
पड़ता है –
“स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार
प्रसूनों का शाश्वत श्रृंगार
गूँज उठते थे बारम्बार
सृष्टि के प्रथमोद्गार
हाय सब मिथ्या बात
आता तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सूनी साँस।”
तथा
“नित्य का यह अनित्य में नर्तन
विवर्तन जग, जग व्यावर्तन
अचिर में चिर का अन्वेषण,
विश्व का तत्वपूर्ण दर्शन । ”
और जब हृदय-मंथन अपहनी पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो उसे
परिवर्तनशीलता में शाश्वत चिर सुन्दरतम सत्य का दर्शन होता हैः-
“गाता खग प्रातः उठकर-
सुन्दर सुखमय जन जीवन
गाता साखग सन्ध्या-तट-पर
मंगल, मधुमय जग जीवन ! ”
कवि प्रकृति के अपने कल्पनामय संसार में ही अपनी सारी इच्छाओं को संतुष्ट कर
लेता हैः-
“वह ज्योत्सना से हर्षित मेरा,
कलित कल्पनामय संसार तारों के विस्मय से विकसित
विपुल भावनाओं का हार
सरिता के चिकने उपलों-सी
मेरी इच्छाएँ रंगीन,
वह अजानता की सुन्दरता,
वृद्ध विश्व का रूप नवीन ”
पंतजी ने सांसारिक वैभव से रहित जीवन जिया। सूनेपन का एक
मीठा दर्द झलकता है। उनकी रचनाओं में प्रकृति के उपादान बरबस ही उन्हें उनकी
प्रेयसी की याद दिला देते हैं।
गहन व्यथा से रँगे साँझ के बादल
मौन वेदना रंजित फूलों के दल !
मधु समीर भी श्वास-गंध से चंचल
साँसें भर तुम्हें खोजती विह्वल
आँसू में नहाया सा ओसों का वन लगता मेरी ही जीवन का दर्पण
आध्यात्म ने भी उनको आकर्षित किया। अरविंद दर्शन में कवि
वर्तमान मानव-जीवन के विषम संकट को व्यक्त करते हुए एक नये आदर्श भविष्य का चित्रण
करता है। उनकी कई रचनाओं में अनुभूति के स्थान पर विचार को अधिक महत्व मिला है –
“तुम वहन कर सको जन मन में मेर विचार.
वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार ।”
कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता
है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की
रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत
स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण
में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद
विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य
भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में
व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति
जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है।
प्रथम रशमि का आना रंगिणि
तूने कैसे पहचाना
उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति,
लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक
समान शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर
सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज
भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप
सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब
में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और
अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी
रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे
चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं।
हालाकि पंत जी ने गद्य की भी कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई
लेकिन मूलतः वे कविता के प्रति ही समर्पित थे। यद्यपि अपनी आरंभिक रचनाओं ‘वीणा’
और ‘ग्रंथि’ से पंत जी ने काव्यप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा ज़रूर पर एक
छायावादी कवि के रूप में इनकी प्रतिष्ठा ‘पल्लव’ से ही मिली। छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का
काम किया। सुमित्रानंदन
पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा
कि ‘मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का
प्रयोजन है।’
पल्लव को आलोचक भी छायावाद का पूर्ण उत्कर्ष मानते हैं। डॉ.
नगेन्द्र का मानना है, “‘पल्लव’ की भूमिका हिंदी में छायावाद-युग के आविर्भाव का
ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।” भाव, भाषा, लय और अलंकरण के विविध उपकरणों का बड़ी कुशलता
से इसमें समावेश किया गया है। गुंजन, विशेषकर ‘युगांत’ में आकर पंत की काव्य यात्रा
का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है।
उनकी काव्य यात्रा का दूसरा चरण ‘युगांत’, ‘युग-वाणी’ और ‘ग्राम्या’
को माना जा सकता है। ‘ग्राम्या’ प्रगतिशील आन्दोलन के प्रभाव के अन्तर्गत लिखी हुई
रचना है। इसमें मार्क्सवाद, श्रमिक-मज़दूर, किसान-जनता के प्रति इन्होंने भावभीनी सहानुभूति
प्रकट की है। डॉ. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है,
“मार्क्सवाद में श्री सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं
पा सकता।”
शीघ्र जी फिर वे अपने परिचित पथ पर लौट आये। मार्क्सवाद का भौतिक
संघर्ष, निरीश्वरवाद पंत जैसे कोमलप्राण व्यक्ति का परितोष नहीं कर सकते। काव्य यात्रा
के तीसरे चरण की रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘युग पथ’, ‘अतिमा’, ‘उत्तरा’ में
वे महर्षि अरविन्द से प्रभावित होकर आध्यात्मिक समन्वयवाद की ओर बढ़ते दिखते हैं।
सामाजिक जीवन से कहीं महत् अंतर्मन,
वृहत् विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।
पंत जी की कव्य यात्रा का चौथा चरण ‘कला और बूढ़ा चांद’ से लेकर
‘लोकायतन’ तक की है। इसमे उनकी चेतना मानवतावाद, खासकर विश्व मानवता की ओर प्रवृत्त
हुई है। इन रचनाओं में लोक-मंगल के लिए कवि व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य के महत्व
को रेखांकित करता है।
हमें विश्व-संस्कृति रे, भू पर करनी आज प्रतिष्ठित,
मनुष्यत्व के नव द्रव्यों से मानस-उर कर निर्मित।
समग्र रूप से देखें तो पाते हैं कि कवि के चिंतन में अस्थिरता
है। निराला और पंत की जीवन-दृष्टि और काव्य-चेतना की तुलना करें तो हम पाते हैं कि
निराला की जीवन-दृष्टि का लगातार एक निश्चित दिशा में विकास होता है जबकि पंत का दृष्टि
विकास एक दिशा में न होकर उसमें कई मोड़ आते हैं। कभी वे प्रकृति में रमे रहते हैं तो
कभी मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन और गांधीवाद की गलियों के चक्कर लगाते हैं। ‘ग्रंथि’
से ‘पल्लव’ और ‘पल्लव’ से ‘गुंजन’, ‘ज्योत्सना’ और ‘युगांत’ में वे क्रमशः शरीर से
मन और मन से आत्मा की बढ़ रहे थे। बीच में ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में आत्म-सत्य की
अपेक्षा वस्तु-सत्य पर बल देते हैं। ‘स्वर्णकिरण’,
और ‘स्वर्णधूलि’ में फिर से वे आत्मा की ओर मुड़ जाते हैं।
फिर भी ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’ जैसी रचनाओं द्वारा पंत
जी छायावादी काव्य-धारा को सम्पन्न बनाया। वे छायावादी कविता के अनुपम शिल्पी हैं।
उनकी भाषा में कोमलता और मृदुलता है। हिन्दी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप को अधिक सजाने-संवारने
में इनका योगदान उल्लेखनीय है। भाषा में नाद व्यंजना, प्रवाह, लय, उच्चारण के सहजता,
श्रुति मधुरता आदि का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। शैली ऐसी है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण
हुआ है। भावों की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत सहज अलंकार विधान का सृजन उन्होंने
किया। नये उपमानों का चयन इनकी प्रमुख विशेषता है। ध्वन्यार्थ व्यंजना, लाक्षणिक और
प्रतीकात्मक शैली के उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को अत्यंत संप्रेषणीय बनाया
है। शिल्प इनका निजी है। पंत जी की भाषा शैली
भावानुकूल, वातावरण के चित्रण में अत्यंत सक्षम और समुचित प्रभावोत्पादन की दृष्टि
से अत्यंत सफल मानी जा सकती है। अंत में ‘आंसू’ की ये पंक्तियां ...
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२९-१२ -२०१९ ) को " नूतनवर्षाभिनन्दन" (चर्चा अंक-३५६४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
नमन इस विशाल व्यक्तित्व को उसकी पुण्यतिथी पर। सुंदर आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारा लेख है | साहित्य के पुरोधा को शत शत नमन |
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