भाषा जीवन के किसी भी मोड़ पर जब भी तुम रोये हो ऐसे बहुतों ने पोछे हैं तुम्हारे आंसू जिनकी भाषा को तुमने हमेशा ही समझा है बहुत छोटा करके, बिताई होंगी कितनी रातें उन्हीं छोटी भाषा वाले लोगों ने छटपटाते हुए सिर्फ देखने के लिए एक टुकड़ा सुख तुम्हारी आंखोंमें। तुम शायद देख नहीं पाये उनका अन्तर्द्वन्द्व , उनका आर्तनाद क्योंकि तुमने कभी जानना ही नहीं चाहा भाषा निकलती नहीं है सिर्फ- होठों की देह छूकर, निकलती है हदय के कपाट खोलकर प्रतिवेशी करुणा की उंगली थामे। किन्तु इस सत्य से साक्षात्कार के लिए तुम्हें तोड़ना होगा अहंकार का दर्पण और खोलने होंगे अपने चारो ओर के दरवाजे ताकि तुम अनुभव कर सको प्रत्येक भाषा के पीछे छुपे दुख, प्रेम और वेदना को, जिस दिन तुमसे सम्पन्न होगा यह विराट सत्य तुम्हें जरूरत नहीं पड़ेगी अपनी भाषा को महानता के सिंहासन पर आसीन करने की तुम देखोगे स्वयं ही खिल उठेगी तुम्हारी भाषा किसी शिशु की मुस्कान की तरह जीवन की महानतम अभिव्यक्ति के रूप में। 000 |
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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010
भाषा
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