रविवार, 19 अक्टूबर 2025

360. कांग्रेस की भावी रणनीति क्या हो?

राष्ट्रीय आन्दोलन

360. कांग्रेस की भावी रणनीति क्या हो?


1934

सविनय अवज्ञा वापस ले लेने के बाद कांग्रेस के खेमे में यह बहस शुरू हो गई कि अब भावी रणनीति क्या हो? देश राजनीतिक निष्क्रियता के भंवर में फंसा हुआ था। इस संकट से कैसे कांग्रेस को कैसे उबारा जाए? बहस के पहले चरण में मुद्दा यह था कि राष्ट्रीय आन्दोलन को तुरंत भविष्य में क्या रास्ता अपनाना चाहिए।

गांधीजी ने गांवों में रचनात्मक कार्य करने, दस्तकारी को बढ़ावा देने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि इससे जनशक्ति संगठित होगी। जन आंदोलन के समय किसानों को संगठित करने में मदद मिलेगी। कांग्रेस कार्यकर्ता भी सक्रिय रहेंगे और जब उन्हें संघर्ष के आह्वान किया जाएगा तो वे सक्रियता से संघर्ष में शरीक होंगे। गांधीजी ने कहा कि रचनात्मक कार्य से लोगों की ताकत मजबूत होगी, और जन-आन्दोलन के अगले दौर में लाखों लोगों को इकट्ठा करने का रास्ता खुलेगा।

कांग्रेस का दूसरा खेमा संवैधानिक तौर तरीक़ों से सक्रियता दिखाने में विश्वास रखता था। यह खेमा सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के लिए होने वाले चुनावों में भाग लेना चाहता था। राज्यों में पूरी तरह से ज़िम्मेदार सरकार की उम्मीद ने आकर्षण को और बढ़ा दिया, जिसे ज़्यादातर कांग्रेस नेताओं ने भी मज़बूती से महसूस किया। अक्टूबर 1933 में सत्यमूर्ति ने एक नई स्वराज्य पार्टी के ज़रिए चुनावी राजनीति में वापसी की योजना बनाई, और अप्रैल 1934 में भूलाभाई देसाई, अंसारी और बी.सी. रॉय ने इसे तुरंत अपना लिया। अप्रैल 1934 में बिड़ला को लिखे एक पात्र में गांधीजी ने माना था कि 'कांग्रेस के अंदर हमेशा एक पार्टी होगी जो काउंसिल-एंट्री के विचार से जुड़ी होगी। कांग्रेस की बागडोर उसी ग्रुप के हाथ में होनी चाहिए।'

डॉ. एम.ए. अंसारी, आसफ़ अली, सत्यमूर्ति, भूलाभाई देसाई और बिधानचंद्र राय के नेतृत्व वाला वह स्वराजवादी खेमा विधानमंडल में घुस कर राजनीतिक संघर्ष में विश्वास रखता था। इनका मानना था कि ये दूसरा राजनीतिक मोर्चा खोलकर कांग्रेस को मज़बूत बनाएंगे। उनका कहना था कि राजनीतिक उदासीनता और मंदी के दौर में, जब कांग्रेस अब एक बड़े आंदोलन को बनाए रखने की स्थिति में नहीं थी, तो लोगों के राजनीतिक हित और मनोबल को बनाए रखने के लिए चुनावों का इस्तेमाल करना और लेजिस्लेटिव काउंसिल में काम करना ज़रूरी था। इसका मतलब आज़ादी पाने के लिए संवैधानिक राजनीति की क्षमता पर भरोसा करना नहीं है। इसका मतलब सिर्फ़ एक और राजनीतिक मोर्चा खोलना था जो कांग्रेस को बनाने, संगठनात्मक तौर पर उसका असर बढ़ाने और लोगों को अगले बड़े संघर्ष के लिए तैयार करने में मदद करेगा। ‘नो चेंजर्स’ के प्रमुख नेता राजगोपालाचारी ने भी इनका समर्थन किया। साथ ही यह भी कहा कि कांग्रेस को खुद, सीधे, पार्लियामेंट्री काम करना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक ठीक से बनी पार्लियामेंट्री पार्टी, कांग्रेस को जनता के बीच कुछ इज़्ज़त और भरोसा बनाने में मदद करेगी, जैसा कि गांधी-इरविन समझौता के लागू होने के थोड़े समय के दौरान हुआ था। क्योंकि सरकार ऐसे ही समझौता के खिलाफ थी, इसलिए लेजिस्लेचर में कांग्रेस की मज़बूत मौजूदगी इस आंदोलन को 'इसके बराबर' का काम देगी।

एक तीसरा ग्रुप भी था, वामपंथियों का। यह संसद में हिस्सेदारी और रचनात्मक कार्य, दोनों के विरुद्ध था। वामपंथियों का कहना था कि ये दोनों ही सीधे मास एक्शन और जनता के बीच राजनीतिक काम को किनारे कर देंगे और उपनिवेशवादी  राज के खिलाफ लड़ाई के बेसिक मुद्दे से ध्यान भटका देंगे। इस समूह के साथ नेहरू भी थे। इनका विचार था कि औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ सतत संघर्ष किया जाए। उनका मानना था कि यह आर्थिक संकट का दौर है और क्रांतिकारी आंदोलन के उपयुक्त समय है। नेहरू को लगता था कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेकर और रचनात्मक कार्य शुरू करने की योजना प्रस्तुत कर कांग्रेस ने एक तरह से नैतिक पराजय स्वीकार कर ली हो।

जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने इस समय गांधीवादी उपनिवेशवाद विरोधी कार्यक्रम और रणनीति के इस नए वामपंथी विकल्प को सबसे मज़बूत और सही तरीके से दिखाया। उन्होंने कहा कि भारतीय लोगों के साथ-साथ दुनिया के लोगों के सामने भी मौलिक लक्ष्य पूंजीवाद को खत्म करना और समाजवाद को स्थापित करना होना चाहिए। नेहरू ने कहा कि इसका रास्ता समाज के वर्ग आधार और वर्ग संघर्ष की भूमिका को समझने और 'आम लोगों के पक्ष में निहित स्वार्थों को बदलने' में है। इसका मतलब था कि किसानों और मज़दूरों की रोज़मर्रा की आर्थिक मांगों को ज़मींदारों और पूंजीपतियों के खिलाफ़ उठाना या बढ़ावा देना, उन्हें उनके वर्ग संगठन – किसान सभा और ट्रेड यूनियन – में इकट्ठा करना और उन्हें कांग्रेस से जुड़ने देना और इस तरह उसकी नीति और कामों पर असर डालना और उन्हें चलाना। नेहरू ने कहा था कि कोई भी असली उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाई ऐसी नहीं हो सकती जिसमें आम लोगों की वर्ग की लड़ाई शामिल न हो।

नेहरू के लिए, सविनय अवज्ञा आन्दोलन और काउंसिल में प्रवेश का वापस लेना और रचनात्मक कार्यक्रम का सहारा लेना एक ‘आध्यात्मिक हार’ और आदर्शों का समर्पण, क्रांतिकारी से सुधारवादी सोच की ओर वापसी, और 1919 से पहले के उदारवादी चरण में वापस जाना था। ऐसा लग रहा था कि नेहरू गांधीजी से दूर जा रहे थे। उन्होंने अप्रैल 1934 में अपनी जेल डायरी में लिखा: ‘हमारे मकसद अलग हैं, हमारे आदर्श अलग हैं, हमारा आध्यात्मिक नज़रिया अलग है और हमारे तरीके भी अलग होने की संभावना है।’

गांधीजी की मौलिक नीति रही थी, - ‘संघर्ष-समझौता-संघर्ष’। नेहरू ने इसका विरोध किया।  गांधीजी का मानना था कि आंदोलन की सुप्तावस्था में रचनात्मक कार्य जनता में राजनीतिक चेतना जगाने में सहायक होते हैं। स्वतंत्रता संग्राम को कई उतार-चढ़ाव से गुज़रने होंगे। और अंततः औपनिवेशिक हुक़ूमत ख़ुद भारतीयों को सत्ता सौंप देगी।

नेहरू इससे सहमत नहीं थे। जवाहरलाल ने संघर्ष की बेसिक गांधीवादी रणनीति को भी चुनौती दी। इन सालों में, नेहरू ने मौजूदा राष्ट्रवादी विचारधारा की कमी की ओर इशारा किया और एक नई, समाजवादी या मार्क्सवादी विचारधारा को अपनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया, जिससे लोग अपनी सामाजिक स्थिति का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन कर सकें। उनका कहना था कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन आज इस अवस्था में पहुंच गया है, जहां से हमें औपनिवेशिक सत्ता से लगातार संघर्ष करते रहना होगा, जब तक कि हम उसे उखाड़ फेंकने में क़ामयाब न हो जाएं। समझौते की राजनीति में उनका विश्वास नहीं था। पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन अब इस अवस्था में पहुंच गया है, जहां सतत संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। इसी वजह से, नेहरू ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेने की सभी कोशिशों पर हमला किया। उन्होंने चेतावनी दी कि इससे ' साम्राज्यवाद के साथ किसी न किसी तरह का समझौता' होगा, जो 'मकसद के साथ धोखा होगा।' इसलिए, 'आज़ादी के लिए बिना किसी समझौते या पीछे हटने या लड़खड़ाने के संघर्ष करना ही एकमात्र रास्ता है।'

कांग्रेस के भीतर मतभेद गहराता जा रहा था। गांधीजी को यह बिल्कुल साफ़ हो गया कि कांग्रेस नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा सविनय अवज्ञा कार्यक्रम को अपनी नीति के तौर पर जारी रखने के पक्ष में नहीं था। दूसरी तरफ, जो नेता अभी भी जेल में थे सविनय अवज्ञा संघर्ष को जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। अंग्रेज़ी हुक़ूमत को लगा कि कांग्रेस टूट जाएगी। पर उसका ख़्वाब ख़्वाब ही रह गया। कांग्रेस और लोकप्रिय हुई, और मज़बूत हुई। उसके साथ गांधीजी थे, उनकी अहिंसा के सिद्धांत थे और थी सत्यवादी दृष्टिकोण। गांधीजी ने एक बार फिर दरार को पाटा और हालात को संभाला। उन्होंने कांग्रेस को टूटने से बचा लिया। हालांकि उनका मानना ​​था कि सिर्फ सत्याग्रह से ही आजादी मिल सकती है, उन्होंने काउंसिल-प्रवेश के समर्थकों को उनकी मौलिक मांग मानकर मना लिया कि उन्हें विधान मंडल में प्रवेश की इजाजत मिलनी चाहिए। गांधीजी ने संसद में भागीदारी वाले पक्ष की कुछ बातें मान लीं। उन्हें विधानमंडल में प्रवेश की अनुमति दे दी। उन्होंने कहा, हालांकि संसदीय राजनीति से आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती, फिरभी कांग्रेस के वे तमाम लोग जो किन्हीं कारणों से सत्याग्रह में शरीक न हो सके, और अपने को रचनात्मक कार्यों में नहीं लगा सके, संसदीय राजनीति के द्वारा सक्रिय तो रह सकते ही हैं।

1934 में पटना में गांधीजी के दिशा-निर्देशन में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने चुनाव में भाग लेने का फैसला लिया। AICC की मीटिंग में कांग्रेस की लीडरशिप में चुनाव लड़ने के लिए एक पार्लियामेंट्री बोर्ड बनाने का फैसला किया गया। वामपंथी खेमे ने इसका विरोध किया। लेफ्ट विंग की आलोचना करने वालों को गांधीजी ने जवाब दिया: ‘मुझे उम्मीद है कि बहुमत हमेशा काउंसिल के काम की चमक-दमक से अछूती रहेगी। स्वराज इस तरह कभी नहीं आएगा। स्वराज सिर्फ जनता की पूरी तरह से जागरूकता से ही आ सकता है।’ गांधीजी ने नेहरू और वामपंथी खेमे को बताया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना समय का तकाजा था। इसका मतलब साम्राज्यवाद से समझौता या उसके आगे समर्पण नहीं है। आंदोलन केवल स्थगित किया गया है, लड़ाई तो ज़ारी है। उन्होंने अगस्त 1934 में नेहरू से कहा: 'मुझे लगता है कि मुझमें समय की ज़रूरत को समझने की काबिलियत है।' उन्होंने सी. राजगोपालाचारी और दूसरे राइट-विंग नेताओं के दबाव के बावजूद लखनऊ कांग्रेस के प्रेसिडेंट पद के लिए नेहरू का ज़ोरदार सपोर्ट करके लेफ्ट को भी खुश किया।

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मनोज कुमार

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संदर्भ : यहाँ पर

 

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

359. सात दिन का उपवास

गांधी और गांधीवाद

359. सात दिन का उपवास


1934

जुलाई के महीने में गांधीजी अजमेर में थे। जहां उन्होंने 5 और 6 जुलाई को बिताया। यात्रा की शुरुआत एक अजीब नोट पर हुई।

हमेशा की तरह एक पब्लिक मीटिंग रखी गई थी। मीटिंग से काफी पहले पक्के सनातनी पंडित लालनाथ, जो हरिजन आंदोलन के विरोधी थे, और जिन्होंने दौरे की शुरुआत से ही गांधीजी और उनकी पार्टी का पीछा करना कभी कम नहीं किया था, गांधीजी से मिले और मीटिंग में सनातनी नज़रिया रखने के लिए बोलने की इजाज़त ली। गांधीजी ने इजाज़त दे दी थी।

लालनाथ और उनका ग्रुप तय समय से पहले मीटिंग में आ गए और काले झंडे दिखाकर प्रदर्शन किया। गांधीजी ने वॉलंटियर्स को खास निर्देश दिए थे कि काले झंडे दिखाने वालों को जनता की परेशानी से पूरी तरह बचाया जाए। फिर भी हाथापाई हुई। काले झंडे छीन लिए गए और उन्हें रौंद दिया गया। लालनाथ पर हमला हुआ और इस वजह से उनके सिर पर चोट लग गई। किसी तेज़-मिज़ाज सुधाकर ने बनारस के पं. लालनाथ का सिर फोर दिया।

इस घटना के बाद भी गांधीजी ने लालनाथ को सभा में अपने विचार प्रकट करने के लिए कहा। जब वह गांधीजी के बुलाने पर बोलने के लिए उठे, तो दर्शकों ने उन्हें रोक दिया और आगे नहीं बढ़ने दिया। लोगों ने लालनाथ को सुनने से मना कर दिया। गांधीजी ने दर्शकों को इस बदतमीज़ी के लिए कड़ी फटकार लगाई।

गांधीजी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा, इस सभा में बोलने का हक़ जितना मुझे है, उतना लालनाथ को भी है। अगर आप पंडित की बात सुनने को तैयार नहीं हैं, तो इसका मतलब है कि आप मेरी भी बात सुनने को तैयार नहीं हैं। यदि आप इन्हें नहीं बोलने देंगे, तो मैं भी नहीं बोलूंगा। अगर मुझे यह कहने का हक है कि छुआछूत पाप है, तो पंडित लालनाथ को भी यह कहने का उतना ही हक है कि छुआछूत विरोधी आंदोलन पाप है। हरिजन आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन है जिसमें असहिष्णुता या मारपीट के लिए कोई जगह नहीं है। हिंसा करके आप इस महान आंदोलन को खत्म कर देंगे।

अंत में इस घटना को लेकर गांधीजी ने सात दिनों का उपवास किया। पंडित लालनाथ के साथ हुई मारपीट से गांधीजी को जो दुख हुआ, वह उनके उपवास करने के फैसले में साफ दिख रहा था। उन्होंने 10 जुलाई को कराची से एक बयान में इस फैसले की घोषणा की। बयान में कहा गया था: दिल की बहुत खोजबीन के बाद, मैंने खुद पर सात दिनों का उपवास करने का फैसला किया है, जो 7 अगस्त मंगलवार दोपहर से शुरू होगा, यानी वर्धा पहुंचने के दो दिन बाद, जिसे मैं अगले 5 अगस्त को करने की उम्मीद करता हूं। पंडित लालनाथ और उन सनातनियों के लिए यह सबसे कम प्रायश्चित है जिनका मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ। भगवान ने चाहा, तो हरिजन दौरा अगले 2 अगस्त को बनारस में खत्म होगा। शायद यह सही है कि अंत का संकेत एक प्रायश्चित उपवास से दिया जाए। यह मेरी और मेरे साथियों की सभी गलतियों, चाहे वे जानबूझकर की गई हों या अनजाने में, भूल-चूक की हों, को ढक दे। आंदोलन उपवास के साथ खत्म नहीं होगा। इसे धर्म के पवित्र नाम पर थोपी गई गुलामी से लगभग पचास मिलियन इंसानों की मुक्ति के संघर्ष में एक नया और साफ-सुथरा अध्याय शुरू करने दें।

गांधीजी के उपवास के ऐलान से उनके करीबी साथी परेशान हो गए। उन्होंने उन्हें भरोसा दिलाया। 11 जुलाई को वल्लभभाई पटेल को लिखकर उन्होंने कहा: मेरे उपवास की खबर से दुखी न हों। यह बहुत ज़रूरी है। मीटिंग में बहुत भीड़ आती है और सनातनवादी लड़ाई के रास्ते पर हैं। लोग उनके बर्ताव को बर्दाश्त नहीं करते और इसलिए, मुसीबत तो आएगी ही। लोग सिर्फ़ नसीहतों से नहीं सुनेंगे। उपवास करके ही कोई अपनी बात बहुत सारे लोगों तक पहुँचा सकता है। मीटिंग में भीड़ पहले से कहीं ज़्यादा होती है और उन्हें कंट्रोल करना बहुत मुश्किल होता है।

गांधीजी ने उसी दिन प्रेस के लोगों से बात करते हुए कहा: आप भाषणों या लेखों से नहीं, बल्कि सिर्फ़ उस चीज़ से लोगों के मन पर असर डाल सकते हैं जिसे लोग सबसे अच्छी तरह समझते हैं, वह है दुख, और सबसे सही तरीका है उपवास। . . . वे सिर्फ़ दिल की भाषा समझते हैं, और जब उपवास पूरी तरह से निस्वार्थ हो तो वह दिल की भाषा है।

अखबारों में छापा, उनकी सेहत को खतरा है। "बेशक", गांधीजी ने कहा, किसी भी उपवास में कुछ खतरा तो होता ही है, वरना उसका कोई मतलब नहीं है। उसमें शरीर को तकलीफ़ देनी पड़ती है। उपवास का फैसला बदला नहीं जा सकता, क्योंकि मैंने अजमेर में मीटिंग में यह ऐलान किया था कि मैं प्रायश्चित करूंगा।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

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