शुक्रवार, 26 दिसंबर 2025

410. श्रमिक वर्ग, किसान वर्ग और कांग्रेस

 राष्ट्रीय आन्दोलन


410. श्रमिक वर्ग, किसान वर्ग और कांग्रेस

 

लोकप्रिय सरकारों के गठन से श्रमिकों के प्रति कांग्रेस दृष्टिकोण में बदलाव आया और उनके संगठनों की संघर्षशीलता को बढ़ावा मिला। कामगार वर्ग को एकजुट रखने के कांग्रेसी प्रयासों में तेज़ी आई और पटेल, राजेन्द्र प्रसाद और कृपलानी जैसे नेताओं ने हिन्दुस्तान मज़दूर सभा (एचएमएस) की स्थापना की। इसके बावज़ूद भी अधिकांश ट्रेड यूनियन आंदोलन वामपंथियों के हाथ में ही रहा। पूंजीपतियों को ख़ुश रखने के लिए और श्रमिक असंतोष को नियंत्रित करने के लिए कांग्रेस ने बाम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट (नवंबर 1938) पास किया। इस क़ानून के तहत ग़ैरक़ानूनी हड़तालों के लिए 6 महीने की जेल की सज़ा का प्रावधान था। साथ ही ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण के लिए नए नियमों की व्यवस्था की गई थी। गांधीवादी श्रमिक नेता गुलज़ारीलाल नंदा ने इस क़ानून का विरोध किया था। विरोध सभा को उनके अलावा डांगे, इंदुलाल याज्ञिक और अंबेडकर ने भी संबोधित किया था। ध्यान देने की बात है कि नेहरूजी को बाम्बे एक्ट कुल मिलाकर अच्छा ही लगा। और सुभाष चन्द्र बोस ने सिर्फ़ निजी तौर पर पटेल से इस संबंध में विरोध प्रकट किया था, सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।

किसान वर्ग और कांग्रेस

1930 के दशक में भारतीय किसानों में एक नया राष्ट्रवादी जागरण आया। सिविल नाफ़रमानी आंदोलन के तहत देश के बहुत से हिस्सों में टैक्स और लगान न देने का अभियान चलाया गया। किसानों ने बड़े उत्साह के साथ इस अभियान में हिस्सा लिया। आंध्र में लगान व्यवस्था में किए जा रहे बंदोबस्त के विरुद्ध तीव्र विरोध प्रकट किया गया। उत्तर प्रदेश में टैक्स के बहिष्कार के साथ लगान का भी बहिष्कार किया गया। गुजरात में भी किसानों ने टैक्स देने से इंकार कर दिया। किसानों की ज़मीन और संपत्ति ज़ब्त कर ली गई। बिहार और बंगाल में किसानों को चौकीदारी टैक्स देना पड़ता था। इसके ख़िलाफ़ ज़बरदस्त आंदोलन हुए। पंजाब में टैक्स रोको आंदोलन चलाया गया। महाराष्ट्र और बिहार में जंगल सत्याग्रह चलाया गया। अप्रैल 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी जो बाद में चलकर अखिल भारतीय किसान सभा कहलाया। बिहार के स्वामी सहजानंद सरस्वती इसके अध्यक्ष थे और एन.जी. रंगा महासचिव। कांग्रेस की मांगों में किसानों से जुड़ी मांगें अब प्रमुखता पाती थी।

1937 में देश के बहुसंख्यक प्रांतों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ। किसानों की पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस कृषि-सुधार के कार्यक्रम अपनाने को प्रतिबद्ध थी। अपने शासन वाले प्रांतों में ब्याज की दरें निश्चित करके क़र्ज़ के बोझ को कम करने का उसने प्रयास भी किया। उनके द्वारा लगान में बढोत्तरी पर प्रतिबंध लगाया गया। वन-सत्याग्रह वाले इलाक़ों में चराई शुल्क को समाप्त कर दिया गया। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है ये सब दिखावे या छलावे मात्र थे। कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए क़ानून फैजपुर अधिवेशन के मामूली प्रस्तावों को भी पूरा नहीं कर पाए और संयुक्त प्रांत और बिहार की कांग्रेस के ज़मींदारी उन्मूलन प्रस्तावों को पार्टी ने सत्ता में आते ही भुला दिया। ज़मींदारों की ओर से सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देने की धमकी से घबराकर बिहार की कांग्रेस सरकार ने टेनेंसी बिल को बहुत ही हल्का कर प्रभावहीन बना दिया। ज़मींदारी उन्मूलन के प्रश्न को कमीशन को सौंपकर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। थोड़े बहुत जो भी कृषि सुधार किए गए थे, वह तो किसानों द्वारा बहुत बड़े पैमाने पर किए गए आंदोलन का परिणाम था।  किसान की सभा की संख्या में काफी वृद्धि हुई थी। शानदार किसान जुलूस निकालना अब आम बात थी। समृद्ध वर्ग द्वारा उनके आंदोलन के ख़िलाफ़ दबाव भी बनाया जाता था जिससे अनेक स्थानीय संघर्ष भी हुए। अखिल भारतीय किसान सभा के भीतर क्म्युनिस्ट अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे थे। किसान सभा ने लाल झंडे को ध्वज के रूप में अपना लिया था। मई 1938 में बंगाल के कोमिल्ला अधिवेशन में  गांधीवादी वर्ग-सहयोग की भर्त्सना की गई, कृषि-क्रांति को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया और ज़मींदारों के आक्रमणों के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए डंडे के प्रयोग की हिमायत की गई। किसान सभा की इस संघर्षशीलता के प्रति कांग्रेसी मंत्रिमंडलों और नेताओं का दृष्टिकोण अधिक से अधिक विद्वेषपूर्ण होता चला गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब तब हो रहा था जब पहले नेहरू और फिर सुभाष बोस कांग्रेस पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष थे। नेहरू ने इलाहाबाद के किसानों को सलाह दी कि वे कांग्रेस के सरकार के कार्य को सुचारू रूप से चलने दें, उसमें कोई बाधा न डालें।

किसान आंदोलन का राष्ट्रीय आंदोलन के अटूट रिश्ता बना रहा। राष्ट्रीय आंदोलन ने किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। उनके संगठन और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय किया। फलतः किसान आंदोलन की विचारधारा राष्ट्रीयता पर आधारित थी। इसके नेता और कार्यकर्ता जहां एक ओर किसानों के संगठन का संदेश फैलाते वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत पर भी बल देते। कुछ इलाक़ों में किसान और कांग्रेस नेतृत्व के बीच गंभीर मतभेद ज़रूर पैदा हुए लेकिन आम तौर पर किसान आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन साथ-साथ चलते रहे।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

409. कांग्रेस और लीग अलग-अलग

राष्ट्रीय आन्दोलन

409. कांग्रेस और लीग अलग-अलग

1938

1930 की एक विशेष बात यह थी कि साइमन कमीशन विरोधी विरोध आंदोलन और फिर 1930 से 1934 तक दूसरा सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरे देश में फैल गया और एक बार फिर सांप्रदायिक लोगों को पूरी तरह से बैकग्राउंड में धकेल दिया। कांग्रेस, जमात-उल-उलेमा-ए-हिंद, खुदाई खिदमतगार और अन्य संगठनों के नेतृत्व में, हजारों मुसलमान जेल गए। राष्ट्रीय आंदोलन ने पहली बार मुस्लिम बहुमत वाले दो नए प्रमुख क्षेत्रों - उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और कश्मीर को अपनी चपेट में ले लिया। 1930 के दशक की शुरुआत में गोलमेज सम्मेलनों के दौरान सांप्रदायिक नेताओं को सुर्खियों में आने का मौका मिला। इन सम्मेलनों में, सांप्रदायिक लोगों ने ब्रिटिश शासक वर्गों के सबसे प्रतिक्रियावादी वर्गों के साथ हाथ मिलाया। मुस्लिम और हिंदू दोनों सांप्रदायिक लोगों ने अपने तथाकथित सांप्रदायिक हितों की रक्षा के लिए ब्रिटिश अधिकारियों का समर्थन जीतने के प्रयास किए। 1937 तक सांप्रदायिक पार्टियाँ और समूह काफी कमजोर और सीमित आधार वाले थे। 1932 में, कमजोर पड़ रहे मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश में, ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक पुरस्कार की घोषणा की जिसने 1927 के दिल्ली प्रस्तावों और जिन्ना के चौदह सूत्रीय कार्यक्रम 1929 में शामिल लगभग सभी मुस्लिम सांप्रदायिक मांगों को स्वीकार कर लिया।

1937 के बाद साम्प्रदायिकता नफ़रत की राजनीति, डर और अतार्किकता पर आधारित होती गई। सांप्रदायिक लोगों ने डब्ल्यू.सी. स्मिथ के शब्दों में, 'जोश, डर, तिरस्कार और कड़वी नफ़रत' के साथ दूसरे 'समुदायों' पर हमला किया। सांप्रदायिक लोग तेज़ी से इस सिद्धांत पर काम कर रहे थे: जितना बड़ा झूठ, उतना अच्छा। उन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीजी पर ज़हर उगला, और, विशेष रूप से, उन्होंने राष्ट्रवादियों के बीच अपने ही धर्म के लोगों पर बुरी तरह हमला किया। 1937 के बाद, सांप्रदायिकता ने भी धीरे-धीरे एक लोकप्रिय आधार हासिल कर लिया, और लोगों की राय को जुटाना शुरू कर दिया। सांप्रदायिकता खुद को किसी कट्टर सामाजिक-आर्थिक, या राजनीतिक या वैचारिक कार्यक्रम पर आधारित नहीं कर सकती थी। इसलिए, स्वाभाविक रूप से, धर्म और डर और नफरत की अतार्किक भावनाओं से अपील की गई।

1937 के चुनावों में कांग्रेस एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। युवा, मजदूर और किसान भी तेजी से वामपंथ की ओर मुड़ रहे थे, और पूरा राष्ट्रीय आंदोलन अपने आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम और नीतियों में तेजी से कट्टरपंथी होता जा रहा था। 1937 के बाद, सांप्रदायिकता ही औपनिवेशिक अधिकारियों और उनकी फूट डालो और राज करो की नीति का एकमात्र राजनीतिक सहारा बन गई। 1937 के चुनावों ने दिखाया कि उपनिवेशवाद के लगभग सभी प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक समूह बिखर चुके थे। राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ खेलने के लिए केवल सांप्रदायिक कार्ड ही उपलब्ध था और शासकों ने इसका पूरा इस्तेमाल करने का फैसला किया, इस पर सब कुछ दांव पर लगा दिया। उन्होंने औपनिवेशिक राज्य का पूरा ज़ोर मुस्लिम सांप्रदायिकता के पीछे लगा दिया, भले ही इसका नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति - एम.ए. जिन्ना - कर रहा था, जिसे वे उसकी मज़बूत आज़ादी और खुलकर उपनिवेशवाद विरोधी होने के कारण नापसंद करते थे और डरते थे। राष्ट्रवादी मांग का मुकाबला करने और भारतीय राय को बांटने के लिए, मुस्लिम लीग पर भरोसा किया गया जिसकी राजनीति और मांगों को राष्ट्रवादी राजनीति और मांगों के विपरीत रखा गया। लीग को मुसलमानों के एकमात्र प्रवक्ता के रूप में मान्यता दी गई और किसी भी राजनीतिक समझौते को वीटो करने की शक्ति दी गई। मुस्लिम लीग ने भी, बदले में, औपनिवेशिक अधिकारियों के साथ सहयोग करने और अपने कारणों से उनके राजनीतिक हथियार के रूप में काम करने पर सहमति व्यक्त की।

मुस्लिम लीग ने 1937 का चुनाव अभियान उदार सांप्रदायिक आधार पर चलाया था। उसने अपने चुनावी घोषणापत्रों में राष्ट्रवादी कार्यक्रम का बहुत सारा हिस्सा और कांग्रेस की कई नीतियों को शामिल किया था। लेकिन यह चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाया। मुस्लिम लीग ने अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों के तहत मुसलमानों के लिए आवंटित 482 सीटों में से केवल 109 सीटें जीतीं, और कुल मुस्लिम वोटों का केवल 4.8 प्रतिशत ही हासिल किया। लीग को अहसास हुआ कि अगर यह उग्र, जन-आधारित राजनीति नहीं अपनाएगा तो वे धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे।

1936 के दौरान जिन्ना ने अपने राष्ट्रवाद और आज़ादी की इच्छा पर ज़ोर दिया था और हिंदू-मुस्लिम सहयोग की बात की थी। मार्च 1936 में लाहौर में उसने कहा था, ‘मैंने जो कुछ भी किया है, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मुझमें कोई बदलाव नहीं आया है, ज़रा सा भी नहीं, जिस दिन से मैंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जॉइन की थी। हो सकता है कि मैं कुछ मौकों पर गलत रहा हूँ। लेकिन यह कभी भी किसी पार्टी के पक्ष में नहीं किया गया। मेरा एकमात्र मकसद मेरे देश का भला करना रहा है। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि भारत का हित मेरे लिए पवित्र है और रहेगा और कोई भी चीज़ मुझे उस स्थिति से एक इंच भी पीछे नहीं हटा सकती।’

1937 के चुनावों में जिन्ना का प्लान मुस्लिम लीग का इस्तेमाल करके इतनी सीटें जीतना था कि कांग्रेस पर एक और लखनऊ पैक्ट थोपा जा सके। लेकिन चुनावी परिणाम उसके मन मुताबिक़ नहीं आया। अब जिन्ना को तय करना था कि क्या करे: अपनी अर्ध-राष्ट्रवादी, उदार सांप्रदायिक राजनीति पर टिके रहे, जिसकी क्षमताएँ खत्म हो चुकी थीं, या सांप्रदायिक राजनीति छोड़ दे। दोनों का मतलब राजनीतिक रूप से हाशिये पर चले जाना होता। तीसरा विकल्प था जन राजनीति अपनाना, जो केवल 'इस्लाम खतरे में है' और 'हिंदू राज का खतरा' के नारों पर आधारित हो सकती थी। जिन्ना ने 1938 में अपना आखिरी विकल्प चुनने का फैसला किया। एक बार जब उसने यह फैसला कर लिया, तो वह पूरी तरह से चरम सांप्रदायिकता की ओर बढ़ गया, और नफरत और डर के विषयों पर आधारित नई राजनीति के पीछे अपनी व्यक्तित्व की पूरी ताकत और प्रतिभा लगा दी। अब से, इस सबसे बड़े सांप्रदायिक नेता का मुसलमानों के बीच पूरा राजनीतिक अभियान अपने सह-धर्मियों के डर और असुरक्षा को भुनाने और यह बात मन में बिठाने पर केंद्रित हो गया कि कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ादी नहीं, बल्कि अंग्रेजों के सहयोग से हिंदू राज और मुसलमानों पर प्रभुत्व, और यहाँ तक कि उनका सफाया और भारत में इस्लाम का विनाश चाहती है।

जिन्ना कांग्रेस और उसकी सरकारों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने से कभी नहीं चूकता। उसने यहां तक अफ़वाह फैलाई कि कांग्रेस सरकार मुसलमानों पर अत्याचार करती है और उन्हें दबाए रखना चाहती है। 1938 में लीग में अपने अध्यक्षीय भाषण में, जिन्ना ने कहा: ‘कांग्रेस का हाई कमांड इस देश में बाकी सभी समुदायों और संस्कृतियों को कुचलने और इस देश में हिंदू राज स्थापित करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ है।’

फरवरी, 1938 में जिन्ना ने गांधीजी को लिखा, अब हम ऐसे स्थान पर पहुंच गए हैं, जहां हमको संदेह की भाषा छोड़ देनी चाहिए। आप यह स्वीकार करें कि मुस्लिम-लीग भारत के समस्त मुसलमानों की प्रामाणिक तथा प्रतिनिधि संस्था है। आप और कांग्रेस केवल हिन्दुओं के प्रतिनिधि हैं। जिन्ना का मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा पूर्णतः अनुचित था, क्योंकि संयुक्त प्रांत, मद्रास और बंबई के मुसलमान के बीच सशक्त होने पर भी लीग बंगाल में काफ़ी कमज़ोर थी, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और पंजाब में नगण्य थी और सिंध में सरकार बनाने में असफल रही थी (वहां अल्लाहबख़श के नेतृत्व में कांग्रेसी मंत्रिमंडल गठित हो चुका था)।

अप्रैल में जिन्ना ने कांग्रेस से यह मांग की कि वह अपनी केन्द्रीय समिति में किसी मुसलमान को रखेअध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने जवाब दिया, कांग्रेस तो अपनी परंपरा से हट सकती है, अपने मुसलमान समर्थकों के साथ भेद-भाव कर सकती है जिन्ना के स्वर तीखे और कड़वे होते गएगांधीजी के प्रति उसकी नापसंदगी जग-ज़ाहिर थीदिसम्बर में उसने कहा, गांधीजी ने कांग्रेस को हिन्दूवाद के पुनर्जागरण का उपकरण बना दिया हैवे कांग्रेस की नीतियों को भारत में हिन्दू राज की स्थापना की तरफ मोड़ने के लिए जिम्मेवार हैं

अब कांग्रेस और लीग के रास्ते अलग-अलग हो चुके थे। लीग अधिक से अधिक ब्रिटिशपरस्त, पृथकतावादी और कांग्रेस विरोधी नीति अपनाने लगी। कुछ ही दिनों के बाद उसने पाकिस्तान की मांग की। दिसंबर 1938 में लीग के पटना अधिवेशन में जिन्ना ने कांग्रेसी नीतियों की ‘कांग्रेसी फासीवाद’ कहते हुए भर्त्सना की।

संयुक्त प्रांत में कांग्रेस का लीग के मिली-जुली सरकार के गठन का प्रस्ताव अस्वीकार करना दोनों के बीच बढ़ती दूरी का तात्कालिक प्रमुख कारण था। चुनावों में पूर्ण बहुमत (228 में से 134) प्राप्त हो जाने के बाद कांग्रेस ने संयुक्त प्रांत में मिली-जुली सरकार बनाने के ख़लीक़ुज़्ज़मां के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। बल्कि कांग्रेस ने इस पर ज़ोर दिया था कि मुस्लिम लीग असेंबली पार्टी का कांग्रेस में पूर्णरूप से विलय कर दिया जाए। कांग्रेस को आशंका थी कि यदि विलय नहीं हुआ तो किसी भी प्रकार के सामाजिक-आर्थिक  सुधार असंभव हो जाएगा।

चूंकि 1937 के बाद मुस्लिम लीग का बड़ा पुनरुद्धार संयुक्त प्रांत में केंद्रित था, इसलिए उस प्रांत में गठबंधन को कांग्रेस द्वारा अस्वीकार करने को अक्सर बहुत निर्णायक माना गया है। कुछ विद्वानों का विचार यह है कि अगर 1938-39 के दौरान जिन्ना को मना लिया गया होता और, खासकर, अगर यू.पी. में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाई गई होती, तो सांप्रदायिक समस्या खत्म हो गई होती या हल हो गई होती। कहा जाता है कि जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को झटका लगने से वह कड़वा हो गया और अलगाववाद की ओर मुड़ गया। यह तर्क इस तथ्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करता है कि 'झटका' लगने से पहले जिन्ना पहले से ही एक पक्का उदारवादी सांप्रदायिक व्यक्ति था। कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना के साथ बातचीत करने और उसे मनाने की पूरी कोशिश की। 1938 आते-आते कांग्रेस ने जिन्ना से समझौता करने का प्रयास किया। लेकिन कांग्रेस को इसमें सफलता नहीं मिली। जिन्ना सांप्रदायिकता के तर्क में फंस गया था। उसके पास कोई ऐसी मांग नहीं बची थी जिस पर बातचीत की जा सके और जिसे तर्कसंगत रूप से आगे बढ़ाया जा सके और उस पर बहस की जा सके। बातचीत शुरू करने के लिए भी उसने जो असंभव शर्त रखी, वह यह थी कि कांग्रेस नेतृत्व को पहले अपना धर्मनिरपेक्ष चरित्र छोड़ देना चाहिए और खुद को एक हिंदू सांप्रदायिक संगठन घोषित करना चाहिए और मुस्लिम लीग को मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करना चाहिए। कांग्रेस इस मांग को स्वीकार नहीं कर सकती थी। राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, कांग्रेस के लिए यह स्वीकार करना कि वह एक हिंदू संगठन है, 'अपने अतीत को नकारना, अपने इतिहास को झूठा साबित करना और अपने भविष्य के साथ विश्वासघात करना होगा' - असल में, यह भारतीय लोगों और उनके भविष्य के साथ विश्वासघात होगा। अगर कांग्रेस ने जिन्ना की मांग मान ली होती और उसे 'मना लिया' होता, तो हम शायद पाकिस्तान की हिंदू प्रतिकृति या हिंदू फासीवादी राज्य में रह रहे होते। इसलिए कोई गंभीर बातचीत शुरू भी नहीं हो सकी।

दिलचस्प बात यह है कि U.P. में कांग्रेस मंत्रालय के गठन के लिए बातचीत शुरू होने से पहले ही, मुस्लिम लीग ने मई 1937 के दौरान U.P. विधानसभा के उपचुनावों में कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ अपने अभियान में 'इस्लाम खतरे में है' का नारा लगाया था। जिन्ना ने खुद अल्लाह और कुरान के नाम पर मतदाताओं से अपील जारी की थी। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ न आने के कारण यह तय किया कि ‘जन संपर्क’ आंदोलन चलाकर मुसलमानों को अपने पक्ष में किया जाएगा। और इस काम के लिए के.एम. अशरफ़ को इसका दायित्व दिया गया।

उधर जिन्ना ने संयुक्त प्रांत में लीग की लोकप्रिय छवि बनाने में सफलता हासिल की। उसने पूर्ण स्वाधीनता को अपना सिद्धांत स्वीकार किया। कांग्रेस की निंदा तीव्र कर दी। यूनियन पार्टी के पंजाब के मुख्यमंत्री सिकंदर हयात ख़ान और कृषक प्रजा पार्टी के बंगाल के मुख्यमंत्री फ़जलुल हक़ का समर्थन प्राप्त करने में भी सफलता पाई।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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