राष्ट्रीय आन्दोलन
344. दूसरा सविनय अवज्ञा आन्दोलन-2
1932
कांग्रेस
का वार्षिक अधिवेशन
मार्च 1932 के अंत तक लगभग सभी शीर्ष कांग्रेसी
नेता जेल में थे। जो किसी कारण से जेल से बच गए थे, उन्होंने अप्रैल में कांग्रेस का वार्षिक
अधिवेशन आयोजित करने का निर्णय लिया। कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष राजेंद्र
प्रसाद जेल में थे और उनकी अनुपस्थिति में सरोजिनी नायडू ने कांग्रेस की कार्यवाहक
अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला। उन्होंने निर्णय लिया कि कांग्रेस का
सैंतालीसवाँ अधिवेशन, जो पुरी में आयोजित होने वाला था, दिल्ली में
आयोजित किया जाना चाहिए। अप्रैल के पहले सप्ताह में प्रेस में एक घोषणा प्रकाशित
हुई कि अधिवेशन 23 और 24 अप्रैल को दिल्ली में आयोजित किया जाएगा। उनके कहने पर
मदन मोहन मालवीय ने अधिवेशन की अध्यक्षता स्वीकार कर ली। कांग्रेस अपने आप में एक
वैध संगठन बनी रही, क्योंकि केवल कार्यकारिणी समिति ने ही सविनय
अवज्ञा प्रस्ताव पारित किया था, जिसे अवैध घोषित कर दिया गया था और वैसे भी
कार्यकारिणी समिति के सभी सदस्य जेल में थे। 6 अप्रैल
को जिला मजिस्ट्रेट ने कांग्रेस को यह निर्णय सुनाया कि अधिवेशन आयोजित करने की
अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि अधिवेशन के विचार-विमर्श से देश में चल रही
असंवैधानिक और विध्वंसकारी गतिविधियों को बढ़ावा मिलने की संभावना थी। लेकिन
कांग्रेसजन विचलित नहीं हुए। बड़ी संख्या में प्रतिनिधि दिल्ली के लिए रवाना हुए।
कई लोगों को रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन कई लोग
चुपके से अंदर घुसने में कामयाब रहे। हालाँकि सरोजिनी नायडू और मदन मोहन मालवीय
दोनों को जेल में डाल दिया गया था, फिर भी कांग्रेस दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित
घंटाघर के नीचे इकट्ठा हुई। सरोजिनी नायडू को 22 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया था और एक साल
की कैद की सजा सुनाई गई थी। निर्वाचित अध्यक्ष पंडित मालवीय ने 23 तारीख को निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए
दिल्ली में प्रवेश किया और गोविंद मालवीय, आर.एस. पंडित और कुछ अन्य लोगों के साथ
गिरफ्तार कर लिए गए। यह "सत्र" सुबह लगभग 9 बजे रणछोड़दास अमृतलाल की
अध्यक्षता में आयोजित हुआ। लगभग 150 लोग इसमें शामिल हुए, जिन्हें तुरंत बाद
ही गिरफ्तार कर सेंट्रल जेल में डाल दिया गया।
अब जन-आंदोलन का रूप
सविनय अवज्ञा आंदोलन के इस दूसरे चरण में कितने
लोगों को कारावास हुआ? कोई भी ठीक-ठीक नहीं बता सकता, लेकिन कुल मिलाकर
यह संख्या बहुत ज़्यादा थी। 31 मई को जारी आधिकारिक बयान में तब तक दोष सिद्धि की
संख्या बताई गई थी। यह आँकड़ा 48,602 था, जिसका मासिक विवरण इस प्रकार था: जनवरी 14,800, फ़रवरी 17,800, मार्च 6,900, अप्रैल 5,200, मई 3,800। लेकिन ये
आँकड़े केवल उन लोगों के थे जिन्हें गिरफ़्तार किया गया और मुकदमों के बाद दोषी
ठहराया गया। फरवरी 1933 के अंत तक, जब आंदोलन लगभग समाप्त हो चुका था, 71,453 लोगों को दोषी ठहराया गया, जिनमें से 3,642 महिलाएँ थीं।
इससे पहले कभी भी महिलाओं को मातृभूमि की खातिर अपना घर-बार छोड़कर बलिदान देने के
लिए इस हद तक प्रेरित नहीं किया गया था। विलिंगडन चाहे जो भी मानता रहे, यह तो बिलकुल स्पष्ट था कि कांग्रेस अब जन-आंदोलन का रूप धारण
कर चुकी थी। स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े, साक्षर, निरक्षर, मज़दूर, किसान,
काश्तकार, व्यापारी सभी आंदोलन में कूद पड़े थे और जेल जा रहे थे। अंग्रेजों के दमनकारी उपाय भी भारत को शांत रखने के लिए
पर्याप्त नहीं थे। बहिष्कार और सविनय अवज्ञा आंदोलन जारी रहा और देश के विभिन्न
हिस्सों में विद्रोह, हड़तालें और उपद्रव भड़क उठे। जनता संघर्ष करती रही, लेकिन यह नेतृत्वहीन संघर्ष था। नागरिक प्रतिरोधियों की
गतिविधियाँ सामान्य स्वरूप की थीं, जिनमें प्रतिबंधित सभाएँ और जुलूस आयोजित करने से लेकर
पुलिस पैरोल या किसी भी प्रकार के आधिकारिक प्रतिबंध आदेश को अस्वीकार करना शामिल
था। बहिष्कार कार्यक्रम बहुत व्यापक था जिसका असर बैंकों, बीमा कंपनियों और सर्राफा एक्सचेंज तक पर पड़ा। सभी ब्रिटिश
संस्थानों का गहन बहिष्कार किया गया। नोट-टैक्स अभियान भी स्पष्ट रूप से देखा गया।
दमन की आग
बाद में विलिंगडन ने ख़ुद भी यह
स्वीकार किया था कि वह “भारत का मुसोलिनी बनता जा रहा है”। सरकार ने अपने हर संसाधन से कांग्रेस का मुकाबला किया। कई
नगर पालिकाओं को तिरंगा झंडा उतारकर यूनियन जैक के लिए जगह बनाने पर मजबूर किया
गया। एक प्रांत के रूप में, उत्तर प्रदेश संघर्ष में सबसे आगे रहा। कमोबेश सभी प्रांत
दमन की आग में झुलसे, लेकिन सीमांत प्रांत और बंगाल को सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना
पड़ा। दंडात्मक पुलिस अक्सर तैनात रहती थी और पूरे भारत में गाँवों और कभी-कभी
कस्बों पर भारी सामूहिक जुर्माना लगाने की प्रथा थी। बंगाल के कुछ हिस्सों में तो
असाधारण नजारा देखने को मिलता था। सरकार बंगाल के कुछ ज़िलों की पूरी आबादी और
खासकर हिंदुओं के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती थी, और हर जगह और हर किसी को—पुरुष और महिला, लड़का या
लड़की, बारह से
पच्चीस साल के बीच—पहचान पत्र रखना अनिवार्य था। निर्वासन और नज़रबंदी की व्यवस्था
थी, पहनावे पर
नियमन था, कई मामलों में
स्कूल बंद थे, साइकिल चलाने
की अनुमति नहीं थी, किसी भी गतिविधि की सूचना पुलिस को देनी होती थी, कर्फ्यू, सूर्यास्त
कानून, सैन्य मार्च, दंडात्मक
पुलिस, सामूहिक
जुर्माना और कई अन्य दमनकारी उपाय लागू थे। क्रांतिकारियों ने अपना सिर उठा लिया
था। अदालत में अपना अपराध स्वीकार करते हुए बीना दास ने कहा, "मैंने अपने देश के प्रति प्रेम से प्रेरित होकर राज्यपाल पर
गोली चलाई, जिसका दमन किया जा रहा है। मैंने सोचा था कि मृत्यु का
एकमात्र रास्ता अपने देश के चरणों में खुद को समर्पित करना है, और इस तरह
अपने सभी कष्टों का अंत करूँगी। मैं सभी का ध्यान इन उपायों से उत्पन्न स्थिति की
ओर आकर्षित करती हूँ, जो भारतीय नारीत्व की सर्वोत्तम परंपराओं में पली-बढ़ी मुझ
जैसी कमज़ोर महिला को भी अलैंगिक बना सकती है।"
दमन लगातार जारी रहा। खासकर ग्रामीण इलाकों में पुलिस की
बर्बरता ने सारी हदें पार कर दीं। इस तरह का व्यवहार पूरी तरह से अहिंसक
प्रदर्शनकारियों के साथ किया जा रहा था, जो सिर्फ़ नारे लगाते थे, जनसभाओं में इकट्ठा होते थे और मुख्यतः क़ानून तोड़ने के
लिए जुलूस निकालते थे। हज़ारों-लाखों की संख्या में सत्याग्रहियों ने गिरफ़्तारी
के लिए अपनी पेशकश की। हालाँकि धीरे-धीरे इस आंदोलन ने अपनी शुरुआती आग और उत्साह
खो दिया, लेकिन इसने पूरे देश में पुरुषों और महिलाओं के सर्वश्रेष्ठ
गुणों को उजागर किया।
एक अंग्रेज मित्र को लिखे पत्र में, रोमां रोलां ने लिखा: "आज, हज़ारों लोगों की नज़र में, जो समाज के वर्तमान स्वरूप—साम्राज्यवादी और पूंजीवादी—को
बनाए रखना असहनीय मानते हैं, और इसे बदलने के लिए दृढ़ हैं, भारत में सत्याग्रह का शानदार प्रयोग ही दुनिया को हिंसा का
सहारा लिए बिना इस सामाजिक परिवर्तन को लाने का एकमात्र अवसर है। अगर यह विफल हो
जाता है—अगर यह ब्रिटिश साम्राज्य की हिंसा से बर्बाद हो जाता है, जो खुद को भारत की सविनय अवज्ञा के विरुद्ध खड़ा करता है—तो
मानव विकास के लिए हिंसा के अलावा कोई दूसरा मुद्दा नहीं बचेगा; और इसका फैसला स्वयं ब्रिटिश साम्राज्य करेगा—या तो गांधी
या लेनिन। किसी भी स्थिति में सामाजिक न्याय होगा। यही वह बात है जो भारत के तमाशे
को और भी दुखद बनाती है। यही कारण है कि जिन लोगों के दिल में सामाजिक सद्भाव, शांति और सुसमाचार की भावना है, उन्हें भारत को बिना किसी कसर छोड़े अपनी मदद देनी चाहिए।
क्योंकि, अगर सत्याग्रह का भारत युद्ध में हार जाता, तो स्वयं ईसा मसीह ही क्रूस पर, एक भयंकर भाले के प्रहार से, छलनी हो जाते। और इस बार कोई पुनरुत्थान नहीं होता।"
सविनय अवज्ञा आंदोलन का परिणाम
सर सेम्युअल होर ने अपनी पुस्तक (नाइन ट्रबल्ड ईयर्स) में बिलकुल ठीक ही लिखा था कि आने वाले
वर्षों में यह तो साफ हो गया था कि गांधीजी के व्यक्तित्व को जितना लॉर्ड इरविन
समझता था, उतना लॉर्ड विलिंगडन नहीं समझ पाया। इसलिए विलिंगडन गांधीजी के प्रभाव और
शक्ति को हमेशा कम करके आंकता रहा। लॉर्ड विलिंगडन एक योग्य और अनुभवी प्रशासक रह
चुके थे, लेकिन भारत के वायसराय
के नाते वह गुण ही उसका घोर दुर्गुण और अक्षमता बन गया। वह एक योग्य प्रशासनिक
अधिकारी भले ही रहा हो, लेकिन उसने राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रशासनिक स्तर से परे हट
कर देखने-समझने की कोशिश कभी नहीं की। भारतीय समस्या को उसने केवल प्रशासकीय स्तर
पर ही देखने-समझने की कोशिश की, जिसका उसके पास एक मात्र उपाय
आन्दोलनकारियों को निर्ममता से कुचल देने का ही था। वह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के बौद्धिक और
भावनात्मक स्वरूप को कभी समझ ही नहीं पाया और न ही उसने ऐसी कोई कोशिश की। अपनी इस असमर्थता के कारण आज़ादी के
देश-व्यापी जोश को वह अविवेकपूर्ण
हठवादिता से समझने की भूल की। भारतवासियों के राष्ट्र-प्रेम के मूल तत्त्व को कभी
समझ ही नहीं पाया। इसलिए गांधीजी के व्यक्तित्व को भी कभी समझ
नहीं पाया। वह यह समझ ही नहीं पाया कि सविनय अवज्ञा
गांधीजी के उस सत्याग्रह की एक शैली थी जिसका उद्देश्य अहिंसात्मक जन-आंदोलन के
द्वारा देश में राजनैतिक ही नहीं, सामाजिक परिवर्तन भी लाना था। इस आंदोलन में विरोध तो था, पर बदले की भावना
नहीं थी। असहयोग तो था, पर घृणा नहीं थी। गांधीजी के लिए आंदोलन का अहिंसात्मक रूप ही
सबसे महत्त्वपूर्ण था। गांधीजी के
बारे में वायसराय का यह ख्याल कि वह कूटनीति-प्रवण हैं, कांग्रेस को एक हथियार
की तरह इस्तेमाल करते हैं और वायसराय से भेंट की तिकडम चलाकर भारत के अज्ञजनों पर
अपना प्रभाव बढाना चाहते हैं, महात्माजी के व्यक्तित्व और सिद्धांतों
एवं भारतीय जनता के संबंध में उनके घोर अज्ञान का ही परिचायक है।
विलिंगडन को सत्याग्रह की इस नैतिक
श्रेष्ठता से झुंझलाहट होती थी। वह व्यापक हिंसा से इसे दबाना चाहता था। जब अंग्रेज़ों के कृत्यों की गांधीजी आलोचना
करते, तो अंग्रेज़ों द्वारा उन्हें अवसरवादी और लोगों को उकसाने वाला कहा जाता। जब वे अंग्रेज़ों की मैत्री का दावा करते तो,
कांग्रेसी मित्र उन्हें दंभी और फरेबी कहते। जब वह वायसराय से मिलने की इच्छा प्रकट करते,
तो मित्र उन पर सरकार को चालाकी से पछाड़ने के इरादे का दोषारोपण करते। जब आंदोलन शुरू करते, तो अंग्रेज़ उन्हें
‘दुर्दम शत्रु’ कहते। अगर आंदोलन के क्षेत्र को सीमित कर देते या आंदोलन बंद कर
देते, तो मित्र कहते अनुयायियों पर उनका असर ही नहीं रहा। जब तर्क और युक्तियां
निष्फल हो जातीं, तो स्वेच्छा से कष्ट-सहन करके विरोधियों के हृदय को विगलित करने
का प्रयत्न करते। जो भी हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन का इतना तो परिणाम अवश्य हुआ कि
उसने डेढ़ सौ वर्षों की दासता से दबी-डरी जनता को निर्भय-निडर कर उसमें राष्ट्रीयता
की भावना भर दी।
अगले तीन साल तक वे देश की प्रमुख राजनीति से भीतर-बाहर होते रहे। गांधीजी के नेतृत्व को नरम और गरम
दोनों पक्षों द्वारा खुली चुनौतियां दी जाती रहीं। लोग तो यहां तक आरोप लगा रहे थे
कि उन्होंने कांग्रेस को विफलता के दलदल में फंसा दिया है।
1932 साल के अंत होते-होते ....
दुर्भाग्यवश गांधीजी और अन्य नेताओं
को इस आंदोलन को गति प्रदान करने का अवसर नहीं मिला। नेताओं के जेल में होने की
वजह से आंदोलन नेतृत्वविहीन था। साल के अंत होते-होते सविनय अवज्ञा आंदोलन की गति
कमज़ोर होने लगी थी। आंदोलनों
में किसानों की भागीदारी में कमी आने लगी थी। आंदोलन को कुछ ही महीनों में प्रभावी
रूप से कुचल दिया गया। अगस्त 1932 में, दोषी
ठहराए गए लोगों की संख्या घटकर 3,047 रह गई और अगस्त 1933 तक केवल 4,500
सत्याग्रही जेल में थे। किसानों ने अपने से बड़ी ताक़त, अंग्रेज़ी हुक़ूमत, के आगे
बाध्य होकर समर्पण कर दिया था। अंग्रेज़ों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि “शुद्ध गांधीवादी सत्याग्रह के दिन लद गए थे”। 1932 का अंत होते-होते केन्द्रीय और प्रांत की सरकारें अपनी पीठ
इसलिए ठोक रही थीं कि उन्होंने कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया है। लेकिन
आर्डिनेन्सों द्वारा प्रदत्त अपने विशेषाधिकारों को छोडने के लिए वे अब भी तैयार न हुई।
लॉर्ड विलिंगडन लड़ाई को अधूरा छोड़ने के मूड में
नहीं था, वह आंदोलन को इस कदर कुचल देने पर आमादा था कि वह निकट भविष्य में सिर न
उठा सके। दमन इतना उग्र
और व्यवस्थित था की मार्च 1933 तक एक लाख बीस हज़ार से भी अधिक राष्ट्रवादी जेल के
भीतर थे। लॉर्ड विलिंगडन यह समझ चुका था, “सरकार द्वारा गांधीजी के साथ होने वाले व्यवहार के अनुरूप गांधीजी का
प्रभाव घटता-बढ़ता रहा है।” इसलिए आने वाले दिनों में विलिंगडन
ने कांग्रेस और गांधीजी से किसी भी तरह की बातचीत नहीं करने की नीति अपना ली थी। यह भी तय था कि गांधीजी को तब तक नज़रबंद रखा
जाएगा, जब तक वह या कांग्रेस बिना शर्त समर्पण न कर दें। दिसंबर में तेजबहादुर
सप्रू और एम.आर. जयकर लंदन से संवैधानिक चर्चा करके लौट आये थे। उन्हें जेल में
गांधीजी से मिलने की अनुमति मिल गई थी। 4 जनवरी, 1933 को वायसराय ने एक लंबा समुद्री तार भेजकर उपनिवेश-मंत्री के
इस सुझाव का कडा विरोध किया था। वायसराय गांधीजी के साथ उदारता दिखाने
की गलती तो भूलकर भी नहीं करना चाहता था।
गांधीजी
की अखिल भारतीय भूमिका बढ़ी
जो घटनाक्रम हुए थे, उसने यह तो तय कर दिया था
कि गांधीजी की अखिल भारतीय भूमिका में काफी वृद्धि हुई थी। कुछ इतिहासकारों का मत
है कि यह अंग्रेज़ों की नीतियों के कारण ही संभव हुआ। साइमन आयोग और उसके द्वारा
प्रस्तावित संवैधानिक परिवर्तनों को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर गांधीजी ने कांग्रेस
में एक नई जान फूंक दी थी। बराबरी से बात करके लॉर्ड इरविन ने गांधीजी को एक नया
कद प्रदान किया था। सरकारी उदासीनता ने पूंजीपतियों को कांग्रेस के साथ कार्य करने
के लिए बाध्य कर दिया था। जी.डी. बिड़ला बार-बार गांधीजी और सरकार के बीच मध्यस्थता
का कम करते रहे। अंग्रेज़ों ने आंबेडकर के आंदोलन को ‘फूट डालो राज करो नीति’ के
रूप में इस्तेमाल करके गांधीजी को हरिजनों पर ध्यान केन्द्रीत करने के लिए प्रेरित
किया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लेने का प्रस्ताव पारित
राष्ट्रीय आंदोलन की रफ़्तार धीमी होने
लगी। हालाँकि, आंदोलन अप्रैल 1934 की शुरुआत तक जारी रहा, जब गांधीजी ने
इसे वापस लेने का अपरिहार्य निर्णय लिया। मई 1934 में पटना में कांग्रेस कार्यकारिणी
समिति की बैठक हुई थी। सरकार के नृशंस दमन चक्र की स्थिति में गांधीजी के सुझाव पर
सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लेने का प्रस्ताव पारित हुआ और इसकी घोषणा कर दी गई।
आंदोलन ने जो मोड़ ले लिया था उससे राजनीतिक कार्यकर्ता
हताश थे। कई लोगों ने पूछा, हमने क्या हासिल किया है? जवाहरलाल जैसे उत्साही और सक्रिय व्यक्ति ने भी निराशा की
इस भावना को जून 1935 में अपनी जेल डायरी में एक पंक्ति लिखकर व्यक्त किया: 'जहाँ तुम्हारी आवाज़ थी वहाँ उदास हवाएँ थीं; जहाँ मेरा दिल था वहाँ आँसू, आँसू थे; और हमेशा मेरे साथ, बच्चे, हमेशा मेरे साथ, जहाँ आशा थी वहाँ सन्नाटा था।' सुभाष चंद्र बोस ने यूरोप से एक कड़े बयान में 1933 में
कहा था कि 'एक राजनीतिक नेता के रूप में श्री गांधी विफल
रहे हैं'। भारतीय राष्ट्रवाद के दुश्मन राष्ट्रवादियों
की इस हताशा पर बहुत खुश हुए - और उन्होंने इसे पूरी तरह से गलत समझा। अपनी दमनकारी नीति से ख़ुश अपनी पीठ ठोकते हुए
विलिंगडन ने घोषणा कर डाली, “कांग्रेस की हालत 1930 की तुलना में निश्चित
तौर पर गड़बड़ है, जनता के बीच उसकी वह पकड़ नहीं रही।”
लेकिन विलिंगडन और उनकी कंपनी भारतीय राष्ट्रीय
आंदोलन की प्रकृति और रणनीति को समझने में पूरी तरह विफल रही थी - यह मूलतः
पुरुषों और महिलाओं के मन का संघर्ष था। दरअसल विलिंगडन राष्ट्रीय आंदोलन के
चरित्र को समझ ही नहीं सका था। सच तो यह था कि यदि इरविन की
वार्ता की औपनिवेशिक नीति पहले विफल हो गई थी, तो विलिंगडन की निर्मम दमन की नीति भी विफल हो गई थी। लोग दमन से डरे ज़रूर थे, लेकिन
कांग्रेस से उनका विश्वास हटा नहीं था, बल्कि और ज़्यादा जुड़ा था, उससे आस्था मज़बूत हुई थी। आंदोलन को ज़रूर दबा दिया गया था,
लेकिन जनता की राजनीतिक चेतना दबी नहीं थी, और भी प्रगाढ़ और प्रखर हुई थी। यातनाओं और दमन से शक्ति ज़रूर
क्षीण हुई थी, लेकिन इच्छा शक्ति को बल मिला था। लेबर पार्टी के पत्रकार एच.एन. ब्रेल्सफोर्ड ने
राष्ट्रवादियों के हालिया संघर्ष के परिणामों का आकलन करते हुए लिखा था कि
भारतीयों ने 'अपने मन को मुक्त कर लिया था, उन्होंने अपने
दिलों में स्वतंत्रता हासिल कर ली थी।'
आंदोलन
का यह विराम
आंदोलन में यह विराम मुख्यतः विश्राम और पुनः
संगठित होने के लिए था। आंदोलन को वापस लेने का मतलब हार या जन समर्थन का नुकसान
नहीं था; इसका मतलब केवल था, जैसा
कि डॉ. अंसारी ने कहा था, 'काफी लंबे समय तक लड़ने के बाद हम विश्राम के
लिए तैयार हैं,' ताकि अगले दिन और अधिक और बेहतर संगठित बल के
साथ एक बड़ी लड़ाई लड़ी जा सके।' हमें
यह भी याद रखना चाहिए कि कोई भी आंदोलन बहुत लंबे समय तक एक ही गति से नहीं चल
सकता। एक समान गति बनाए रखने की भी एक सीमा होती है। वह भी तब जब इसे कुचलने के लिए
तमाम तरह के प्रयास किए जा रहें हों। इसलिए जब कुछ समय के लिए गति धीमी हुई, तो
इसका यह मतलब नहीं निकाल लेना चाहिए कि आंदोलनकारियों की पराजय हुई। तेज़ गति से
दौड़ने के बाद थोड़ा सुस्ताना भी पड़ता है। उस समय के नेताओं में गांधीजी ही ऐसे नेता थे जो सविनय
अवज्ञा आंदोलन के चरित्र और उसके दूरगामी परिणाम को अच्छी तरह समझते थे। आंदोलन की गति धीमी पड़ जाने पर गांधीजी
ने नेहरूजी को लिखा था, “मैं किसी तरह की पराजय की भावना से ग्रस्त नहीं हूं। आशा की ज्योति यह है कि हमारा देश अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरंतर आगे बढ़ रहा है, आज भी उतना प्रज्ज्वलित है जितना कि 1920 में थी। इस
आंदोलन से देश को जो ऊर्जा मिली है, उसका अंदाजा किसी को हो या न हो, मुझे है।” उन्होंने अप्रैल 1934 में कांग्रेस नेताओं के एक समूह के
सामने यह विचार दोहराया: 'मुझे अपने अंदर कोई निराशा महसूस नहीं हो रही है... मैं खुद
को असहाय महसूस नहीं कर रहा हूँ... राष्ट्र में वह ऊर्जा है जिसकी आपको तो कोई
कल्पना नहीं है, लेकिन मुझे है।'
दूसरे सविनय अवज्ञा के वास्तविक परिणाम और
वास्तविक प्रभाव का प्रतीक 1934 में कैदियों की रिहाई पर उनका नायकों जैसा स्वागत
था। और यह सभी के लिए तब स्पष्ट हो गया जब 1937 के चुनावों में मताधिकार की सीमित
प्रकृति के बावजूद कांग्रेस ने ग्यारह में से छह प्रांतों में बहुमत हासिल कर
लिया। वास्तव में गांधीजी उस समय के नेताओं की तुलना में कहीं बहुत आगे
थे। जब बाक़ी नेता अपनी राजनीतिक सक्रियता को बरकरार रखने के लिए आंदोलन की
निरंतरता के पक्षधर होते थे, तब गांधीजी के पास एक और विकल्प होता था, उनका ‘रचनात्मक
कार्य’! रचनात्मक कार्य देश को एकजुट करता और इस एकजुटता का लाभ अगले दौर के
राष्ट्रीय आन्दोलन को मिलता। गांधीजी सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता निवारण के
रचनात्मक काम में लग गए और देश में ‘भारत छोडो आन्दोलन’ की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर