शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

389. 1937 का चुनाव और कांग्रेस का विजयी होना

राष्ट्रीय आन्दोलन

389. 1937 का चुनाव और कांग्रेस का विजयी होना


1937

प्रवेश

कांग्रेस ने 1936 की शुरुआत में लखनऊ में और 1936 के आखिर में फैजपुर में चुनाव लड़ने का फैसला किया और ऑफिस संभालने का फैसला चुनाव के बाद के समय के लिए टाल दिया। 1937 के चुनाव 1935 के क़ानून के अनुसार हुए इस क़ानून के अनुसार प्रांतीय एसेम्बली को पर्याप्त अधिकार मिले थे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों के लिए अलग और आरक्षित चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था थी ब्रिटिश शासन ने साझा निर्वाचन क्षेत्र की कांग्रेस की मांग को ठुकरा दिया था मुसलमानों के नेतृत्व का बड़ा भाग अधिकांशतः सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति उदासीन ही रहा। फिर भी 1935 के अधिनियम की प्रांतीय व्यवस्था के तहत कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने ही अधिनियम का विरोध करने के बावज़ूद सीमित मताधिकार के अधिकार पर हुए चुनावों में भाग लिया।

चुनाव घोषणा-पत्र

अपने चुनाव घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने इस नए विधान को रद्द करने और राजनैतिक स्वतंत्रता पर आधारित एवं विधान परिषद द्वारा निर्मित जनवादी विधान की मांग की। इसने नागरिक स्वतंत्रता बहाल करने, राजनीतिक कैदियों को रिहा करने, लिंग और छुआछूत के आधार पर भेदभाव खत्म करने, कृषि व्यवस्था में बड़े बदलाव, किराए और राजस्व में काफी कमी, ग्रामीण कर्ज़ कम करने, सस्ता लोन देने, ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार और हड़ताल करने के अधिकार का वादा किया। कांग्रेस और लीग ने एक जैसे घोषणा पत्र जारी किए उन्होंने अँग्रेज़-परस्त क्षेत्रीय दलों को अपना प्रतिद्वन्द्वी माना, एक दूसरे को नहीं

चुनाव लड़ने का मुख्य कारण

विरोध के बावजूद कांग्रेस का चुनाव लड़ने का मुख्य कारण यह था कि काउंसिल का मोर्चा पूरी तरह से राष्ट्र विरोधी तत्त्वों को हाथों छोड़ना उचित नहीं था। इसके अलावे कांग्रेस के अन्दर एक ऐसा शक्तिशाली पक्ष भी था, जो नए विधान की सीमाओं में भी प्रांतों में रचनात्मक काम करने की संभावनाएं देख रहा था। अभी तक गांधीजी धारा सभाओं में भाग लेने के ख़िलाफ़ थे। लेकिन नए सुधारों के अनुसार मताधिकार व्यापक हो गया था। अतः गांधीजी ने चुनावों में भाग लेकर धारा सभाओं में जाने की इजाज़त दे दी।

कांग्रेस और लीग

अनेक निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस ने लीग उम्मीदवार के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए कांग्रेस ने सोचा कि चुनाव के बाद लीग से उसके मेल-मिलाप में यह क़दम काम आएंगे लेकिन जिन्ना तो जिन्ना ही था जब चुनावों में नेहरू ने यह कहा कि, भारत को कांग्रेस और अंग्रेजी राज में से एक को चुनना होगा, तो जिन्ना ने कहा था, मैं यह मानने से इंकार करता हूँ एक तीसरा पक्ष भी है - मुसलमानों का हम किसी आदमी के इशारों पर नहीं नाचने वाले हैं

कांग्रेस का प्रचार अभियान

कांग्रेस ने फरवरी 1937 में हुए प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव जीतने के लिए पूरी जान लगा दी। चुनाव प्रचार को कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू और केन्द्रीय संसदीय समिति के अध्यक्ष वल्लभभाई पटेल नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने पूरे देश में तेज़ी से दौरा किया, कार्यकर्ताओं में जोश भरा और शहरों और गांवों में वोटरों तक कांग्रेस का संदेश पहुंचाया। कांग्रेस के चुनाव अभियान को ज़बरदस्त समर्थन मिला और इसने एक बार फिर लोगों में राजनीतिक चेतना और जोश जगाया। नेहरू का देश भर का चुनावी दौरा एक मिसाल बन गया। उन्होंने पांच महीने से भी कम समय में लगभग 80,000 किलोमीटर का सफर किया और एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को संबोधित किया, उन्हें उस समय के बुनियादी राजनीतिक मुद्दों से परिचित कराया। उन्होंने कहा, "हर वोटर, चाहे वह आदमी हो या औरत, देश के प्रति अपना फर्ज़ निभाए और कांग्रेस को वोट दे। इस तरह हम लाखों हाथों से आज़ाद होने का अपना पक्का इरादा लिखेंगे।" उनका औसत काम का दिन बारह से अठारह घंटे का होता था, और एक बार तो उन्होंने बिना आराम किए तेईस घंटे तक लगातार काम किया।

चुनाव अभियान में कांग्रेस को न सिर्फ़ अंदरूनी लड़ाई से निपटना पड़ा, जिसने लगभग सभी राज्यों में संगठन के काम को कम या ज़्यादा हद तक खराब कर दिया था, बल्कि उसे सरकारी दुश्मनी और दबाव का भी सामना करना पड़ा था। सरकार किसी एक चीज़ पर अड़ी हुई थी, तो वह यह था कि चुनावों के नतीजे में विधानसभाओं में कांग्रेस की मेजॉरिटी वापस न आ जाए। इस दौरान सभी दबाने वाले कानून लागू रहे, पूरे देश में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां, तलाशी और ज़ब्ती हुई और A.I.C.C. ने समय-समय पर अलग-अलग राज्यों में पुलिस की ज़्यादती का शिकार हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं की लंबी लिस्ट जारी की। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत की सारी कोशिशें कांग्रेस के लिए लोगों के समर्थन को रोकने में नाकाम रहीं। चुनाव के नतीजों ने दिखा दिया कि कांग्रेस भारत के लोगों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि राजनीतिक संगठन था।

गांधीजी प्रचार अभियान से दूर रहे

गांधीजी ने एक भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया, हालांकि वे मतदाताओं के मन में बहुत ज़्यादा मौजूद थे। गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम के ज़रिए कांग्रेस ने अपना संगठन कितना फैलाया था, यह उसके चुनावी प्रचार अभियान से पता चला। लगभग हर बड़े गाँव में कांग्रेस का ऑफिस और झंडा था। कैंपेन, मीटिंग्स और जुलूस, बोलने वाले और नारे, इन सबने गाँव-देहात में ऐसा जोश भर दिया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। कई वोटर अनपढ़ थे और बैलेट पेपर के बजाय वोटिंग के लिए रंगीन बक्सों का इस्तेमाल किया गया था। उनके लिए कांग्रेस का नारा था 'गांधी और पीले बक्से को वोट दो'

आम चुनाव के नतीजे

आम चुनाव के नतीजे फरवरी, 1937 में आए। सिविल नाफ़रमानी आंदोलन के कारण कांग्रेस को चुनाव में जबर्दस्त सफ़लता मिली और वह देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। उसे कुल 1585 असेंबली सीटों में 715 पर विजय प्राप्त हुई। कांग्रेस की कुल 715 सीटों का महत्व इसलिए और भी ज़्यादा था क्योंकि कुल 1,585 सीटों में से सिर्फ़ 657 सीटें ही आम मुकाबले के लिए खुली थीं और किसी खास सेक्शन के लिए आरक्षित नहीं थीं। 11 में से 5 प्रांतों मद्रास (159/215), संयुक्त प्रांत (134/228), बिहार (98/152), मध्य प्रांत (70/112) और उड़ीसा (36/60) में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। सबसे चौंकाने वाला नतीजा मद्रास में आया, जहाँ जस्टिस या एंटी-ब्राह्मण पार्टी, जो 1922 से लगातार विधायिका पर कंट्रोल कर रही थी, निचले सदन में कांग्रेस की 159 सीटों के मुकाबले सिर्फ़ 21 सीटें ही जीत पाई। बंबई में भी उसे बहुमत के आसपास (175 में 86) स्थान प्राप्त हुए, उसने लगभग आधे स्थानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। मैत्री भाव रखने वाले दलों के साथ मिलकर अपनी सरकार बना सकती थी। पश्चिमोत्तर प्रांत (19/50) में उसकी स्थिति अच्छी थी। वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। आसाम (33/108) में भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी। पंजाब (18/175) और सिंध (7/60) में कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं थी। परंतु बंगाल (54/250), असम (33/108) में कांग्रेस अच्छी खासी सीटें हासिल की जबकि मुस्लिम लीग की स्थिति अच्छी नहीं रही।

मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के मामले में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा। ग्यारह प्रान्तों में मुसलमानों के लिए आरक्षित कुल 482 सीटों में से, कांग्रेस ने 58 से ज़्यादा सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा, जिनमें से उसने 24 सीटें जीतीं — उनमें से 15 अकेले N.W.F.P. में। इस ज़्यादातर मुस्लिम आबादी वाले फ्रंटियर प्रोविंस में, कांग्रेस के उम्मीदवार मुसलमानों के लिए आरक्षित 36 सीटों में से 15 पर चुने गए, जबकि मुस्लिम लीग एक भी सीट नहीं जीत पाई। मद्रास और बिहार ही दो और प्रांत थे जिनसे कांग्रेस के मुसलमान जीते – मद्रास से 4 और बिहार से 5। U.P. में, जहाँ 66 मुस्लिम सीटें थीं, कांग्रेस ने 7 पर चुनाव लड़ा और सभी हार गई। बंगाल में 177 मुस्लिम सीटों में से उसने एक भी सीट नहीं लड़ी। C.P. में 14 मुस्लिम सीटों में से उसने दो पर चुनाव लड़ा और दोनों हार गई। असम में उसने सभी 33 मुस्लिम सीटों पर बिना चुनाव लड़े ही चुनाव छोड़ दिया। लिबरल पार्टी पूरी तरह खत्म हो गई, डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी ने बिना किसी सफलता के कांग्रेस का विरोध किया। हिंदू महासभा पूरी तरह फेल हो गई। मुस्लिम लीग ने बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन कुल मिलाकर उसका प्रदर्शन खराब रहा, खासकर उन प्रांतों में जहाँ ज़्यादातर मुस्लिम आबादी थी, - जिन्ना और उनकी लीग को सिर्फ़ चार परसेंट वोट मिले। पंजाब और सिंध में, मुस्लिम लीग पूरी तरह फेल हो गई; बंगाल में उसे सिर्फ़ थोड़ी बहुत सफलता मिली।

मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन ?

तो फिर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन करता था? निश्चित रूप से मुस्लिम लीग नहीं, जो मुसलमानों का अकेला प्रतिनिधित्व संगठन होने के अपने दावे को मान्यता देने की मांग कर रही थी। लीग को उस चुनाव में मुसलमानों के पांच प्रतिशत से ज़्यादा मत नहीं मिले। 482 सुरक्षित स्थानों (मुस्लिम सीटों) में से सिर्फ़ 109 पर सफलता मिली। मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस केवल 58 स्थानों पर लड़ी और 26 स्थानों विजयी हुई। बंगाल, पंजाब, N.W.F.P. और सिंध जैसे मुस्लिम बहुमत वाले राज्यों में उसे बहुत बुरी तरह हार मिली। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और सिंध में लीग को एक भी स्थान नहीं मिला, पंजाब में 86 में से केवल 2 मिले। बंगाल में 117 मुस्लिम सीटों में से उसने 40 जीतीं।

लेकिन लीग ने हिन्दू-बहुल प्रान्तों में भी अनेक मुस्लिम सीटें जीतीं, खासकर संयुक्त प्रान्त और मुंबई में। U.P. में 66 मुस्लिम सीटों में से उसने 29 जीतीं, बाकी नेशनल एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी (9) को मिलीं, जो ज़मींदारों और तालुकदारों का एक ग्रुप था और इंडिपेंडेंट्स (27) को मिलीं। बॉम्बे में उसने 29 में से 20 सीटें और मद्रास में 28 में से 11 सीटें जीतीं। इस तरह हिंदू-बहुल प्रांतों में, मुस्लिम वोट ज़्यादातर लीग को मिला, N.W.F.P. में कांग्रेस को इसका एक बड़ा हिस्सा मिला, पंजाब में यह सर सिकंदर हयात खान की यूनियनिस्ट पार्टी को मिला और बंगाल में मुस्लिम जनता ने फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी को ज़्यादा चुना। मद्रास में जस्टिस पार्टी और बॉम्बे में डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी पूरी तरह से हार गईं। अलग-अलग प्रांतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें, कुछ को छोड़कर, सभी कांग्रेस ने जीत लीं।

अनुसूचित जातियों की अधिकांश सीटें भी (मद्रास 26/30,, बिहार 14/15,  और U.P. 16/20) कांग्रेस ने जीत ली थीं, सिवा बंबई के जहां अंबेडकरजी की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने हरिजनों के लिए आरक्षित 15 सीटों में 13 जीती थीं। बॉम्बे और C.P. में कांग्रेस का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं रहा, जहां उसे दोनों प्रांतों में 4/15 और 5/19 सीटें मिलीं। बंगाल में वह कुल 30 में से एक भी शेड्यूल्ड कास्ट सीट नहीं जीत पाई।

लेकिन रोचक बात यह थी कि निर्णायक मुस्लिम बहुमत वाले पंजाब और बंगाल में लीग, चुनाव में कांग्रेस से नहीं हारी थी, बल्कि मुस्लिम प्रधान प्रादेशिक दलों कृषक प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी से हारी थी। पश्चिम पंजाब के बड़े ज़मींदार और मुसलिम नौकरशाह अर्द्ध-सांप्रदायिक और ब्रिटिश हुक़ूमत के प्रति वफ़ादार यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थक थे। पंजाब में युनियनिष्ट पार्टी ने मंत्रिमंडल बनाने के दावा पेश किया, लेकिन प्रधानमंत्री का पद गया कृषक प्रजा पार्टी के फजलुल हक़ को इस पार्टी ने चुनावों में लीग के अनेक उम्मीदवारों को हराया था उत्तर प्रदेश और बंगाल में लीग ने अच्छा प्रदर्शन किया था।

कांग्रेस की जीत का असर

कांग्रेस की जीत का ग्रेट ब्रिटेन पर बहुत गहरा असर पड़ा। द टाइम्स को कांग्रेस को एक "मामूली अल्पसंख्यक" मानने का अपना रवैया छोड़ना पड़ा और अब उसने लिखा: "चुनावों ने दिखाया है कि कांग्रेस पार्टी ही अकेली ऐसी पार्टी है जो प्रांतीय स्तर से ज़्यादा बड़े पैमाने पर संगठित है। इसकी सफलता का रिकॉर्ड प्रभावशाली रहा है और, हालांकि यह काफी हद तक अपने बेहतरीन संगठन और ज़्यादा रूढ़िवादी तत्वों के बीच फूट और संगठन की कमी के कारण है, लेकिन सिर्फ यही कारक इसकी कई जीतों की व्याख्या नहीं करते हैं। पार्टी के प्रस्ताव अपने विरोधियों के मुकाबले ज़्यादा सकारात्मक और रचनात्मक रहे हैं। पार्टी ने उन मुद्दों पर जीत हासिल की है जिनमें लाखों भारतीय ग्रामीण मतदाताओं और करोड़ों लोगों की दिलचस्पी थी जिनके पास वोट देने का अधिकार नहीं था।"

उपसंहार

औपनिवेशिक सरकार के विकल्प के तौर पर कांग्रेस की इज़्ज़त और भी बढ़ गई। चुनाव दौरे और चुनाव नतीजों से नेहरू का हौसला बढ़ा, वे निराशा से बाहर निकले, और S-T-S की मुख्य रणनीति से सहमत हो गए। इस चुनाव ने यह साफ कर दिया था कि जनता ने उन्हीं प्रान्तों में लीग को समर्थन दिया था जहाँ मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक थी। लेकिन इस करारी हार के बावजूद जिन्ना ने अगले चार वर्षों में कट्टरतावादी नीति से अपनी स्थिति को ऐसा मज़बूत कर लिया कि भारत की संवैधानिक प्रगति की कोई बात उसकी रज़ामंदी के बग़ैर की ही नहीं जा सकती थी। 1937 के चुनावों से यह बात तो स्पष्ट हो गई थी कि उपनिवेशवाद के सभी प्रमुख सामाजिक और राजनीतिक आधार ध्वस्त हो चुके थे। इसलिए औपनिवेशिक ताक़तों ने अपने हाथ का बचा हुआ एक मात्र पत्ता – सांप्रदायिकता का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उस समय मुसलिम लीग का नेतृत्व जिन्ना के हाथ में था। जिन्ना को अंग्रेज़ नापसंद करते थे, उसकी उग्रता और उपनिवेशवाद विरोध के कारण उससे डरते भी थे, लेकिन ब्रिटिशों ने जिन्ना की मुसलिम सांप्रदायिकता का साथ देना आरंभ कर दिया।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

388. मुहम्मद अली जिन्ना

राष्ट्रीय आन्दोलन

388. मुहम्मद अली जिन्ना



ब्रिटिश सरकार ने 1937 में सांप्रदायिक निर्णय का अपना हल भारतीयों पर थोप दिया। इस निर्णय के द्वारा मुस्लिम नेताओं की सभी मुख्य मांगें स्वीकार कर ली गईं। इस निर्णय में सांप्रदायिक मताधिकार (पृथक निर्वाचन) का समावेश कांग्रेसी नेताओं को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। लेकिन जब तक कोई सर्वसम्मत हल न निकले तब तक के लिए कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया। जिस निर्णय से हिन्दू-मुस्लिम विवाद के समाप्त हो जाने की आशा की गई थी, वह आने वाले वर्षों में और अधिक उग्र और विषम होता चला गया। साम्प्रदायिक समस्या ने भारतीय राजनीति को जो ग़लत मोड़ दिया उसका मुख्य कारक मुहम्मद अली जिन्ना था, जो आगे चलकर पाकिस्तान का पहला गवर्नर जनरल बना। पाकिस्तान में उसे आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता से नवाजा जाता है। 

गुजरात का ही रहनेवाला जिन्ना गांधीजी से सात साल छोटा था। 25 दिसम्बर 1876 को कराची में उसका जन्म हुआ था। उसके पिता जिनाभाय पूंजा थे जो चमड़े के व्यापारी थे। पूंजा के पिता काठियावाड़ के रहने वाले थे और उन्होंने मुसलमान धर्म अपना लिया था। जिन्ना की आरंभिक पढाई कराची और मुम्बई में हुई थी। बम्बई विश्वविद्यालय से उसने मैट्रिक पास किया। उसने कम उम्र में ही अमाईबाई से शादी की। फिर 15 वर्ष की उम्र में क़ानून का अध्ययन करने के लिए इंगलैंड चला गया। लेकिन वह गांधीजी की तरह धार्मिक प्रवृत्ति का नहीं था। क़ानून के अलावा उसकी रुचि मुख्यतः राजनीति में थी। जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ तब और प्रबल हो गईं जब उसने ब्रिटेन के पहले एशियाई सांसद दादाभाई नौरोजी का हाउस ऑफ कॉमन्स की विजिटर्स गैलरी से पहला भाषण देखा।  1906 में जिन्ना ने सचिव बनकर दादाभाई नौरोजी की मदद की थी। वह गोखलेजी का मित्र था। विलायती लिवास पहनता था। एक आँख पर चश्मा लगाता था। क़ानून की पढाई कर जब वह कराची लौटा तो उसकी मां मर चुकी थी और पत्नी भी। ब्रिटेन प्रवास के अन्तिम दिनों में उसके पिता का व्यवसाय चौपट हो गया और जिन्ना पर परिवार संभालने का दबाव पड़ने लगा। वह बम्बई आ गया और बहुत कम समय में नामी वकील बन गया।  उन्नीस साल की उम्र में, वह बार में जाने वाले सबसे कम उम्र का एशियाई बन गया और उसने भारतीय परिधानों को त्यागकर पश्चिमी सिलाई को अपनाया। वह बंबई में वकालत और राजनीतिक कार्य करने लगा। वह बहुत स्पष्ट विचारक था और अपनी बातों को उत्कृष्ट चयन और धीमी गति से, शब्द-दर-शब्द, स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता था। उसने अपनी सबसे छोटी बहन फातिमा को कराची से मुम्बई बुला लिया और मौत के समय तक फातिमा उसके साथ रही।

1909 में उसने मुम्बई के मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल में प्रवेश पाने में सफलता हासिल की। इम्पीरियल काउन्सिल में उसने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के संघर्ष के पक्ष में रखे गए प्रस्ताव का समर्थन किया था। कितना अजीब संयोग था की यह संघर्ष लन्दन में ही पढ़े एक अन्य वकील मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में चल रहा था, और वह भी काठियावाडी ही थे। जिन्ना ने काउन्सिल में कहा था, इस मुल्क के सभी वर्गों में दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के प्रति क्रूर और कठोड़ व्यवहार को लेकर नाराज़गी है। अध्यक्ष लॉर्ड मिन्टो ने आपत्ति की, मुझे लगता है ‘क्रूरता शब्द बहुत कठोर है। जिन्ना ने जवाब दिया, मुझे तो और भी कठोर भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए था। जिन्ना और गांधीजी के बीच संबंधों का आधार गोखले जी थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के काम को देखने के बाद गोखलेजी ने कहा था, गांधी में वे गुण हैं जिनकी ज़रुरत भारत को है। जिन्ना के बारे में गोखले जी ने कहा था, उनके अन्दर सच्चाई है और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के चलते वे हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुसलमान एकता के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता हो सकते हैं। जिन्ना ने भी एक बार कहा था, मेरी इच्छा मुसलमान गोखले बनने की है। 1913 में आठ महीने के लिए जिन्ना गोखलेजी के साथ यूरोप दौरे पर गया था। उसी समय इंग्लैण्ड के दौरे पर आए मुहम्मद अली और वजीर हुसैन के साथ बातचीत करते हुए जिन्ना ने मुस्लिम लीग में शामिल होने पर सहमति दे दी। यह वह क़दम था जो स्पष्ट करता है कि एक तरफ तो जिन्ना ने न सिर्फ मुसलमानों में बढ़ती बेचैनी को पहचाना बल्कि मुस्लिम मुख्यधारा में शामिल होना चाहता था, जबकि दूसरी तरफ वह पूरे हिन्दुस्तान की ज़मीन पर अपने पाँव भी जमाए रखना चाहता था। इस तरह जिन्ना ने कांग्रेस, लीग और कौंसिल में अच्छी हैसियत बना ली। 1913 में जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हो गया और 1916 के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता की।

1915 में गोखले और फिरोज शाह मेहता का निधन हो गया। कांग्रेस में आई इस कमी से जिन्ना का महत्त्व और बढ़ गया। तिलक जेल में थे। 1916 की लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में स्वशासन के सवाल पर लीग और कांग्रेस के बीच समझौता उसके ही प्रयासों का फल था। वह अखिल भारतीय होम रूल लीग के प्रमुख नेताओं में गिना जाता था। उन दिनों उसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के मसीहा के रूप में जाना जाता था। उसने इलाहाबाद में भाषण देते हुए कहा था, असली नए हिन्दुस्तान के उठ खड़े होने के लिए सभी छोटी और हल्की चीज़ों को छोड़ना होगा। सभी हिन्दुस्तानियों को अपनी नफ़रत, अपने भेद-भाव, अपने को बड़ा मानने का दंभ, अपने झगड़े और ग़लतफ़हमियों की क़ुर्बानी देनी होगी। 1915 में जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे, तो मुम्बई की एक सभा में जिन्ना ने गांधीजी का स्वागत किया था। उसने गांधीजी को लीग की बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित भी किया था। लखनऊ समझौते में जिन्ना, तिलक और खासकर एनी बेसेंट ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। जिन्ना बाद में  होमरूल आंदोलन में भी शरीक हुआ था। 1916 में जिन्ना देश की बड़ी हस्तियों में से था। जब एनी बेसेंट गिरफ्तार हुईं और उन्हें नीलगिरी की पहाड़ियों में क़ैद करके रखा गया, तो तिलक सहित देश के बड़े-बड़े नेता जिन्ना के घर पर मिले। ऐसा लग रहा था जिन्ना देश के बड़े नेता के रूप में उभर रहा हो। इस बैठक के बाद गांधीजी द्वारा दिया गया प्रस्ताव कि बेसेंट की गिरफ्तारी के विरोध में नीलगिरी तक अहिंसक मार्च किया जाए, को ठुकरा दिया गया और गिरफ्तारी के विरोध में ज़ोरदार आवाज़ उठाने का फैसला लिया गया। 1917 के नवंबर में जब उस समय के भारतीय मामलों के मंत्री एडविन मोंटेग्यू भारत आए तो अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा, की एनी बेसंट बहुत प्रभावशाली थीं। गांधीजी काफी नामी थे और एक बहुत ही बड़े समाज सुधारक थे। जिन्ना के बारे में उनके विचार थे कि वह बहुत ही चालाक और हठी है। जिन्ना की गतिविधियों के पीछे उसकी महत्वाकांक्षा है।

हालाकि जिन्ना ने 1919 में रॉलेट एक्ट का विरोध भी किया था, लेकिन वह गांधीजी के ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल नहीं हुआ था। कांग्रेस में जैसे ही गांधीजी का वर्चस्व और प्रभाव बढ़ा, जिन्ना उससे अलग हो गया। जिन्ना को गांधीजी की राजनीति से ही नहीं, उनकी धार्मिकता, आत्म-निरीक्षण, विनम्रता, अपनी मर्ज़ी से अपनाई हुई ग़रीबी, सत्य और अहिंसा आदि से बड़ी चिढ़ थी। उसके विचारों और आदर्शों से गांधीजी के सदगुणों का कहीं भी मेल नहीं बैठता था। वह गांधीजी के विचारों और आदर्शों को उनकी राजनैतिक चाल और पाखंड कहकर मज़ाक़ उड़ाया करता था। उसे गांधीजी से यह भी शिकायत रहती थी कि उन्होंने राजनीति में प्रवेश कर उसे अनुचित उपायों से प्रमुख स्थान से परे धकेल दिया। 1920 तक उसका प्रभाव खत्म हो गया था। और तब तक गांधीजी राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गए थे। 1920 के बाद जिन्ना सेंट्रल असेंबली में एक स्वतंत्र दल के नेता की हैसियत सरकार और कांग्रेस के बीच संतुलन कारी शक्ति बन गया। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात वह ज़रूर करता था, लेकिन सरकार हो या कांग्रेस, जो भी उससे सहयोग मांगता, वह इसकी ज़बरदस्त क़ीमत वसूलता। नेहरू रिपोर्ट का उसने विरोध किया था। वह किसी के साथ मिलकर काम करने को राज़ी नहीं होता था।

जिन्ना मालाबार हिल, मुंबई के विशाल मकान में अकेले रहता था। औरतों से बड़े अदब से मिला करता था। वह बहुत ही तुनक मिजाज व्यक्ति था। 1917 में मुंबई के एक प्रमुख पारसी सर दिनशा पेटिट की 17 वर्षीया बेटी रतनबाई (रत्ती) से उसकी भेंट हुई। एक ही नज़र में उसे उससे प्रेम हो गया। पिता को जब इस बात की भनक मिली तो उसने कोर्ट से यह ऑर्डर हासिल कर लिया की जिन्ना उनकी बेटी से मिल नहीं सकते। जिन्ना ने रत्ती के व्यस्क होने (18 वर्ष) का इंतज़ार किया और 1918 में रत्ती ने इस्लाम धर्म क़बूल किया और दोनों ने शादी कर ली। अगस्त 1919 में उनके एक बच्ची हुई जिसका नाम दीना रखा गया। कुछ ही समय बाद रत्ती जिन्ना के स्वभाव से ऊब गयी। जिन्ना की राजनीति में सक्रियता उसे पसंद नहीं थी। जिन्ना 42 साल की उम्र में और रोमांटिक हो नहीं सकता था। उनके बीच नोक-झोंक बढ़ गयी। 1928 में उनकी शादी की असफलता के लक्षण दिखने लगे थे। 1928 के शुरू में रत्ती माउंट प्लीजेंट रोड के मकान को छोड़ कर ताजमहल होटल के कमरे में रहने लगी। कुछ महीने बाद रत्ती अपने मां-बाप के साथ यूरोप चली गयी। अप्रैल में जिन्ना भी आयरलैंड पहुंचा। उसे पता चला कि रत्ती गंभीर रूप से बीमार है और पेरिस के एक अस्पताल में भर्ती है। रत्ती जब ठीक हुई तो जिन्ना को वहीं छोड़कर मुंबई चली आई। मुंबई आने के दो महीने बाद रत्ती एक बार फिर से गंभीर रूप से बीमार हो गयी। जब वह अंतिम सांसें गिन रही थी, जिन्ना कलकत्ते में था। उसके मरने की खबर सुनकर जिन्ना वापस आया। उसे एक मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया।

1920 में जिन्ना ने कांग्रेस के इस्तीफा दे दिया। उसने यह भी चेतावनी दी कि गाँधीजी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ायेगा कम नहीं करेगा। मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। 1923 में जिन्ना मुंबई से सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली का सदस्य चुना गया। 

गोलमेज परिषद के बाद जिन्ना ने भारतीय राजनीति को नमस्कार किया और इंग्लैण्ड में ही बस गया। 1931 में जिन्ना ने लन्दन के हैम्पस्टीड में एक तिमंजिला मकान ले लिया था। वहाँ उसकी बहन फातिमा उसके साथ रहने के लिए आ गई थी। घर का सारा काम-काज वही देखती थी। जिन्ना की 13 वर्षीया बेटी दीना एक इंग्लिश आवासीय स्कूल में दाखिल हो गई थी। जिन्ना की वकालत खूब चलने लगी थी। 1931 में जब इक़बाल लन्दन गए तो उन्होंने जिन्ना से भेंट की। अलग मुसलमान देश बनाने पर दोनों में चर्चा हुई। इस चर्चा के बाद जिन्ना कहा करता था कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों को कांग्रेस और राज दोनों के काम-काज पर नज़र रखनी चाहिए।

जुलाई 1933 में एक 37 वर्षीय आदमी हनीमून मनाने यूरोप गया। जिन्ना ने उसे उसके घर हैम्पस्टिड आने का न्यौता दिया। उसका नाम था लियाक़त अली खां, जो बाद में पाकिस्तान का पहला प्रधानमंत्री बना। लियाक़त दम्पती जिन्ना से मिलकर काफी प्रभावित हुए। बेगम लियाकत अली का मानना था कि जिन्ना ही एक ऐसा आदमी है जो लीग और मुसलमानों को बचा सकता है। लियाक़त अली खां ने जिन्ना को भारत वापस आने के लिए दवाब डाला। जिन्ना ने कहा, आप वापस जाइए और हालात का जायजा लीजिए। देश के हर भाग में लोगों की भावनाओं का अंदाज़ा लगाइए। अगर आप कहेंगे कि आ जाइए तो मैं यहाँ क जीवन छोड़कर वापस आ जाऊंगा। लियाक़त अली ने वैसा ही किया। उसने सबसे बात की। उसे जब भरोसा हो गया, तो उसने जिन्ना को खबर भेजा, वापस आ जाइए। 1934 में जैसे ही चुनावों का समय आया, जिन्ना भारत लौट आया। जिन्ना ने मकान बेच दिया। फर्नीचर को हटा दिया। फातिमा के साथ भारत वापस आ गया। लन्दन से विदा होते समय उसके चेहरे र किसी महान यात्रा पर निकालने जैसे भाव थे।

जिन्ना की बेटी अपने पिता के साथ रहने के बजाए अपनी ननिहाल वालों के साथ ज्यादा रहती थी। उसने जिन्ना की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक ईसाई लडके से शादी कर ली। कुछ समय तक वह अपने पिता से रिश्ता भी तोड़ लिया था। फातिमा जिन्ना का पूरा ख्याल रखती थी।

अप्रैल 1934 में लीग ने सर्वसम्मति से जिन्ना को अपना आजीवन अध्यक्ष चुना। 4 मार्च 1934 को, ऑल-इंडिया मुस्लिम लीग के दो गुटों ने, जो 1928 से अलग-अलग और दुश्मन संगठनों के तौर पर काम कर रहे थे, दिल्ली में एक मीटिंग में, मतभेद खत्म करने और जिन्ना की अध्यक्षता में एक होने का फैसला किया। उसने मुस्लिम लीग का मार्गदर्शन करना शुरू कर दिया। अक्तूबर में मुंबई के निर्वाचन क्षेत्र से चुनकर वह सेन्ट्रल एसेम्बली में आ गया। यहाँ आकर वह 22 सदस्यों वाली स्वतन्त्र समूह का नेता बन गया। इस समूह के 18 सदस्य मुसलमान थे। एसेम्बली में 60 सदस्य कांग्रेस और उसके सहयोगी के थे। जिन्ना ने बड़ी चालाकी से सरकार और कांग्रेस के बीच अपने पत्ते चलने शुरू किए। जो पक्ष जीत रहा होता, वह उसके विपरीत वोट करता। कांग्रेसी प्रस्ताव के समय वह सरकारी पक्ष को वोट देकर कांग्रेस को हरा देता। इसी तरह सरकारी प्रस्ताव को वह कांग्रेस के साथ वोट देकर सरकार हो हरा देता। हालाकि सरकार को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वायसराय एसेम्बली के फैसलों को बदल सकता था, लेकिन मुसलमानों का मनोबल बढाने के लिए उसके इस क़दम की काफी उपयोगिता थी। जिन्ना हिंदुस्तान के विभिन्न शहरों का दौरा भी करने लगा।

1937 में प्रांतीय चुनावों के बाद, कांग्रेस ने मिश्रित क्षेत्रों में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाने से इनकार कर दिया। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंध बिगड़ने लगे। 1940 में, लाहौर में मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन में, भारत के विभाजन और पाकिस्तान नामक एक मुस्लिम राज्य के निर्माण की पहली आधिकारिक मांग की गई। जिन्ना हमेशा से मानता था कि हिंदू-मुस्लिम एकता संभव है, लेकिन वह इस विचार पर पहुँचा कि भारतीय मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए विभाजन आवश्यक था। उसके आग्रह के परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ और 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का गठन हुआ। जिन्ना पाकिस्तान का पहला गवर्नर जनरल बना, लेकिन 11 सितम्बर 1948 को तपेदिक से उसकी मृत्यु हो गई।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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