गांधी और गांधीवाद
196. हरिलाल की पिता से कटुता
1909
गांधीजी लंदन में थे। उनके
मित्र प्राण जीवन मेहता ने गांधीजी के सामने एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव
किया। वजीफ़ा पाने वाले को ‘ग़रीबी का व्रत लेना था’ और शिक्षा पूरी कर लेने के बाद फीनिक्स में सेवा करनी थी।
बात हरिलाल या मणिलाल की हो रही थी। गांधीजी ने इस सम्मान के लिए छगनलाल गांधी को
चुना। लेकिन वे बीमार पड़ गए और शिक्षा पूरी किए बिना ही 1911 में लौट आए। इस वजीफे के लिए दूसरी बार सोराबजी
शापुरजीब अडाजानिया का नाम दिया गया। हरिलाल को शिक्षा की लालसा थी। उनका नाम नहीं
दिया गया। पिता से कटुता का यह एक कारण बना। कुछ समय के बाद हरिलाल ने पिता के
द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में ज़ोर-शोर से हिस्सा लिया। नवंबर1911 में गिरफ़्तारी दी। छह
महीने तक जेल में रहे। किन्तु पिता और पुत्र में कटुता बनी रही और अंत में गांधी
जी को बिना बताए हरिलाल भारत चले आए।
बच्चों
की शिक्षा और हरिलाल गांधी
जब गांधी जी 1897 में
दक्षिण अफ़्रीका आए थे, तो उनके साथ 9 साल के हरिलाल और 5 साल
के मणिलाल थे। उन्हें कहां पढ़ाना है, उनके सामने यह एक विकट समस्या थी।
गोरों के लिए चलने वाले विद्यालयों में लड़कों के नाते बतौर मेहरबानी या अपवाद के
उन्हें भरती किया जा सकता था, लेकिन दूसरे सब भारतीय बच्चे जहां
न पढ़ सकें, वहां
अपने बच्चों को भेजना गांधीजी को पसंद नहीं था। ईसाई मिशन के स्कूल में बच्चों को
भेजने के लिए वे तैयार नहीं थे। इसपर से, गुजराती माध्यम से शिक्षा दिलाने
का आग्रह था, और
इसका कोई इंतजाम स्कूलों में नहीं था। गांधीजी का मानना था कि बच्चों को मां बाप
से अलग नहीं रहना चाहिए। वे सोचते थे कि जो शिक्षा अच्छे, व्यवस्थित
घर में बालक सहज पा जाते हैं, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती।
लेकिन घर पर पढ़ाने वाला कोई अच्छा गुजराती शिक्षक मिल नहीं सका। गांधी जी खुद
पढ़ाने की कोशिश करते। लेकिन काम की अधिकता से अनियमितता हो जाती।
फीनिक्स आश्रम की पाठशाला
में गांधीजी का प्रयास होता कि बच्चों को सच्ची शिक्षा मिले। परीक्षा में गुणांक
देने की गांधीजी की अनोखी पद्धति थी। एक ही श्रेणी के सभी विद्यार्थियों से एक ही
प्रश्न सबको पूछा जाता। जिनके उत्तर अच्छे हों उनको कम और जिनके सामान्य या कम
दर्ज़े के उत्तर हों उनको अधिक अंक मिलता। इसके कारण बच्चों में रोष उत्पन्न होता।
गांधीजी उनको समझाते, “एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी से
अधिक बुद्धिमान है, ऐसा अंक मैं रखना नहीं चाहता। मुझे
तो यह देखना है कि जो व्यक्ति जैसा आज है, इससे
कितना आगे बढ़ा? होनहार विद्यार्थी बुद्धू
विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करता रहे तो उसकी बुद्धि कुंठित हो जायेगी। वह कम
मेहनत करेगा और आख़िर पीछे ही रह जाएगा।”
गांधीजी का मानना था कि अन्य
की तुलना में खुद आगे या पीछे देखने में नहीं, लेकिन
खुद जहां हैं, वहां
से सचमुच कितने आगे बढ़ते हैं, वह देखने में सच्ची शिक्षा है।
आश्रम
के बच्चों को कोई पूछता कि तुम किस श्रेणी में पढ़ते हो, तो
मणिलाल का जवाब होता, ‘बापू की श्रेणी’। हरिलाल तो बी.ए., एम.ए.
करना चाहते थे, और
बापू के तर्कों से उनकी सहमति नहीं होती। इस बीच 10 अप्रैल, 1908 को
गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। वह रामनवमी का दिन था। रामभक्त गांधीजी ने उनका
नाम रामी रखा। 1908 की
ट्रांसवाल की लड़ाई में बीस साल से भी कम की उम्र में हरिलाल सत्याग्रही बनकर जेल
गए। गांधीजी इस विषय को भी उनकी शिक्षा का अंग समझते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शुरू
के दिनों की लड़ाई में हरिलाल गांधीजी के श्रेष्ठ साथी जैसे थे। हंसते-हंसते सारी
यातनाएं सह लेते। दक्षिण अफ़्रीका में जेल की दो सप्ताह के सख्त क़ैद की सज़ा, भारत
की तीन माह की सज़ा के बराबर थी। हरिलाल अपनी प्रतिभा, निष्ठा
और कर्मठता के कारण लोगों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गए। लोग उन्हें ‘नाना गांधी’ –
‘छोटे गांधी’ कहकर बुलाते। गांधीजी प्यार से अपने पुत्र को ‘हरिहर’ कहकर पुकारते।
अपनी सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का ख्याल किए बिना वे बार-बार सत्याग्रह करते और जेल
जाते। हरिलाल के स्वभाव में अन्याय सहन करने का नहीं था।
उन
दिनों हरिलाल जेल से छूटकर टॉल्सटॉय फार्म पर परिवार के पास आ गए थे। वे भीतर ही
भीतर बेचैन रहते थे। अक्सर वे पिता से झगड़ने लगते। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि
गांधीजी ने उनकी पत्नी चंचल (गुलाब बहन) और पुत्री को उनके माता-पिता के पास भारत
भेज दिया था। हरिलाल और गुलाब बहन (चंचल) की शादी 2.5.1906 को
हुई थी। 18 वर्ष
में हो रही उनकी शादी के के प्रति गांधीजी ने उदासीनता दिखाई थी। जून 1910 के
महीने में जोहान्सबर्ग से बाइस मील दूर टॉल्सटॉय फार्म में सत्याग्रहियों का बसना
शुरू हुआ था। हरिलाल पूरा मई और जून महीने की बीस तारीख तक फीनिक्स आश्रम में ही
थे। गुलाब बहन की दूसरी प्रसूति होने वाली थी। यह तय हुआ कि उनको और रामी को भारत
भेज दिया जाए। हरिलाल भी अपने परिवार के साथ भारत जाना चाहते थे। लेकिन गांधीजी ने
अनुमति देने से इंकार कर दिया। उन्होंने हरिलाल को समझाया कि हरिलाल का पहला
कर्त्तव्य सत्याग्रह के प्रति था। इसके अलावा वे उतने अमीर नहीं थे कि कई बार
हरिलाल के भारत आने-जाने खर्च वहन कर सकें। हरिलाल को इस बात की शिकायत रहती थी कि
दूसरों के लिए पिता के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, खासकर
चचेरे भाइयों का हर ख़र्च वहन किया जाता था। बस अपने बच्चों और पत्नी के लिए उनके
पास पैसे नहीं थे।
1909
के
मध्य में गांधीजी लंदन में थे। उनके मित्र प्राण जीवन मेहता ने गांधीजी के सामने
एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव किया। वजीफ़ा पाने वाले को ‘ग़रीबी का व्रत लेना
था’ और शिक्षा पूरी कर लेने के बाद ‘फीनिक्स में सेवा करनी थी।’ बात हरिलाल या
मणिलाल की हो रही थी। गांधीजी ने इस सम्मान के लिए अपने भतीजे छगनलाल गांधी को
चुना। छगनलाल यह सूचना पाकर पहले भारत गए और फिर 1.6.1910 के
दिन इंग्लैण्ड के लिए रवाना हुए। लेकिन वे बीमार पड़ गए और शिक्षा पूरी किए बिना ही
1911 में
लौट आए। इस वजीफे के लिए दूसरी बार सोराबजी शापुरजी अडाजानिया का नाम दिया गया।
हरिलाल की शिक्षा की लालसा थी। उनका नाम नहीं दिया गया। पिता से कटुता का यह एक
कारण बना। छगनलाल की जगह इंगलैण्ड में जाकर क़ानून की पढ़ाई के लिए एक खुली
प्रतियोगिता आयोजित की गई। गांधीजी को परीक्षक बनाया गया था। उत्तर कापियों की
उचित जांच के बाद उन्होंने सोराबजी शापुरजी आडजानिया का नाम प्रस्तावित किया था।
वे एक पढ़े-लिखे पारसी थे।
दरअसल
हरिलाल शादीशुदा थे। पिता भी बन चुके थे। उन्हें अपने परिवार के भविष्य की भी
चिंता रहती थी। बिना किसी अच्छी शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण के उन्हें अपना
भविष्य अंधकारमय लगता था। उन्हें चिंता रहती थी कि वे अपनी व बच्चों की परवरिश किस
प्रकार करेंगे। क्या जीवन भर उन्हें खुद को और अपने परिवार को पिता के आदर्शों पर
क़ुर्बान करना पड़ेगा? छोटी उम्र से ही हरिलाल गांधी को इस बात का बड़ा दुख था
कि उनकी पढ़ाई का कोई पक्का इंतजाम नहीं हो सका। बड़े होने पर भी उनके मन में इसके
लिए बापू के प्रति रोष बना रहा। उनका कहना था, “बापू
ने अच्छी शिक्षा पाई है, तो वे अच्छी शिक्षा हमको क्यों
नहीं दिलाते? बापू
सेवाभाव की, सादगी
और चारित्र्य के निर्माण की बातें करते हैं, लेकिन
जो शिक्षा उन्हें मिली है, वह न मिली होती, तो
देश-सेवा के जो काम वे आज कर सकते हैं, उन्हें कर सकते क्या?”
पोलाक और कालेनबेक भी कुछ हद
तक इसी तरह का ख्याल रखते थे। पोलाक कहते, “गांधीजी, आप
अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में लापरवाह रहते हैं। आप अपने बच्चों को अच्छी
अंग्रेज़ी तालीम न देकर उनका भविष्य बिगाड़ रहे हैं।”
कालेनबेक ने कहा था, “टॉल्सटॉय
आश्रम और फीनिक्स आश्रम में दूसरे शरारती, गन्दे
और आवारा लड़कों के साथ आप जो अपने लड़कों को शामिल होने देते हैं, उसका
एक ही नतीजा होगा कि उन्हें आवारा लड़कों की छूत लग जाएगी और वे बिगड़े बिना न
रहेंगे।”
कस्तूरबा को भी इस बात का
मलाल रहता कि गांधीजी लड़कों की शिक्षा की कोई चिंता नहीं करते। इन सब के जवाब में
गांधीजी शिक्षा के सिद्धान्तों के और जीवन के ध्येय के अपने दर्शन पेश करते। पोलाक
और कालेनबेक सिर हिलाते और कस्तूरबा मन मार कर शांत हो जातीं।
हरिलाल को अपने पिता की कमाई
पर गुजर-बसर नहीं करना था। वे तो पढ़-लिखकर अपनी मेहनत से बड़ा बनना चाहते थे। जब
उन्होंने देखा कि गांधीजी के ही ऑफिस में मुंशी का काम करने वाले रिच और पोलाक
गांधीजी की मदद और बढ़ावे से इंगलैण्ड जाकर बैरिस्टर बन आए हैं, और
दूसरे दो भारतीय जोसेफ रॉयपन और गॉडफ़्रे भी उनकी प्रेरणा से विलायत गए और बैरिस्टर
बनकर अपने धंधे से लग गए हैं, इसके अलावे एक पारसी नौजवान
सोराबजी अडाजाणिया को खुद गांधीजी ने बैरिस्टर बनने के लिए विलायत भेजा है, तब
हरिलाल के धैर्य की सीमा टूट गई। वे उस समय 20-21 बरस
के रहे होंगे। सत्याग्रह की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। तीन दफ़ा जेल भी
गए थे। कुल मिलाकर उन्होंने 14 मास के क़रीब जेल में बिताए थे।
उनके मन में यह भावना घर कर गई कि दूसरे नौजवानों को बापू बैरिस्टर बनने देते हैं, लेकिन
मुझे नहीं। ... और भी कई झगड़े थे।
गांधीजी को साफ दिख रहा था
कि उनका पुत्र उनसे बहुत दूर हो चुका है। पर उन्हें यह भी पता था कि हरिलाल
सत्याग्रह के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वे पिता के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में
ज़ोर-शोर से हिस्सा ले रहे थे। सत्याग्रह के आंदोलन में उन्होंने गिरफ़्तारी दी। छह
महीने तक जेल में रहे। हरिलाल ने जेल में आदर्श व्यवहार किया था। वहां के जुल्मों
के ख़िलाफ़ वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उपवास किया। जेल की यातनाओं को भी उन्होंने
एक महात्मा की तरह झेला। गांधीजी को भरोसा था कि हरिलाल का गुस्सा धीरे-धीरे शांत
हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता और पुत्र में कटुता बनी रही। दिन-ब-दिन हालात
ख़राब ही होते चले गए। पिता और पुत्र के बीच अक्सर तू-तू, मैं-मैं
होने लगती। गांधीजी मानते थे कि पुत्र के जीवन में पिता की मानसिक स्थिति का
प्रतिबिंब पड़ता है। हरिलाल के जन्म के समय गांधीजी का मन विषयों के पीछे दौड़ता था।
इसलिए वे हरिलाल को अपना विकार पुत्र मानते थे और मणिलाल को अपने विचार का पुत्र
मानते थे। हरिलाल ने बगावत करके पिता का साथ छोड़ने और देश में आकर रहने का निश्चय
किया। गांधीजी अपने पुत्र को समझा न सके। ... और अंत में गांधीजी को बिना बताए
हरिलाल ने भारत जाने का मन बना लिया।
10.2.1911 को
गुलाब बहन ने कान्तिलाल को भारत में जन्म दिया। यह समाचार मिलते ही हरिलाल भारत
जाने को उत्सुक हो उठे। लेकिन मुख्यतः तो उनको पढ़ाई की उत्कंठा थी। वे पिता की
कमाई पर जीना नहीं चाहते थे। पढ़-लिख कर खुद मेहनत करके आगे बढ़ने की उनकी इच्छा थी।
गांधीजी का खुद का जीवन देश सेवा के लिए समर्पित था। अतः पुत्रों से भी देश सेवा
के लिए त्याग के लिए उनकी आशा रखना स्वाभाविक था। उन्होंने पुत्रों की पढ़ाई की
इच्छा को मोह माना और उनको केवल नैतिक और धार्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहने
का उपदेश देते रहते। बापू के प्रभाव में आकर अपनी पढ़ाई खो दूंगा ऐसा लगने से
हरिलाल ने किसी को कहे बिना घर छोड़ देने का सोचा। जोसेफ़ रॉयपन को जोहान्सबर्ग में
हरिलाल ने अपने भारत जाने के बारे में बताया। 8 मई, 1911 को
अपनी कुछ चीज़ें बटोरकर, जिसमें गांधी जी की एक तस्वीर भी
थी, बिना
किसी से कहे वे चुपके से निकल गए। हरिलाल जोहान्सबर्ग से रेलगाड़ी में बैठकर
अफ़्रीका के पूर्वी किनारे के पुर्तगाल के अधीन एक बंदरगाह डेलागोआ-बे पहुंचे।
उन्होंने अपना नाम बदल लिया था, जिससे उनको गांधीजी के बेटे के रूप
में कोई पहचान न पाए। लेकिन वहां के ब्रिटिश काउंसिल के पास एक ग़रीब भारतीय की
हैसियत से भारत भेजने की जब उन्होंने मांग की तो वे पहचान लिए गए। उन्हें वापस लौट
जाने के लिए कहा गया। 15 मई को वे वापस जोहान्सबर्ग आ गए।
पिता-पुत्र ने विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। 16 मई को
नाश्ते के बाद गांधीजी ने घोषणा की कि दूसरे दिन हरिलाल भारत वापस जाएंगे। 17 मई को
जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनको विदा करने गांधीजी भी गए। जब गाड़ी छूटने लगी तो
भरे हुए गले से गांधीजी ने कहा, “बाप
ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा लगे तो उसे माफ़ करना।”
गाड़ी चल पड़ी। बोझिल मन से पिता और पुत्र अलग हुए।
‘देश सेवा की तपश्चर्या के अंश के
रूप में गांधीजी ने पुत्र की आहुति दी।’
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और
गांधीवाद
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