मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

387. सेवाग्राम की स्थापना

 

गांधी और गांधीवाद

387. सेवाग्राम की स्थापना


1936

साबरमती आश्रम के भंग कर दिए जाने के बाद गांधीजी के सामने प्रश्न था कि टिका कहां जाए? जमनालाल बजाज ने आग्रह किया कि वे उनके यहां वर्धा(तत्कालीन मध्य प्रदेश) आकर रहें। वर्धा में जमनालाल जी का एक बगीचा था। इसी में गांधीजी उनके तीस साथी रहने लगे। इस बगीचे का नाम मगनलाल गांधी की स्मृति में मगनवाड़ी रखा गया। यहां पर ग्रामोद्योग और खादी विकास के प्रयोग होने लगे।

गांधीजी ने राजनीति से संन्यास ले लिया था। उन्होंने नेहरूजी से कहा था, अब कांग्रेस को युवा पीढ़ी के हाथ में छोड़ देना श्रेयस्कर रहेगा। उन्होंने चवन्नी सदस्यता भी छोड़ दी। हरिजन सेवा, खादी-प्रचार और ग्रामोद्योग विकास यही उनका लक्ष्य था। ‘गांधी सेवा संघ’ नामक संस्था की स्थापना हुई। राजनीति से दूर रचनात्मक कार्यों पर इसमें चर्चा होती और समस्याओं का समाधान निकाला जाता। किशोरीलाल मश्रूवाला इसके प्रथम अध्यक्ष मनोनीत हुए। नेहरूजी, पटेल, राजेन्द्र बाबू आदि इसके सक्रिय सदस्य थे। राजनीति से हटकर इसमें समाज और देश के उत्थान के बारे में रचनात्मक विचार-विमर्श होता। खादी, हरिजन सेवा और ग्रामोधोग के कई रचनात्मक काम शुरू किये गये।

1935 में आम चुनाव हुए। बारह में नौ प्रांतों में कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला। इन प्रांतों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने। जब देश में कांग्रेस के शासन का शुभारंभ हुआ, तो गांधीजी ने किसी बिना पानी-बिजली वाले गांव में रहने का निर्णय लिया, ताकि स्वराज के मंत्रिगण इस नई शान-शौकत व सत्ता के मद में यह न भूल जाएं कि देश के सात लाख गांवों का उत्थान अभी बाक़ी है। लखनऊ से लौटते हुए वर्धा जाते समय, गांधीजी अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए नागपुर में रुके। यहाँ पर उन्होंने गाँव जाकर बसने की अपनी गहरी इच्छा ज़ाहिर की: "मैं यहाँ थोड़े समय के लिए आया हूँ, उसी छोटे से मकसद के लिए जो मैंने तुम्हें बताया है, लेकिन तुम्हें पता होगा कि मेरा दिल न तो यहाँ है और न ही वर्धा में। मेरा दिल गाँवों में है। कई दिनों से मैं सरदार से कह रहा हूँ कि मुझे वर्धा के पास किसी गाँव में जाने दिया जाए। वह अभी भी राज़ी नहीं है, लेकिन मेरा मन शांत नहीं हो रहा है, और भगवान ने चाहा तो मैं जल्द ही वर्धा के पास किसी गाँव में जाकर बस जाऊँगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं वह काम नहीं करूँगा जो मैं अभी कर रहा हूँ, या मैं दोस्तों से सलाह लेने या सलाह लेने वालों के लिए उपलब्ध नहीं रहूँगा। मेरा पता सिर्फ़ एक गाँव होगा जहाँ मैं आम तौर पर रहूँगा। मैं गाँव में काम करने वाले सभी साथ काम करने वालों से कह रहा हूँ कि वे गाँवों में जाकर बस जाएँ और गाँव वालों की सेवा करें। मुझे लगता है कि जब तक मैं खुद किसी गाँव में जाकर नहीं बस जाता, मैं ऐसा असरदार तरीके से नहीं कर सकता।"

गांधीजी का सेगांव गांव में बसने का आइडिया उनके कुछ साथियों को पसंद नहीं आया। वहां न कोई पोस्ट ऑफिस था, न कोई टेलीग्राफ ऑफिस और न ही कोई सड़क। अगर उन्हें गांव में बसना ही था, तो गुजरात के किसी गांव में क्यों नहीं बस जाते? वह ऐसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह गुजरात से मगनवाड़ी में अपना काम नहीं देख पाते। गुजरात में पहले से ही काम चल रहा था, और वह वहां जाकर वहां हो रहे काम में रुकावट डालने के बारे में नहीं सोचते। इससे मजदूरों की पहल पर असर पड़ सकता था और वे हर कदम पर उनसे सलाह लेने लगते थे।

मीरा बहन उपयुक्त गांव की खोज में लग गईं। देश भर के लोग गांधीजी से मिलने आते थे। इसलिए गांव का स्टेशन के पास होना ज़रूरी था। देश-विदेश से पत्र-व्यवहार भी होते रहता था, इसलिए डाक-तार की व्यवस्था होनी चाहिए। जमनालाल बजाज के ज़मीन्दारी में ही वर्धा से पांच मील दूर सेगांव नामक जगह थी। मीरा बहन ने उसी को चुना। यह गांव सांप, बिच्छू, मच्छर आदि से भरा था। वहां जाने का रास्ता भी नहीं था। यह स्थान कीचड़ और दलदल से भरा था। इस गांव में गांधीजी, बा और मीरा बहन एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। सेवाग्राम का यह नया आश्रम भारत की आजादी के आंदोलन का नया पता बन गया था। रोज़ डाक लेकर मगनवाड़ी से महादेव देसाई पैदल सेगांव जाते और शाम को वापस वर्धा लौटते। वर्धा में भयंकर गर्मी पड़ती थी। एक दिन तो रास्ते में ही महादेव देसाई बेहोश होकर गिर पड़े।

30 अप्रैल, 1936 की सुबह, गांधीजी वर्धा के मगनवाड़ी से लगभग पाँच मील दूर सेगाँव गए। चार मील उन्होंने पैदल और एक मील बैलगाड़ी से तय किया। मगनवाड़ी के कुछ साथ काम करने वाले लोग उनका थोड़ा सा सामान उठाने के लिए उनके साथ थे। और वहाँ सेगांव में, गांधीजी जल्द ही काम पर लग गए, हालाँकि उनकी झोपड़ी अभी तैयार नहीं हुई थी। बैठने और काम करने के लिए बांस की फटी हुई चटाई से एक जगह बनाई गई थी, जो छत का काम करती थी और पेड़ से जुड़ी दीवारें उन्हें धूप से बचाती थीं। क्रिस्टल जैसे साफ पानी वाला एक कुआँ उस जगह को उसके गर्म माहौल से थोड़ा ठंडा बना देता था।

धीरे-धीरे उस एक झोंपड़ी के अलावा अन्य झोपड़ियां भी बनने लगीं। सारा काम हाथ से करने का निर्णय लिया गया था। आसपास पर्याप्त बांस भी नहीं थे। मिट्टी रेतीली थी। ऐसी मिट्टी से दीवार नहीं बन सकती थी। न ही छत के लिए खपरा। आसपास के गांव से बांस लिया गया। एक कुम्हार से चिकनी मिट्टी ख़रीदी गई। इस प्रकार आदि निवास बना। फिर बापू की कुटिया बनी। बा के लिए भी एक अलग झोंपड़ी बनाई गई। समय बीतने के साथ आश्रमवासियों की संख्या बढ़ती गई। दलदल सुखा कर खेती लायक ज़मीन तैयार की गई। पेड़-पौधे बोए गए। सेगांव का कायाकल्प होने लगा। बाद में इसका नाम सेवाग्राम बन गया। देश भर के लोगों के लिए सेवाग्राम यात्राधाम बन गया। सेवाग्राम में मेहमानों का तांता लगा रहता था। आने वालों में प्रमुख थे, नेहरूजी, विजयलक्ष्मी पंडित, सरहदी बादशाह ख़ान, उनका बेटा वली ख़ान, सरदार पटेल, राजाजी, राजेन्द्र बाबू, आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेन्द्र देव, पं. विष्णु खरे, डॉ. विधान चंद्र राय, हरेकृष्ण मेहताब, दादाभाई नौरोजी की बेटी ख़ुर्शीद। किशोरीलाल मश्रूवाला, महादेव देसाई, भंसालीजी, स्वामी जी, मीरा बहन, आर्य नायकम, आशादेवी, प्यारेलाल, राजकुमारी अमृत कौर तो वहां के लगभग स्थायी निवासी थे।

सेवाग्राम में गांधीजी ने विशेष रूप से बच्चों और युवाओं के लिए बुनियादी नई तालीम की एक पद्धति का प्रतिपादन किया। इसमें हिन्दुस्तानी भाषा का ज्ञान और मातृभाषा के माध्यम से पढाई के साथ आध्यात्मिक शिक्षा एवं रोजगार परक शिक्षा पर अधिक जोर था। इस शिक्षण व्यवस्था में हस्त उद्योग और कृषि के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। कम से कम ख़र्च में इस माध्यम से शिक्षा को सुलभ बनाया गया। श्रीलंका के आर्यनायकम और उनकी पत्नी आशादेवी और डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने इस विकास-कार्य में गांधीजी को सहयोग दिया। कताई बुनाई के माध्यम से गणित सिखाई जाती। कपास के उत्पादन से भू-शास्त्र और भूगोल सिखाया जाता।

सेवाग्राम केवल भारत के नेताओं के लिए ही नहीं अपितु गांधीजी के आकर्षण में बंधे विदेशी चिंतकों के लिए भी श्रद्धा का केंद्र बन गया था। यहां आने वाले प्रमुख विदेशियों में जापान के प्रतिष्ठित फूजी गुरू भी थे। उनके प्रभाव से गांधीजी ने अपनी प्रार्थना में बौद्ध मन्त्र शामिल कर सभी धर्मों के प्रति उदारता का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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