राष्ट्रीय आन्दोलन
388. मुहम्मद अली जिन्ना
ब्रिटिश सरकार ने 1937 में सांप्रदायिक निर्णय का अपना
हल भारतीयों पर थोप दिया। इस निर्णय के द्वारा मुस्लिम नेताओं की सभी मुख्य मांगें
स्वीकार कर ली गईं। इस निर्णय में सांप्रदायिक मताधिकार (पृथक निर्वाचन) का समावेश
कांग्रेसी नेताओं को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। लेकिन जब तक कोई सर्वसम्मत हल
न निकले तब तक के लिए कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया। जिस निर्णय से
हिन्दू-मुस्लिम विवाद के समाप्त हो जाने की आशा की गई थी, वह आने वाले वर्षों में
और अधिक उग्र और विषम होता चला गया। साम्प्रदायिक समस्या ने भारतीय राजनीति को जो
ग़लत मोड़ दिया उसका मुख्य कारक मुहम्मद अली जिन्ना था, जो आगे चलकर पाकिस्तान का पहला
गवर्नर जनरल बना। पाकिस्तान में उसे आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता से नवाजा जाता है।
गुजरात का ही रहनेवाला जिन्ना
गांधीजी से सात साल छोटा था। 25 दिसम्बर 1876 को कराची में उसका जन्म हुआ था। उसके
पिता जिनाभाय पूंजा थे जो चमड़े के व्यापारी थे। पूंजा के पिता काठियावाड़ के रहने
वाले थे और उन्होंने मुसलमान धर्म अपना लिया था। जिन्ना की आरंभिक पढाई कराची और
मुम्बई में हुई थी। बम्बई विश्वविद्यालय से उसने मैट्रिक पास किया। उसने कम उम्र
में ही अमाईबाई से शादी की। फिर 15 वर्ष की उम्र में क़ानून का अध्ययन करने के लिए
इंगलैंड चला गया। लेकिन वह गांधीजी की तरह धार्मिक प्रवृत्ति का नहीं था। क़ानून के
अलावा उसकी रुचि मुख्यतः राजनीति में थी। जिन्ना की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ तब
और प्रबल हो गईं जब उसने ब्रिटेन के पहले एशियाई सांसद दादाभाई नौरोजी का हाउस ऑफ
कॉमन्स की विजिटर्स गैलरी से पहला भाषण देखा। 1906 में जिन्ना ने सचिव बनकर दादाभाई नौरोजी की मदद
की थी। वह गोखलेजी का मित्र था। विलायती लिवास पहनता था। एक आँख पर चश्मा लगाता था।
क़ानून की पढाई कर जब वह कराची लौटा तो उसकी मां मर चुकी थी और पत्नी भी। ब्रिटेन
प्रवास के अन्तिम दिनों में उसके पिता का व्यवसाय चौपट हो गया और जिन्ना पर परिवार
संभालने का दबाव पड़ने लगा। वह बम्बई आ गया और बहुत कम समय में नामी वकील बन गया। उन्नीस साल की उम्र में, वह बार में जाने वाले सबसे कम उम्र
का एशियाई बन गया और उसने भारतीय परिधानों को त्यागकर पश्चिमी सिलाई को अपनाया। वह बंबई में वकालत और राजनीतिक
कार्य करने लगा। वह बहुत स्पष्ट विचारक था और अपनी
बातों को उत्कृष्ट चयन और धीमी गति से, शब्द-दर-शब्द, स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता था। उसने अपनी सबसे छोटी
बहन फातिमा को कराची से मुम्बई बुला लिया और मौत के समय तक फातिमा उसके साथ रही।
1909 में उसने मुम्बई के मुसलमानों
के प्रतिनिधि के तौर पर इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल में प्रवेश पाने में सफलता
हासिल की। इम्पीरियल काउन्सिल में उसने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के
संघर्ष के पक्ष में रखे गए प्रस्ताव का समर्थन किया था। कितना अजीब संयोग था की यह
संघर्ष लन्दन में ही पढ़े एक अन्य वकील मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में चल रहा
था, और वह भी काठियावाडी ही थे।
जिन्ना ने काउन्सिल में कहा था, “इस मुल्क के सभी वर्गों में दक्षिण
अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के प्रति क्रूर और कठोड़ व्यवहार को लेकर नाराज़गी है।” अध्यक्ष लॉर्ड मिन्टो ने आपत्ति
की, “मुझे लगता है ‘क्रूरता’ शब्द बहुत कठोर है।” जिन्ना ने जवाब दिया, “मुझे तो और भी कठोर भाषा का
इस्तेमाल करना चाहिए था।” जिन्ना और गांधीजी के बीच संबंधों
का आधार गोखले जी थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के काम को देखने के बाद गोखलेजी
ने कहा था, “गांधी में वे गुण हैं जिनकी ज़रुरत
भारत को है।” जिन्ना के बारे में गोखले जी ने कहा था, “उनके अन्दर सच्चाई है और
साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के चलते वे हिन्दुस्तान में
हिन्दू-मुसलमान एकता के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता हो सकते हैं।” जिन्ना ने भी एक बार कहा था, “मेरी इच्छा मुसलमान गोखले बनने की
है।” 1913 में आठ महीने के लिए जिन्ना गोखलेजी के साथ यूरोप दौरे पर गया था। उसी
समय इंग्लैण्ड के दौरे पर आए मुहम्मद अली और वजीर हुसैन के साथ बातचीत करते हुए
जिन्ना ने मुस्लिम लीग में शामिल होने पर सहमति दे दी। यह वह क़दम था जो स्पष्ट
करता है कि एक तरफ तो जिन्ना ने न सिर्फ मुसलमानों में बढ़ती बेचैनी को पहचाना
बल्कि मुस्लिम मुख्यधारा में शामिल होना चाहता था, जबकि दूसरी तरफ वह पूरे
हिन्दुस्तान की ज़मीन पर अपने पाँव भी जमाए रखना चाहता था। इस तरह जिन्ना ने
कांग्रेस, लीग और कौंसिल में अच्छी हैसियत
बना ली। 1913 में जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल
हो गया और 1916 के लखनऊ अधिवेशन की अध्यक्षता की।
1915 में गोखले और फिरोज शाह मेहता का
निधन हो गया। कांग्रेस में आई इस कमी से जिन्ना का महत्त्व और बढ़ गया। तिलक जेल
में थे। 1916 की लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में
स्वशासन के सवाल पर लीग और कांग्रेस के बीच समझौता उसके ही प्रयासों का फल था। वह
अखिल भारतीय होम रूल लीग के प्रमुख नेताओं में गिना जाता था। उन दिनों उसे
हिन्दू-मुस्लिम एकता के मसीहा के रूप में जाना जाता था। उसने इलाहाबाद में भाषण
देते हुए कहा था, “असली नए हिन्दुस्तान के उठ खड़े
होने के लिए सभी छोटी और हल्की चीज़ों को छोड़ना होगा। सभी हिन्दुस्तानियों को अपनी
नफ़रत, अपने भेद-भाव, अपने को बड़ा मानने का दंभ, अपने झगड़े और ग़लतफ़हमियों की
क़ुर्बानी देनी होगी।” 1915 में जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से
लौटे थे, तो मुम्बई की एक सभा में जिन्ना
ने गांधीजी का स्वागत किया था। उसने गांधीजी को लीग की बैठक में शामिल होने के लिए
आमंत्रित भी किया था। लखनऊ समझौते में जिन्ना, तिलक और खासकर एनी बेसेंट ने
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। जिन्ना बाद में
होमरूल आंदोलन में भी शरीक हुआ था। 1916 में जिन्ना देश की बड़ी हस्तियों
में से था। जब एनी बेसेंट गिरफ्तार हुईं और उन्हें नीलगिरी की पहाड़ियों में क़ैद
करके रखा गया, तो तिलक सहित देश के बड़े-बड़े नेता
जिन्ना के घर पर मिले। ऐसा लग रहा था जिन्ना देश के बड़े नेता के रूप में उभर रहा
हो। इस बैठक के बाद गांधीजी द्वारा दिया गया प्रस्ताव कि बेसेंट की गिरफ्तारी के
विरोध में नीलगिरी तक अहिंसक मार्च किया जाए, को ठुकरा दिया गया और गिरफ्तारी
के विरोध में ज़ोरदार आवाज़ उठाने का फैसला लिया गया। 1917 के नवंबर में जब उस समय
के भारतीय मामलों के मंत्री एडविन मोंटेग्यू भारत आए तो अपने संस्मरण में उन्होंने
लिखा, की एनी बेसंट बहुत प्रभावशाली थीं।
गांधीजी काफी नामी थे और एक बहुत ही बड़े समाज सुधारक थे। जिन्ना के बारे में उनके
विचार थे कि वह बहुत ही चालाक और हठी है। जिन्ना की गतिविधियों के पीछे उसकी महत्वाकांक्षा
है।
हालाकि जिन्ना ने 1919 में रॉलेट एक्ट का विरोध भी किया
था, लेकिन वह गांधीजी के ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल नहीं हुआ था। कांग्रेस में जैसे
ही गांधीजी का वर्चस्व और प्रभाव बढ़ा, जिन्ना उससे अलग हो गया। जिन्ना को गांधीजी
की राजनीति से ही नहीं, उनकी धार्मिकता, आत्म-निरीक्षण, विनम्रता, अपनी मर्ज़ी से
अपनाई हुई ग़रीबी, सत्य और अहिंसा आदि से बड़ी चिढ़ थी। उसके विचारों और आदर्शों से
गांधीजी के सदगुणों का कहीं भी मेल नहीं बैठता था। वह गांधीजी के विचारों और आदर्शों को उनकी राजनैतिक चाल और
पाखंड कहकर मज़ाक़ उड़ाया करता था। उसे गांधीजी से यह भी शिकायत रहती थी कि उन्होंने
राजनीति में प्रवेश कर उसे अनुचित उपायों से प्रमुख स्थान से परे धकेल दिया। 1920 तक उसका प्रभाव खत्म हो गया था।
और तब तक गांधीजी राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गए थे। 1920 के बाद जिन्ना सेंट्रल असेंबली
में एक स्वतंत्र दल के नेता की हैसियत सरकार और कांग्रेस के बीच संतुलन कारी शक्ति
बन गया। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात वह ज़रूर करता था, लेकिन सरकार हो या कांग्रेस,
जो भी उससे सहयोग मांगता, वह इसकी ज़बरदस्त क़ीमत वसूलता। नेहरू रिपोर्ट का उसने
विरोध किया था। वह किसी के साथ मिलकर काम करने को राज़ी नहीं होता था।
जिन्ना मालाबार हिल, मुंबई के विशाल मकान में अकेले
रहता था। औरतों से बड़े अदब से मिला करता था। वह बहुत ही तुनक मिजाज व्यक्ति था।
1917 में मुंबई के एक प्रमुख पारसी सर दिनशा पेटिट की 17 वर्षीया बेटी रतनबाई
(रत्ती) से उसकी भेंट हुई। एक ही नज़र में उसे उससे प्रेम हो गया। पिता को जब इस
बात की भनक मिली तो उसने कोर्ट से यह ऑर्डर हासिल कर लिया की जिन्ना उनकी बेटी से
मिल नहीं सकते। जिन्ना ने रत्ती के व्यस्क होने (18 वर्ष) का इंतज़ार किया और 1918
में रत्ती ने इस्लाम धर्म क़बूल किया और दोनों ने शादी कर ली। अगस्त 1919 में उनके
एक बच्ची हुई जिसका नाम दीना रखा गया। कुछ ही समय बाद रत्ती जिन्ना के स्वभाव से
ऊब गयी। जिन्ना की राजनीति में सक्रियता उसे पसंद नहीं थी। जिन्ना 42 साल की उम्र
में और रोमांटिक हो नहीं सकता था। उनके बीच नोक-झोंक बढ़ गयी। 1928 में उनकी शादी
की असफलता के लक्षण दिखने लगे थे। 1928 के शुरू में रत्ती माउंट प्लीजेंट रोड के
मकान को छोड़ कर ताजमहल होटल के कमरे में रहने लगी। कुछ महीने बाद रत्ती अपने मां-बाप
के साथ यूरोप चली गयी। अप्रैल में जिन्ना भी आयरलैंड पहुंचा। उसे पता चला कि रत्ती
गंभीर रूप से बीमार है और पेरिस के एक अस्पताल में भर्ती है। रत्ती जब ठीक हुई तो
जिन्ना को वहीं छोड़कर मुंबई चली आई। मुंबई आने के दो महीने बाद रत्ती एक बार फिर
से गंभीर रूप से बीमार हो गयी। जब वह अंतिम सांसें गिन रही थी, जिन्ना कलकत्ते में था। उसके मरने
की खबर सुनकर जिन्ना वापस आया। उसे एक मुस्लिम कब्रिस्तान में दफनाया गया।
1920 में जिन्ना ने कांग्रेस के इस्तीफा
दे दिया। उसने यह भी चेतावनी दी कि गाँधीजी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिन्दुओं और
मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ायेगा कम नहीं करेगा। मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के
बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। 1923 में जिन्ना मुंबई से सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली का सदस्य चुना गया।
गोलमेज परिषद के बाद जिन्ना ने
भारतीय राजनीति को नमस्कार किया और इंग्लैण्ड में ही बस गया। 1931 में जिन्ना ने
लन्दन के हैम्पस्टीड में एक तिमंजिला मकान ले लिया था। वहाँ उसकी बहन फातिमा उसके
साथ रहने के लिए आ गई थी। घर का सारा काम-काज वही देखती थी। जिन्ना की 13 वर्षीया
बेटी दीना एक इंग्लिश आवासीय स्कूल में दाखिल हो गई थी। जिन्ना की वकालत खूब चलने
लगी थी। 1931 में जब इक़बाल लन्दन गए तो उन्होंने जिन्ना से भेंट की। अलग मुसलमान
देश बनाने पर दोनों में चर्चा हुई। इस चर्चा के बाद जिन्ना कहा करता था कि
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को कांग्रेस और राज दोनों के काम-काज पर नज़र रखनी चाहिए।
जुलाई 1933 में एक 37 वर्षीय आदमी
हनीमून मनाने यूरोप गया। जिन्ना ने उसे उसके घर हैम्पस्टिड आने का न्यौता दिया।
उसका नाम था लियाक़त अली खां, जो बाद में पाकिस्तान का पहला प्रधानमंत्री बना। लियाक़त
दम्पती जिन्ना से मिलकर काफी प्रभावित हुए। बेगम लियाकत अली का मानना था कि जिन्ना
ही एक ऐसा आदमी है जो लीग और मुसलमानों को बचा सकता है। लियाक़त अली खां ने जिन्ना
को भारत वापस आने के लिए दवाब डाला। जिन्ना ने कहा, “आप वापस जाइए और हालात का जायजा
लीजिए। देश के हर भाग में लोगों की भावनाओं का अंदाज़ा लगाइए। अगर आप कहेंगे कि आ
जाइए तो मैं यहाँ क जीवन छोड़कर वापस आ जाऊंगा।” लियाक़त अली ने वैसा ही किया। उसने
सबसे बात की। उसे जब भरोसा हो गया, तो उसने जिन्ना को खबर भेजा, “वापस आ जाइए।” 1934 में जैसे ही चुनावों का समय आया,
जिन्ना भारत लौट आया। जिन्ना ने मकान बेच दिया। फर्नीचर को हटा दिया। फातिमा के
साथ भारत वापस आ गया। लन्दन से विदा होते समय उसके चेहरे पर किसी महान यात्रा पर निकालने
जैसे भाव थे।
जिन्ना की बेटी अपने पिता के साथ
रहने के बजाए अपनी ननिहाल वालों के साथ ज्यादा रहती थी। उसने जिन्ना की मर्ज़ी के
ख़िलाफ़ एक ईसाई लडके से शादी कर ली। कुछ समय तक वह अपने पिता से रिश्ता भी तोड़ लिया
था। फातिमा जिन्ना का पूरा ख्याल रखती थी।
अप्रैल 1934 में लीग ने सर्वसम्मति
से जिन्ना को अपना आजीवन अध्यक्ष चुना। 4 मार्च 1934 को, ऑल-इंडिया मुस्लिम लीग के दो गुटों
ने, जो 1928 से अलग-अलग और दुश्मन
संगठनों के तौर पर काम कर रहे थे, दिल्ली में एक मीटिंग में, मतभेद खत्म करने और जिन्ना की
अध्यक्षता में एक होने का फैसला किया। उसने मुस्लिम लीग का मार्गदर्शन करना शुरू
कर दिया। अक्तूबर में मुंबई के निर्वाचन क्षेत्र से चुनकर वह सेन्ट्रल एसेम्बली
में आ गया। यहाँ आकर वह 22 सदस्यों वाली स्वतन्त्र समूह का नेता बन गया। इस समूह
के 18 सदस्य मुसलमान थे। एसेम्बली में 60 सदस्य कांग्रेस और उसके सहयोगी के थे।
जिन्ना ने बड़ी चालाकी से सरकार और कांग्रेस के बीच अपने पत्ते चलने शुरू किए। जो
पक्ष जीत रहा होता, वह उसके विपरीत वोट करता।
कांग्रेसी प्रस्ताव के समय वह सरकारी पक्ष को वोट देकर कांग्रेस को हरा देता। इसी
तरह सरकारी प्रस्ताव को वह कांग्रेस के साथ वोट देकर सरकार हो हरा देता। हालाकि
सरकार को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि वायसराय एसेम्बली के
फैसलों को बदल सकता था, लेकिन मुसलमानों का मनोबल बढाने के लिए उसके इस क़दम की
काफी उपयोगिता थी। जिन्ना हिंदुस्तान के विभिन्न शहरों का दौरा भी करने लगा।
1937 में प्रांतीय चुनावों के बाद, कांग्रेस ने मिश्रित क्षेत्रों में
मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाने से इनकार कर दिया। हिंदुओं और मुसलमानों के
बीच संबंध बिगड़ने लगे। 1940 में, लाहौर में मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन में, भारत के विभाजन और पाकिस्तान नामक
एक मुस्लिम राज्य के निर्माण की पहली आधिकारिक मांग की गई। जिन्ना हमेशा से मानता था
कि हिंदू-मुस्लिम एकता संभव है, लेकिन वह इस विचार पर पहुँचा कि भारतीय मुसलमानों के
अधिकारों की रक्षा के लिए विभाजन आवश्यक था। उसके आग्रह के परिणामस्वरूप भारत का
विभाजन हुआ और 14 अगस्त 1947
को पाकिस्तान
का गठन हुआ। जिन्ना पाकिस्तान का पहला गवर्नर जनरल बना, लेकिन 11 सितम्बर 1948 को तपेदिक से उसकी मृत्यु हो गई।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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