राष्ट्रीय आन्दोलन
411. हरिपुरा
कांग्रेस अधिवेशन
1938
फरवरी 1938 के दूसरे हफ़्ते में कांग्रेस का 51वां
अधिवेशन ताप्ती नदी के किनारे 19 से 21 फरवरी तक हरिपुरा (गुजरात) में हुआ। इस
सेशन का महत्व इसलिए और बढ़ गया था क्योंकि यह प्रांतों में कांग्रेस के सत्ता में
आने के बाद पहला सेशन था, और
इसमें कांग्रेस को सत्ताधारी पार्टी के तौर पर देश की अलग-अलग समस्याओं से निपटने
के लिए अपनी नीतियों को साफ तौर पर बताने के लिए कहा गया था। यहाँ सब कुछ बहुत
बड़े पैमाने पर था। वल्लभभाई पटेल, जिन्होंने
जगह चुनी थी और पूरे कार्यक्रम का आयोजन किया था, उन्होंने यह पक्का किया कि यह एक ऐसा सम्मेलन हो जिसे याद
रखा जाए। लगभग ढाई मील का शानदार ले-आउट, आने
वालों और प्रतिनिधियों के लिए बड़ी संख्या में झोपड़ियाँ, विशाल रसोई और पानी की व्यवस्था, भव्य पंडाल और बड़ा प्रदर्शनी मैदान, और इतने सारे लोगों को दूध देने के लिए गायों
का बड़ा झुंड, ये सब उस बड़े पैमाने के हिसाब से था जिस पर सब
कुछ प्लान किया गया था। इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी लगभग 7,000 वॉलंटियर्स और 4,000 वर्कर्स पर थी। पहले दिन, कांग्रेस पंडाल के लिए 56,000 रुपये के टिकट बिके। हज़ारों लोग, ज़्यादातर गाँव वाले, बिना टिकट के बैठे थे, जिन्होंने माइक्रोफ़ोन की सुविधा की वजह से भाषण सुने। लगभग
2,50,000 लोगों ने प्रदर्शनी देखी और खादी की बिक्री
एक लाख रुपये की हुई।
खूबसूरत माहौल में बसा विट्ठल नगर कलाकारों की
कला का नमूना था। नंदलाल बोस, बाबूराव
म्हात्रे और रामदास गुलाटी, जिन्होंने
फैजपुर में बांस का शहर बनाया था, उन्होंने
एक बार फिर कमाल कर दिखाया। कांग्रेस नेताओं के नाम पर इक्यावन गेट थे, जो बांस और लकड़ी के बने थे, और उनके ऊपर अलग-अलग आकार और साइज़ के मिट्टी
के कटोरे उल्टे करके रखे गए थे। विट्ठल नगर में गांधीजी के नाम वाला गेट सबसे
आकर्षक था, और इन ढांचों की खूबसूरती चौकोर पैनल वाली
तस्वीरों से और बढ़ गई थी, जो
इन गेटों और कुछ नेताओं की झोपड़ियों के किनारों और ऊपरी हिस्सों पर लगी थीं। ताड़
के पत्तों की छत और खादी की छत वाली गांधी की झोपड़ी, जो एक खाई से घिरी हुई थी, उन्हें आराम और शांति देने के लिए, भीड़भाड़ से दूर, एक
शांत जगह पर बनाई गई थी। मंच कलात्मक था, जिसे
बांस के टुकड़ों को चतुराई से सजाकर बनाया गया था। यहां तक कि कूड़ेदान भी, जो बांस की टट्टियों के बेलनाकार टुकड़े थे, उन पर भी कलाकारों के हाथों की छाप थी। सफेद
बैकग्राउंड पर पानी में एक नीला कमल दिख रहा था, जो स्वच्छता और पवित्रता का प्रतीक था।
गांधीजी ने महीनों की
सार्वजनिक चुप्पी के बाद 10 फरवरी को जो पहला भाषण दिया, वह अखिल भारतीय ग्राम
उद्योग और खादी प्रदर्शनी के उद्घाटन के मौके पर था।
सुभाष चन्द्र बोस
कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए। प्रेसिडेंट पद के लिए उनका नाम सभी P.C.C.s द्वारा सर्वसम्मति से
रिकमेंड किया गया था और उन्हें 18 जनवरी को इस पद के लिए विधिवत चुना गया। नेताजी
सुभाष बोस, कांग्रेस के सबसे कम उम्र वाले अध्यक्ष थे। 19 फरवरी को सुभाष चंद्र
बोस ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया। सुभाष बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में
प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि, भले ही कांग्रेस ने प्रांतों में
सत्ता स्वीकार कर ली थी,
एक
ऐसा कदम जिसके वह व्यक्तिगत रूप से खिलाफ थे, भारत की आज़ादी अभी भी जीतनी बाकी
थी। उस आज़ादी को जीतने के लिए कांग्रेस को आने वाले वर्षों में सत्याग्रह, या अहिंसक असहयोग का
तरीका अपनाना होगा,
जो
सिर्फ निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं बल्कि सक्रिय प्रतिरोध भी था, जब तक कि उसे अहिंसक
रखा जाए।
उन्होंने संघीय योजना
का विरोध किया। राष्ट्रीय योजना, एकता और राष्ट्रीय संघर्ष के लिए लोक संगठन पर बल
दिया। यह ब्रिटेन के समझौते के ख़िलाफ़ था। उन्होंने राष्ट्रीय संघर्ष का अह्वान
किया। सुभाष की इस घोषणा से कांग्रेस के अंदर बेचैनी फैली। वामपंथी और दक्षिणपंथी
शक्तियों में टकराहट अनिवार्य हो गई।
इस सत्र में यह स्पष्ट
किया गया कि राज्यों में आंदोलन कांग्रेस के नाम पर शुरू नहीं किए जाने चाहिए, बल्कि उन्हें अपनी
स्वतंत्र ताकत पर भरोसा करना चाहिए और स्थानीय संगठनों के ज़रिए लड़ना चाहिए। यह
घोषित किया गया कि पूर्ण स्वराज के अंतर्गत रजवाड़े और ब्रिटिश भारत, दोनों ही आते
हैं। लेकिन यह भी स्पष्ट किया गया कि फिलहाल कांग्रेस रजवाड़ों में हो रहे जन
आंदोलन को केवल नैतिक समर्थन और सहानुभूति ही दे सकती है। इनको कांग्रेस के नाम पर
नहीं चलाया जाना चाहिए। एकीकरण की बात तो दूर, उत्तरदायी सरकार की मांग तक नहीं की
गई थी।
इसके अलावा कांग्रेस
के अंदर से नेताओं द्वारा धर्मनिरपेक्षता पर अधिक ज़ोर से बल दिया जाने लगा। कई
नेताओं का आरोप था कि कांग्रेसी नेताओं को हिंदू महासभा में काफ़ी सक्रिय देखा जाता
है। इसलिए कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने महासभा की सदस्यता को कांग्रेस में बने रहने
के लिए अयोग्यता घोषित कर दिया। उन दिनों वी.डी. सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू
महासभा काफी शक्तिशाली होती जा रही थी। इसके अलावा जो दो अन्य महत्वपूर्ण
साम्प्रदायिक संगठन विकसित हुए थे वे थे इनायतुल्ला ख़ान मशरिकी का ख़ाकसार और
के.बी. हेगड़ेवार का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ।
पर्ल बन्दरगाह पर जो हुआ वह बड़ा ही दुखद
था। उसके बाद की घटनाओं से सारे देश में तनातनी की स्थिति पैदा हो गई थी। कांग्रेस
की कार्य-समिति की आपातकालीन बैठक बुलाई गई। उस समय तक जापानी बहुत ज़्यादा नहीं
बढ़े थे। फिरभी युद्ध अब बहुत दूर की बात नहीं थी। कई कांग्रेसी नेता युद्ध, विशेष
रूप से भारत में रक्षा-कार्य में योगदान देने के लिए उत्सुक थे, बशर्ते किए एक
राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हो जाए। उनका मानना था कि इस राष्ट्रीय सरकार की
सहायता से वे देश के सभी तत्वों का सहयोग प्राप्त कर लेंगे। जनता को यह विश्वास
दिला सकेंगे कि यह हमारा एक राष्ट्रीय कार्य है। यह गोरों के इशारे पर नहीं हो रहा
है। 1937 में, जापान ने चीन पर हमला किया। कांग्रेस ने जापान
की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पास किया और भारतीय लोगों से चीनी लोगों के प्रति
अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए जापानी सामानों का बहिष्कार करने की अपील की। 1938
में हरिपुरा अधिवेशन में, कांग्रेस ने इस अपील को दोहराया और 'चीन में एक क्रूर
साम्राज्यवाद की आक्रामकता और उसके साथ होने वाली भयानक घटनाओं' की निंदा की। उसने
चेतावनी दी कि चीन पर हमला 'दुनिया की शांति और एशिया में स्वतंत्रता के भविष्य के लिए सबसे
गंभीर परिणामों से भरा है।' चीनी लोगों के साथ अपनी एकजुटता दिखाने के लिए, 12 जून को पूरे
भारत में चीन दिवस के रूप में मनाया गया। कांग्रेस ने डॉ. एम. अटल के नेतृत्व में
एक मेडिकल मिशन भी चीनी सशस्त्र बलों के साथ काम करने के लिए भेजा। इसके एक सदस्य, डॉ. कोटनीस ने
माओ ज़ेडोंग की कमान के तहत आठवीं रूट आर्मी के साथ काम करते हुए अपनी जान दे दी। हालाकि
इस विषय पर अधिकांश लोगों में सहमति थी, पर गांधीजी अहिंसा के अपने बुनियादी
सिद्धांत को त्यागने को तैयार नहीं थे। युद्ध की निकटता उनके और उनके विश्वास के
लिए एक चुनौती बन गई थी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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