राष्ट्रीय आन्दोलन
410. श्रमिक वर्ग, किसान वर्ग और
कांग्रेस
लोकप्रिय सरकारों के गठन से श्रमिकों के प्रति कांग्रेस दृष्टिकोण
में बदलाव आया और उनके संगठनों की संघर्षशीलता को बढ़ावा मिला। कामगार वर्ग को एकजुट
रखने के कांग्रेसी प्रयासों में तेज़ी आई और पटेल, राजेन्द्र प्रसाद और कृपलानी
जैसे नेताओं ने हिन्दुस्तान मज़दूर सभा (एचएमएस) की स्थापना की। इसके बावज़ूद भी
अधिकांश ट्रेड यूनियन आंदोलन वामपंथियों के हाथ में ही रहा। पूंजीपतियों को ख़ुश
रखने के लिए और श्रमिक असंतोष को नियंत्रित करने के लिए कांग्रेस ने बाम्बे
ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट (नवंबर 1938) पास किया। इस क़ानून के तहत ग़ैरक़ानूनी हड़तालों के लिए 6 महीने की जेल की सज़ा का प्रावधान था। साथ ही ट्रेड
यूनियनों के पंजीकरण के लिए नए नियमों की व्यवस्था की गई थी। गांधीवादी श्रमिक
नेता गुलज़ारीलाल नंदा ने इस क़ानून का विरोध किया था। विरोध सभा को उनके अलावा
डांगे, इंदुलाल याज्ञिक और अंबेडकर ने भी संबोधित किया था। ध्यान देने की बात है
कि नेहरूजी को बाम्बे एक्ट “कुल मिलाकर अच्छा ही लगा”। और सुभाष चन्द्र बोस ने सिर्फ़ निजी तौर पर पटेल से इस संबंध में
विरोध प्रकट किया था, सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।
किसान वर्ग और कांग्रेस
1930 के दशक में भारतीय किसानों में एक नया राष्ट्रवादी जागरण आया। सिविल
नाफ़रमानी आंदोलन के तहत देश के बहुत से हिस्सों में टैक्स और लगान न देने का
अभियान चलाया गया। किसानों ने बड़े उत्साह के साथ इस अभियान में हिस्सा लिया। आंध्र
में लगान व्यवस्था में किए जा रहे बंदोबस्त के विरुद्ध तीव्र विरोध प्रकट किया
गया। उत्तर प्रदेश में टैक्स के बहिष्कार के साथ लगान का भी बहिष्कार किया गया।
गुजरात में भी किसानों ने टैक्स देने से इंकार कर दिया। किसानों की ज़मीन और
संपत्ति ज़ब्त कर ली गई। बिहार और बंगाल में किसानों को चौकीदारी टैक्स देना पड़ता
था। इसके ख़िलाफ़ ज़बरदस्त आंदोलन हुए। पंजाब में टैक्स रोको आंदोलन चलाया गया।
महाराष्ट्र और बिहार में जंगल सत्याग्रह चलाया गया। अप्रैल 1936 में लखनऊ में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की
स्थापना हो चुकी थी जो बाद में चलकर अखिल भारतीय किसान सभा कहलाया। बिहार
के स्वामी सहजानंद सरस्वती इसके अध्यक्ष थे और एन.जी. रंगा महासचिव। कांग्रेस की
मांगों में किसानों से जुड़ी मांगें अब प्रमुखता पाती थी।
1937 में देश के बहुसंख्यक प्रांतों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ। किसानों
की पार्टी होने का दावा करने वाली कांग्रेस कृषि-सुधार के कार्यक्रम अपनाने को
प्रतिबद्ध थी। अपने शासन वाले प्रांतों में ब्याज की दरें निश्चित करके क़र्ज़ के
बोझ को कम करने का उसने प्रयास भी किया। उनके द्वारा लगान में बढोत्तरी पर
प्रतिबंध लगाया गया। वन-सत्याग्रह वाले इलाक़ों में चराई शुल्क को समाप्त कर दिया
गया। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है ये सब दिखावे या छलावे मात्र थे। कांग्रेस सरकार
द्वारा बनाए गए क़ानून फैजपुर अधिवेशन के मामूली प्रस्तावों को भी पूरा नहीं कर पाए
और संयुक्त प्रांत और बिहार की कांग्रेस के ज़मींदारी उन्मूलन प्रस्तावों को पार्टी
ने सत्ता में आते ही भुला दिया। ज़मींदारों की ओर से सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देने
की धमकी से घबराकर बिहार की कांग्रेस सरकार ने टेनेंसी बिल को बहुत ही हल्का कर
प्रभावहीन बना दिया। ज़मींदारी उन्मूलन के प्रश्न को कमीशन को सौंपकर ठंडे बस्ते
में डाल दिया गया। थोड़े बहुत जो भी कृषि सुधार किए गए थे, वह तो किसानों द्वारा
बहुत बड़े पैमाने पर किए गए आंदोलन का परिणाम था।
किसान की सभा की संख्या में काफी वृद्धि हुई थी। शानदार किसान जुलूस
निकालना अब आम बात थी। समृद्ध वर्ग द्वारा उनके आंदोलन के ख़िलाफ़ दबाव भी बनाया
जाता था जिससे अनेक स्थानीय संघर्ष भी हुए। अखिल भारतीय किसान सभा के भीतर क्म्युनिस्ट
अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे थे। किसान सभा ने लाल झंडे को ध्वज के रूप में अपना
लिया था। मई 1938 में बंगाल के
कोमिल्ला अधिवेशन में गांधीवादी
वर्ग-सहयोग की भर्त्सना की गई, कृषि-क्रांति को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया और
ज़मींदारों के आक्रमणों के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए डंडे के प्रयोग की हिमायत की
गई। किसान सभा की इस संघर्षशीलता के प्रति कांग्रेसी मंत्रिमंडलों और नेताओं का दृष्टिकोण
अधिक से अधिक विद्वेषपूर्ण होता चला गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह सब तब हो
रहा था जब पहले नेहरू और फिर सुभाष बोस कांग्रेस पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष थे।
नेहरू ने इलाहाबाद के किसानों को सलाह दी कि वे कांग्रेस के सरकार के कार्य को
सुचारू रूप से चलने दें, उसमें कोई बाधा न डालें।
किसान आंदोलन का राष्ट्रीय आंदोलन के अटूट रिश्ता बना
रहा। राष्ट्रीय आंदोलन ने किसानों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। उनके संगठन
और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक सक्षम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का उदय
किया। फलतः किसान आंदोलन की विचारधारा राष्ट्रीयता पर आधारित थी। इसके नेता और
कार्यकर्ता जहां एक ओर किसानों के संगठन का संदेश फैलाते वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत पर भी बल देते। कुछ इलाक़ों में किसान और
कांग्रेस नेतृत्व के बीच गंभीर मतभेद ज़रूर पैदा हुए लेकिन आम तौर पर किसान आंदोलन
और राष्ट्रीय आंदोलन साथ-साथ चलते रहे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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