राष्ट्रीय आन्दोलन
408. भारतीय पूंजीपति और राष्ट्रीय आंदोलन
समय के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन का सामाजिक आधार व्यापक होने लगा। उन्नीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्ध में, भारत में आधुनिक
पूंजीपति वर्ग का उदय होने लगा। भारतीय पूंजीपतियों के लिए एक वर्ग के रूप में
औपनिवेशिक राज्य के प्रति खुलकर टकराव का रुख अपनाना कठिन था। लेकिन ऐसा भी
नहीं है की उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन से
दूरी बना ली थी। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में भारतीय पूंजीपत वर्ग की
भूमिका को लेकर काफी विवाद रहा है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने आम तौर पर कांग्रेस
और पूंजीपतियों के बीच संबंध को लेकर बहुत आलोचनात्मक नज़रिया अपनाया है। एम.एन.
रॉय ने कांग्रेस को
मूल रूप से एक बुर्जुआ संगठन (एक "बुर्जुआ संगठन" से तात्पर्य है
पूंजीपति वर्ग द्वारा निर्मित
सामाजिक, राजनीतिक या
आर्थिक संरचनाएं) माना जो प्रगतिशील नहीं रहा और 1920 के दशक की शुरुआत में बढ़ते
जन आंदोलन के परिणामस्वरूप प्रतिक्रियावादी और साम्राज्यवाद का सहयोगी बन गया। आर.पी.
दत्त ने भारतीय बुर्जुआ वर्ग को मूल रूप से एक राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग माना
जिसमें दोहरी विशेषता थी। ‘इंडिया टुडे’ में, उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग का साम्राज्यवाद के साथ
एक वास्तविक विरोधाभास था और उसने विदेशी वस्तुओं और पूंजी के हमले का विरोध किया, लेकिन,
जब जन-विद्रोह के
खतरे का सामना करना पड़ा, तो उसने
साम्राज्यवाद का साथ दिया। सुनीति के. घोष जैसे मार्क्सवादी विचारकों का
तर्क है कि 'भारतीय पूंजीपति
वर्ग में दो श्रेणियां शामिल थीं और हैं: एक जो बड़ी है वह दलाल है और दूसरी जो
छोटी और मध्यम है वह राष्ट्रीय है'। घोष का दावा है कि भारतीय बड़े पूंजीपति वर्ग ने भारत में शुरुआत
से ही साम्राज्यवाद का साथ दिया था। अमिया के. बागची के अनुसार, सामंतवाद का उन्मूलन और उचित पूंजीवादी
संबंधों की स्थापना न तो भारत में ब्रिटिश पूंजीपतियों के एजेंडे का हिस्सा थी और
न ही भारतीय पूंजीपतियों के। भारतीय पूंजीपति वर्ग ने ज्यादातर एक प्रतिक्रियावादी
विचारधारा अपनाई है जिसने लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की उपेक्षा की। जी.के.
लेटेन का कहना है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग हमेशा राष्ट्रवाद के दायरे में नहीं
रहा, बल्कि अक्सर
कांग्रेस की पीठ पीछे औपनिवेशिक सरकार के साथ अलग-अलग समझौते करने की कोशिश करता
रहा। कपिल कुमार का दावा है कि कांग्रेस की नीतियों को तय करने में
पूंजीपतियों ने अहम भूमिका निभाई। कुछ विद्वानों का आरोप रहा है कि राष्ट्रीय
आंदोलन की वाहक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पूंजीपति वर्ग के दबाव में अपनी नीतियां
तय किया करती थी।
पर इस तरह के आरोप ग़लत हैं। दूसरी ओर, इतिहासकारों का एक महत्वपूर्ण समूह, जिसमें मुख्य रूप से बिपन चंद्र, आदित्य मुखर्जी और भगवान जोश शामिल हैं, ज़ोर देकर कहते हैं कि भारतीय पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद-विरोधी था, 1920 के दशक तक एक सचेत समूह के रूप में विकसित हो गया था, और खासकर 1920 के दशक से राष्ट्रवादी
खेमे में था। बिपिन चंद्र का तर्क है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग ने कभी भी
दलाल की भूमिका नहीं निभाई और न ही किसी भी स्तर पर वह ब्रिटिश पूंजी के अधीन था। भारतीय
पूंजीवाद का विकास अन्य औपनिवेशिक देशों के पूंजीवाद से अलग था। यहां के पूंजीपति
वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थन में ही अपना हित समझता था। राष्ट्रीय आंदोलन में
भाग लेने वाले विभिन्न समूहों में कई व्यक्तिगत पूंजीपति भी थे जो कांग्रेस में
शामिल हुए। उन्होंने पूरी तरह से आंदोलन का साथ दिया, जेल गए और उन कठिनाइयों को स्वीकार किया जो औपनिवेशिक काल
में कांग्रेसियों के हिस्से में आती थीं। जमनालाल बजाज, वडीलाल लल्लू
भाई मेहता, सैमुएल एरन, लाला शंकर लाल, आदि उल्लेखनीय नाम हैं।
कुछ पूंजीपति ऐसे भी थे जो कांग्रेस में तो शामिल नहीं हुए, लेकिन बाहर से मदद
किया करते थे। इनमें से घनश्यामदास बिड़ला, अंबालाल साराभाई और बालचंद
हीराचंद प्रमुख हैं। बड़ी संख्या में
छोटे व्यापारी भी थे जिन्होंने विभिन्न समय पर राष्ट्रीय आंदोलन का सक्रिय रूप से
समर्थन किया। दूसरी ओर, कई व्यक्तिगत
पूंजीपति या इस वर्ग के कुछ ऐसे लोग भी थे जो या तो कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन
के प्रति तटस्थ रहे या उन्होंने इसका सक्रिय रूप से विरोध किया। भारतीय पूंजीपति
वर्ग की आर्थिक कमजोरी ही उसकी राजनीतिक कमजोरी और औपनिवेशिक सरकार पर उसकी आंशिक
निर्भरता का कारण थी।
औपनिवेशिक काल में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय पूंजीपति वर्ग
का काफी आर्थिक विकास हुआ। और यह आर्थिक विकास औपनिवेशिक सत्ता का विरोध करते हुए
हासिल किया गया था। वे अपने हितों के प्रति सचेत थे। भारतीय पूंजीपति वर्ग का
विकास लगभग 19वीं सदी के मध्य से काफी हद तक एक स्वतंत्र पूंजी आधार के साथ हुआ और
विदेशी पूंजी के जूनियर साझेदार के रूप में नहीं या दलालों के रूप में नहीं।
महत्वपूर्ण यह है कि पूंजीपति वर्ग कुल मिलाकर साम्राज्यवाद-समर्थक सामंती हितों
के साथ आर्थिक या राजनीतिक रूप से अधीनस्थ स्थिति में बंधा हुआ नहीं था।
स्वदेशी आंदोलन (1905-08) के दौरान, पूंजीपति बहिष्कार आंदोलन के खिलाफ रहे। 20 के दशक की
शुरुआत में असहयोग आंदोलन के दौरान भी, पुरुषोत्तमदास सहित पूंजीपतियों के एक छोटे से वर्ग ने खुद को खुले तौर
पर असहयोग आंदोलन का दुश्मन घोषित कर दिया था। हालाँकि, बाद में पूंजीपतियों का रुख बदल गया। कई भारतीय
पूंजीपतियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन दिया।
1914-1947 के दौरान,
पूंजीपति वर्ग
तेज़ी से बढ़ा, जिससे उसकी ताकत
और आत्मविश्वास बढ़ा। एक औपनिवेशिक पूंजीवादी वर्ग के लिए यह असामान्य विकास, जैसा कि अक्सर तर्क दिया जाता है, उपनिवेशवाद के परिणाम या उप-उत्पाद के रूप में या
उपनिवेशवाद खत्म करने की नीति के कारण नहीं हुआ। इसके विपरीत, यह उपनिवेशवाद के बावजूद और उसके विरोध में हासिल किया
गया था — उपनिवेशवाद और औपनिवेशिक हितों के खिलाफ लगातार संघर्ष करके, यानी उपनिवेशवाद से ही जगह छीनकर। भारतीय पूंजीपतियों की
आर्थिक हितों में ऐसा कुछ नहीं था जो साम्राज्यवाद के प्रति उनके विरोध को रोकता।
1920 के दशक के मध्य तक, भारतीय पूंजीपतियों ने अपने लंबे समय के वर्ग हित को सही ढंग
से समझना शुरू कर दिया था और वे इतने मज़बूत महसूस करने लगे थे कि एक लगातार और
खुले तौर पर साम्राज्यवाद-विरोधी रुख अपना सकें। जो हिचकिचाहट इस वर्ग ने दिखाई, वह साम्राज्यवाद के विरोध में नहीं थी, बल्कि साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए खास रास्ता चुनने में
थी। उन्हें डर था कि चुना गया रास्ता ऐसा न हो जो साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए, उनके अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल दे, यानी पूंजीवाद को ही कमजोर कर दे। घनश्यामदास बिड़ला
और पुरुषोत्तमदास ठाकुर दास जैसे लोग 1920 से ही प्रयासरत थे कि भारत के व्यवसायियों का कोई संगठन हो, ताकि
औपनिवेशिक सरकार के साथ प्रभावी ढंग से लॉबिंग की जा सके। 1927 में इनके प्रयासों से ‘भारतीय वाणिज्यिक उद्योग
महामंडल’ (फिक्की) का गठन हुआ। देश भर के व्यापारियों और उद्योगपतियों का
इसमें प्रतिनिधित्व था। बाद के दिनों में यह साबित हो गया कि यह सिर्फ आर्थिक
हितों के लिए लड़नेवाला संगठन नहीं था, बल्कि राजनीति में घुसकर इसने सक्रिय भूमिका
भी निभाई। कांग्रेस नेताओं ने अक्सर उनकी सहायता को अमूल्य माना और कई राष्ट्रीय
आर्थिक मुद्दों पर उनकी राय और विशेषज्ञता का सम्मान किया। FICCI के अध्यक्ष सर पुरुषोत्तमदास ने 1928 में
अपने दूसरे सालाना सेशन में कहा था: 'हम अब अपनी राजनीति को अपनी अर्थव्यवस्था से अलग नहीं कर
सकते।' जी.डी. बिड़ला
ने 1930 में कुछ समय बाद कहा था: 'हमारे देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति
में सरकार को अपने विचारों से सहमत कराना नामुमकिन है... एकमात्र समाधान... यह है
कि हर भारतीय व्यवसायी उन लोगों के हाथों को मज़बूत करे जो हमारे देश की आज़ादी के
लिए लड़ रहे हैं।'
हां, पूंजीपति वर्ग सत्ता के ख़िलाफ़ लंबे समय तक आक्रामक आंदोलन को
समर्थन देने से हिचकिचाता ज़रूर था। लेकिन वह साम्राज्यवादी सत्ता का पिट्ठू कभी
नहीं बना। इनके नेता कभी भी किसी सुधार को बिना शर्त नहीं स्वीकार करते थे।
विधानमंडलों में भी इनकी हिस्सेदारी सशर्त थी। संविधानिक संघर्ष का वे सदा समर्थन
किया करते थे। वे इसे लक्ष्य की ओर एक कदम मानते थे। वे दूसरे तरह के आंदोलन का
समर्थन देने का भी ख्याल रखते थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति इनका रुख़
उलझाव भरा था। जहां वे एक तरफ़ यह मानते थे कि इस आंदोलन से इस देश को कुछ ठोस
चीज़ें हासिल हो सकती है, वहीं दूसरी ओर इसका लंबे समय तक चलने से वे डरते थे। पूंजीपति
उस समय की सरकार के खिलाफ़ लंबे समय तक पूरी तरह दुश्मनी करने को तैयार नहीं थे, क्योंकि इससे रोज़मर्रा का कारोबार जारी रखने में रुकावट
आ रही थी और उनके वर्ग के अस्तित्व को ही खतरा था। जब यह आंदोलन लंबा चला तो यह
वर्ग इसे वापस लेने और कांग्रेस और सरकार के बीच समझौता कराने के प्रयास करने लगा।
लेकिन समझौता में ठोस रियायतों के भी पक्षधर थे। वे आत्मसमर्पण पर कतई राज़ी नहीं
थे। वे चाहते थे कि समझौता हो जाए पर राष्ट्रीय आंदोलन कमज़ोर न पड़े। इसने कभी भी
औपनिवेशिक सत्ता का समर्थन नहीं किया। वे यह प्रयासरत रहते थे कि आंदोलनकारियों का
दमन सरकार न करने पाए। वे कांग्रेस से प्रतिबंध हटाने और बंदियों की रिहाई के लिए सरकार पर
दबाव डालते थे। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के शुरू होने के पहले घनश्याम दास
बिड़ला और पुरुषोत्तम दास तथा जे.आर.डी.
टाटा ने सरकार को लिखा था, “वर्तमान संकट से उबरने के लिए एकमात्र तरीक़ा यही है कि
भारत को राजनीतिक स्वाधीनता प्रदान कर दी जाए।”
तीसरे दशक के अंत में भारतीय पूंजीपति वर्ग का प्रभावी तबका कांग्रेस का समर्थन करने लगा था। 1930 के दशक के सविनय
अवज्ञा आंदोलन के दौरान,
पूंजीपतियों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन का समर्थन किया और वायसराय की इस बात को
मानने से इनकार कर दिया (सितंबर 1930
में) कि वे सार्वजनिक रूप से कांग्रेस के रुख का खंडन करें और ऐसा करने पर
किसी भी उत्पीड़न के खिलाफ सरकारी सुरक्षा की पूरी गारंटी के उनके प्रस्ताव को भी
ठुकरा दिया। 1938
के मध्य से भारतीय पूंजीपतियों एवं कांग्रेसी नेतृत्व के बीच बेहतर समझदारी के माहौल बन गए थे। कांग्रेसी मंत्रिमंडल के स्वदेशी रुझान वाले भंडारों से ख़रीद करने की नीति से व्यापारियों को लाभ हो रहा था। फलस्वरूप पूंजीपतियों के संग कांग्रेस के संबंध घनिष्ठ हो रहे थे। जी.डी. बिड़ला ने 1937 में कांग्रेस के सत्ता संभालने के लिए
समझौता कराने में कड़ी मेहनत की थी, उन्होंने लॉर्ड हैलिफ़ैक्स और लॉर्ड लोथियन को
चेतावनी दी थी कि 'कांग्रेस
सिर्फ़ संविधान पर काम करने के लिए नहीं आ रही है, बल्कि अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के
लिए आ रही है, और अगर गवर्नर
और नौकरशाह सही तरीके से काम नहीं करते या अगर दो-तीन साल बाद कोई (संवैधानिक) प्रगति नहीं होती, तो भारत को सीधी कार्रवाई करने के लिए
मजबूर होना पड़ेगा, जिसका मतलब था बड़े
पैमाने पर अहिंसक सविनय अवज्ञा।'
भारतीय पूंजीपतियों का कोई भी घटक अब उस पार्टी को नाराज़ करने की स्थिति में नहीं था जो ग्यारह में से आठ प्रांतों में सरकार चला रही थी। भारतीय पूंजीपतियों ने पटेल और राजाजी जैसे कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्वों के साथ घनिष्ठ संबंध क़ायम रखते हुए कांग्रेस के वामपंथ से भी स्वस्थ संबंध स्थापित करना शुरू कर दिया था। आख़िर वे जानते थे कि गांधीवादी ग्रामीण सरलता और हस्त कौशल संबंधी आह्वान की जगह आधुनिक औद्योगिक भारत के नेहरू के स्वप्न प्रमुखता से स्थान ग्रहण करने जा रहे थे। यहां यह समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस पूंजीपति वर्ग के समर्थन पर निर्भर नहीं थी। समय के बदलने के साथ पूंजीपति वर्ग ने ख़ुद समर्थन की नीति अपनाई थी। 1938 के मध्य से
भारतीय पूंजीपतियों और कांग्रेस नेतृत्व के निर्णायक वर्गों के बीच एक मजबूत समझ
के संकेत साफ दिखने लगे। व्यापारियों को कांग्रेस मंत्रालयों की स्वदेशी-उन्मुख
स्टोर खरीद नीति से फायदा हुआ,
और पूंजीपतियों के साथ घनिष्ठ संबंध, खासकर बॉम्बे में, विकसित हो रहे थे।
सितंबर 1940 में पुरुषोत्तमदास को लगा कि, अंग्रेजों के राजनीतिक रुख को देखते
हुए, कांग्रेस के
पास 'असहयोग आंदोलन’ शुरू करने के
अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था। अगस्त 1942 को, भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने से चार दिन पहले, पुरुषोत्तमदास, जे.आर.डी. टाटा और जी.डी. बिड़ला ने
वायसराय को लिखा कि मौजूदा संकट,
युद्ध के सफल संचालन और एक और सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोकने का एकमात्र समाधान
'देश को
राजनीतिक स्वतंत्रता देना है... यहां तक कि युद्ध के बीच में भी।'
कुछ इतिहासकार यह आरोप लगाते हैं कि कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों पर पूंजीपतियों का तगड़ा प्रभाव था। यह कहा गया कि पूंजीपति, मुख्य रूप से अपने नियंत्रण वाले
फंड का इस्तेमाल करके, कांग्रेस पर
दबाव डालकर ऐसी मांगें मनवाने में सफल रहे, जैसे कि कम रुपया-स्टर्लिंग अनुपात, टैरिफ सुरक्षा, सैन्य खर्च में कमी, आदि, जो कथित तौर पर केवल उनके वर्ग के लिए फायदेमंद
थीं। इसके अलावा, यह तर्क दिया
जाता है कि पूंजीपति कांग्रेस द्वारा अपनाए गए राजनीतिक रास्ते पर निर्णायक प्रभाव
डालने में सक्षम थे। कोई आंदोलन कब शुरू होगा, उसे ज़ारी रखा जाए या वापस लिया जाए, इस तरह के सभी निर्णय पूंजीपति वर्ग की सलाह से लिए जाते थे। इसके जो उदाहरण
दिए गए हैं, वे हैं 1931 में गांधी-इरविन समझौते के
साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना और 1945-47 के बीच दूसरा आंदोलन शुरू न करना। लेकिन ये सारे तर्क सच्चाई को नहीं दर्शाते। साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आर्थिक संरक्षण और वित्तीय स्वायत्तता की मांग केवल पूंजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रख कर नहीं की गई थी, यह ब्रिटिश शासन के शोषण की शिकार देश की जनता की मांग थी। यहां तक कि
वामपंथियों - नेहरू, समाजवादियों और
कम्युनिस्टों - को भी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में इन मांगों के लिए
लड़ना पड़ा और उन्होंने लड़ा भी।
इससे अधिक रोचक बात यह है कि आर्थिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत तब प्रतिपादित किया गया था जब पूंजीपति वर्ग संगठित भी नहीं हुआ था। इसलिए यह मानना सही नहीं है कि आर्थिक मांगों को उठाने के लिए कांग्रेस पर पूंजीपति वर्ग ने दबाव डाला। हां यह सही है कि कांग्रेस पूंजीपतियों से चंदा लेती थी, लेकिन यह कहना ग़लत होगा कि उसने अपनी नीतियों से हटकर पूंजीपतियों के लिए कोई समझौता किया हो। ऐसा कोई सबूत
नहीं है जो यह बताए कि इन फंड्स के ज़रिए बिज़नेसमैन पार्टी की पॉलिसी और
विचारधारा को किसी भी तरह से ऐसे प्रभावित कर पाए जो पार्टी को खुद से मंज़ूर न
हो। कांग्रेस के पास पैसा इकट्ठा करने के और भी विकल्प थे। गांधीजी पर लोगों की इतने श्रद्धा थी कि उनके एक आह्वान पर पूरे देश से पैसे बरसने लगते थे। गांधीजी ने स्पष्ट तौर पर कहा था, “चाहे पूंजीपति वर्ग समर्थन और सहयोग दें या न दें, आज़ादी के लिए देश की जनता के कूच को किसी वर्ग विशेष के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। इस जनांदोलन को पूंजी पर निर्भर नहीं होना चाहिए। यदि पूंजीपति जनांदोलन के लिए आर्थिक मदद देते हैं, तो यह अच्छी बात होगी और इससे लक्ष्य प्राप्ति में मदद मिलेगी।” गैर-चुनावी चरणों में, कांग्रेस के
ज़्यादातर कार्यकर्ता अपने दम पर गुज़ारा करते थे और मेंबरशिप फीस और छोटे दान से
जुटाए गए फंड से रोज़ाना के आंदोलन चलाते थे।
जहाँ तक
पूंजीपतियों द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व वाले आंदोलनों की दिशा तय करने की बात है, तो इस विचार का समर्थन करने के लिए
भी बहुत कम सबूत हैं। कांग्रेस ने औपनिवेशिक राज्य की प्रकृति और उसके मौजूदा
रवैये, लोगों की
संगठनात्मक, राजनीतिक और
वैचारिक तैयारी, जनता की
सहनशक्ति, खासकर जब दमन
का सामना करना पड़ता था, आदि के बारे
में अपनी समझ के आधार पर अपनी रणनीतिक सोच के अनुसार आंदोलन शुरू किए या वापस लिए।
उसने ऐसा पूंजीपति वर्ग के कहने पर नहीं किया। लगभग हर बार जब कांग्रेस ने जन
आंदोलन शुरू किए, जैसे कि
1905-08, 1920-22, 1930, 1932 और 1942 में, तो उसने ऐसा पूरे पूंजीपति वर्ग या
उसके किसी बड़े हिस्से की मंज़ूरी के बिना किया। काफी महत्वपूर्ण बात यह है कि
भारतीय पूंजीपतियों ने कांग्रेस को कभी भी ऐसी पार्टी नहीं माना जो सिर्फ उनके
प्रभाव में हो। इसके विपरीत,
उन्होंने कांग्रेस को एक ओपन-एंडेड संगठन के रूप में देखा, जो एक लोकप्रिय आंदोलन का नेतृत्व
कर रहा था, और इंडियन
मर्चेंट्स चैंबर के सेक्रेटरी जे.के. मेहता के शब्दों में, इसमें 'सभी तरह की राजनीतिक राय और आर्थिक
विचारों वाले लोगों के लिए जगह थी,' और इसलिए, इसे लेफ्ट या राइट किसी भी दिशा में
बदला जा सकता था।
सविनय अवज्ञा
आंदोलन शुरू होने से पहले, भारतीय पूंजीपतियों ने गांधीजी को
सरकार के साथ खुले टकराव से बचने और उसके साथ बातचीत करने के लिए मनाने की कोशिश
की। हालाँकि, गांधीजी के
विचार कुछ और थे। उन्होंने संवैधानिक और राजनीतिक सुधारों पर बात करने के लिए
नवंबर 1930 में लंदन में होने वाले पहले गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने से
इनकार कर दिया। पूंजीपति वर्ग के अधिक समझदार वर्ग ने महसूस किया कि 'वे कांग्रेस के समर्थन के बिना
विदेशी हितों से नहीं लड़ सकते थे और इसलिए गांधीजी से आगे नहीं जा सकते थे...।' इस
प्रकार, सविनय अवज्ञा
आंदोलन के शुरुआती दौर में, पूंजीपति संगठन
FICCI ने कांग्रेस की
बुनियादी मांगों का समर्थन करते हुए कहा कि 'कोई भी संविधान देश को स्वीकार्य नहीं होगा, जिसमें भारतीय व्यापारी समुदाय भी
शामिल है, जो एक
जिम्मेदार भारतीय सरकार को महात्मा गांधी द्वारा बताए गए प्रशासनिक और आर्थिक
सुधारों को लागू करने के लिए पर्याप्त और प्रभावी शक्ति नहीं देता है'।
सविनय अवज्ञा
आंदोलन के शुरुआती दौर में पूंजीपतियों का समर्थन
मिला। हालाँकि, जब 1932 में
सरकार के साथ बातचीत विफल होने के बाद गांधीजी ने आंदोलन फिर से शुरू किया, तो आंदोलन के लिए सामान्य
पूंजीपतियों का समर्थन जारी नहीं रहा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति भारतीय
पूंजीपतियों का रवैया बहुत जटिल था। एक तरफ, वे लंबे समय तक चलने वाले बड़े पैमाने पर सविनय
अवज्ञा आंदोलन से डरे हुए थे,
दूसरी तरफ, उन्होंने अपने
वर्ग और देश के लिए महत्वपूर्ण रियायतें पाने में सविनय अवज्ञा की उपयोगिता, यहाँ तक कि ज़रूरत को भी साफ तौर पर
देखा। जनवरी 1931 में
सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए, जी.डी. बिड़ला ने पुरुषोत्तमदास
को लिखा, 'इसमें कोई शक
नहीं कि हमें अभी जो मिल रहा है, वह पूरी तरह से गांधीजी की वजह से है... अगर
हमें वह हासिल करना है जो हम चाहते हैं, तो मौजूदा आंदोलन को धीमा नहीं पड़ने देना
चाहिए।'
जब, बड़े आंदोलन के काफी समय तक चलने के
बाद आंदोलन को वापस
लेने और समझौता करने की कोशिश की गई तो वे इस बात को लेकर बिल्कुल साफ़ थे कि यह सब
निश्चित रियायतें हासिल करने के बाद ही होगा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दूसरे
चरण के दौरान, पूंजीपति बंटे
हुए थे। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ा और आम लोगों तक पहुंचा, जबकि सरकार ने कोई समझौता करने के
संकेत नहीं दिए, बड़े कारोबारी
वर्ग में फूट पड़ गई। एक समूह,
जिसका नेतृत्व टाटा कर रहे थे, ने खुले तौर पर कांग्रेस का विरोध किया और
मौजूदा हालात में शाही सरकार से जितना हो सके उतना फायदा उठाने की कोशिश की। दूसरा
समूह, जिसका नेतृत्व
अहमदाबाद के मिल मालिक कर रहे थे,
कांग्रेस के साथ हो गया और उसने विदेशी सामानों के बहिष्कार का फायदा उठाकर बॉम्बे
और लंकाशायर दोनों की कीमत पर कपड़े के लिए घरेलू बाज़ार में अपना हिस्सा बढ़ाने' की कोशिश की। यह समूह, और लाला श्री राम के नेतृत्व वाला
समूह, कांग्रेस की
कमज़ोरी के समय भी उसके साथ मज़बूती से खड़ा रहा। एक और समूह, जिसका नेतृत्व बिड़ला और ठाकुरदास
कर रहे थे, ने कांग्रेस और
औपनिवेशिक सरकार के बीच बिचौलिए की भूमिका निभाने की कोशिश की। बिड़ला ने ब्रिटिश
सरकार से आग्रह किया कि वह समझे कि 'गांधीजी और उनके जैसे लोग न केवल भारत के दोस्त
हैं, बल्कि ग्रेट
ब्रिटेन के भी दोस्त हैं,
और गांधीजी शांति और व्यवस्था के पक्ष में सबसे
बड़ी ताकत हैं। भारत में वामपंथी गुट को काबू में रखने के लिए सिर्फ़ वही
ज़िम्मेदार हैं।'
जहां तक आंदोलन पर पूंजीपति वर्ग के प्रभाव का प्रश्न है, तो यह समझ लेना चाहिए कि आंदोलन शुरू करने या वापस लेने का निर्णय कांग्रेस का स्वतंत्र निर्णय हुआ करता था। समय की मांग, सत्ता की दमनकारी नीति, उसकी ताकत, आंदोलन में जनता की हिस्सेदारी आदि ऐसे मुद्दे थे जिन पर पूरी तरह सोच विचार कर के ही कांग्रेस निर्णय लेती थी। अधिकांश जन-आंदोलन छेड़ने से पहले पूंजीपति वर्ग तो दूर कांग्रेस के प्रभावशाली नेता की भी मंजूरी नहीं ली गई थी। हां आंदोलन छिड़ जाने के बाद पूंजीपति वर्ग अपनी प्रतिक्रिया देता था, जो समय के साथ समर्थन में बदल गया। पूंजीपति वर्ग
भले ही किसी समय बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन का कितना भी विरोधी
रहा हो, उसने इसे दबाने
में कभी भी औपनिवेशिक सरकार का साथ नहीं दिया। पूंजीपति वर्ग ने कभी भी कांग्रेस को अपनी पार्टी नहीं समझा लेकिन चाहे परिस्थिति कितनी भी विकट क्यों न हो इस वर्ग ने कभी भी साम्राज्यवाद का हाथ नहीं थामा। असल में, पूंजीपतियों ने लगातार सरकार पर
दबाव डाला कि वह दमन रोके, कांग्रेस और
प्रेस पर लगा बैन हटाए, राजनीतिक
कैदियों को रिहा करे और किसी भी समझौते के पहले कदम के तौर पर अध्यादेशों के ज़रिए
मनमाने शासन को बंद करे। पूंजीपति वर्ग इस बात को भी समझता था कि निरंतर सुधार कार्यक्रमों ज़ारी रखने
देश के सामाजिक समरसता के लिए बहुत ज़रूरी है। FICCI के अध्यक्ष जी.एल. मेहता ने 1943 में तर्क दिया था, कि 'सुधारों का एक लगातार... कार्यक्रम' सामाजिक उथल-पुथल के खिलाफ सबसे
प्रभावी उपाय था।’ इसका प्रयास 'समाजवादी आंदोलन में जो कुछ भी सही और संभव है' उसे शामिल करना था और यह देखना था
कि 'पूंजीवाद अपनी
किसी भी ज़रूरी विशेषता को छोड़े बिना समाजवादी मांगों को किस हद तक समायोजित किया
जा सकता है।' इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूंजीपतियों ने 1942 में ‘आर्थिक विकास समिति’ का गठन किया। इसके तहत भूमि सुधार और अनेक कल्याणकारी योजना पर काम किया गया। भारतीय पूंजीपति वर्ग भले ही समाजवाद विरोधी रहा हो, लेकिन वह साम्राज्यवाद समर्थक नहीं था। वह अपने दीर्घकालीन हितों को पहचानता था। कांग्रेस की ताकत और जनता के बीच उसकी लोकप्रियता का उसे एहसास था। यह वर्ग भारतीय राष्ट्रवाद का दामन थामे रहा।
उन्नीसवीं सदी
के दौरान, भारतीय
पूंजीपति काफी कमजोर थे और ब्रिटेन से मशीनरी और टेक्नीशियन के आयात को आसान बनाने
के लिए औपनिवेशिक सरकार से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे। हालांकि राष्ट्रवादियों
ने भारतीय पूंजीपति वर्ग के पक्ष में मजबूत रुख अपनाया, लेकिन भारतीय पूंजीपतियों ने
राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन नहीं किया। शांतिपूर्ण माहौल में पूंजीपति राष्ट्रीय
महत्व के महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुले तौर पर कांग्रेस का समर्थन करते थे, लेकिन जन आंदोलनों के समय वे बहुत
हिचकिचाते थे और सरकार का साथ देते हुए दिखते थे। 1920 के दशक के आखिर तक, भारतीय पूंजीपति वर्ग का प्रमुख
हिस्सा कांग्रेस को सपोर्ट करने लगा था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूंजीपतियों ने
कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को किसी भी महत्वपूर्ण तरीके से प्रभावित
किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन इस वर्ग द्वारा अपनाए गए किसी भी निर्णायक तरीके से
प्रभावित नहीं हुआ था, और न ही यह
किसी भी मायने में इसके सहयोग पर बहुत ज़्यादा निर्भर था। असल में, यह पूंजीपति वर्ग ही था जिसने
मौजूदा स्वायत्त राष्ट्रीय आंदोलन पर लगातार उसके प्रति एक रणनीति बनाने की कोशिश
करके प्रतिक्रिया दी। औपनिवेशिक सरकार की खराब आर्थिक नीतियों के खिलाफ
प्रतिक्रिया करते हुए, भारतीय
उद्योगपतियों ने उपनिवेशवाद का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस की ओर देखा। पूंजीपति
वर्ग कुल मिलाकर राष्ट्रवादी खेमे में रहा और इसने निश्चित रूप से किसी भी स्टेज
पर राष्ट्रीय आंदोलन के फैसले नहीं लिए। भारतीय पूंजीपति वर्ग समाजवाद-विरोधी और बुर्जुआ
था, लेकिन वह
साम्राज्यवाद-समर्थक नहीं था। कांग्रेस को पूंजीपतियों का पूरा समर्थन नहीं मिला
क्योंकि कांग्रेस ने अपने राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे को पूरी तरह से पूंजीपतियों
के पक्ष में नहीं रखा था। पूंजीपति किसी भी ऐसे लंबे आंदोलन
के भी खिलाफ थे जो सरकार को नाराज
करे और व्यावसायिक गतिविधियों में बाधा डाले।
कांग्रेस ने
अपनी तरफ से सभी वर्गों का आंदोलन शुरू करने की कोशिश में पूंजीपतियों को साथ लेने
की कोशिश की। लेकिन वह बुनियादी मुद्दों पर समझौता करने को तैयार नहीं थी। इसलिए, हालांकि बड़े बिजनेसमैन गांधीवादी
जन आंदोलनों को लेकर चिंतित थे,
कांग्रेस पूंजीपतियों की कड़ी आपत्तियों के बावजूद आगे बढ़ी। हालांकि कई
पूंजीपतियों को लगता था कि गांधीजी उनके लिए काम करेंगे, लेकिन गांधीजी के पास उपनिवेशवाद के
खिलाफ लड़ने के लिए अपनी खुद की योजनाएं और विचार थे। भारतीय पूंजीपति वर्ग का
कांग्रेस के साथ, और खासकर गांधीजी
के साथ, संबंध आम तौर
पर सौहार्दपूर्ण था। भारतीय पूंजीपति वर्ग की अपने लंबे समय के हितों को पहचानने
में परिपक्वता थी। कुछ पूंजीपति अपनी व्यक्तिगत हैसियत से राष्ट्रीय आंदोलन में
शामिल हुए और जेल गए, जैसे जमनालाल
बजाज, वाडीलाल मेहता, सैमुअल एरन और लाला शंकर
लाल। कुछ अन्य जैसे जी.डी. बिड़ला, अंबालाल साराभाई और वालचंद हीराचंद
ने कांग्रेस फंड में दिल खोलकर योगदान दिया। पूंजीपतियों ने अपनी खुद की एक अलग पार्टी बनाने
से भी परहेज किया क्योंकि यह उल्टा असर डाल सकती थी। इसके बजाय, उन्होंने कांग्रेस में दक्षिणपंथी
गुट का ज़ोरदार समर्थन किया,
जो उनकी राय में, संघर्ष को
संवैधानिक सीमाओं के भीतर रखकर उनके हितों की रक्षा करेगा और जो कांग्रेस के अंदर
और बाहर के कट्टरपंथी तत्वों का विरोध करेगा। 1940 के दशक में, जब यह साफ हो
गया था कि कांग्रेस सत्ता में आएगी, तो उन्होंने खुलकर कांग्रेस और उसकी
नीतियों का साथ दिया। कांग्रेस के स्वरूप और भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के साथ
उसके संबंधों को उसने सही ढंग से समझा। वामपंथियों से धमकी मिलने या साम्राज्यवाद
से लुभाए जाने पर भी इस वर्ग ने भारतीय राष्ट्रवाद का साथ नहीं छोडा। अपने वर्ग
हितों को सामाजिक हितों के रूप में पेश करने की उसकी क्षमता अद्वितीय थी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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