राष्ट्रीय आन्दोलन
402. कांग्रेस के अंदर का वाम पक्ष :
जवाहरलाल नेहरू
प्रवेश:
राष्ट्रीय आंदोलन में लगातार वैचारिक बदलाव
होते रहे। जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय आन्दोलन को एक
समाजवादी दृष्टि प्रदान की। 1929 के बाद भारत में वे समाजवाद और समाजवादी विचारों
के प्रतीक बन गए। उनका मानना था कि
स्वतंत्रता की परिभाषा केवल राजनीतिक शब्दावली में नहीं की जा सकती, बल्कि इसके
साथ सामाजिक और आर्थिक अंतर्वस्तु का होना ज़रूरी था। नेहरू को सितंबर 1923 में अखिल भारतीय कान्ग्रेस
कमेटी के महासचिव के रूप में
नियुक्त किया गया था। वर्ष 1927 तक उन्होंने दो
बार कान्ग्रेस पार्टी के महासचिव के रूप में
कार्य किया। सबसे पहले वे 1929 के लाहौर
कांग्रेस में अध्यक्ष बने। फिर वे 1936 और 1937 में भी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने
गए। गांधीजी के बाद वे कांग्रेस के सबसे अधिक लोकप्रिय नेता हुए। वर्ष 1929-31
में उन्होंने ‘मौलिक अधिकार और आर्थिक नीति’ नामक एक
प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया, जिसमें कान्ग्रेस के मुख्य लक्ष्यों और देश के
भविष्य को रेखांकित किया गया था। अपनी पुस्तकों, भाषणों और
लेखों के द्वारा उन्होंने समाजवादी विचारों को प्रचारित किया। वे कहा करते थे कि ‘यदि आम आदमी को
आर्थिक आज़ादी हासिल होती है तभी राजनीतिक आज़ादी सार्थक हो सकती है’। वे मानते थे
कि ‘राजनीतिक आज़ादी के बाद समाजवादी
समाज की स्थापना की जानी चाहिए’। अपने इन
विचारों के कारण उन्होंने उस समय की समूची युवा पीढ़ी को समाजवादी विचारों के प्रति
आकर्षित किया। ऐसा कहा जाता है कि “जवाहरलाल नेहरू ने, एक घोषित
समाजवादी होते हुए भी, एक यथार्थ व्यवहारवादी की तरह, एक नवीन भारत के निर्माण के
लिए भवन शिला-खण्डों को उपलब्ध करवाने पर ध्यान केन्द्रीत किया।” आइए
इसका परीक्षण करें।
ब्रुसेल्स अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भागीदारी
सबसे पहले वे
1920 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन के संपर्क में आए। जून 1920 में, बाबा रामचंद्र ने जौनपुर और प्रतापगढ़ जिलों से
कुछ सौ किसानों को इलाहाबाद ले गए। वहाँ वे गौरी शंकर मिश्रा और जवाहरलाल नेहरू से
मिले और उनसे गाँवों में जाकर किसानों के रहने की स्थिति को खुद देखने के लिए कहा।
इसका नतीजा यह हुआ कि जून और अगस्त के बीच, जवाहरलाल नेहरू ने ग्रामीण इलाकों में कई बार
दौरा किया और किसान सभा आंदोलन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए। अक्टूबर 1920 तक, नेहरू, मिश्रा
और राम चंद्र के नेतृत्व में अवध किसान सभा की स्थापना हुई। किसानों से
संपर्क में आने के कारण उनके मन में आर्थिक सवालों के प्रति दिलचस्पी पैदा हुई।
1922 में वे जेल गए। जेल में उन्होंने रूस और अन्य देशों की क्रांतियों का अध्ययन
किया। फरवरी 1927 में उन्होंने ‘उपनिवेशवादी दमन और साम्राज्यवाद’ के विरोध में
ब्रुसेल्स में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लिया। इस सम्मेलन का आयोजन
एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के उन देशों के
क्रांतिकारियों और निर्वासित राजनीतिकों ने किया था, जहां की जनता
साम्राज्यवादी शक्तियों के आर्थिक और राजनीतिक शोषण से पीड़ित थी। ब्रुसेल्स कांग्रेस ने
साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एक समान योजना को समन्वित करना चाहा। ब्रुसेल्स सम्मेलन नेहरू की राजनीतिक विचारधारा के विकास में मील का पत्थर साबित
हुआ। यहाँ वे विश्व के तमाम साम्यवादियों
और उपनिवेशवाद विरोधी महान नेताओं के संपर्क में आए। इस यात्रा ने नेहरू के
राजनीतिक विकास तथा विदेशी मामलों की उनकी समझ को काफी गहरा प्रभावित किया।
इस अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस ने नेहरू को समाजवादी और तीसरी दुनिया की राष्ट्रवादी
शक्तियों के बीच साम्राज्यवाद विरोधी एकजुटता की दृष्टि दी। इस कांग्रेस में साम्राज्यवाद
विरोधी लीग की स्थापना हुई। नेहरू को साम्राज्यवाद
विरोधी और राष्ट्रीय स्वाधीनता समर्थक लीग का मानद अध्यक्ष नियुक्त किया गया,
जिसका आरंभ ब्रुसेल्स में हुआ था। ब्रुसेल्स सम्मेलन ने साम्राज्यवाद विरोधी और
राष्ट्रीय स्वाधीनता समर्थक संघ स्थापित करने का निर्णय किया। नेहरू इस
संघ की कार्यकारी परिषद् के सदस्य चुने गए। उसी वर्ष नवंबर
में उन्होंने रूस का दौरा किया। वहाँ वे सोवियत समाज से काफी प्रभावित हुए। वहाँ
से वे आत्मसजग क्रांतिकारी होकर भारत लौटे थे। उन्होंने सोवियत संघ पर एक पुस्तक
प्रकाशित की। ब्रुसेल्स और मास्को यात्रा से उन्हें विश्वास
हो गया कि भारत के लिए समाजवादी व्यवस्था की
आवश्यकता है।
लाहौर कांग्रेस में समाजवादी होने की घोषणा
दिसम्बर 1927 में जवाहर लाल
नेहरू उस समय मद्रास पहुंचे जब वहां कांग्रेस
का अधिवेशन हो रहा था। भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता अथवा डोमीनियन दर्जा
दिए जाने के विवाद को जवाहर लाल नेहरू ने उस समय एक नई दिशा दी
जब उन्होंने मद्रास में कांग्रेस की बैठक में 27 दिसंबर 1927 को उस प्रसिद्ध
संकल्प को प्रस्तुत किया जिसमें कहा गया था- 'कांग्रेस घोषणा
करती है कि भारतीय जनता का ध्येय पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त करना है'। भारत की
स्वतंत्रता के लिए नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस के साथ सहयोग का हाथ बढाया। दोनों
चाहते थे कि पूर्ण स्वराज के लिए समाज के आर्थिक ढाँचे को समाजवादी रूप देने के
लिए संघर्ष किया जाए। जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने
पूर्ण स्वराज की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने के लिए सबसे अधिक काम किया था, को कांग्रेस के
लाहौर अधिवेशन के लिए अध्यक्ष नामित किया गया था। लाहौर में हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू का
समाजवादी सिद्धान्त सार्वजनिक रूप
से मुखरित हुआ। नेहरू ने अपने अध्यक्षीय भाषण में घोषणा की, "अब हमारे पास
इस देश को विदेशी शासन से मुक्त करने की खुली साजिश है और आप, कामरेड, और हमारे सभी
देशवासियों को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाता है।" आगे यह बताते
हुए कि मुक्ति का मतलब केवल विदेशी जुए को फेंकना नहीं है, उन्होंने कहा, “मैं समाजवादी
हूँ। मेरा उस व्यवस्था में विश्वास नहीं है जो उद्योगों में आधुनिक राजाओं को जन्म
देती है। यदि इस देश को अपनी गरीबी और असमानता समाप्त करनी है तो भारत को एक समग्र
समाजवादी कार्यक्रम अपनाना होगा।” नेहरू का मानना था कि भारत सामाजिक और आर्थिक
समानता के महान लक्ष्य की तरफ जा रहा है। उनके अनुसार ‘वास्तविक नागरिक
आदर्श समाजवादी यानी साम्यवादी आदर्श है’।
जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक
समाजवादी नज़रिया दिया और 1929 के बाद भारत में समाजवाद और समाजवादी विचारों के
प्रतीक बन गए। यह धारणा कि आज़ादी को सिर्फ राजनीतिक शब्दों में परिभाषित नहीं
किया जा सकता, बल्कि उसमें एक सामाजिक-आर्थिक पहलू भी होना
चाहिए, उनके नाम के साथ तेज़ी से जुड़ने लगी।
जवाहर लाल
नेहरू ने 1930 और 1935 के बीच चार
वर्ष जेल में बिताए। कारावास के एकाकीपन से उन्हें चिंतन, आत्म-मंथन और
विगत घटनाचक्र पर मनन करने के अवसर के साथ-साथ
स्वाध्याय के लिए भी काफी समय मिला।
एक वैचारिक विकल्प के रूप
में, जेल में जवाहरलाल का बौद्धिक रूप से कट्टरपंथी
बनना दिखता है। जेल में रहते
हुए नेहरू ने अपने लेखों के माध्यम से अपने बौद्धिक जुझारूपन को लोगों के सामने
प्रस्तुत किया। ग्लिंप्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री (1934), औटोबायोग्राफी
(1935), ह्विदर इण्डिया (1934) में लिखे गए लेखों में उन्होंने गांधीजी से
अपने सैद्धांतिक मतभेदों को प्रस्तुत किया। ये रचनाएं नेहरू की मार्क्सवादी समाजवादी विचारों में
रुचि और आंशिक प्रतिबद्धता की ऊँचाई को दर्शाते हैं। अपनी किताबों (आत्मकथा और
विश्व इतिहास की झलकियाँ), लेखों और भाषणों में, नेहरू ने समाजवाद के विचारों का प्रचार किया और
घोषणा की कि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब वह जनता की आर्थिक मुक्ति की
ओर ले जाए; इसलिए, इसके बाद एक समाजवादी समाज की स्थापना होनी
चाहिए। इस तरह नेहरू ने युवा राष्ट्रवादियों की पूरी पीढ़ी को ढाला और उन्हें
समाजवादी सोच अपनाने में मदद की। उन्होंने भारत की दरिद्रता तथा आर्थिक विषमता के निवारण के लिए
समाजवादी पद्धति को अनुकरणीय माना। वे देश में हो
रहे आर्थिक शोषण को समाजवादी प्रकिया से
समाप्त करना चाहते थे। इसके द्वारा
उन्होंने राष्ट्रीय लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के साथ
जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। 1935 से राष्ट्रवादी राजनीति में वामपंथी प्रभाव एक बार फिर
तेज़ी से बढ़ने लगा। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व वाले वामपंथी
राष्ट्रवादियों ने अब कांग्रेस और अन्य जन संगठनों के भीतर एक शक्तिशाली वामपंथी
गठबंधन बनाया। वह भारत में नई आर्थिक समाज की
स्थापना करने के लिए परिवर्तन एवं विकास का मार्ग अपनाना चाहते
थे परन्तु यह परिवर्तन शक्ति के द्वारा लाने का विचार उनका नहीं था। वह शांतिपूर्ण उपायों से
सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन चाहते थे। वे भारत में
समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए लोकतंत्र को अनिवार्य शर्त मानते थे। वे जनता को जागृत कर उन्हें
समाजवाद के प्रति निश्चित लोकमत का संचार करना
चाहते थे, ताकि परिवर्तन की प्रकिया क्रमिक तथा स्वाभाविक रूप
से पूर्ण हो सके। साथ ही हिन्दू संप्रदायवाद की कड़ी आलोचना की। नेहरू ने 'व्हिदर इंडिया?' के रूप में प्रकाशित पत्रों और लेखों में गांधीजी
के साथ अपने सैद्धांतिक मतभेदों को साफ किया, बार-बार राष्ट्रवादी उद्देश्यों को कट्टरपंथी
सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया और हिंदू
सांप्रदायिकता पर भी कड़ा हमला किया। लेकिन नेहरू गांधीजी से अपने
संबंधों को पूरी तरह से तोड़ नहीं पाए। उन्हें कोई कारण नज़र नहीं आया कि उन्हें कांग्रेस छोड़कर
मैदान सामाजिक प्रतिक्रियावादियों के लिए खाली क्यों छोड़ना चाहिए। गांधीजी भी
नेहरू के रवैये से विशेष चिंतित नहीं थे। उन्होंने कहा था, “उनके (नेहरू
के) कम्युनिस्ट विचारों से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है।”
वामपंथी विचारों से कांग्रेस को जोड़ना
1928 में, जवाहरलाल ने सुभाष के साथ मिलकर इंडिपेंडेंस
फॉर इंडिया लीग का गठन किया, ताकि पूर्ण आज़ादी और 'समाज की आर्थिक संरचना में समाजवादी बदलाव' के लिए लड़ाई लड़ी जा सके। समाजवाद के प्रति
नेहरू की प्रतिबद्धता 1933-36 के दौरान ज़्यादा साफ़ और तेज़ रूप में सामने आई। अक्टूबर
1933 में 'भारत किधर जा रहा है' (Whither India ) सवाल का जवाब देते हुए, उन्होंने
लिखा: 'निश्चित रूप से सामाजिक और आर्थिक समानता के
महान मानवीय लक्ष्य की ओर, राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के और वर्ग द्वारा वर्ग
के सभी शोषण को खत्म करने की ओर।' और
दिसंबर 1933 में उन्होंने लिखा: 'सच्चा
नागरिक आदर्श समाजवादी आदर्श है, साम्यवादी
आदर्श है।'
जवाहरलाल नेहरू
1936 और 1937 में लगातार दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। 1936
के लखनऊ कांग्रेस में उन्होंने कांग्रेस के उद्देश्य के रूप में समाजवाद की
स्वीकृति की वकालत करते हुए कहा था, “मुझे पक्का
विश्वास हो चला है कि विश्व की और भारत की समस्याओं के समाधान की एक मात्र कुंजी
समाजवाद है। ... मुझे
समाजवाद के अलावा भारतीय लोगों की गरीबी, भारी बेरोज़गारी, गिरावट और अधीनता को खत्म करने का कोई रास्ता
नहीं दिखता।” नेहरू ने लखनऊ में
साफ़ तौर पर कहा कि वह समाजवाद शब्द का इस्तेमाल 'किसी अस्पष्ट मानवतावादी तरीके से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक अर्थ में' कर रहे हैं’। नेहरू को उम्मीद थी कि कांग्रेस को एक असली
साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त लोकप्रिय मोर्चा में बदला जा सकता है, और उन्होंने पहले कदम के तौर पर ट्रेड यूनियनों
और किसान सभाओं की कॉर्पोरेट सदस्यता का सुझाव दिया।
इन वर्षों के दौरान, नेहरू ने वर्ग
विश्लेषण और वर्ग संघर्ष की भूमिका पर भी ज़ोर दिया। उन दिनों
उन्होंने वर्गों के संघर्ष को अस्वीकार किए जाने और ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को
प्रस्तुत करने के कारण गांधीजी की आलोचना की थी। लेकिन साथ ही
भारतीय समाज में गांधीजी ने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उसकी अपनी आत्मकथा
में नेहरू ने सराहना भी की थी। गांधीजी का अपने वामपंथी आलोचकों से बचाव करते हुए, जवाहरलाल ने जनवरी 1936 में लिखे एक लेख में
तर्क दिया कि 'गांधीजी ने भारत में सबसे महत्वपूर्ण
क्रांतिकारी भूमिका निभाई है क्योंकि वे जानते थे कि वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों का
सबसे अच्छा उपयोग कैसे किया जाए और वे जनता के दिल तक पहुंच सकते थे; जबकि अधिक उन्नत विचारधारा वाले समूह बड़े
पैमाने पर हवा में काम कर रहे थे।' इसके अलावा, 'गांधीजी के कार्यों और शिक्षाओं ने अनिवार्य
रूप से जन चेतना को जबरदस्त रूप से बढ़ाया और सामाजिक मुद्दों को महत्वपूर्ण
बनाया। और निहित स्वार्थों की कीमत पर, जहां भी आवश्यक हो, जनता को ऊपर उठाने पर उनके जोर ने राष्ट्रीय
आंदोलन को जनता के पक्ष में एक मजबूत दिशा दी है।'
नेहरू का मानना था कि 'कांग्रेस का अधिकांश हिस्सा अस्पष्ट
केंद्रवादियों से बना था, कि गांधीजी न केवल उनका प्रतिनिधित्व करते थे बल्कि किसी भी
वास्तविक व्यापक जन आंदोलन के लिए भी आवश्यक थे, कि किसी भी कीमत पर वामपंथियों को उनसे या
केंद्रवादियों से झगड़ा नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी रणनीति केंद्र को वामपंथ की ओर
खींचने की होनी चाहिए - जिसके लिए संभावनाएं मौजूद थीं, खासकर जहां तक गांधीजी का सवाल था।' नेहरू को विश्वास था कि कांग्रेस जनों का
बहुसंख्यक मध्यमार्गी था। गांधीजी न सिर्फ इनका प्रतिनिधित्व करते थे बल्कि किसी
भी व्यापक जन-आन्दोलन के लिए उनका होना आवश्यक था। नेहरू ने राजनीतिक और
साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को तब तक प्रमुख स्थान दिया जब तक भारत पर विदेशी
शक्ति का शासन था। वे मानते थे कि राष्ट्रवाद और राजनीतिक स्वतंत्रता का
प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती है और सामाजिक स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व समाजवाद
करता है। इन दोनों को ज़ारी रखना समाजवादियों का लक्ष्य होना चाहिए। अपने इसी
विचारधारा के कारण नेहरू ने कोई ऐसा संगठन बनाने का प्रस्ताव नहीं रखा जो कांग्रेस
से अलग हो, जो गांधीजी से कोई नाता ही न रखे। वे कांग्रेस को समाजवादी विचारधारा
से प्रभावित करना चाहते थे। वे मानते थे कि कांग्रेस को समाजवादी दिशा में
रूपांतरण के लक्ष्य को कांग्रेस के झंडे के नीचे रहकर और किसानों और मज़दूरों को इस
संगठन में शामिल करके ही पाया जा सकता है। नेहरू वामपंथी को राष्ट्रीय आन्दोलन की
मुख्य धारा से किसी भी हालत में अलग नहीं होने देना चाहते थे।
कांग्रेस का साथ देना ज़रूरी
सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस
ले लिए जाने के कारण वामपंथियों में नाराज़गी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन की वापसी के
बाद, राष्ट्रवादियों की भविष्य
की रणनीति पर बहस हुई। गांधीजी ने उन्हें बताया कि आन्दोलन को वापस लेना समय का
तकाज़ा था। इसका मतलब साम्राज्यवाद से समझौता या राजनीतिक अवसरवादी ताक़तों के सामने
समर्पण नहीं है। एम.ए. अंसारी, आसफ अली, भूलाभाई देसाई, एस. सत्यमूर्ति और बी.सी. रॉय आदि नेता चाहते थे
कि केंद्रीय विधानमंडल के चुनावों (1934 में होने वाले) में एक संवैधानिक संघर्ष
और भागीदारी होनी चाहिए। कांग्रेस के भीतर एक मजबूत वामपंथी प्रवृत्ति, जिसका प्रतिनिधित्व नेहरू कर रहे थे, निलंबित सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्थान पर
रचनात्मक कार्य और परिषद प्रवेश दोनों के प्रति आलोचनात्मक थी, क्योंकि यह
राजनीतिक जन कार्रवाई को दरकिनार कर देगा और उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष के मुख्य
मुद्दे से ध्यान हटा देगा। इस वर्ग ने गैर-संवैधानिक जन संघर्ष को फिर से शुरू
करने और जारी रखने का समर्थन किया क्योंकि निरंतर आर्थिक संकट और लड़ने के लिए
जनता की तत्परता के कारण स्थिति अभी भी क्रांतिकारी थी। नेहरू ने कहा, "विश्व के लोगों के सामने
भारतीय लोगों के संघर्ष का मूल लक्ष्य पूंजीवाद का उन्मूलन और समाजवाद की स्थापना
है।" उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन की वापसी और परिषद प्रवेश को
"एक आध्यात्मिक हार", "आदर्शों का समर्पण" और "क्रांतिकारी
से सुधारवादी मानसिकता की वापसी" माना। उन्होंने सुझाव दिया कि किसानों
और श्रमिकों, और जमींदारों और
पूंजीपतियों की आर्थिक और वर्गीय मांगों को लेकर जनता को उनके वर्ग संगठनों-किसान
सभाओं और ट्रेड यूनियनों में संगठित किया जाए। उन्होंने तर्क दिया कि इन वर्ग
संगठनों को कांग्रेस के साथ संबद्ध होने की अनुमति दी जानी चाहिए, इस प्रकार इसकी नीतियों और गतिविधियों को
प्रभावित किया जा सकता है। उन्होंने कहा, जनता के वर्ग संघर्ष को शामिल किए बिना कोई
वास्तविक साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष नहीं हो सकता। नेहरू सहानुभूति रखते थे, लेकिन उन्होंने कभी औपचारिक रूप से C.S.P. जॉइन नहीं किया। वामपंथी खेमे को प्रसन्न करने के लिए लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन
में राजगोपालाचारी जैसे नेताओं के विरोध के बावजूद गांधीजी ने नेहरू का समर्थन
किया।
संघर्ष, समझौता और फिर संघर्ष की नीति का विरोध
कांग्रेस के अन्दर सोशलिस्ट
गुट, जिसके नेता नेहरू थे, दिन-ब-दिन जोर पकड़ता जा
रहा था। यह गुट गांधीजी की नीतियों के खिलाफ था। नेहरू गांधीजी के ‘संघर्ष,
समझौता और फिर संघर्ष’ की नीति का भी विरोध करते थे। वे कहते थे हमें
औपनिवेशिक सत्ता से लगातार संघर्ष करते रहना होगा। वे मानते थे कि स्थायी संघर्ष
के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लिए जाने का
विरोध किया। उनका कहना था संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है, समझौता और चापलूसी के लिए
कोई जगह नहीं है। वे ‘सतत संघर्ष से विजय’ के सिद्धांत में विश्वास रखते
थे। लेकिन गांधीजी के विशाल व्यक्तित्व के कारण यह गुट अपने को बंधा हुआ पाता था।
नेहरू और समाजवादी गुट ने राष्ट्रीय हितों को तवज्जो दिया। नेहरू ने अपने समर्थकों
को स्पष्ट कर दिया था कि ‘सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की लड़ाई शुरू करने से पहले
अंग्रेजों को खदेड़ना ज़रूरी है। इसके लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में कांग्रेस
का साथ देना ज़रूरी है। यह लड़ाई कांग्रेस के साथ ही मिलकर लड़ना होगा, क्योंकि कांग्रेस ही एक
मात्र जनसंगठन है’।
दीर्घकालीन रणनीति
फरवरी 1937 में चुनाव हुए।
सत्ता में साझेदारी के प्रश्न को लेकर विवाद छिड़ गया। जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, कांग्रेस सोशलिस्ट सत्ता
में भागीदारी के खिलाफ थे। नेहरू का मानना था कि सत्ता में हिस्सेदारी का मतलब
होगा 1935 के अधिनियम को स्वीकार करना। दूसरी बात यह कि सत्ता में साझेदारी से
जनांदोलन का क्रांतिकारी चरित्र ख़त्म हो जाएगा। नेहरू और वामपंथियों ने इस समस्या
को सुलझाने के लिए जो रणनीति अपनाई वह थी संसद में घुसकर सरकारी क़दमों का विरोध
करना। ऐसे हालात उत्पन्न कर देना की अधिनियम पर अमल ही न हो पाए। उन्होंने
दीर्घकालीन रणनीति यह बनाई कि किसानों और मज़दूरों को संगठित किया जाए। कांग्रेस को
समाजवादी राह पर ले जाया जाए और आन्दोलन को फिर से शुरू किया जाए।
उपसंहार
नेहरू के व्यक्तित्व में
व्यवहारिकता और आदर्शवादिता दोनों गुणों का समन्वय था। नेहरू धर्म के प्रति निरपेक्ष
थे। नेहरू के विचारों में पश्चिमी सभ्यता व आधुनिकता का समावेश था। अपने
उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संवैधानिक नियमों के अनुरूप दक्षता पूर्वक कार्य
करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। राष्ट्रवाद के प्रति उनकी मानसिकता
संकीर्ण नहीं थी। एक तरफ वे गांधीवादी विचारों से प्रेरित थे वहीँ दूसरी तरफ
समाजवादी विचारों के वाहक थे। वे राष्ट्रीयता के गुणों को भी भली-भांति समझते थे।
इसीलिए उन्होंने देश को एक संतुलित, संयमशील एवं आदर्श
राष्ट्रवाद के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने एक घोषित समाजवादी
होते हुए भी, एक यथार्थ व्यवहार वादी की तरह, एक नवीन भारत के निर्माण के लिए भवन
शिला-खण्डों को उपलब्ध करवाने पर ध्यान केन्द्रीत किया। उन्होंने
सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की लड़ाई शुरू करने से पहले अंग्रेजों को भारत से बाहर
करने की लड़ाई को प्राथमिकता दी। इसके लिए उन्हें लगा कि साम्राज्यवाद विरोधी
संघर्ष में कांग्रेस का साथ देना ज़रूरी है। उन्होंने अपने अनुयाइयों को समझाया कि
यह लड़ाई कांग्रेस के साथ ही मिलकर लड़ना होगा, क्योंकि कांग्रेस ही एक
मात्र जनसंगठन है, जिसका जनता में व्यापक जनाधार है। उनकी दृष्टि में राजनीतिक
लोकतंत्र अपने आप में साध्य नहीं बल्कि वह भारत के लाखों करोड़ों लोगों के
दुख-दर्द और गरीबी दूर करने का साधन मात्र था। उन्होंने लोकतंत्र के साथ
स्वतंत्रता और समानता के अटूट संबंध को स्वीकार किया। उनका मानना था कि समानता के
बगैर स्वतंत्रता और लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है। नेहरू का मानना था कि
औद्योगीकरण भारत की विकट और व्यापक गरीबी का एकमात्र समाधान था। नेहरू समाज को ऊपर
उठाने और सुधारने के लिए आधुनिक राज्य की शक्तियों में विश्वास करते थे। गांधीजी
ने नेहरू को अपने उत्तराधिकारी के विकल्प के रूप में पसंद किया क्योंकि उन्होंने
भारत के बहुलवादी, समावेशी विचार को सबसे
भरोसेमंद रूप से प्रतिबिंबित किया, जिसके लिए महात्मा खुद खड़े थे। किसी राष्ट्र को ऐसा सौभाग्य बार-बार नहीं मिलता कि उसका
नेतृत्व नेहरू जैसे ओजस्वी व्यक्तित्व के हाथ में हो जिसमें
स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, राजनेता, दार्शनिक, सर्वहितैषी और एक राष्ट्र
निर्माता के सभी गुण मौजूद हों।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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