बुधवार, 31 दिसंबर 2025

414. प्रान्तों में कांग्रेस सरकारों द्वारा पद त्याग

राष्ट्रीय आन्दोलन

414. प्रान्तों में कांग्रेस सरकारों द्वारा पद त्याग

1939

द्वितीय विश्व-युद्ध के प्रति कांग्रेस का रुख़ द्वन्द्वात्मक था। एक तरफ़ उसकी सहानुभूति ब्रिटेन और मित्रराष्ट्रों के प्रति थी, तो दूसरी तरफ़ उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से असंतोष भी था। कांग्रेस नाज़ियों और फासिस्टों को उन्नति और स्वतंत्रता का शत्रु मानती थी। इसलिए कांग्रेस ने घोषणा की कि अगर इस युद्ध का उद्देश्य साम्राज्यवाद और फासिज़्म को समाप्त कर स्वतंत्रता और जनतंत्र की स्थापना करना था, तो भारत युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने को तैयार है। 1935 के संविधान के तहत देश में कांग्रेस सरकार आठ प्रांतों में काम कर रही थी। विलायत की सरकार ने युद्ध में शामिल होने के मामले में कांग्रेस का मंतव्य जानने की ज़रूरत ही नहीं समझी। इस ग़रीब देश की धन-संपत्ति युद्ध में झोंक दिया गया। हज़ारों की संख्या में देश के नौजवानों को यूरोप की भूमि पर जर्मन तोपों के सामने खड़ा कर दिया गया। वह भी ब्रिटिश सल्तनत की रक्षा के लिए! सहमति तो दूर की बात थी, चर्चिल सरकार ने पूछने की औपचारिकता भी नहीं दिखाई।

17 अक्टूबर, 1939 को लॉर्ड लिनलिथगो ने एक घोषणा की, जिसमें उसने अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम लीग के भारत के मुसलमानों की ओर से बोलने के दावे को स्वीकार कर लिया। युद्ध के उद्देश्यों के बारे में, उसने ब्रिटिश प्रधानमंत्री की घोषणा को दोहराया। भारत की आज़ादी के बारे में, उसने इस वादे को दोहराया कि डोमिनियन स्टेटस भारत में ब्रिटिश नीति का लक्ष्य था। इस उद्देश्य के लिए, 1935 के अधिनियम पर युद्ध के बाद "भारतीय विचारों के आलोक में" और अल्पसंख्यकों की राय का उचित ध्यान रखते हुए पुनर्विचार किया जाएगा। और तत्काल कार्रवाई के बारे में, वायसराय ने पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सलाहकार परिषद की स्थापना का प्रस्ताव दिया, ताकि भारतीय जनमत को युद्ध के संचालन से जोड़ा जा सके।

कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने बिना देर किए वायसराय के बयान को पूरी तरह से असंतोषजनक और गहरा गुस्सा भड़काने वाला बताया। कमेटी की मीटिंग 23 अक्टूबर को वर्धा में बुलाई गई थी, जिसमें गांधीजी पूरी चर्चा के दौरान मौजूद थे। प्रस्ताव में कहा गया, "वायसराय का बयान वही पुरानी साम्राज्यवादी नीति को साफ तौर पर दोहराना है। कमेटी ने जो मांगा था, वह भारत के बारे में ब्रिटेन की युद्ध के लक्ष्यों की घोषणा थी। कांग्रेस हमेशा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पूरी गारंटी के लिए खड़ी रही है। कांग्रेस ने जो आज़ादी मांगी थी, वह कांग्रेस या किसी खास समूह या समुदाय के लिए नहीं, बल्कि देश और भारत के उन सभी समुदायों के लिए थी जो उस देश को बनाते हैं... इन हालात में, कमेटी ग्रेट ब्रिटेन को किसी भी तरह का समर्थन नहीं दे सकती, क्योंकि यह उस साम्राज्यवादी नीति का समर्थन करने जैसा होगा जिसे कांग्रेस हमेशा खत्म करना चाहती रही है। इस दिशा में पहले कदम के तौर पर, वे कांग्रेस मंत्रालयों से इस्तीफा देने के लिए कहते हैं।" कांग्रेस संसदीय उप-समिति ने कांग्रेस प्रांतीय सरकारों से 31 अक्टूबर तक ज़रूरी काम निपटाने के बाद इस्तीफा देने को कहा।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी के प्रस्ताव के अनुसार 27 अक्टूबर को इस्तीफा देने वाली पहली कांग्रेस सरकार मद्रास की थी, जिसके मुखिया राजगोपालाचारी थे। गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली यूनाइटेड प्रोविंसेज मिनिस्ट्री ने 30 अक्टूबर को इस्तीफा दे दिया। बिहार और बॉम्बे में कांग्रेस मंत्रालयों ने, जिनके प्रमुख क्रमशः श्रीकृष्ण सिन्हा और बी. जी. खेर थे, 31 अक्टूबर को अपना इस्तीफा दे दिया। बिश्वनाथ दास के नेतृत्व वाले उड़ीसा मंत्रालय ने 4 नवंबर को इस्तीफा दे दिया। डॉ. खान साहब के नेतृत्व में N.W.F.P. के मंत्रियों ने 7 नवंबर को अपना इस्तीफ़ा दे दिया, और सेंट्रल प्रोविंसेज की मिनिस्ट्री ने 8 नवंबर को इस्तीफ़ा दे दिया। असम में, 16 नवंबर को कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने इस्तीफा दे दिया।

 

उस समय स्वतंत्रता के पक्ष में जनमत का जो दवाब था उसमें कांग्रेस के लिए विकल्प भी नहीं था। अगर आज़ादी की दिशा में प्रगति होने पर भी वह सत्ता में बनी रहती तो इसे ब्रिटिशों की चापलूसी कहा जाता। होशियारी से चल चलने में माहिर जिन्ना ने ब्रिटिश शासकों को संकेत दिया कि लीग और हिन्दुस्तानी मुसलमान सिर्फ आगे बनने वाले संविधान में अपने हितों की हिफाज़त की शर्त पर जंग की कोशिशों में मदद को तैयार हैं। जिन्ना ने आज़ादी की दिशा में तत्काल कदम उठाने की मांग नहीं की। लीग अब आज़ादी के लिए थोडा और इंतजार करने को तैयार थी। कांग्रेस ऐसा नहीं चाहती थी, इसलिए जिन्ना ने यह चाल चली, क्योंकि कांग्रेस अब उसकी दुश्मन नंबर वन थी। यह जिन्ना द्वारा आज़ादी का अपना लक्ष्य छोड़ना नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक चाल थी

सारा देश फिर से गवर्नर के शासन के मातहत हो गया। देश में जो योजनाएं आरंभ हुई थीं, जो सुधार के कार्य-क्रम शुरू हुए थे, किसानों को जो राहतें दी जा रही थीं, उन सब पर विराम लग गया। सरकार को देश का शोषण करने का मौक़ा फिर से हाथ लग गया। कांग्रेस-मंत्रीमंडल द्वारा त्यागपत्र दिए जाने से जिन्ना और उसकी मुस्लिम लीग अत्यधिक प्रसन्न हुए। 22 दिसम्बर, 1939 को मुस्लिम लीग ने कांग्रेसी शासन के अत्याचारों से मुक्ति पाने के उपलक्ष्य में `मुक्ति दिवस मनाया। जिन्ना ने कहा, कांग्रेस शासन की समाप्ति पर लीग की सभा चैन की सांस लेती है और आज के दिन को अधिनायकवाद, दमन और अन्याय से मुक्ति का दिवस मानती है। जिन्ना के मनगढंत आरोपों का उद्देश्य कांग्रेस या ब्रिटिश सरकार का विरोध उतना नहीं था, जितना कि मुसलमानों को उकसाना था। बाद के दिनों में उसने दो राष्ट्रों की बात भी शुरू कर दी और सैद्धांतिक जामा भी पहनाने लगा। मुसलमानों में भी जिन्ना की बातों का असर हो रहा था अधिकांश मुसलमानों ने मुक्ति दिवस मनाया राजमोहन गाँधी अपनी पुस्तकमुस्लिम मन का आईना में लिखते हैं, कौम का मनमजहब से मुसलमान कैफियत से हिन्दुस्तानीसे बदलकरमजहब से मुसलमान और कैफियत से भी मुसलमानहो रहा था

28 महीने के कांग्रेसी शासन के विभिन्न पहलू

उन दिनों सरकारों के मुखिया को प्रधानमंत्री कहा जाता था।  विभिन्न राज्यों में कांग्रेसी शासन से अंग्रेज़ी हुक़ूमत के एकाधिकारवादी रुख को गहरा झटका लगा। अंग्रेज़ों को उम्मीद थी कि सत्ता के सुख और तनाव के चलते प्रांतीयतावाद को बढ़ावा मिलेगा और इससे कांग्रेस के भीतर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ेगी और कांग्रेस कमज़ोर हो जाएगी। सत्ता-सुख का मोह कांग्रेसी को उनके क़रीब लाएगा। लेकिन कांग्रेस की सरकार ने राष्ट्रीयता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास किए। नौकरशाही का सहयोग प्राप्त करने के लिए उसने उदारवादी रुख अपनाया, तो दूसरी तरफ़ आम जनता का विश्वास जीतने के लिए कई ठोस क़दम भी उठाए। मद्रास में राजगोपालाचारी ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान गवर्नर से मधुर संबंध बनाए रखा। सत्ता संभालते ही उन्होंने जनरल नेल की प्रतिमा को हटाने का निर्देश दिया था। जनरल नेल 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेज़ी हुक़ूमत के अत्याचार का प्रतीक था। उसे हीरो की संज्ञा देकर अंग्रेज़ों ने माउंट रोड पर उसकी प्रतिमा लगवा दी थी। उनके कई कार्यों से जनता की निगाह में कांग्रेसी सत्ता की प्रतिष्ठा बढ़ी। एक बार मद्रास प्रेसीडेंसी के आई.जी. चार्ल्स कनिंघम को उनसे भेंट करने के लिए घंटों तक एक कमरे में बैठकर इंतज़ार करना पड़ा था, जबकि इसी जनरल ने उन्हें कई बार गिरफ़्तार किया था।

कांग्रेसी सरकारों ने सबसे पहले राजनीतिक बंदियों की रिहाई की। उन्होंने दमनकारी अध्यादेशों की समाप्ति की। क्रांतिकारी संगठनों पर से प्रतिबंधों को उठाया। अनेक पत्र-पत्रिकाओं की ज़ब्ती उठाई। मद्रास में मपिल्ला विद्रोह क़ानून ख़त्म किया गया। बंबई सरकार ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय इस्तीफ़ा देने वाले गांव अधिकारियों की सेवा पुनः बहाल की। कांग्रेस के सत्ता में आने से किसान और मज़दूर आंदोलन को काफी बल मिला। नागरिक स्वतंत्रता बहाल हुई। सरकारी अधिकारी का रवैया सरकार विरोधी होता था, इसलिए जनता को सीधे मंत्रियों से संपर्क करने की छूट मिली। नौकरशाही के प्रति कांग्रेस ने कठोर रवैया अपनाया। इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह काफी बढ़ा। कृषि के क्षेत्र में काफी महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए। शोषणकारी भूमि क़ानून और राजस्व पद्धति में सुधार किए गए। छोटे काश्तकारों के हितों की रक्षा के लिए ‘स्मॉल होल्डर्स रिलीफ़ बिल’ पास किया गया। वस्त्र उद्योग में कार्यरत मज़दूरों की कार्य दशा और उनके वेतन में सुधार के लिए रास्ते अख़्तियार किए गए। स्कूल खोले गए।  मद्यनिषेध कार्यक्रमों पर अमल किया गया। मंदिर प्रवेश क़ानून बनाया गया। हरिजन छात्रों के लिए वज़ीफ़ा शुरू किया गया। जवाहरलाल के नेतृत्व में मुसलिम जनसाधारण के बीच बड़े पैमाने पर काम करने का फैसला किया गया। इस अभियान को मुसलिम जनसंपर्क कार्यक्रम का नाम दिया गया।

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मनोज कुमार

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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