राष्ट्रीय
आन्दोलन
405. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
प्रवेश
ऐसा माना जाता है कि भारतीय
साम्यवाद की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के बीच से ही फूटी थीं। कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे
जिनका राष्ट्रीय आंदोलन से मोह भंग हो चुका था। उनका मानना था कि महज़ राजनीतिक
आज़ादी से आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। परिवर्तन का संघर्ष औपनिवेशिक
सत्ता के चंगुल से मुक्त होने के लिए ही नहीं है, वरन उन तमाम शोषणकारी शक्तियों
को उखाड़ फेंकने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश जनता ग़ुलाम और ग़रीब
है। इसके अलावा कुछ असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलनकारी, तथा किसान और श्रमिक आंदोलन के
सदस्य भारत के सामाजिक और राजनीतिक उद्धार के लिए नए रास्ते की खोज में थे। असहयोग
आन्दोलन के अचानक वापस ले लिए जाने के कारण ज़्यादातर युवा गांधीजी से नाराज़ हो गए
थे। यह ऐसा अवसर था जब वे साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे थे।
साम्यवादियों
(कम्युनिस्टों) के अस्तित्व में आने का कारण
1920 के दशक में असहयोग आन्दोलन की सफलताओं के
कारण जहाँ एक ओर हम राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ी संख्या में भारतीय जनता के प्रवेश को
देखते हैं, वहीँ दूसरी ओर राष्ट्रीय परिदृश्य पर मुख्य राजनीतिक धाराओं के रूप में
साम्यवाद और समाजवाद को सामने पाते हैं। इन विविध राजनीतिक धाराओं
की उत्पत्ति सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के गांधीवादी दर्शन के राष्ट्रीय राजनीतिक दृश्य
पर आने के कारण हुई। इस दशक के दौरान भारतीय राजनीतिक विचारकों पर अंतर्राष्ट्रीय
प्रभाव भी पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया। मार्क्स और समाजवादी
विचारकों के विचारों ने कई समूहों को साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) के रूप में
अस्तित्व में आने के लिए प्रेरित किया। ऐसा माना जाता है कि भारतीय साम्यवाद की
जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के बीच से ही फूटी थीं। कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे जिनका
राष्ट्रीय आंदोलन से मोह भंग हो चुका था। उनका मानना था कि केवल राजनीतिक आज़ादी से
आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। उनके अनुसार परिवर्तन का संघर्ष सिर्फ साम्राज्यवादी
सत्ता से स्वतंत्रता पाने के लिए ही नहीं है। यह तो उन तमाम शोषणकारी शक्तियों से मुक्त
होने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश जनता पराधीन और निर्धन है।
इसके अलावा कुछ असहयोग, ख़िलाफ़त, किसान और श्रमिक आंदोलन के सदस्य भारत के सामाजिक
और राजनीतिक उद्धार के लिए किसी नई विचारधारा की तलाश में थे। असहयोग आन्दोलन के
अचानक वापस ले लिए जाने के कारण ज़्यादातर युवा गांधीजी से नाराज़ हो गए थे। वे
साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे थे। वे एक समता मूलक वर्ग विहीन समाज की
स्थापना करना चाहते थे। सोवियत क्रांति से प्रेरित और गांधीवादी विचारों और
राजनीतिक कार्यक्रम से असंतुष्ट इन युवा राष्ट्रवादियों ने साम्यवादी विचारधारा को
अपनाया और देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के लिए आमूल परिवर्तन की वकालत शुरू कर दी।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना
साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे युवकों
को उस समय के विख्यात क्रांतिकारी नेता नरेन भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेन्द्र नाथ
राय ने नई राह दिखाई। तब सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता की धूम
मची हुई थी। इससे प्रेरित हो दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक
संबंध बनाने दौर चल रहा था। रूस में समाजवादी क्रांति के कारण समूचे एशिया
महाद्वीप में समाजवादी विचारधारा ज़ोर पकड़ने लगी थी। अगस्त 1919 में एम.एन. राय मेक्सिको में बोल्शेविक मिखाइल बोरोदीन के
संपर्क में आए थे। वहाँ उन्होंने, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से
पहले, मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना की थी। रूस में समाजवादी क्रांति के कारण समूचे एशिया
महाद्वीप में समाजवादी विचारधारा ज़ोर पकड़ने लगी थी। 1920 में क्म्युनिस्ट
इंटरनेशनल के दूसरे अधिवेशन में शामिल होने के लिए राय मास्को गए। वहीं पर
उनका लेनिन से विवाद हुआ। लेनिन का औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की रणनीति को
लेकर मत था कि उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों में बुर्जुवा नेतृत्व वाले आंदोलनों को
समर्थन दिया जाए। लेकिन राय इसके विपरीत मत रखते थे। राय का कहना था कि भारत में
जनसामान्य का पहले ही गांधीजी जैसे बुर्जुवा राष्ट्रवादियों से मोहभंग हो चुका है
और वह बुर्जुवा-राष्ट्रीय आंदोलन से स्वतंत्र रहकर क्रांति की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
अक्तूबर 1920 में एम.एन. राय ने अवनी मुखर्जी, मुहम्मद अली और मुहम्मद
शफ़ीक़ के साथ मिलकर ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब
उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ
इंडिया’ की स्थापना की। 1922 में राय अपना मुख्यालय
बर्लिन ले गए। वहां से उन्होंने ‘वैन्गार्ड ऑफ इंडिपेन्डेंस’ नाम से एक
पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा अवनी मुखर्जी के सहयोग से उन्होंने
‘इंडिया इन ट्रांज़िशन’ भी प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन पत्रिकाओं के
द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज का साम्यवादी विश्लेषण किया जाता था।
कम्युनिस्ट समूह के प्रमुख नेता
पार्टी को मज़बूती प्रदान करने की कोशिश में नलिनी
गुप्ता और शौकत उस्मानी के माध्यम से एम.एन. राय ने देश के दूसरे हिस्सों में
सक्रिय कम्युनिस्ट समूहों से गुप-चुप तरीक़े से संपर्क किया। बंबई में एस.ए. डांगे,
कलकत्ता में मुज़फ़्फ़र अहमद, मद्रास में सिंगारवेलु, पंजाब में भाई संतोख़ सिंह और
लाहौर में ग़ुलाम हुसैन और अब्दुल मजीद, कम्युनिस्ट समूह के प्रमुख नेता थे। 1922 में एम.एस. डांगे ने बंबई से
‘सोशलिस्ट’ नाम का साप्ताहिक निकालना शुरू किया। यह भारत में प्रकाशित होने
वाली पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी। वे 1921 में ‘गांधी
बनाम लेनिन’ किताब लिख चुके थे। इस पुस्तक में डांगे
का तर्क था - गांधीजी एक प्रतिक्रियावादी विचारक थे,
जो धर्म और व्यक्तिगत विवेक के पक्ष में थे। दूसरी ओर, उन्होंने आर्थिक उत्पीड़न की संरचनात्मक जड़ों की पहचान की और सामूहिक
कार्रवाई करते हुए उत्पीड़न समाप्त करने की मांग की। कलकत्ता में मुज़फ़्फ़र अहमद ‘लांगल’
और ‘गणवाणी’ पत्रिका निकाल रहे थे। लाहौर से अब्दुल मजीद ‘मेहनतकश’
पत्रिका निकाल रहे थे। पंजाब में भाई संतोख़ सिंह ‘कीर्ति’ निकाल रहे थे।
भारतीय कम्युनिस्टों का सम्मेलन
दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का एक खुला सम्मेलन
हुआ। इसके संयोजक सत्यभक्त थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी थे। और इसकी
अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की थी। इसमें ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ के
औपचारिक गठन की घोषणा कर दी गई। इसने देश में बिखरे कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट
किया। सिंगारावेलु चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और
सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया। कम्युनिस्ट अब कामगार वर्ग के साथ संबंध
स्थापित करने लगे और कुछ ही वर्षों में कामगारों के बीच उनका प्रभाव काफ़ी बढ़ा। 1926-27
के दौरान भारत के विभिन्न राजनीतिक केन्द्रों – कलकत्ता, बंबई, पंजाब, मद्रास, और लाहौर में मजदूर किसान पार्टियों के उदय से कम्युनिस्ट मजदूर नेताओं को
मजदूरों को संगठित करने में काफी मदद मिली। इंग्लैंड की पार्लियामेंट में
कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में शापुरजी सकलतवाला को प्रवेश मिला। वे जब भारत दौरे पर
आए तो अपने विचारों से लोगों में साम्यवाद के प्रति रुचि जागृत की।
राष्ट्रवादी धारा के भीतर रहकर ही काम
1920 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट समूह मुख्य राष्ट्रवादी धारा
के भीतर रहकर ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करते रहे। कम्युनिस्टों
ने उस वक्त कांग्रेस में दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया। भारत
की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने सभी सदस्यों से कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए कहा।
यह भी कहा कि कांग्रेस के सभी मंचों पर वे एक सशक्त वामपंथ बनाएं और सभी
क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों से कांग्रेस के मंचों पर सहयोग करें ताकि कांग्रेस
अधिक क्रांतिकारी और जनाधार वाले संगठन का रूप ग्रहण करे। कम्युनिस्टों ने भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में श्रम-सम्बन्धी सवाल उठाकर कांग्रेसी राजनीति
में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की। राय कांग्रेस के
वार्षिक अधिवेशनों के प्रतिनिधियों में कम्युनिस्ट कार्यक्रम संबंधित वक्तव्य
तैयार करके बाँटते थे। शुरू में वे और उनके समूह के लोग गांधीजी की और उनकी पद्धति
की आलोचना तो करते थे लेकिन बहुत तीखी नहीं। 1928 के बाद में तो ये लोग उन्हें ‘बुर्जुवा
वर्ग का ताबीज़ मात्र’ तक कहा था। वे मानते थे कि देशवासियों द्वारा गांधीजी से
गहरा प्रेम देश के कष्ट में पड़े रहने के लिए उत्तरदायी है। 1923 से 27 के बीच देश
के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टियों के गठन के कारण
कम्युनिस्टों का कामगार वर्ग के साथ संबंध स्थापित होने लगा।
कम्युनिस्टों का प्रभाव
कम्युनिस्टों ने राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद
विरोध को सामाजिक न्याय के साथ मिलाने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही
पूंजीपतियों और जमींदारों द्वारा आंतरिक वर्ग उत्पीड़न का सवाल भी उठाया। 1925 में
पार्टी के औपचारिक गठन की घोषणा के बाद पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर
कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को जोड़ना शुरू किया। 1925 से वर्ग संघर्ष और
तीव्र हो गया। जैसे-जैसे मजदूरों की ताकत बढ़ती गई, मजदूरों
के संघर्ष अधिकाधिक व्यापक, संगठित तथा योजनाबद्ध भी होते
गये। 1925 में उत्तर-पश्चिम रेलवे के मजदूर हड़ताल पर
चले गये। 1926 के बाद बंबई के कपड़ा मीलों के श्रमिकों के बीच भी कम्युनिस्टों का
व्यापक प्रभाव था। “बोनस हड़ताल” नाम से विख्यात
बंबई के टेक्सटाइल मजदूरों का ढाई महीने लम्बा आन्दोलन चला जिसमें 56 हजार मजदूर शामिल हुए थे। 1927 में खड़गपुर रेलवे वर्कशौप में हुई। हड़ताल
में कम्युनिस्टों का बहुत बड़ा प्रभाव था। 1928 में मजदूर
आन्दोलन में एक नया उभार आया। फरवरी में जिस दिन साइमन कमीशन बंबई पहुँचा वहाँ एक
जोरदार प्रदर्शन हुआ। साइमन कमीशन का विरोध करने 20 हजार
मजदूर सड़कों पर उतर आए।
कम्युनिस्टों ने आरंभ से ही
ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि के पुनर्वितरण की मांग को अपने कार्यक्रमों में
शामिल कर लिया था। कम्युनिस्ट समूहों के उदय से ब्रिटिश सरकार में खलबली मच गयी।
1917 की बोल्शेविक क्रान्ति ने सारे संसार के शासक वर्गों में भय की लहर व्याप्त
कर दी थी। अँग्रेज़ उससे अछूते नहीं थे। अंग्रेजों की होम पोलिटिकल फाइलों में
बोल्शेविक खतरे का आतंक स्पष्ट रूप से वर्णित होता था। ब्रिटिश सरकार एम.एन. रॉय
और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी। सदा की तरह
उन्होंने दमन की नीति अपना ली। कम्युनिस्टों के पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यंत्र
मामले में फँसाया गया। भाकपा के औपचारिक रूप से गठन होने से पहले ही पेशावर षड्यंत्र
के नाम पर 1924 में मुज़फ्फर अहमद, एस.ए. डांगे, शौकत उस्मानी और नलिनी गुप्ता को ‘कानपुर बोल्शेविक
कांस्पीरेसी केस’ के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज
दिया गया। कम्युनिस्टों पर राजद्रोह के आरोप लगाये गये। इस घटना ने मजदूरों को
संगठित करने की कम्युनिस्टों की शुरुआती पहलकदमी को बुरी तरह झकझोर दिया। इसके
अलावा कम्युनिस्टों ने ऐसा क़दम उठाया जिसे ‘वामपंथी भटकाव’ कहा जाता है। कम्युनिस्टों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से
नाता तोड़ लिया। कांग्रेस को उन्होंने पूंजीपति वर्ग की पार्टी कहा। कम्युनिस्टों
ने नेहरू और बोस जैसे कांग्रेस के वामपंथी नेताओं को ‘राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर
पूंजीपतियों का एजेंट’तक कहा। इसका नतीजा यह हुआ की कम्युनिस्ट
राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग-थलग पड़ गए। ब्रितानी सरकार ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया
और 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया।
कम्युनिस्ट आन्दोलन महा विनाश से बच गया। बहुत
से कम्युनिस्टों ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन से अपने को अलग रखना नामंजूर कर दिया।
वहीँ दूसरी ओर कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों का प्रसार ज़ारी रहा। बहुत से नौजवान
जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग ले रहे थे वे उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी में
शामिल हुए। 1935 में परिस्थिति में बदलाव आया। पी.सी. जोशी के नेतृत्व में
कम्युनिस्ट पार्टी का पुनर्गठन हुआ। राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले
राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता शामिल हुए।
कम्युनिस्टों ने माना कि जन मोर्चा के काम को कामयाब बनाने में भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस बड़ी और अग्रणी भूमिका अदा कर सकती है। कांग्रेस से कम्युनिस्टों ने अपने
संबंध सुदृढ़ किए। अपने सदस्यों को इसने कांग्रेस में शामिल होने के लिए कहा।
पी.सी. जोशी ने अपने मुख्य पात्र ‘नेशनल फ्रंट’ में लिखा, “आज हमारा सबसे बड़ा वर्ग-संघर्ष राष्ट्रीय
संग्राम है और कांग्रेस इसका मुख्य अंग है।”
उपसंहार
कुछ विद्वानों ने आरोप
लगाया है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन मास्को से संचालित विदेशी षड्यंत्र था। लेकिन अगर
सही विवेचना करें तो हम कह सकते हैं कि भारत में कम्युनिस्टों का उदय राष्ट्रीय
आन्दोलन से ही हुआ था। देश के विभिन्न भागों में संघर्षशील निम्न जातियों के
आन्दोलनों ने वामपंथी प्रवृत्तियों के उदय में योगदान किया। सहजानंद कांग्रेस
समाजवादियों में सम्मिलित हुए और बाद में कम्युनिस्टों के साथ हो गए। सतारा के
सत्यशोधक आन्दोलन में भाग लेने वाले नाना पाटिल कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित
हुए और महाराष्ट्र में विख्यात किसान नेता हुए। सिंगारवेलु पेरियार के नेतृत्व में
तमिलनाडु में असहयोग आन्दोलन किया गया, बाद में उन्होंने तमिल कम्युनिस्ट की स्थापना की। प्रसिद्ध
कम्युनिस्ट नेता सुंदरैया और नंबूदरीपाद की जीवनशैली और कामकाजी शैली से जाहिर
होता है कि उन पर गांधीजी का असर था। कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के रिश्तों को समझने
के लिए यह उदाहरण काफी है कि ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936
में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा ने
1920 के दशक में उभरती हुई नई पीढी में विभिन्न विद्यार्थी और युवा संगठनों को
जन्म दिया। वे ‘पूर्ण स्वराज्य’ के नारे के
साथ साम्राज्य विरोधी आन्दोलन चलाया करते थे। वे राष्ट्रवाद को सामाजिक न्याय से
जोड़े जाने की वकालत करते थे। वे आंचलिक भावनाओं को प्राथमिकता देते थे। बढ़ते
सांप्रदायिक दंगों के अनुभव ने उन्हें यह मानने पर विवश कर दिया था की भारत में
धर्म पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। भारतीय मजदूरों की बढ़ती साम्राज्यवाद-विरोधी
चेतना और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी लगातार बढ़ती भागीदारी इस बात को चिह्नित
करती है की कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापकता प्रदान की। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में साम्यवादियों ने
महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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