राष्ट्रीय आन्दोलन
404. कांग्रेस समाजवादी पार्टी
प्रवेश
1933 के शुरू होने के साथ-साथ सविनय
अवज्ञा आंदोलन समाप्ति की ओर बढ़ रहा था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने देश के लोगों में
एक ऐसी आकांक्षा को जगा दिया था जिसे वह पूरा नहीं कर सका।
राष्ट्रीय राजनीति में यह अनिश्चय और निराशा का दौर था। कई युवकों को गांधीवादी
नेतृत्व और रणनीति से मोह भंग हुआ था। वे समाजवादी विचारधारा से आकर्षित
थे। विश्व युद्ध I व II के बीच भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवादी
विचारधाराओं के विभिन्न स्वरूपों की संवृद्धि हुई। जेल में रहते हुए कांग्रेस
के भीतर के ही कुछ उत्साही नेता समाजवादी समूह की
स्थापना का विचार प्रस्तुत करने लगे जो समूह कांग्रेस के भीतर रहकर ही संगठन को
वामपंथ की ओर प्रेरित करता। इसकी परिणति कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना के
रूप में हुई। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का मन्तव्य कांग्रेस
से अलग होना नहीं था, अपितु 'इसका
उद्देश्य कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन को समाजवादी दिशा प्रदान करना था'। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का
स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और
वैचारिक स्तर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक
बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि संपत्ति का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के
हाथों में होना चाहिए।
कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना
गांधीजी के द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व को अपने हाथ में लेने के साथ ही अधिकांश युवा
राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय हुए। असहयोग आन्दोलन को वापस लिए जाने से गांधीवादी
नेतृत्व और रणनीति से इनका मोहभंग हुआ और समाजवादी विचारधारा की ओर ये आकर्षित
हुए। 1920 के दशक के अंतिम दौर में इनमें से अधिकांश लोग युवा आन्दोलन में सक्रिय
थे। दूसरे दशक के अंतिम वर्षों और तीसरे दशक के दौरान भारत में शक्तिशाली वामपक्ष
का उदय हुआ था। इसमें शामिल युवाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में मूलगामी परिवर्तन
लाया। समाजवाद इन युवकों का मान्य विश्वास था। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस
इस विश्वास की प्रेरणा के प्रतीक थे। इन युवाओं ने मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों
का गहन अध्ययन किया था। ये वैसे तो मार्क्सवाद, कम्युनिज्म और सोवियत संघ
के प्रति आकर्षित थे, लेकिन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान धारा से सहमत
नहीं थे। उनमें से अधिकांश किसी विकल्प की तलाश में थे। 1933
में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित किया गया तो जवाहरलाल नेहरू जेल में थे।
जेल से अपनी पुत्री को लिखे गए पत्रों के द्वारा नेहरू समाजवादी विचारों के द्वारा
अपना बौद्धिक जुझारूपन प्रदर्शित कर रहे थे। इन लेखों और पुस्तकों में, खासकर ‘व्हिदर इंडिया’ में उन्होंने गांधीजी से
अपने सैद्धांतिक मतभेदों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया। उन्होंने राष्ट्रीय
लक्ष्यों को जुझारू सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बल
दिया। जेल से छूटने का बाद नेहरू ने कांग्रेस के
संविधानवादी रणनीति की आलोचना शुरू कर दी। उनके इस कार्य से समाजवादी विचारधारा को
बल मिला। नेहरू ने गांधीजी को लिखा, “मुझे ऐसा लगता
है कि यदि हम आम जनता की आर्थिक आज़ादी चाहते हैं, तो देश के ‘निहित स्वार्थी
तत्त्वों’ को अपने विशेष पद और विशेषाधिकार
छोड़ने होंगे।” गांधीजी ने जवाब दिया, “मैं आपसे पूरी
तरह सहमत हूं।” ‘भारत किधर’ (ह्विदर
इंडिया) शीर्षक लेखमाला द्वारा नेहरू ने बताया कि किन ऐतिहासिक कारणों से भारत आज
ग़ुलामी और ग़रीबी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। उनके अनुसार इससे मुक्ति का रास्ता
समाजवाद ही है। नेहरू ने कांग्रेस के भीतर समाजवाद की वैचारिक आधार शिला रखी और
फिर धीरे-धीरे समाजवादियों ने कांग्रेस के अन्दर ही अपने को पर्याप्त रूप से
संगठित कर लिया था। हालाकि गांधीजी ने कहा था, “नेहरू के
कम्युनिस्ट विचारों से किसी को डरने ज़रुरत नहीं है”, फिरभी अँग्रेज़ अधिकारियों
ने नेहरू को ‘कम्युनिज्म का पुरोधा’ मानकर फिर से जेल भेज दिया। भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी की वर्तमान धारा से असहमत और किसी विकल्प की तलाश कर रहे नासिक जेल में बंद
कांग्रेस के कुछ नेता 1933 की दूसरी
छमाही के दौरान आपस में मिले। ये थे जयप्रकाश
नारायण, एम.आर. मसानी, अच्यूत पटवर्धन. एन.जी. गोरे, अशोक मेहता, चार्ल्स
मैकर्नहास, यूसुफ़ मेहर अली, आदि।
इन्होंने एक स्पष्ट उत्साही समाजवादी समूह की स्थापना का विचार रखा। इस तरह कांग्रेस
सोशलिस्ट पार्टी के गठन का मसविदा तैयार किया गया। इसका मक़सद था कांग्रेस के
भीतर ही रहकर संगठन को वामपंथ की ओर प्रेरित करना था। संपूर्णानंद ने अप्रैल 1934 में ‘भारत के लिए एक
कामचलाऊ कार्यक्रम’ की रूप रेखा तैयार की थी। 17 मई 1934 को
नरेन्द्रदेव के सभापतित्व में पटना के अंजुमन-ए-इसलामिया हॉल की एक सभा में ‘कांग्रेस
समाजवादी पार्टी’ (सी.एस.पी.) की स्थापना हो गई। इसकी स्थापना में जयप्रकाश
नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी, यूसुफ़ मेहर अली, मीनू मसानी आदि
ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जवहरलाल नेहरू से इसका
स्वागत किया लेकिन वे कभी औपचारिक रूप से सी.एस.पी. में शामिल नहीं हुए। समाजवादियों
का कांग्रेस पर इतना ज़्यादा प्रभाव बढ़ा कि जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव
और अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस कार्य-कारिणी का सदस्य मनोनीत किया गया। यह पार्टी कांग्रेस के भीतर ही रहना चाहती थे, लेकिन उसके
नेतृत्व की कड़ी आलोचक थी। यह पार्टी गैर-कांग्रेसी वामपंथी समूहों के साथ सहयोग के
लिए तैयार थी। सी.एस.पी. ने शुरू से ही अपने को कांग्रेस को रूपांतरित करने और साथ
ही इसको मज़बूत करने के काम में लगाया।
समाजवाद क्यों
सी.एस.पी.
का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य
द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित हो और राजाओं और ज़मींदारों का उन्मूलन बगैर मुआवजे
के किया जाए। इस पार्टी के गठन के बाद कांग्रेस के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन
की प्रक्रिया ने ज़ोर पकड़ी। यह सही मायनों में कांग्रेस को जनसंगठन बनाने की
प्रक्रिया थी। समाजवादी भारत में आधारभूत संघर्ष चाहते थे, स्वतंत्रता के लिए
राष्ट्रीय संघर्ष पर एक जुट थे और समाजवाद तक पहुँचने के लिए उनके अनुसार
राष्ट्रवाद आवश्यक अवस्था थी। वे मानते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन से कट जाना
आत्मघाती क़दम होगा। उनके अनुसार कांग्रेस ही राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिनिधित्व
करती है। लेकिन उनकी चाहत थी कि कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन को हर हालत में
समाजवादी दिशा में ले जाना होगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे मानते थे कि
मज़दूरों और किसानों को संगठित करना चाहिए। उनको राष्ट्रीय संघर्ष की बुनियाद बनाना
चाहिए। सोशलिस्ट गांधीजी की ‘बातचीत और समझौता’ की नीति के
ख़िलाफ़ थे। वे ‘सतत संघर्ष’ के समर्थक थे। उन्हें ज़रूरत पड़ने पर हिंसक
संघर्ष से कोई एतराज़ नहीं था। वे समाज के वर्गीय चरित्र को बार उजागर करते थे। वे
समाजवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे जहां आय का समता वादी
वितरण हो। समाजवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में जयप्रकाश नारायण की पुस्तक ‘समाजवाद क्यों?’ (ह्वाई
सोशलिज़्म?) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि कांग्रेस
समाजवादी दृष्टि अपनाए और आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस का रुख किसानों और मज़दूरों
के पक्ष में होना चाहिए। सांगठनिक क्षेत्र में भी वे कांग्रेस के अन्दर के
साम्राज्यवाद विरोधी तत्त्वों को उसके तत्कालीन पूंजीवादी नेतृत्व से अलग करना
चाहते थे और उन्हें क्रांतिकारी समाजवाद वाले नेतृत्व के अंतर्गत लाना चाहते थे। जल्द ही समाजवादियों को यह समझ में आ गया कि
सांगठनिक स्तर पर जो परिवर्तन वे चाहते हैं वह संभव नहीं है। उन्होंने जल्द ही इस
विचार को त्याग दिया। उन्होंने संयुक्त नेतृत्व का विकल्प अपनाया। इसका उन्हें
1939 में त्रिपुरा में और 1940 में रामगढ़ में सफलता भी
मिली। जयप्रकाश नारायण ने कहा भी था, “हम समाजवादी
लोग नहीं चाहते कि कांग्रेस में गुटबाजी हो। हमारी चिंता का विषय कांग्रेस की
नीतियाँ और कार्यक्रम मात्र हैं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में हम सब कंधे
से कंधा मिलाकर आगे बढ़ाना चाहते हैं।” समय के साथ
गांधीवादी विचारों का उदारवादी लोकतांत्रिक पक्ष समाजवादी पार्टी की सोच का
आधारभूत तत्त्व बन गया। उस समय की वास्तविक स्थिति यह थी कि गांधीजी का कोई विकल्प
भी नहीं था। इसलिए सी.एस.पी. ने कांग्रेस के नेतृत्व से इतना अधिक
मतभेद नहीं बढाया कि वह टूटने के बिंदु तक पहुँच जाए।
सी.एस.पी. की प्रगति
संयुक्त प्रांत जैसे प्रान्तों में सी.एस.पी. की त्वरित प्रगति हुई। सुमित
सरकार का मानना है कि ‘सी.एस.पी. के विस्तार के कारण कांग्रेसी कार्यकर्ता इस
बात के लिए बाध्य हुए कि जुझारू कृषि सुधारों के मुद्दों, औद्योगिक
मज़दूरों की समस्याओं, रजवाड़ों के
भविष्य और जन-जागृति एवं संघर्ष के गैर-गांधीवादी तरीकों के प्रश्नों पर विचार
करें।’ सी.एस.पी. के कार्यकर्ताओं ने बिहार और आंध्र
के किसान सभा के आन्दोलन से घनिष्ठ संबंध बनाया। 33-34 में आंध्र के तटीय इलाकों
में अनेक किसान यात्राओं का आयोजन किया गया। ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन की मांग की
गयी। सी.एस.पी. के एन.जी. रंगा ने किसान कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए नीदुब्रोलु
में एक ‘इन्डियन पेजेंट इंस्टीच्यूट’ की स्थापना
की। वामपंथी झुकाव वाले राष्ट्रवादियों, समाजवादियों
और कम्युनिस्टों के बीच एकता की नई संभावना अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के रूप
में अभिव्यक्त हुई। सहजानंद ने किसान सभा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और
जल्द ही बिहार में बड़ी संख्या में किसानों को अपने साथ लाने में सफल रहे। सी.एस.पी.
और कांग्रेस के भीतर काम करके कम्युनिस्ट वामपंथी रुझानवाले राष्ट्रवादियों के साथ
अधिकाधिक संपर्क कर रहे थे। 1936 में जेल से
छूटने के बाद एम.एन. राय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। कुछ रायवादी
जैसे चार्ल्स मैकर्नहॉस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन
रायवादियों का समाजवादी पार्टी से बहुत से विषयों पर मतभेद बना रहा। बाद के दिनों
में दोनों गुटों के मतभेद बढ़ता गया। 1940 में रायवादी
इससे अलग होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। कांग्रेस
से मतभेद होने और अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड
ब्लॉक’ की स्थापना की।
उपसंहार
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस
समाजवादी पार्टी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र
बोस और अन्य वामपंथी गुट एक आम राजनीतिक कार्यक्रम में भागीदार थे। विचारधारा के
स्तर पर मतभेद के बावजूद इन लोगों ने साथ-साथ काम किया। इन लोगों ने भारतीय
राजनीति में समाजवाद को ताक़तवर बनाया। इन्होंने साम्राज्यवाद का विरोध किया। किसान
सभाओं और ट्रेड यूनियनों के रूप में मज़दूरों और किसानों को संगठित किया। चौथे दशक
के मध्य तक सी.एस.पी. एक ऐसे सेतु के रूप में काम करती रही जिससे होकर जुझारू
राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण मार्क्सवादी मार्ग पर जाते रहे। सी.एस.पी. ने समाजवादी समाज की स्वीकृति दिलाई। समाज को रूपांतरित करने के
मक़सद से समाजवादी कार्यक्रम अपनाया। उपनिवेशवाद विरोधी और युद्ध विरोधी विदेश नीति
अपनाई।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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