फ़ुरसत में ... 111
इशक़ वाले लव की तलाश
मनोज कुमार
‘दाग अच्छे हैं’ स्लोगन वाले दौर में कोयला अभी तक काला ही है! किसी ने एक चिंगारी जलाई और ऐसी आग लगी कि ‘शोले’ दहक उठे हैं। ‘शोले’ का फ़ेमस डायलोग तो आपको याद होगा ही, “अब तेरा क्या होगा कालिया?” आज का यह “कालिया” सिर्फ़ ‘सरदार’ का नमक खाने वाला वफ़ादार ही नहीं रह गया है, बल्कि ‘असरदार’ चरित्र-निर्माण, संस्कृति सेवा आदि करने वाले प्रतीकों के रूप में दिख रहा है। अब जब कोयले की आंच से शोले दहके हैं, तो दोनों पक्ष कह ही सकते हैं – “अब तेरा क्या होगा कालिया?”
कोयले का धुंआ प्रदूषण बढ़ाता है। इससे धुंध घनी हो जाती है। धुंध भरी सुबह को तेज़ क़दमों से चलते वक़्त किसी से टकरा जाना अच्छा लगता है। यह अच्छा लगना तब और भी खूबसूरत हो जाता है, जब टकराने वाला आपकी कार्बन कॉपी लगे। इस तरह के व्यक्तित्व से टकराने से जो तड़ित-सम प्रकाश फूटता है, उससे आस-पास छाए धुंध की गहनता विरलता में परिणत होती प्रतीत होने लगती है। मॉर्निन्ग वाक तो एक बहाना होता है, अपन को तो आज भी ट्रैक सूट पहने जॉगिंग कम, चहलक़दमी ज़्यादा करते हुए कुछ ख़ास शक्लों की तलाश रहती है, जो मेरे साहित्य सृजन की प्रेरणा बन सकें। पिछले दिनों इन चेहरों का ऐसा अकाल पड़ा था कि मेरी सृजन-सरिता सूख ही गई थी। आज जब अपने कार्बन कॉपी से टकराया तो बलबला कर सोता-सा फूट पड़ा।
मेरे दिल में सृजन के हज़ारों विषय उथल-पुथल मचाए रहते हैं और दिमाग़ मुझे बराबर ‘यस’ – ‘नो’ के द्वन्द्व में घेरे रहता है – जीवन प्रांगण में आज एक बार फिर से क्रांति की रणभेरी बजने लगी है। मेरी लेखनी का चक्का जाम करने वाले मज़दूर दिमाग के सामने सृजन की क्रांति का मशाल लिए दिल ने मैदान-ए-जंग में डटकर मुक़ाबला किया और अंततोगत्वा जीत मेरी ‘फ़ुरसत’ की ही हुई। विजय के उल्लास में दिल बल्लियों उछल रहा है।
जिससे टकराया था, उसने ‘फ़ुरसत में ..’ मुझे कहीं कुछ पढ़ लिया होगा, और शायद वह मेरी विलक्षण शैली, विनोदी स्वभाव और किस्सागोई का मुरीद भी बन गया हो। लेकिन जिस अंदाज़ में उसने मुझे महिमा-मंडित किया वह उसके मेधावी होने का प्रमाण दे रहा था। हम दोनों उस सैर-सपाटा पार्क के चक्कर लगाते रहे और एक-दूसरे को सुनते-सुनाते रहे। जब मैं अपने विनोदी स्वभाव के नमूने स्वरूप कोई लतीफ़ा सुनाता तो वह पूरी तन्मयता से सुनता और बड़ी ज़ोर से हंसता। फिर वह नहले पर दहला मारने के अंदाज में अपनी बातें रखता और इतने ज़ोर से मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहता, “बोल गुरु कैसी रही?”
मेरा कार्बन कॉपी मुझे बातों ही बातों में उस जगह ले गया जहां मैं जाना नहीं चाहता था। कहने लगा, ‘यार ! बता – इस जीवन में तूने इकतरफ़ा प्यार कितनी बार किया है?’ मैं चौंका। आश्चर्य और प्रश्न मिश्रित भाव लिए जब मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा, तो कुछ ज़्यादा ही खुलते हुए उसने कहा, “अरे यार! ‘इशक़’ वाला ‘लव’ … अब भी नहीं समझा? … तूने तो किया, पर उसे पता भी नहीं चला!”
कार्बन कॉपी की बातों से मुझे मेरी ही लिखी हुई एक पंक्ति का स्मरण हो आया – ‘हमारे स्वभाव में ही था झट से किसी के प्रेमपाश में बंध जाना और नसीब में था फट से उस बंधन का टूट जाना।’ ये उन भूले-बिसरे दिनों की नादानियां हैं, जिसे आज मेरे कार्बन कॉपी ने याद दिला दी। पढ़ाई-लिखाई के बीच ‘इशक़’ तो होता था, ‘लव’ नहीं हो पाता था। ‘इशक़’ और ‘लव’ के बीच कैरियर का सांप कुंडली मारकर बैठ जाता और ‘कैरियर चौपट न हो जाए’ की फुंफकार में ‘लव’ की फुसफुसाहट गुम हो जाती थी। ‘स्टुडेंट ऑफ द इयर’ जीत जाता था, लेकिन ‘लवर ऑफ द डे’ भी हार जाता था। हम तो मध्यमवर्गीय बच्चे थे, - जो पालथी मारकर पढ़ते थे। इसलिए हम पढ़ाकू तो बने रहे, - लड़ाकू न बन सके।
आज कार्बन कॉपी ने मेरी इस नादानी को सुन कर मुझे ‘डरपोक’ करार दिया। सच ही तो कहा उसने। मैं क्रांतिकारी तो बन ही नहीं सका। मैंने न कभी क्लास बंक की, न कभी लाइब्रेरी या कैंटिन में बैठा, न कभी नुक्कड़ों पे गॉसिप की, न कभी नौटंकी, सिनेमा, क़व्वाली देखने के लिए रात-रात भर घर से बाहर रहा, न कभी देखी गई फ़िल्म के क़िस्से सुनाने के लिए पार्क में महफ़िल जमाई। कितनी ही चीज़ें छूट गईं या छोड़ता चला गया। शुभचिंतक टाइप के मित्र लानत भेजते। कहते – बड़का प्राइज जीत लेगा। छात्रों में कई उद्दंड किस्म के भी थे, जो पढ़ाकू छात्रों के विकेट उखाड़ने की ताक में लगे रहते थे। उनके बाउंसरों को झेलते हुए ‘पिच’ पर अपनी विकेट सही-सलामत रखना भी बड़े धैर्य और कौशल का काम था। विकेट पर टिके रहना तो आया पर तेज़ी से रन बनाने की कुशलता न आ पाई। लिहाजा छोर बदलने का सिलसिला थमा-सा ही रहा।
इस तरह से एक उदासीनता द्वारा सर्जित वातावरण में अपनी भावना दबा देने का जो अपराधबोध रहा, उससे मुक्ति के लिए क़लम का सहारा लिया, और गाहे-ब-गाहे फ़ुरसत में कुछ लिख-लिखा लिया। लेकिन उस पढ़ाकू पारिवारिक माहौल में जाने क्यों लिखना भी अपराध माना जाता था। फिर भी, चोरी-छिपे ही सही, लिखने का क्रम ज़ारी रहा। उन दिनों के बड़े-बड़े, नामी-गिरामी, प्रेरक लेखकों की रचनाओं के गहन अध्ययन से दिल से यह आवाज़ उठी कि सतत लेखन के लिए प्रेरक-शक्ति चाहिए। – अब यह शक्ति या प्रेरणा तो किसी के ‘इशक़’ में पड़ कर ही प्राप्त की जा सकती है। समस्या यह कि मुझ जैसे निठल्ले के लिए ऐसी प्रेरणा उपलब्ध होना एक टेढ़ी खीर थी। एक तरफ़ जहां लड़कियां मां-बाप, समाज से डरती थीं, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे ‘लव गुरु’ ऐसे थे जिन्होंने अपनी किताब लिख कर कहा था, “इस उपन्यास का लिखना मेरे लिए वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना; और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं।” जी हां, उन दिनों “गुनाहों का देवता” मध्यमवर्गीय जीवन की कहानी ही तो थी। आदर्श प्रेमिका की जो छवि उसमें गढ़ी गई थी उसे आज तक खोज रहा हूं। मिली नहीं। मुश्किल हमारी यह थी कि बिना इस प्रेरणा के लिख कैसे पाऊंगा? इसलिए झूठ-सच का झट से वाला ‘इशक़’ और फट से वाला ‘ब्रेकअप’ गढ़ता गया और रचता गया।
जो गुनाह कभी किया नहीं, उस गुनाह को बार-बार दुहराता रहा। लेकिन मेरा कार्बन कॉपी उसे मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। किसी ने कहा है, ‘इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वालों से छूट जाता है।’ पता नहीं मैंने इंतज़ार नहीं किया या कोशिश नहीं की। लेकिन तलाश मेरी बदस्तूर ज़ारी है। इंशा अल्लाह, अगर कभी यह तलाश पूरी हुई तो ‘फ़ुरसत में...’ ज़रूर मिलेंगे। और अगर इस तलाश में आप मेरी मदद कर सकें, तो ज़रूर ख़बर कीजिएगा। त्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!
इकतरफा प्यार .... मन से कौन होगा परे ! और तलाश मन के साथ अपनी चलती रहती है ... तर्क, कुतर्क,ढीढ व्यवहार, अनमना व्यवहार खुद से करता है आदमी,फिर होती है कोई बात .......... होती भी है या नहीं !
जवाब देंहटाएंइश्क़ वाले लव से मुलाक़ात पूरी हो तो .... हम मिलना चाहेगें ....
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंहमारी एक मित्र के पुत्र विवाह योग्य हो गए हैं....अच्छा मेल मिल नहीं रहा...माँ ने खीजते हुए कहा..अरे खुद ही खोज लेता..इश्क विश्क नहीं कर सकता था...
बेटे का सरल जवाब सुनिए (आपसे मिलता जुलता...) माँ जब उम्र थी तब आपने किताबों से आँख हटाने नहीं दी...और अब कोई आँख मिलाती नहीं हैं....
सादर
अनु
आहा , फुरसत की वापसी पर आनंदम संकोच और पढ़ाकू में कोई सम्बन्ध है क्या? मुझे लगता है दोनों समानुपाती है .वैसे एक बिन मांगी सलाह है , बरसात में छाता लेकर आप जब निकलते है आपको प्रेरणा मिलती रही है. इश्क वाला लव आजकल मुश्क वाला लव हो गया है .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंफुर्सत में आपकी वापसी इस सूने घर में बच्चे की किलकारी का सुख दे रही है!! 'मनोज' से मनोज का इश्क और 'लव' बना रहे.. बाकी तो सब आकर्षण है!! इंतज़ार बहुत करवाया आपने, लेकिन जो मिला वो किसी कोशिश करने वाले से छूटा हुआ भी हो तो अफसोस नहीं!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही मजेदार रचना.. धर्मवीर भारती का यह उपन्यास शायद ही कोई हो जो इसे पढकर खुद को उन पात्रों की जगह नहीं पाता हो!!
इकतरफा प्यार में तलाश बनी रहती है,,,,
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति ,,,, बधाई मनोज जी,,,
recent post हमको रखवालो ने लूटा
पता नहीं मैंने इंतज़ार नहीं किया या कोशिश नहीं की। लेकिन तलाश मेरी बदस्तूर ज़ारी है। इंशा अल्लाह, अगर कभी यह तलाश पूरी हुई तो ‘फ़ुरसत में...’ ज़रूर मिलेंगे। और अगर इस तलाश में आप मेरी मदद कर सकें, तो ज़रूर ख़बर कीजिएगा। त्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!
जवाब देंहटाएंउम्मीद पर दुनिया कायम है ... तलाश जारी रहे ... वैसे इसमें आपकी मदद कोई नहीं करेगा ... खुद ही झोंकना पड़ेगा खुद को :)
बेहतर लेखन !!
जवाब देंहटाएंजो गुनाह कभी किया नहीं, उस गुनाह को बार-बार दुहराता रहा। लेकिन मेरा कार्बन कॉपी उसे मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। किसी ने कहा है, ‘इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वालों से छूट जाता है।’ पता नहीं मैंने इंतज़ार नहीं किया या कोशिश नहीं की। लेकिन तलाश मेरी बदस्तूर ज़ारी है। इंशा अल्लाह, अगर कभी यह तलाश पूरी हुई तो ‘फ़ुरसत में...’ ज़रूर मिलेंगे। और अगर इस तलाश में आप मेरी मदद कर सकें, तो ज़रूर ख़बर कीजिएगा। त्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!
जवाब देंहटाएंआदरणीय भैया जी आपने पूरी राम कहानी अंत में पूरी कर दी वाह मज़ा आ गया .
हम तो किसी रहस्य से पर्दा उठने का इंतजार करते ही रह गए और आप साफ बच निकले। वाह।
जवाब देंहटाएंमजेदार पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंइश्क़ वाले लव से मुलाक़ात तो लगता संपन्न हो गई, लेकिन मैं अभी भी इसी विषय में उलझी हूँ.
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब जी
जवाब देंहटाएंपता नहीं, अधिक पाने की कोशिश में जो हाथ में है, वह सुरक्षित भी रह पाता है।
जवाब देंहटाएंमेरा कमेन्ट कल से ही स्पैम में पड़ा है!!
जवाब देंहटाएंइसका प्रिंट आउट निकलवाकर कल सुबह अपने कार्बनकापी को दे दीजिएगा। कहियेगा.. "घर जाकर पढ़ना इसमें मेरी सब राज की बातें लिखीं हैं।"
जवाब देंहटाएंमस्त पोस्ट है। भाषा शैली भी बहुत सुंदर।..वाह!
आप रोज सुबह नए गुल खिला रहे हैं..'विचार' में रूला रहे हैं, 'फुरसत' में हंसा रहे हैं।
बहुत ही मस्त पोस्ट .. कितनी बातें गुज़र गयीं ज़ेहन से ...
जवाब देंहटाएंमस्त पोस्ट और ये किताब ..मेरी माँ की पसंदीदा ...जब मैंने इसे पढ़ा तो पहले मैं समझ नहीं पाई ऐसा क्या है जो माँ ने इसे 15 बार पढ़ा होगा ...फिर समझ में आया खुद को उस दौर में रखा फिर उस कशमकश का आनंद लिया
जवाब देंहटाएंत्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!.....ताउम्र एहसान मंद रहूँगा ........"संस्मरण और विश्लेषण शैली का मिक्स" बिंदास लेखन .
जवाब देंहटाएंkoshish jari rakhe.... talash ka koi ant nahin.
जवाब देंहटाएंफुरसत में ही सही सृजन की क्रांति का मशाल जलता रहे ..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...जिस तरह से इतनी सारी बातों को आपने अपनी इस पोस्ट में समेटा है और इश्क वाले लव को खोजने की कोशिश की है...वह शानदार है...बधाई।।।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआपकी सद्य टिप्पणियों के लिए शुक्रिया .आपकी टिपण्णी हमारी धरोहर हैं बेशकीमती ब्लॉग के लिए .आइन्दा के लिए .बढ़िया हलकी फुलकी लायें हैं यथार्थ के नज़दीक है .
जो हुआ अच्छा हुआ. नहीं तो काम से जाते ही और ज़माना जैसा था वो तो था ही.अब काम से लगे हैं तो खोज जारी रखिये. हाल-चाल बताते रहियेगा!
जवाब देंहटाएंमनोज जी आपको व आपके परिवार को नूतन वर्षाभिनंदन.
जवाब देंहटाएंकाफी समय से आपकी कोई पोस्ट नहीं आई, सब कुशल तो है.