प्रलय के काले मेघ
उठे
श्यामनारायण
मिश्र
फूस नहीं चढ़
पाया नंगी मिट्टी की दीवारें
लगता रूठा देव
प्रलय के काले मेघ उठे।
एक खेत था बाक़ी वह भी पिछले साल बिका
कौड़ी-कौड़ी वैद खा गये बेटा नहीं टिका
किसी तरह झमिया छमिया के हाथ
लगी हल्दी
रमिया शादी जोग हो गई कैसे इतनी जल्दी
पहले लगन तिलक पचहड़ से शादी
होती थी
अब तो नये नये
न जाने कितने नेग उठे
ख़ूब याद है साथ पड़ी
वो ईद और होली
रंग खेलने घर आया था असगरख़ां हमजोली
सदा बांधती रही राखियां असलम को बिन्दू
थे वे सच्चे मुसलमान और हम
सच्चे हिन्दू
दुराभाव की बात सोचना दोजख़ जैसे था
आज अचानक इस हाथों
में कैसे तेग उठे
रामदीन के पैसा
था तो बनवा दिया कुआं
बहू-बेटियां उठवाता है उसका
ही रमुआ
जोत रहे हैं मंदिर में दी दान भूमियों को
चढ़ता नहीं बुखार तलक मक्कार सूमियों को
दया धरम उठ गये जगत से प्रेम
भाव खोया
इन्सानों के मन में पशुओं से आवेग
उठे