श्रमकर पत्थर की शय्या पर
आज एक मई है। यानी कि मजदूर दिवस! इन श्रमकरों के श्रम के बिना हम जीवन में कुछ नहीं हासिल कर सकते। उनका श्रम वंदनीय है। मुम्बई में श्रमिकों की सभा को संबोधित करते हुए 15 दिसम्बर 1907 को लोकमान्य तिलक ने कहा था,
“अपनी खेती अपने काम के आए, अपनी मेहनत अपनी रोटी कमा लाए, इसी का नाम स्वराज्य है। मज़दूरी जब इस भावना के बिना होती है तब पशु की मेहनत के बराबर होती है।”
श्रमजीवी हमारे लिए तरह-तरह की रंगबिरंगी दुनियां तैयार करते हैं पर उनका स्वयं का जीवन विभिन्न प्रकार के संकटों से घिरा रहता है। मैक्सिम गोर्की के शब्दों में कहें तो , “वे अपने कन्धों पर उठाकर हजारों मन अनाज जहाज पर लादते हैं ताकि अपना पेट पालने के लिए एक-दो-सेर अनाज उपलब्ध कर सकें।
पर इनका जीवन एक अंधियारी रात की तरह है होती है, एक भयंकर स्वप्न-सा। ये लोग ज़िन्दगी भर अपना खून पसीना एक करते हैं, परन्तु इनका स्वयं का जीवन अज्ञान के घोर अन्धकार में बीतता है।
हम इन मेहनतकशों को सलाम करते हैं! उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलनी चाहिए… पर इसकी चिंता कौन करता है? मालिको के शोषण का शिकार न हों इसके लिये क़ानून तो हैं पर कितने सक्षम, सक्रिय और सफल, यह किसी से छुपा नहीं है। आज भी श्रमजीवियों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. कुछ संस्थानों मे अच्छे वेतनमान मिल रहे हैं लेकिन अधिकांश श्रमजीवियों को अभी भी सम्मानजनक वेतन नहीं मिल पाता। यह दुःख की बात और चिंता का विषय है।
जब किसी श्रमकर को दिनभर मेहनत-मशक्कत कर शाम और रात में ज़मीन पर सोये देखता हूँ तो मन भावुक हो जाता है और कविता की कुछ पंक्तियां बन जाती हैं। इन्हें ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, दुनिया के तमाम मेहनतकश सच्चे मजदूरों के लिए-
दिन जीते जैसे सम्राट, चैन चाहिए कंगालों की।
रहते मगन रंग महलों में, ख़बर नहीं भूचालों की।
तरु के नीचे श्रमकर सोये, पत्थर की शय्या पर।
दिन भर स्वेद बहाया, अब घर लौटे हैं थककर।
शीतलता कुछ नहीं हवा में, मच्छर काट रहे हैं।
दिन भर की झेली पीड़ाएं, कह-सुन बांट रहे हैं।
अम्बर ही बन गया वितान, चिंता नहीं दुशालों की।
जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।
सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई।
कोमल सेज सुमन सी, करवट लेते रात ढ़लेगी।
समिधा करो कलेवर की, तब यह जीवन अग्नि जलेगी।
दुख शामिल रहता हर सुख में, उक्ति सही मतवालों की।
किसी काम का नहीं, अनर्जित जीवन में जो आया।