फुरसत में… 114
मनोज कुमार
साल जाते-जाते बड़े भाई ने दो आदेश किया। एक कि इस ब्लॉग पर गतिविधि पुनः ज़ारी किया जाए। सो हाज़िर हूं … दूसरे ..
मेरे लिए नालंदा की यात्रा वैसे तो हमेशा विशेष ही होती है, इस बार तो और भी खास हो गई, जब इस बाबत Facebook पर Status Update लगाया तो बड़े भाई (सलिल वर्मा) का आदेश हुआ,
“सलिल वर्मा Please take a full snap of ruins of Nalanda University and send me as New Year Greetings!!”
कई बार यात्रा कर चुके नालंदा को इस आदेश के तहत देखने की कोशिश, इस बार हमारी मजबूरी बन गई, नालंदा, जहां प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग 7वीं शताब्दि में आया था। उसके अनुसार उस जमाने में यहां के लोग एक तालाब में “नालंदा” नामक नाग का निवास होना बताते थे। यही कारण है कि इस नगर का नाम नालंदा पड़ा।
भगवान बुद्ध के पुत्र सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास “नालक” गांव में हुआ था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने इसी गांव में आकर अपनी मां को धर्मोपदेश दिया और निर्वाण प्राप्त किया। फलस्वरूप वह बौद्ध श्रद्धालुओं और उपासकों के लिए प्रमुख तीर्थ-स्थल हो गया। भगवान बुद्ध के बाद सबसे अधिक पूजा सारिपुत्र की ही होती है। इस महापुरुष का जन्म और निर्वाण एक ही स्थान पर होना श्रद्धा का विषय बना रहा। उनकी याद में इस जगह पर एक चैत्य का निर्माण हुआ। इस चैत्य के नज़दीक जो भिक्षु विहार बने वे बाद में अध्ययन के केन्द्र हो गए। देश के दूर-दराज के भागों से विद्यार्थी यहां आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। पाल राजाओं ने नालंदा के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई।
पालि ग्रंथों में नालंदा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है, “न अलं ददाती ति नालंदा” अर्थात् वह जो प्रचुर दे सके। विडम्बना यह कि तुर्क आक्रमणकारी बख़्तियार ख़लजी ने अपने लूटपाट के अभियान के तहत सन 1199 में प्रचुर देने वाले नालंदा के इस विश्वविद्यालय में आग लगा दी। शिक्षा का यह महान केन्द्र जलकर खाक हो गया। आज तो सिर्फ़ वहां खंडहर बचे हैं और इन्हीं खंडहरों की तस्वीर अपने कैमरे में क़ैद कर लाने का मुझे आदेश मिला।
कैमरे की आंख से देखिए, इन भग्नावशेषों की दीवालों की 6 से 12 फीट की मोटाई यह साबित करती है कि विहारों की ऊंचाई काफ़ी रही होगी। साथ ही भवन भी विशाल रहे होंगे। ऊंचे भवनों तक पहुंचने के लिए चौड़ी और पक्की सीढियों के अवशेष आज भी विद्यमान है। ह्वेनसांग और बाद के दिनों में आए चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार यहाँ 8 भव्य विहार थे। इन महाविहारों से लगे हुए चैत्य और स्तूपों का निर्माण हुआ था। हीनयान और महायान के लिए 108 मंदिरों का निर्माण हुआ। पूरा विद्यालय एक ऊंचे प्राचीर से घिरा था।
ह्वेनसांग ने ज़िक्र किया है कि इसमें प्रवेश करने के लिए एक विशाल दरवाज़ा था। उसके बाहर खड़े द्वारपाल भी काफ़ी विद्वान होते थे। जो विद्यार्थी यहां प्रवेश पाना चाहते थे, उनकी परीक्षा ये द्वारपाल लिया करते थे, और योग्य उम्मीदवारों को ही चुना जाता था। 10 में से सिर्फ़ एक या दो विद्यार्थी ही विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार के भीतर जा पाते थे!
विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। आस-पास के क़रीब 100 गांवों द्वारा इसके खर्च की व्यवस्था की जाती थी। इत्सिंग ने तो 200 गांवों की बात कही है। इस विश्वविद्यालय में उन दिनों 10,000 विद्यार्थी 1500 आचार्यगण से शिक्षा ग्रहण करते थे। अर्थात प्रत्येक सात विद्यार्थी पर औसतन एक शिक्षक!
बौद्ध धर्म, दर्शन, कला, इतिहास, आदि के साथ आयुर्वेद, विज्ञान, कला, वेद, हेतु विद्या (Logic) शब्द विद्या (Philology) चिकित्सा विद्या, ज्योतिष, अथर्ववेद तथा सांख्य, दण्डनीति, पाणीनीय संस्कृत व्याकरण की शिक्षा की व्यवस्था थी।
नालंदा जाएं और राजगीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है? प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक राजा वसु, जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं, ही इस नगर के प्रतिष्ठाता थे।
राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ा है। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं।
राजगीर सिर्फ़ बुद्ध एवं उनके जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, यह स्थल जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी समान रूप से प्रसिद्ध है। अन्तिम जीन महावीर ने अपने 32 वर्ष के सन्यासी जीवन का 14 वर्ष राजगीर और उसके आसपास ही बिताया था। जैनों ने भी बिम्बिसार और अजातशत्रु को अपने धर्म के समर्थक के रूप में दावा किया है। राजगीर में ही 20 वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत नाथ का जन्म हुआ था। महावीर के 11 प्रमुख शिष्य/गण्धर की मृत्यु राजगीर के एक पहाड़ के शिखर पर हुई।
रज्जूपथ से राजगीर के विश्वशांति स्तूप की यात्रा भी काफ़ी रोमांचकारी होता है। थोड़ा भय, थोड़ा कुतूहल मिश्रित आनंद देते हैं।
ध्यान में लगे लोगों को तो नालंदा के खंडहरों के प्रांगण में भी देखा था, लेकिन विश्वशांति स्तूप में कुछ अलग ही अनुभूति हुई और हम भी ध्यान में जाने की सोची। … और देखा एक वृक्ष जिसे देख कर लगा कि निर्वण किसे कहते हैं? लेकिन इनको देख कर लगा कि ये किस ओर ध्यानस्थ हैं?
वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंअपुन भी लेख के माध्यम से घूम लिये है।
जवाब देंहटाएंअंतिम चित्र में पादूका आसन पर ध्यानरत योगी को देख कर लगा कि प्राचीन काल में भी मोक्ष प्राप्ति के लिए पादुका आसन मुख्य आधार होते होगें :)
जवाब देंहटाएंक्या बात वाह!
जवाब देंहटाएंतीन संजीदा एहसास
वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंमेरा मान रखने के लिये धन्यवाद!! मैं केवल एक बार गया हूँ इन खंडहरों के मध्य... लेकिन दुबारा जाने की बड़ी इच्छा है...
जवाब देंहटाएंआपकी आँखों से देखकर ऐसा लगा कि मेरी इच्छा और तीव्र हो गयी है.. तुर्क आक्रमणकारी ने जब यहाँ आग लगाई थी तो बताते हैं कि पुस्तकालय से आग की लपटें महीनों तक निकलती रही थीं.. ऐसा था वहाँ पुस्तकों का भण्डार... नालन्दा विश्वविद्यालय की भूमि आज अनपढ़ों का पर्याय बन गयी है..
और एक बात बताऊँ.. मेरा ससुराल भी नालन्दा में ही है, इसलिये एक और मधुर रिश्ता है उस भूमि के साथ!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन "तुम चले जाओगे तो सोचेंगे ... हम ने क्या खोया ... हम ने क्या पाया !!" - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक विवरण.....हमारी भी यात्रा हुई !!
जवाब देंहटाएंआपका और सलिल दा का आभार
सादर
अनु
लगता है कहीं टंकणगत त्रुटि हो गई है। ह्वेन त्सांग पन्दहवीं शताब्दी में नहीं आया था। क्योंकि 15 वीं शताब्दी के पहले ही नालंदा का एत विश्वविद्य़ालय के रूप में अस्तित्व समाप्त हो चुका था। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है ह्वेन त्सांग का नालंदा में आगमन 7 वीं शताब्दी (सम्भवतः 629 के आसपास) में हुआ था। वैसे मनोज कुमार जी स्वयं इतिहास के अच्छे ज्ञाता हैं। एक बार अवश्य देखें और यदि टंकण की गति हो, तो कृपया ठीक कर दें।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राय जी! सुधार दिया है।
हटाएंदर्शनीय बहुत ही रोचक विवरण....
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की हार्दिक शुभकामना ...!
Recent post -: सूनापन कितना खलता है.
ज्ञानवर्धक आलेख...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (29-12-13) को शक़ ना करो....रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1476 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह ...अपने घर की बातें...विस्तार से बताया...पर भेंट नहीं हुई इस शिकायत के साथ....आपका आभार
जवाब देंहटाएंआपने तो इतिहास के पन्नो में सैर करवा दी। दिल चाहता है, अब फिर से एक बार नालंदा जाया जाये- इस बार एक विद्यार्थी के मन के साथ … आपका धन्यवाद …
जवाब देंहटाएंआपाये बहार आई ...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत चित्रों का संकलन और आपकी लेखनी का कमाल ...
नालंदा की सैर तो हो गई अब प्रत्यक्ष देखना बाकी है बस ... नव वर्ष की मंगल कामनाएं ..
बहुत ही बढ़िया मज़ा आ गया सच में ऐसा लगा हम खुद ही वहाँ घूम रहे हैं । आपकी जानकारी से भरी पोस्ट बढ़िया लगती हैं कृपया नियमित रहें । हाँ एक बात आपने लिखा है कि "भगवान बुद्ध के पुत्र सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास “नालक” गांव में हुआ था।" पर जहाँ तक हमे पता है सारिपुत्र शिष्य थे "बुद्ध" के न कि पुत्र |
जवाब देंहटाएंNalanda ke khandharon ke bahane bahut jaane ko mil gaya, aabhar.
जवाब देंहटाएंShayad ye aapko pasand aayen: Kallar soil , Green revolution in india advantages and disadvantages