शनिवार, 4 जनवरी 2014

फ़ुरसत में … 116 : जरासंध वध

फ़ुरसत में … 116

जरासंध वध

406896_2515618585360_1884583692_nमनोज कुमार

पिछले दिनों हम राजगीर गए थे। कई जगहों के दर्शन हुए। राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ा है। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं। इस जगह ने मुझे जरासंध के बारे में थोड़ा विस्तार से जानने के लिए प्रेरित किया। सोचा आज फ़ुरसत में आपसे शेयर कर ही लूं।

प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। बिहार की राजधानी पटनासे लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। प्राचीन काल में इसे कई नामों से जाना जाता था। “रामायण” में इसका नाम “वसुमती” बताया गया है। इसका संबंध पौराणिक राजा वसु से है जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं।

रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने “गिरिव्रज” नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। वृहद्रथ काफ़ी वीर और बली था। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। काशिराज की जुड़वा बेटियों से उसका विवाह हुआ था। उसने अपनी दोनों पत्नियों को वचन दे रखा था कि वह दोनों में से किसी के साथ पक्षपात नहीं करेगा। यानी दोनों को बराबरी का दर्ज़ा देगा।

बृहद्ररथ को कोई संतान नहीं हुई। वृद्धावस्था आ चली थी। वह काफ़ी निराश हो चला था। सांसारिक जीवन में उसे कोई रुचि नहीं रह गई थी। उसने अपना राजपाट अपने मंत्रियों के हवाले कर दिया। अपनी पत्नियों के साथ वह वन में चला गया और एक आश्रम में रह कर तपस्या करने लगा। एक दिन उसके आश्रम में चण्डकौशिक मुनि पधारे। वे महर्षि गौतम के वंशज थे। उनका वृहद्रथ ने काफ़ी स्वागत-सत्कार किया। अपनी आवभगत से प्रसन्न होकर मुनि ने राजा को वर मांगने को कहा। राजा ने कहा, “मैं बहुत ही अभागा इंसान हूं। जब पुत्र ही नहीं हुआ तो और क्या आपसे मांगूं?”

यह सुन मुनि को राजा पर दया आई। उन्होंने राजा की समस्या के हल के लिए आम के एक वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। थोड़ी देर में उनकी गोद में एक पका हुआ आम गिरा। मुनि ने उसे राजा को दिया और कहा कि इसे अपनी पत्नियों को खिला दे। दोनों पत्नियों में से किसी के प्रति पक्षपात न करने का वचन दे चुके राजा ने उसके दो टुकड़े कर दोनों रानियों को खिला दिया। रानियां गर्भवती हुईं। राजा के ख़ुशी का ठिकाना न रहा। रानियां हर्षित हुईं। लेकिन जब उनके बच्चे पैदा हुए तो दोनों को घोर निराशा हुई। उनके बच्चे का शरीर आधा था। यानी एक के केवल एक हाथ, एक आंख, एक पैर,आदि। उसे देख कर ही घृणा होती थी। यह तो मांसका पिंड था, जिसमें जान थी। उस पिंड को उन्होंने दाइयों के हवाले किया और कहा कि इसे फेंक दिया जाय। दाइयों ने उसे कूड़े के ढ़ेर पर फेंक दिया।

कुछ देर के बाद उधर से एक जरा नामक राक्षसी गुज़र रही थी। वह इंसानों के मांस खाती थी। उसने कूड़े के ढ़ेर पर जब मांस के टुकड़े को देखा तो फूली न समाई। खाने के लिए उसने ज्यों ही मांस के दोनों पिंडों को उठाया तो वे आपस में जुड़ गए और एक सुन्दर बचा बन गया। यह तो चमत्कार हो गया। सुंदर दिखने वाले उस बच्चे पर उसका मन मोहित हो गया। उसने उसे मारना ठीक नहीं समझा। जरा राक्षसी ने एक सुन्दर युवती का वेश धारण किया और राजा बृहद्रथ के पास पहुंची। राजा को उस बच्चे को सौंपती हुई बोली कि यह आपका बच्चा है। राजा को ख़ुशी की सीमा नहीं रही। वह अपनी पत्नियों और बच्चे के साथ मगध वापस लौट आया और ख़ुशी-ख़ुशी राजकाज करने लगा।

मुनि चण्डकौशिक के वरदान के कारण बच्चा काफ़ी बलशाली हुआ लेकिन उसका शरीर चूंकि दो टुकड़ों के मिलने से बना था, इसलिए कभी भी अलग हो सकता था। वही बच्चा जरासंध के नाम से मशहूर हुआ। वह अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध था। उसके जैसा बलशाली उन दिनों दूसरा कोई नहीं था। अथाह बल के कारण उसमें मद और गुरूर आना स्वाभाविक ही था। उसने आस-पास के कई राजाओं को पराजित कर अपने अधीनस्थ बना लिया था। जरासंध ने कृष्ण के मामा और मथुरा के राजा और महाराज उग्रसेन के लड़के कंस के साथ वैवाहिक संबंध क़ायम किया था। उससे जरासंध ने अपनी दोनों बेटियों अस्ति और प्राप्ति की शादी की थी। समय के साथ कंस को श्री कृष्ण ने उसके पापों की सज़ा देते हुए वध कर डाला। उसकी मृत्यु के बाद कंस की दोनों विधवा पत्नी, अस्ति और प्राप्ति अपने पिता जरासंध के घर पहुंची। दोनों रानियों ने कंस की मृत्यु और उसके बाद के हाल का विवरण अपने पिता को सुनाया। यह सब सुनकर मगधराज जरासंध शोकाकुल हो गया। उसने पृथ्वी को यदुवंशियों से रहित करने का निश्चय किया। उसने अपनी सेना के साथ मथुरा पर आक्रमण करने की योजना बनानी शुरू कर दी। उसने अपनी तेरह अक्षौहिणी सेना के साथ यदु राजाओं की राजधानी मथुरा पर आक्रमण कर दिया। जरासंध की विशाल सेना को देख मथुरावासी भय से व्याकुल हो गए। श्रीकृष्ण की सेना छोटी-सी थी। फिर भी श्रीकृष्ण और बलराम उसके समक्ष डट गए। दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हुआ। जरासंध के सभी सैनिकों का बध हो गया। श्रीकृष्ण ने जरासंध को मुक्त कर दिया। अपमानित होकर जरासंध लौट आया और फिर से श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए शक्ति एकत्र करने लगा। जरासंध ने मथुरा पर सत्रह बार आक्रमण किया, हर बार उसकी हार हुई। हर बार उसे अपमानित होना पड़ता, हर बार उसे बंदी बनाया जात और छोड़ दिया जाता।

कुछ समय बाद जरासंध ने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर मथुरा पर फिर से आक्रमण कर दिया। श्रीकृष्ण इस अठारहवें आक्रमण से मथुरा की रक्षा करना चाहते थे। बार-बार के आक्रमण से मथुरावासी वैसे ही काफ़ी परेशान थे। सैनिकों के और अधिक बध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्ध किए बिना ही रणक्षेत्र छोड कर चल दिए। दरअसल जरासंध की विशाल सेना से वे तनिक भी भयभीत नहीं थे, वे तो एक साधारण मानव होने का अभिनय कर रहे थे। बिना कोई शस्त्र लिए वे रणक्षेत्र से पैदल चले गए। इसी लिए उन्हें रणछोड़ भी कहा जाता है। जरासंध ने सोचा कि श्रीकृष्ण और बलराम उसकी सैन्य शक्ति से भयभीत हो गए हैं। लेकिन श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं में से यह भी एक लीला थी।

पैदल चलते-चलते श्रीकॄष्ण और बलराम बहुत दूर चले आए। अपनी थकान को दूर करने एवं विश्राम हेतु वे एक काफ़ी ऊंचे पर्वत पर चढ़ गए। इस पर्वत पर लगातार वर्षा होती रहती थी, इसी लिए इस पर्वत को प्रवर्षण कहा जाता था। जरासंध जो उनका पीछा कर था ने सोचा कि दोनों भाई उससे डर कर पर्वत शिखर पर छिप गए हैं। उसने दोनों भाईयों को ढूंढ़ने की काफ़ी कोशिश की,किंतु उसे सफलता हाथ नहीं लगी। उसने शिखर के चारों ओर तेल डाल कर आग लगा दी। जब आग चारों ओर तेज़ी से फैलने लगी रो दोनों भाई पर्वत से काफ़ी दूर नीचे धरती पर कूद गए। वे जरासंध की आंखों से ओझल होकर सुरक्षित काफ़ी दूर निकल गए। जरासंध ने सोचा कि दोनों भाई जलकर भस्म हो गए। वह अपनी राजधानी मगध लौट आया। इधर श्री कृष्ण को मथुरा छोड़कर दूर द्वारका में जाकर रहना पड़ा।

उन दिनों इन्द्रप्रस्थ में पांडव राज कर रहे थे। उनका राज-काज अपनी न्यायप्रियता के मशहूर था। युधिष्ठिर के भाईयों की इच्छा हुई कि राजसूय यज्ञ कर सम्राट का पद धारण किया जाए। सलाह-मशवरा के लिए श्री कृष्ण को संदेश भेजा गया। संदेश पाकर श्री कृष्ण द्वारका से इन्द्रप्रस्थ पहुंचे। युधिष्ठिर को भरोसा था कि श्री कृष्ण सही सलाह देंगे। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और उनके भाईयों को बताया कि मगध के राजा जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर उन्हें उन्हें अपने वश में कर रखा है। चारो तरफ़ उसने अपनी धाक जमा रखी है। यहां तक कि शिशुपाल जैसे पराक्रमी राजा ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। अतः बिना जरासंध को रास्ते से हटाए सम्राट पद पाना दूर की बात है। आज तक जरासंध किसी से नहीं हारा है। उसके जीते-जी तो राजसूय यज्ञ सफल हो ही नहीं सकता। इसलिए उसको रास्ते से हटाना होगा, उसका वध करना होगा। साथ ही श्रीकृष्ण ने उन्हें आगाह किया कि राजा जरासंध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। उसकी शारीरिक शक्ति दस हज़ार हाथियों की शक्ति के समान है। अगर कोई व्यक्ति है जो इसे हर सकता है तो वह भीमसेन है, क्योंकि वह भी दस हज़ार हाथियों की शक्ति रखते हैं। हां, उसे सैन्य बल से हराना कठिन होगा, इसलिए हमें चालाकी से काम लेना होगा।

इधर युधिष्ठिर ठहरे न्याय-प्रिय और शान्तिप्रिय राजा। श्रीकृष्ण की बातें सुनकर युधिष्ठिर ने सम्राट बनने का विचार त्याग दिया। उनका मानना था कि जो पद मिल ही नहीं सकता उसके बारे में सोचना ही बेकार है। जब स्वयं श्रीकृष्ण ही उसके भय से मथुरा छोड़कर चले गए तो उस पराक्रमी के सामने उनकी ख़ुद की क्या हस्ती है। इतना विनम्र बनना और नरम रुख अख्तियार करना भीम को नहीं भाया। उसने कहा कि हमें प्रयास तो अवश्य ही करना चाहिए। हमें हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए। यह तो कायरों का गुण है। हमें कोई न कोई युक्ति निकालनी ही होगी। हमारे साथ श्री कृष्ण की नीति कुशलता है, मेरा बल है और अर्जुन का शौर्य है। यह सब मिल जाए तो मुझे पूरा भरोसा है कि हम जरासंध की शक्ति पर क़ाबू पा सकते हैं। अर्जुन ने भी भीम का समर्थन किया और कहा कि जिस काम को हम कर सकते हैं उसे हमें ज़रूर करना चाहिए। अंत में निश्चय हुआ कि जरासंध का वध करना उनका कर्तव्य है। किन्तु श्री कृष्ण ने उन्हें आगाह किया कि उसपर हमला करना बेकार है, उसे तो मल्ल युद्ध में ही हराया जा सकता है। राजा जरासंध ब्राह्मणों के प्रति समर्पित है और उनका अत्यन्त आदर करता है। वह ब्राह्मणों का कोई निवेदन अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए हमे ब्राह्मण के वेश में जरासंध के पास जाकर भिक्षा मांगनी चाहिए। और फिर भीमसेन को उसके साथ युद्ध में लगना चाहिए।

भीम, अर्जुन और श्रीकृष्ण ने एक साथ वेश बदल कर ब्राह्मण का रूप धारण किया। जब वे राजगृह में प्रवेश किए, तो उन्होंने ब्राह्मणों का वेश धारण किया हुआ था। उनके हाथ में कुश था। निःशस्त्र और वल्कल धारण किए अतिथि को ब्राह्मण समझ जरासंध ने उनका आदर के साथ स्वागत-सत्कार किया। जरासंध के स्वागत-सत्कार के जवाब में सिर्फ़ श्री कृष्ण ही बोले, भीम और अर्जुन चुप रहे। श्री कृष्ण ने बताया कि उनका मौन व्रत है जो आधी रात के बाद ही खुलेगा। जरासंध ने तीनों अतिथियों को यज्ञशाला में ठहराया और वापस अपने कहल में चला गया। जब आधी रात हुई तो वह अतिथियों से मिलने गया, तो वहां उसे यह देख कर ताज़्ज़ुब हुआ कि उनकी पीठ पर ऐसे चिन्ह हैं जो धनुष की डोरी से पड़ते हैं। धनुष उठाने की वजह से उनके कन्धों पर दबाव के निशान थे। उनके शरीर सुडौल थे। उसने दृढ़तापूर्वक निष्कर्ष निकाला कि ये तो ब्राह्मण नहीं है। उसने कहा तुम लोग तो ब्राह्मण नहीं दिखते, सच बताओ, कौन हो तुम लोग? इस पर सच बताते हुए उन लोगों ने कहा कि हम तुमसे द्वन्द्व युद्ध करने आए हैं। उन्होंने अपना परिचय भी दिया।

उन दिनों यह प्रथा थी कि किसी क्षत्रिय को कोई द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनती देता तो उसए उसकी चुनौती स्वीकार करनी पड़ती थी। जरासंध ने उनका प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा, “मूर्खों! यदि तुम मुझसे लड़ना चाहते हो तो मैं तुम्हारा निवेदन स्वीकार करता हूं। किंतु अर्जुन तो बच्चा है, इसलिये उससे लड़ने का सवाल ही नहीं है। और मैं जानता हूं कि तुम कायर हो। तुम मुझसे लड़ते समय घबड़ा जाते हो। मेरे डर से तुम मथुरा छोड़कर भाग गए। इसलिए मैं तुमसे युद्ध करने से इंकार करता हूं। जहां तक भीमसेन का प्रश्न है, तो मैं सोचता हूं कि मुझसे लड़ने के लिए वह उपयुक्त प्रतिस्पर्धी है।

अखाड़े में भीम और जरासंध के बीच कुश्ती शुरु हुआ। उनको देखकर ऐसा लगता था कि दो हाथी युद्ध कर रहे हैं। तेरह दिन तक लगातार दोनों में मल्ल युद्ध होता रहा। दुर्भाग्य से वे आपस में किसी को भी पराजित नहीं कर सके, क्योंकि दोनों इस कला में निपुण थे। चौदहवें दिन जरासंध थोड़ी देर के लिए अपनी थकान मिटाने के लिए रुका। यह देख श्री कृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया। भीमसेन ने जरासंघ को उठाकर ज़ोर से चारो ओर घुमाया और ज़मीन पर पटक कर उसके दोनों पैर पकड़ कर बीच से चीर डाला। जरासंध को मरा हुआ समझ कर भीम अपनी जीत का उल्लास मना ही रहा था कि उसके चिरे हुए टुकड़े आपस में जुट गए और वह खड़ा होकर फिर से लड़ने लगा।जरासंध_वध

अब समस्या थी कि जरासंध को कैसे हराया जाए? श्री कृष्ण ने भीम को फिर इशारे में समझाया। उन्होंने एक तिनका उठाया। उसे बीच से चीरा। उन्होंने दायें हाथ के टुकड़े को बाईं ओर और बाएं हाथ के टुकड़े को दाईं ओर फेंक दिया। अब बात भीम को समझ में आ गई। उसने दुबारा जरासंध के शरीर को चीर डाला और दोनों हिस्सों को एक दूसरे के विपरीत दिशाओं में फेंक दिया। अब टुकड़े आपस में नहीं जुड़ सके। इस प्रकार उसने जरासंध को हराया और उसे मार डाला। बंदीगृह के सभी राजाओं को कैद से आज़ाद कर दिया गया। जरासंध के बेटे सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बिठाकर वे इन्द्रप्रस्थ लौट आए।

समाप्त

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी जानकारी दी सर .....बगल में रहकर भी इतना नहीं जानता था ..आभार ....

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  2. मगध के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है जरासन्ध वध!! और आपने इसे विस्तार से बताया है.. राजगीर जाने वाले इसे बस एक दर्शनीय स्थल की तरह देखकर चले आते हैं, लेकिन आप जैसे खोजी उसके इतिहास से परिचय कराते हैं, ऐसे में हमारे देखने का नज़रिया भी ऐतिहासिक हो जाता है!!

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  3. ह्रदय से आभारी हूँ इस पोस्ट के लिए...
    बेहद रोचक तरीके से लिखा है....
    शुक्रिया
    अनु

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  4. स्थान देख आये हैं पर सारी कथा आज ही पता चली।

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  5. बड़े रोचक ढंग से आपने प्रस्तुत किया !
    नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
    नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
    नई पोस्ट नया वर्ष !

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  6. शुभकामनायें आदरणीय-
    खूबसूरत प्रस्तुति-

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  7. फ़ुरसत में अच्छी प्रस्तुति...

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  8. जरासंध वध का विस्तृत विवरण...धन्यवाद...

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  9. खोजी और ऐतिहासिक रोचकता बरकरार रखते हुए लिखी लाजवाब पोस्ट ...

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