(एक लंबी कविता)
चींटियों को भी हो जाता
मौत के पहले ही एहसास
अब उनकी आयु पहुंच गई है
खतम होने के आस-पास
उस समय जगती है उनकी भीतरी प्रेरणा
कि ज़िन्दगी के दिन बचे हैं अब
बहुत थोड़े से
हो जाती हैं आमादा वे करने को काम
और भी भारी
यानी
चींटियां उम्र के अनुसार
बदलती रहती हैं अपना काम
और उसकी रफ़्तार
चींटी
नाम तो सुना ही होगा आपने
पड़ा होगा वास्ता
गली, कूचा, रास्ता
लाल छींटी
काली चींटी
काट-काट लहरातीं
हरी-भरी फसलें, चट कर जातीं
बाहर-तो-बाहर डब्बों में घुस कर
कर देतीं बरबादी
इनकी बढ़ी हुई आबादी
हर तस्वीर का होता रुख एक सुनहरा
किसानों की दोस्त ये
परागण कर देतीं फसलों को सहारा
यह ‘हिमेनोप्टेरा’
न तेरा, न मेरा
सबका, सामाजिक कीड़ा
राम की सीता, कृष्ण की मीरा
राधा किशन की
पक्की जो धुन की
सर्वव्यापी स्वरूप
गृष्म, शीतल, छांव, धूप
शहर, गांव, जंगल, जहान
पर्वत, पहाड़, खेत, खलिहान
लाल, भूरी, धूसर, काली
छोटी, बड़ी,
बे-पर, पंखों वाली
दीवारों पर, दरारों में
बारिश के पहले, वर्षा की फुहारों में
मेवे पर, फलों पर
सूखे पर, सड़े-गलों पर
ज़मीन पर, पत्तों पर,
भूसे के ढेर में
डंठल में यहां वहां
न जाने कहां कहां
अकले ही चल देतीं
चलती हुजूमों में
पौधों के बीज खाती
फंगस सी चीज़ खाती
फूलों के पराग खाती
मधु पीकर भाग जातीं
सोशल हैं, कोलोनियल हैं
प्राणी यह ओरिजिनल हैं
ज़मीन के नीचे बनाती हैं घोंसला
नहीं कोई ताम-झाम, नहीं कोई चोंचला
अलग-अलग रूप
अलग-अलग काम
बांझ मादा ‘वर्कर’ कहलातीं,
बे-पर के ‘सोल्जर’ बन
दुश्मन के छक्के छुड़ातीं
उपजाऊ कोख जिनकी
‘रानी’ कहलातीं हैं
न्यूपिटल फ़्लाइट में
‘नर’ का दिल बहलाती हैं
फेरोमोन छिड़क-छिड़क
प्रकृति की ताल पर थिरक-थिरक
करती आकर्षित अपने साथी को
नाक दम कर देती विशाल हाथी को
न्यूपिटल फ़्लाइट में मिलन जो होता
बनता है कारण प्रियतम की मौत का
रानी त्याग पंख
प्रिय का वियोग मनाती है
अंडे दे-दे कर
दुनिया नई बसाती है
वर्कर भी आ जाती
सोल्जर भी आ जाती
होती बच्चों की मिलकर रखवाली
रानी को जो ‘धन’ मिला था नर से
करती संचय उसका जतन से
उसके ही बल पर
जीवन भर
देती रहती अंडे
जो लेते फिर से रूप
चींटी का
उम्र के साथ
आता है बदलाव
शारीरिक
न सिर्फ़ चींटियों में
इंसानों में भी
बदलते शारीरिक गठन से
चींटियां कर लेती हैं
काम का बंटवारा
चीटियों की होती हैं बस्तियां
अलग-अलग हस्तियां
अलग-अलग नाम
अलग-अलग काम
चीटियां
अपनी बची हुई आयु का
लगाकर अनुमान
करती हैं अपना बचा हुआ काम
संभावित मौत का लगाकर अंदाज़ा
बढ़ जाती उनकी सक्रियता
चींटियां
अपने लक्ष्य के प्रति
सदैव रहती हैं अग्रसर
बाधा यदि आ जाए
राह में उनकी कोई
तो उस बाधा को पार
करती हैं डंटकर
बदलती नहीं इरादे कभी
रास्ते से हटकर
देखती न मुड़कर
हटती नहीं पीछे
दिखता उन्हें तो
लक्ष्य
लक्ष्य
बस लक्ष्य!!
जो हम बन जाते चींटी
त लक्ष्य तक पहुंचना
हमें भी होता आसान
चींटीयां
गर्मी के मौसम में ही
सर्दियों का खाना
कर लेती इकटठा
ताकि
मुसीबत में मांगनी न पड़े
किसी से मदद
करना न पड़े
विकट घड़ी में
सामना परेशानियों का
उन्हें मालूम होता है
अच्छा समय
सदैव अच्छा नहीं रहता
दुख, विकट घड़ी का सामना
हर किसी को करना पड़ता है
चींटियां
देतीं हैं सीख
अच्छे दिनों में
ख़ुदपर अत्यधिक गुरूर
का बोझ लिए इंसान
टूट ही जाता है अकसर
चींटियां
देतीं हैं नसीहत
अच्छा या बुरा हो वक़्त
हमें
व्यवहार सदैव एक-सा रखना चाहिए
चींटियां
देतीं हैं तज़ुर्बे
निष्ठा से
लगन से
काम के लिए करें ख़ुद को तैयार अगर
मिलेगी हालात से लड़ने की ताक़त बेहतर
चींटियां
हमें देती हैं ज्ञान
जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान
मिलता जब उन्हें शक्कर का ढ़ेर
उठातीं बस उनमें से दाना वह एक
जितने की ज़रूरत बस उतना ही लिया
बाक़ी सब दूसरों के लिए छोड़ दिया
चींटियां
हमें समझातीं
जितनी है ज़रूरत, बस उतना ही लो
बटोरने से पहले अपनी क्षमता देख लो
चींटियां
कहती हैं हमसे
जो कमी है,
करें उसे दूर पहले
फिर जो चाहिए
प्रयत्न करें उसे पाने का
***