फ़ुरसत में ... 122
मोती की याद!
मनोज कुमार
पशु-पक्षियों की भी अपनी भाषा होती है। उनका भी अपना एक संप्रेषण सिद्धान्त होता ही होगा। जब संप्रेषण होगा, तो नामकरण भी वे कर ही लेते होंगे। वैसे तो प्रकृति द्वारा ये जीव स्वतंत्र विचरण और स्वच्छंद जीवन के लिए रचे गए हैं, लेकिन हम मनुष्य उन जीवों की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का हरण कर उन्हें पालतू बना लेते हैं, और अपनी सुविधा और रूचि के अनुरूप उनका नाम तय कर देते हैं।
जब हम छोटे थे, तो पालतू पशुओं की संख्या और जाति/ प्रजाति बड़ी सीमित हुआ करती थी। गाएँ और भैंसें – बकरी – घोड़े आदि तो इतने पालतू होते थे कि यदा-कदा परीक्षाओं में हमारे पाठ्यक्रम में निबन्ध के विषय होते थे। बिल्लियों ने तब सामाजिक प्राणी होने का दर्ज़ा तो प्राप्त कर लिया था, लेकिन उन्हें घर में प्रवेश की खुली आज़ादी नहीं मिली थी। चोरी छिपे उनके प्रवेश को भी बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता था, और कुछ विशेष पेय पदार्थों को सिक्के के ऊपर रखा जाता ताकि वह उनकी पहुंच से दूर हो। कुत्ते तो सही अर्थों में कुत्ते ही थे, और गली तक ही सिमट कर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते रहने का पर्याय बने रहते थे। आम तौर पर गली में फेंके हुए दानों पर निर्भर रहने वालों कुत्तों में से एकाध कुत्ता या उसका पिल्ला कभी कभार हमारे साथ-साथ टहलते-टहलते हमारे घर तक चला आता, तो उसे घर के लोगों की विशेष कृपादृष्टि से कुछ खाने-पीने को भी मिल जाता। एक से अधिक बार इस क्रम के दुहराए जाने के पश्चात उसे मुफ़्त खाने की चसक लग जाती और उसका हमारे घर के समीप आने-जाने का क्रम बढ़ जाता। धीरे-धीरे उसे हमारे यहां आकर खाने की और हमें उसके आने की आदत हो जाती। अब इस आदत को आप पालतू बनाने की प्रक्रिया कहना चाहें तो कह लें! हां इस आने-जाने के क्रम में सहसा उसका नामाकरण भी हो जाता। उन दिनों अधिकांश ऐसे पालतू (फालतू अधिक उपयुक्त होगा) कुत्तों का नाम ‘मोती’ हुआ करता था!! आज के जैसे अनोखे और अलग (something different) नामों का प्रचलन तो उस दौर में था नहीं।
हम कुत्ते को कुत्ता ही कहते थे। बहुत प्यार हुआ तो ‘कुकुर’ भी कह लेते थे। आज अगर किसी पालतू कुत्ते को कुत्ता कह दीजिए तो कुत्ते से पहले उसका स्वामी भौंकेगा – उसे डौगी कहिए, नहीं तो वह बुरा मान जाएगा। और यदि आपने उसके स्वामी द्वारा रखा नाम लिया तो हो सकता वह आपके पैर चाटे या आपकी गोद में भी बैठ कर आपको कृतार्थ करे। इन पालतू जीवों के कई नाम जैसे बौस्की, टाइगर, जैक्सन, आदि प्रचलन में आकर पुराने हो चुके हैं। आज के इस दौर में मेरा भाई जयंत अपने पालतू कुत्ते को ‘घंसू’ कहता है। शायद वह भी ‘पुरातन युग’ में जी रहा है।
अपने छुटपन की बात है। ब्रह्मपुरा रेलवे कॉलोनी के अपने मकान के बारामदे से सड़क को जाती सीढ़ियों पर बैठा ‘अलुहा’ खा रहा था। तभी एक कुत्ते का पिल्ला कहीं से घूमता-फिरता आ गया। मेरी नज़र उस पर गई। बड़ी प्यारी-सी सूरत थी उसकी। ... सीरत भी ! एक-दो कुलांचे उसने भरी, तो हम उसके आकर्षण के बंधन में बंध गए। उसके कुछ करतबों के एवज़ में हमने ‘अलुहे’ का एक टुकड़ा उसे खिलाया। शायद उसे पसंद आया। उसने कई और करतब दिखाए। सबसे ज़्यादा मज़ा आया जब मेरे पैरों पर गिर-गिर कर वह लोट-पोट करने लगा। हम उसे अलुहा खिलाते गए, - वह हमारा होता गया।
उस दिन से ही अपनी प्यारी सूरत और मृदु व्यवहार के कारण वह हमारे घर का सदस्य बन गया। हमारे बालमन का उत्साह चरम पर था। उसके रहने की जगह निर्धारित की गई। उस जगह को ईंट से घेरा गया। नीचे चट्टी बिछाई गई। और जाड़े की ठंड से उसे बचाने के लिए बोरे का इंतज़ाम किया गया। जब बारी उसके नामकरण की आई तो ‘मोती’ से उपयुक्त कोई नाम हमें नहीं सूझा। इस तरह हम उससे निश्चिंत हुए।
निश्चिंत क्या हुए? पढ़ाई-लिखाई छोड़ हर तीसरे-चौथे मिनट हम उसे झांक आते। सोने के बीच उठ-उठ कर उसके दर्शन करते। किसी तरह रात बीती। सुबह उठा तो पाया कि घर में उस पिल्ले ने यत्र-तत्र मलमूत्र का त्याग करना शुरू कर दिया था। सफाई पसंद मां का सख़्त फरमान ज़ारी हुआ कि उसके द्वारा अपवित्र कर दी गई जगहों की सफाई मुझे करनी होगी। इस फरमान को मुझे अपने सिर माथे पर उठाना पड़ा। इस फरमान के कारण मेरे दैनिक कार्यों में इस एक काम का इज़ाफ़ा हुआ।
इस नए काम को अपनी प्रसन्नता का अंश बनाकर मैं निर्वाह किए जा रहा था। प्यारा-सा वह जीव हमारे दिन-रात का हिस्सा बना हुआ था। लेकिन एक नई मुसीबत सामने आई। रोटी-दूध आदि दिए जाने पर वह उन्हें हाथ लगाता ही नहीं था। उसके उदरपूर्ति की समस्या ने हमें चिन्तित कर दिया। समय से भोजन न पाने के कारण उसकी गतिविधियां कम हो गई थी। हम सब उसका समाधान ढूंढ़ने में व्यस्त हो गए। तभी मुझे कल का वाकया याद आया। वह तो अलुहे का दीवाना बन चुका था। हमने उसे फिर से अलुहा परोसा और वह उस पर टूट पड़ा। इसके साथ हमारे सामने यह चुनौती तो थी ही कि इसे इसके भोजन के स्वाद का परिवर्तन भी करवाना होगा।
एक दिन अपने स्कूल से जब सायं काल लौटा तो देखा कि घर का वातावरण गंभीर-सा है। घर का कोई सदस्य मुझसे बात नहीं कर रहा है। मैं सबसे पहले मोती के आश्रय स्थल पर पहुंचा। वह वहां नहीं था। घर-आंगन छान मारा, वह कहीं नहीं दिखा। घर के लोगों के द्वारा सूचना मिली कि वह भाग गया है। मुझे इस पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। मेरे ज़ोर देने पर लोगों ने बताया कि दिन में घर में मछली बनी थी। जूठन जहां फेंका जाता था वहां पर मोती गया। फेंके गए जूठन में मछली के अंश भी थे। उसका स्वाद उसे भा गया। वह उसे ग्रहण करने लगा। थोड़ा-सा खाने के बाद वह ‘कूं-कूं’ करते इधर-उधर दौड़ने लगा। शायद मछली का कोई कांटा उसके गले में फंस गया था। उसने खून की उल्टी की और बेचारा दूसरी दुनिया के लिए कूच कर गया।
घर के वातावरण से उदासी के आवरण को छंटने में काफी समय लगा। घर के हरेक सदस्य ने यह प्रण किया कि अब इस प्राणी से उतना स्नेह नहीं किया जाएगा। लेकिन ‘होनी’ को कुछ और ही मंज़ूर था। ... फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी (सायं 4 से मध्यरात्रि 12) से घर लौटते वक़्त आधे रास्ते से ही एक श्वान पिताजी की साइकिल के पीछे-पीछे साथ हो लिया। घर तक उसने उनका साथ नहीं छोड़ा। जब पिताजी साइकिल के साथ घर के अन्दर प्रवेश कर रहे थे, तो वह ओसारे के किनारे बैठ गया। पिताजी ने उसे भगाना उचित नहीं समझा होगा। ख़ुद के लिए निकाले गए भोजन में से एक रोटी उसे दी, तो वह उस पर ऐसे टूटा मानों कई दिनों से भूखा हो। अपने हिस्से की रोटियों में से आधे से ज़्यादा उस श्वान को खिला बाक़ी ख़ुद खा सोने चले गए। सुबह उठे, तो देखा वह अतिथि श्वान हमारे गार्डेन में चहलकदमी कर रहा है। बिना किसी फूल-पत्तियों को नुकसान किए उस प्राणी का हमारी बगिया में स्वतंत्र भाव से विचरण करते देख हमें उसके प्रति आकर्षण हुआ। सुबह के नाश्ते में बनी रोटी के एक भाग पर मानों उसका भी अधिकार हो। मां के हाथों परोसी गई रोटियां खाकर व तृप्त हो कुछ देर के लिए वह गायब हो गया। दोपहर के भोजन के वक़्त वह फिर हाज़िर था।
इस प्रकार अनायास ही वह हमारे घर का सदस्य बन गया। नामकरण उसका भी मोती ही हुआ। हम उसके साथ खेलते, वह हमारे साथ। रात्रि के समय घर की पहरेदारी करता। अनजान आने-जाने वाले पर भौंकता भी। वह हमारे घर से प्राप्त आहार को छोड़कर कहीं से कुछ भी दिए गए पदार्थ को स्पर्श नहीं करता। उसके कई इसी तरह के व्यवहार उसे गली के अन्य कुत्तों से अलग करते। परिवार के सभी सदस्यों से घुल मिल जाने के बावज़ूद उसने ओसारे की लक्ष्मण रेखा लांघने की कोशिश तक नहीं की। भूख की व्याकुलता में भी वह अपने लिए निर्धारित मिट्टी के पात्र में भोजन परोसे जाने की प्रतिक्षा करता।
कुछ ही दिनों में वह हमारे दिल के क़रीब हो गया था। पिताजी की जब लास्ट नाइट ड्यूटी (मध्यरात्रि 12 से सुबह 8) होती तो वह उन्हें रेलवे कॉलोनी के बाहर तक छोड़ आता – खासकर उस इलाक़े के बाद तक जहां श्मशान होता था। फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी में उन्हें उस सीमारेखा से रिसीव कर घर तक लाता। उस दिन पिताजी की फ़र्स्ट नाइट की ड्यूटी थी। वे साढ़े बारह तक घर पहुंचे थे। खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे कि एक सज्जन दरवाज़े के पास प्रकट हुए। मोती के भौंकने की आवाज़ थम नहीं रही थी। उन सज्जन ने पिताजी से शिकायत की कि आपने कैसा कुत्ता पाल रखा है? मेरे ऊपर भौंके ही जा रहा है। कुछ काम की थकान कुछ नींद की वजह से पिताजी पहले ही परेशान थे। उसपर से बेवजह इस आई शिकायत से वे कुछ खिन्न हुए। मोती को चुप रहने का आदेश दिया। पर घर का वह रखवाला उस दिन किसी की सुनने के मूड में नहीं था। उसके लगातार भौंकने के दुस्साहस ने नींद से बोझिल पिताजी के मन को क्रोधित किया। पिताजी ने गुस्से में आकर मोती पर छड़ी से वार किया और उसे भाग जाने को कहा। मोती वहां से चला गया। वे सज्जन अपने क्रोधयुक्त स्वरों को और तेज़ करते अपनी नसीहतों का पिटारा देते हुए चले गए। पिताजी भी सोने चले गए।
सुबह पिताजी जब सैर करने निकले तो लगभग पांच का समय था। रेलवे लाइन के किनारे सड़क थी। उसी पर वे सुबह की सैर करते थे। थोड़ी दूर पर कुछ लोगों की भीड़ थी। निकट पहुंचने पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पूछा, “क्या बात है?” किसी ने बताया – .. आपका मोती ... ।
पिताजी ने निकट जाकर देखा ... मोती का धड़ पटरी के इस पार और सिर उस पार था।
हम समझ नहीं पाए कि वह दुर्घटना थी या आत्महत्या! लेकिन उसके इस बलिदान को हम आज तक भूल नहीं पाए हैं। उनकी वफ़ादारी तो जगज़ाहिर है, पर कुत्ते में इतनी संवेदनशीलता हो सकती है यह हमें अचंभित किए दे रही थी।
अति संवेदनापूर्ण - महादेवी जी के संस्मरणों की याद दिला गया !
जवाब देंहटाएंकुत्ते हमेशा ही वफादार और संवेदनशील होते हैं ... मालिक की बातों का पालन करते हैं ... ऐसे कई उदहारण हैं की मालिक के जाने पर पालतू कुत्ते खाना तक छोड़ देते हैं ... अच्छा लगा आपका संस्मरण ...
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अति संवेदनापूर्ण आलेख..
जवाब देंहटाएंलगता ही नहीं कि यह किसी मूक पशु की कथा है. बेहद संवेदनशील!
जवाब देंहटाएंये मोती लोग भी न ...... आदमी की ज़िन्दगी में ऐसे घुस जाते हैं जैसे जनम-जनम का बन्धन रहा हो .....।
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाला संस्मरण...
जवाब देंहटाएंओह .... यह संस्मरण तो आँखों में नमी ला गया .
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